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कर्मकाण्ड

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भूतडामर तन्त्र पटल १०

भूतडामर तन्त्र पटल १०        

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल ९ में भूतिनी साधन को दिया गया, अब पटल १० में ब्रह्मादिमारण, अप्सरा साधन का वर्णन हुआ है।

भूतडामर तन्त्र पटल १०

भूतडामरतन्त्रम् दशम: पटल:

Bhoot Damar tantra patal 10

भूतडामर तन्त्र पटल १०         

भूतडामरतन्त्र दसवां पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ दशमं पटलम्

उन्मत्त भैरव्युवाच

कालवक्त्र ! महाभीम ! प्रमथेश ! त्रिलोचन ! ।

ब्रह्मादिमारणं ब्रूहि यदि तुष्टोऽसि भैरव ! ॥ १ ॥

उन्मत्तभैरवी कहती हैं- हे कालवक्त्र ! महाभीम ! प्रमथेश ! त्रिलोचन ! भैरव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ब्रह्मादि देवों के मारण का उपाय कहें ॥१॥

उन्मत्तभैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यसाध्यं येन सिध्यति ।

मारणं ब्रह्ममुख्यानां भूतप्रत्ययकारकम् ।

प्रालेयं हनयुग्मश्व सर्व मारय मारय ।

वज्रज्वालेन कूर्चास्त्रमयं मन्त्रः सुरान्तकः ।

त्रिशत्सहस्रजापेन वज्रज्वालाकुला दिशः ।

अदूरे बहुशस्त्रस्योच्चाराद् ब्रह्माजशङ्कराः ।

शक्राद्या लौकिका देवा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।

एषां स्त्रियो विनाशत्वं खण्डखण्डं समागताः ।

बोधिसत्वं मुहुः प्राहुविस्मिताः सर्वदेवताः ।

प्रणिपत्य सकृद्देवानस्माकं निग्रहं कुरु ।

वयं सिद्धि प्रयच्छामो जम्बूद्वीपे कलौ युगे ।

दुःशीलपापयुक्तेभ्योऽन्यथा जहि सुरान्तक ! ।

तथेत्युक्त्वा वज्रपाणिर्ब्रवीति भूतिनीमनुम् ॥ २ ॥

उन्मत्तभैरव कहते हैं- मैं ब्रह्मादि के मारण का मन्त्र कहता है। इससे असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाता है। ॐ हन हन सर्व मारय मारय वज्रज्वालेन हुं फट्' यह मन्त्र समस्त देवताओं के लिए यम के समान मृत्युदायक है। इसे ३०००० जपने से सभी दिशाएँ वज्रज्वाला से व्याकुल हो उठती हैं। ब्रह्मा महादेव-विष्णु-इन्द्रादि देवगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर तथा इनकी स्त्रियों का भी विनाश हो जाता है। इस प्रकार का मन्त्र कहने पर देवगण विस्मित होकर क्रोधराज को प्रणाम करके कहते हैं कि हम कलिकाल में जम्बूद्वीप के निवासियों को सिद्धि प्रदान करेंगे ।। २ ।।

प्रालेयं श्रीशशीदेव्या ह्यनादिश्रीतिलोत्तमा ।

सानादीं श्रीं मनुं स्मृत्वा युक्तं काश्वनमालया ।

विषं श्रीवर्मसंयुक्तमाभाष्य कुलहारिणी ।

तारं वर्मसमायुक्तां रत्नमालेति पञ्चमीम् ।

तां स इति रम्भाख्यां विषं श्रीमुर्वशी परा ।

अनादिबीजमाभाष्य भूषण्युक्त्वाप्सरः क्रमात् ।

क्रोधं नत्वा प्रवक्तव्यं यथा संसिद्धिसाधनम् ॥ ३ ॥

ॐ श्रींशशी देवी । ॐ श्रीं तिलोत्तमा । श्रीं ह्रीं काञ्चनमाला । ॐ श्रीं हूं कुलहारिणी । ॐ हुं रत्नमाला । ॐ हुं रम्भा । ॐ श्रीं उर्वशी । ॐ रमाभूषणी । क्रोधभैरव को नमस्कार करके इन समस्त भूतिनी साधन मन्त्रों को मैंने कहा है ।। ३ ।।

शैलशृङ्गं समारुह्य जपेल्लक्षं समाहितः ।

पौर्णमास्यां समभ्यर्च्य घृतदीपं निवेदयेत् ।

प्रजपेत् सकलां रात्रिमायाति रजनीक्षये ।

चन्दनार्येण सन्तुष्टा वरं वरय वक्ति सा ।

कामिता सा भवेद्भार्या प्रयच्छति रसायनम् ।

सहस्रवत्सरं पाति शशी दद्याद् यथेप्सितम् ॥ ४ ॥

पहाड़ की चोटी पर बैठकर साधक १ लाख मन्त्र जपे । अन्त में पूर्णिमा तिथि को अर्चना करके घी का दीपक जलाकर देवी को समर्पित करे । समस्त रात्रि में जप करने पर रात्रि के अन्त में देवी आती हैं। उन्हें तत्काल चन्दन का अर्घ्यं प्रदान करे । इससे देवी सन्तुष्ट होकर साधक से वर माँगने को कहती हैं । शशीदेवी भार्या बनकर इच्छा के अनुरूप रसायन द्रव्य देती हैं और सहस्र वर्षों तक साधक का पालन करती हैं ॥ ४ ॥

जपेदयुतमानन्तु क्षीराशी सप्तवासरान् ।

चन्दनेन विधायाथ मण्डले सप्तमे दिने ।

सम्पूज्य शक्तितः शुक्लाष्टम्यां पर्वतमूर्द्धनि ।

प्रजपेत् सकलां रात्रि समायाति निशाक्षये ।

आगत्य पुरतस्तिष्ठेत् स्मितवक्त्रोत्तमस्तनी ।

चुम्बत्यालिङ्ग्यत्याशु भार्या भवति कामिता ।

राज्यं यच्छति सन्तुष्टा त्रिदिवं दर्शयत्यपि ।

पञ्चवर्षसहस्रन्तु भुक्त्वा भोगमनुत्तमम् ।

मृते राजकुले जन्म प्रयच्छति तिलोत्तमा ।

अन्यथा म्रियते शीघ्र विपरीतं कृते सति ॥ ५ ॥

साधक केवल दुग्ध पीकर सात दिन तक १०००० जप करे। सातवें दिन चन्दन का मण्डल बनाकर शक्ति के अनुसार पूजन करे । शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को पर्वत-शिखर पर चढ़कर जप करे। समस्त रात्रि जप करने पर रात्रि के अन्तिम भाग में देवी प्रकट होती हैं। वे साधक की भार्या बनकर चुम्बन-आलिंगन करके राज्य प्रदान करती हैं। तदनन्तर साधक को स्वर्ग दिखलाती हैं। इस प्रकार ५००० वर्षों तक साधक विविध भोग भोगकर मृत्यु के अनन्तर राजकुल में जन्म लेता है ॥ ५ ॥

नीचगासङ्गमं गत्वा मण्डलं चन्दनेन च ।

धूपं दत्त्वाऽगुरुञ्चैव बलिश्वापि प्रदापयेत् ।

जपेदष्टसहस्रन्तु नित्यं सप्त दिनावधि ।

सप्तमे दिवसे पूजां कृत्वा धूपं प्रदापयेत् ।

प्रजपेत् सकलां रात्रि समायाति निशाक्षये ।

चन्दनार्येण सन्तुष्टा वरं वरय वक्ति सा ।

साधकेनापि वक्तव्यं मातृवत् परिपालय ।

वस्त्रालङ्करणं भोज्यं साधकेभ्यः प्रयच्छति ॥ ६ ॥

किसी नदी संगम के तट पर चन्दन द्वारा मण्डल बनाकर अगरु की धूप देकर बलि प्रदान करे। ७ दिन तक प्रतिदिन ८००० जप करे। सातवें दिन जपान्त में पूजा करके धूप प्रदान करके रात्रि में पुनः मन्त्र का जप करे । रात्रि के अन्त में जब देवी उपस्थित होती हैं, तब उन्हें तत्काल चन्दन का अर्ध्य देना चाहिए। इससे देवी प्रसन्न होकर वर माँगने को कहती हैं । तब साधक कहे - हे देवी! माता की भाँति मेरा पालन करो। तदनन्तर देवी साधक को वस्त्र, अलंकार तथा भोज्यवस्तु देती हैं ॥ ६ ॥

न तिथिर्न च नक्षत्रं नोपवासो विधीयते ।

नदीतीरं समास्थायायुतं मासं जपेन्मनुम् ।

धूपं दत्त्वा समभ्यर्च्य पुनारात्री जपेत्ततः ।

अर्धरात्रे समायाति प्राग्वदयं प्रदापयेत् ।

कामिता सा भवेद्भार्या प्रत्यहं सम्प्रयच्छति ।

दीनाराणां लक्षमेकं सिद्धिद्रव्यं रसायनम् ।

दर्शयेत् पृष्ठमारोप्य त्रिदिवं कुलहारिणी ॥ ७ ॥

किसी तिथि तथा नक्षत्र की विवेचना न करके नदी के तट पर बैठकर दश हजार मन्त्र का जप करे। इसमें उपवास करने की भी आवश्यकता नहीं है। एक मास पर्यन्त जप करके धूपदान करके रात्रि में पुनः जप करे। इस प्रकार अर्धरात्रि तक जप करने पर देवी आती हैं। तत्क्षण साधक उन्हें अर्घ्य प्रदान करे । इससे देवी प्रसन्न होकर साधक की पत्नी होकर रहती है तथा प्रतिदिन एक लक्ष सुवर्णमुद्रा तथा नाना रसायन द्रव्य प्रदान करके अपनी पीठ पर बैठाकर स्वर्गपुरी दिखलाती हैं ॥ ७ ॥

देवतायतनं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

मासमेकन्तु मासान्ते पौर्णमास्यां पुनर्जपेत् ।

समभ्यर्च्यार्द्धरात्रे तु श्रूयते नूपुरध्वनिः ।

समायात्यन्तिकं दद्यात् पुष्पासनमनुत्तमम् ।

किमिच्छसि वद त्वं मे भव भार्येति साधकः ।

भार्याकर्म करोत्येवं भोज्यं यच्छति कामिकम् ।

पाति वर्षसहस्राणि रत्नमाला मनोरमा ॥ ८ ॥

साधक किसी देवालय में जाकर आठ हजार जप करे। ३० दिन जप करने पर मासान्त की पूर्णिमा से पुनः जप आरम्भ करे। विविध अर्चना करने के बाद आधी रात में नूपुर-ध्वनि सुनाई देती है। कुछ समय के पश्चात् देवी उपस्थित होती हैं, तब उन्हें पुष्पों का आसन प्रदान करे। इससे देवी प्रसन्न होकर साधक से उसकी इच्छा पूछती हैं। तब साधक उनसे कहे- 'आप मेरी भार्या बनें' । इस प्रकार की सिद्धि मिलने पर सुन्दरी रत्नमाला देवी भार्याकर्म करती हैं और वांछित भोज्य द्रव्य देती हैं। वे १००० वर्ष पर्यन्त साधक का परिपालन करती हैं ॥ ८ ॥

प्रतिपत्तिथिमारभ्य कृत्वा चन्दनमण्डलम् ।

धूपश्च गुग्गुलुं दत्त्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

त्रिसन्ध्यां पौर्णमास्यान्तु पूजां कृत्वा सुशोभनाम् ।

प्रजपेत् सकलां रात्रि समायाति निशाक्षये ।

कामिता सा भवेद्भार्या त्वन्यथा म्रियते ध्रुवम् ।

ददाति कामितं द्रव्यं भोज्यद्रव्यं रसायनम् ।

दशवर्षसहस्राणि जीवत्यन्ते मृते पुनः ।

जन्म राजकुले दद्यात् रम्भा क्रोधप्रसादतः ।। ९ ।।

पूजास्थान पर चन्दन से मण्डप बनाकर गुग्गुलु से धूपित करे। उसके बाद ८००० रम्भामन्त्र जपे, जिसे पहले कहा गया है। प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक जप करके पूर्णिमा को विविध उपहारों द्वारा तीनों सन्ध्याओं में पूजन करे और सम्पूर्ण रात्रि जप करे। रात्रि के अन्तिम भाग में देवी आकर साधक की पत्नी बन जाती हैं और साधक को इच्छित द्रव्य तथा विविध भोजन पदार्थ देती हैं और साधक के १०००० वर्षों तक जीवित रहकर मरने के उपरान्त क्रोधभैरव की कृपा से रम्भादेवी उसे राजकुल में जन्म देती है ।। ९ ।।

रात्रौ देवगृहं गत्वा चन्दनेन च मण्डलम् ।

कृत्वा धूपं ततो दत्त्वायुतं मासं जपेन्मनुम् ।

मासान्ते महतीं पूजां कृत्वा रात्रौ जपश्चरेत् ।

निशात्यये समायाति प्रदद्यात् कुसुमासनम् ।

कृते च स्वागते प्रश्ने किमिच्छसि च वक्ति सा ।

साधकः प्राह भार्या त्वं भव यच्छ रसायनम् ।

पाति वर्षसहस्राणि अप्सराः स्वयमुर्वशी ।

परस्त्रीं वर्जयेत् सर्वामन्यथा म्रियते ध्रुवम् ॥ १० ॥

रात में देवालय में चन्दन का मण्डल बनाकर वहाँ धूप दें और उर्वशी का मन्त्र १०००० बार जपे । एक माह इसी प्रकार जप करके मास के अन्त में विस्तृत पूजा करके रात्रि में जप करे । रात्रिपर्यन्त जप करने पर रात्रि के शेष भाग में देवी आती हैं। उन्हें तत्काल पुष्पासन देना चाहिए। देवी सन्तुष्ट होकर साधक का मंगल पूछकर उससे वर माँगने को कहती हैं । तब साधक कहे हे देवी ! तुम मेरी भार्या बनकर विविध रस एवं विशिष्ट भोज्य पदार्थ मुझे अर्पित करो । मन्त्रसिद्धि होने पर उर्वशी अप्सरा साधक का एक हजार वर्ष पर्यन्त पालन करती हैं। इस देवता के सिद्ध होने पर साधक को अन्य सभी स्त्रियों का त्याग करना होगा, उसकी अन्यथा मृत्यु हो जायेगी ।। १० ।

एकाकी शयने स्थित्वा शुची रात्रौ च कुङ्कुमैः ।

लिखित्वा भूषणीं भूर्जे चन्दनेन तु धूपयेत् ।

जपेदष्टसहस्रन्तु मासं यावत् प्रयत्नतः ।

मासान्ते तु समभ्यर्च्य जपेदष्टसहस्रकम् ।

रात्र्यर्द्धेऽन्तिकमायाति भार्या भवति कामिता ।

सिद्धिद्रव्यं हिरण्यश्व तुष्टा यच्छति भूषणम् ॥ ११ ॥

पवित्र होकर रात में एकाकी शय्या पर बैठकर भोजपत्र पर कुंकुम से भूषणी भूतिनी की प्रतिमूर्ति अंकित करके चन्दन से धूपित करे और भूषणी का मन्त्र ८००० जपे एक माह तक प्रतिदिन जप करे और मासान्त में देवी की अर्चना करके पुनः ८००० मन्त्र जपे । इससे आधी रात्रि के समय देवी आकर साधक की पत्नी बन जाती हैं और साधक से सन्तुष्ट होकर मनोवांछित वर तथा स्वर्ण के आभूषण प्रदान करती हैं ॥। ११॥

क्रोधराजः पुनः प्राह यदि नायाति साधिता ।

अनेन क्रोधयोगेन जपेदप्सरसां मनुम् ।

विषं प्राथमिकं बीजमुद्धरेत् च कटुद्वयम् ।

अमुकं क्रोधबीज रतिमादरसंयुतम् ।

जपेदस्त्रं समुद्धृत्य मन्त्रमष्टसहस्रकम् ।

म्रियते शीर्यते मूनि प्रस्फुटत्यप्सरेति च ।

बन्धयेदप्सरो वृन्दं मन्त्रेणानेन साधकः ।

विषं बन्धद्वयं प्रोच्य हनयुग्ममुदीरयेत् ।

अमुकीं क्रोधमन्त्राढ्यमप्सरो बन्धको मनुः ॥ १२ ॥

क्रोधराज पुनः कहते हैं- यदि उक्त साधना से भी देवीगण न आयें तो ॐ कटु कटु अमुकी हुं फट्' का ८००० जप करे। अमुकी के स्थान पर देवी के नाम का प्रयोग करे। इससे भी यदि उक्त देवी न आयें तब तत्क्षण उनका मस्तक फूट जाता है और उन्हें मृत्यु मिलती है। तदनन्तर ॐ बन्ध बन्ध हन हन अमुकीं हूं' मन्त्र से अप्सराओं का बन्धन करे ।। १२ ।।

अथ वक्ष्येऽप्सरोवश्यकारकं मनुमुत्तमम् ।

विषं चलद्वयं प्रोच्य ह्यमुकीं वशमानय ।

सकूर्चास्त्रं जपेदेवाप्सरो वश्यमियात् पुनः ॥१३ ॥

इस प्रकार अप्सराओं को वशीभूत करने का मन्त्र कहा जा रहा है- 'ॐ चल चल अमुकीं वशमानय हुं फट्' का जप करने से अप्सरागण वशीभूत हो जाती हैं ।। १३ ।।

अथातः क्रोधभूपेन मर्त्यानामुपकारकम् ।

यदुक्तं तदहं वक्ष्ये ह्यष्टाप्सरससाधनम् ।

अनेनैव विधानेन मुद्रामन्त्रप्रभावतः ।

जननी भगिनी भार्या चेटी भवति भूतिनी ॥ १४ ॥

तदनन्तर क्रोध भूपति ने मनुष्यों के हितार्थ जो अष्ट अप्सरा साधन का विधान कहा था, उसे कहा जा रहा है। इस विधान में मुद्राबन्धनादि करके साधना करने पर अप्सराएँ माता, बहन, पत्नी अथवा दासी होकर वशीभूत हो जाती हैं ।। १४ ।।

अन्योऽन्यमुष्टियोगेन पद्मावत्तों करावुभौ ।

मध्याङ्गल्यौ शुचीकृत्य मुद्रा दुःखविनाशिनी ।। १५ ।।

दोनों हाथों का मुद्राबन्धन कमलपुष्प के समान कर के दोनों मध्यमा अंगुलियों को शुचि ( हवन करने का काष्ठनिर्मित पात्र ) के आकार में रखे । इससे दुःख का विनाश होता है ।। १५ ।।

उभौ खड्गाकृतीकृत्य पाण्यप्सरोवशङ्करी ।

सान्निध्यकारिणी मुद्रा सर्वाप्सरः प्रसाधिनी ।

मुद्राबन्धनमात्रेण वशीभवति तत्क्षणात् ।

पद्मावर्त्तावुभौ हस्तौ कृत्वाप्सरः प्रसाधिनी ।। १६ ।।

दोनों हाथों को खड्गाकृति करे। यह है सान्निध्यकारिणी मुद्रा । इस मुद्रा द्वारा सभी अप्सराएँ तत्क्षण वश में हो जाती हैं। दोनों हाथों को पद्मावृत( कमलपुष्प के समान ) करने से अप्सरा साधन मुद्रा होती है ।। १६ ।।

वक्ष्याम्याह्वानमन्त्रन्तु यथा क्रोधेन भाषितम् ।

विषबीजं समुद्धृत्य सर्वाप्सरःपदन्ततः ।

आगच्छ द्वयमाभाष्य कूर्चद्वयमतः परम् ।

तारमादरसंयुक्तं विद्यादाह्वानपूर्वकम् ॥ १७ ॥

अब क्रोधराज द्वारा कहे गये आह्वान मन्त्र को कहा जाता है। 'ॐ सर्वाप्सरः आगच्छ हुं हुं ॐ फट्' इस मन्त्र से आह्वान करने पर तत्क्षण अप्सरागण का साक्षात्कार हो जाता है ।। १७ ।।

तारं सर्वपदं सिद्धिपदाद् योगेश्वरीपदम् ।

कूर्चादस्त्रं समुद्धृत्याप्सरः सान्निध्यकारकम् ।

विषं कामप्रिये चेति शिवोऽभिमुखकारकम् ।

विषं वां प्रां समुद्धृत्य क्रोधबीजद्वयं पुनः ।

वायुः कालान्वितो मन्त्रः सर्वासां मोहनः स्मृतः ॥ १८ ॥

ॐ सर्वसिद्धियोगेश्वरि हुं फट् ' यह मन्त्र अप्सराओं का सान्निध्य देता है। 'ॐ क्लीं स्वाहा' मन्त्र से अप्सराओं को अभिमुख करते हैं। 'ॐ वां प्रां हुं हुं यं हौं'इससे सभी अप्सराएँ मोहित हो जाती हैं ।। १८ ।।

इति भूतडामरमहातन्त्र अप्सरःसाधनं नाम दशमं पटलम् ।

भूतडामर महातन्त्र का दशम पटल समाप्त ।

आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल 11    

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