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कर्मकाण्ड

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भूतडामर तन्त्र पटल ११

भूतडामर तन्त्र पटल ११          

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल १० में ब्रह्मादिमारण, अप्सरा साधन को दिया गया, अब पटल ११ में यक्षिणी साधन, भेद तथा मन्त्र, क्रोधांकुशी मुद्रा का वर्णन हुआ है।

भूतडामर तन्त्र पटल ११

भूतडामरतन्त्रम् एकादश: पटल:

Bhoot Damar tantra patal 11

भूतडामर तन्त्र पटल ११           

भूतडामरतन्त्र ग्यारहवां पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ एकादशं पटलम्

श्री उन्मत्तभैरव्युवाच

समस्तदुष्टशमन ! सुरासुरनमस्कृत !।

सन्तुष्टो यदि देवेश ! यक्षिणीसाधनं वद ।। १॥

उन्मत्तभैरवी कहती हैं—-दुष्टों का नाश करने वाले तथा सुरासुरों द्वारा नमस्कार किये गये - हे देवेश ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो यक्षिणी-साधन की विधि को कहिए ।। १ ।।

श्रीउन्मत्तभैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि यक्षिणी सिद्धिसाधनम् ।

क्रोधाधिपं नमस्कृत्योत्पत्तिस्थितिलयात्मकम् ।

यक्षिण्योऽष्टौ समाख्याता यास्तासां सिद्धिसाधनम् ।

मनुं तमपि वक्ष्याभि वाञ्छितार्थप्रदायकम् ॥ २ ॥

उन्मत्तभैरव कहते हैं- हे देवी! मैं सृष्टि-स्थिति-प्रलय करने वाले क्रोधपति को नमस्कार करके यक्षिणी-साधन कहता हूँ। ये आठ प्रकार की होती हैं। इनका सिद्धिसाधन मन्त्र सुनो। इस विधि से यक्षिणी साधन करने पर वांछित फल मिलता है ॥ २ ॥

आदिबीजं समुद्धृत्य ह्यागच्छ सुरसुन्दरि ! ।

शक्तिबीजं शिवे ! युक्तमुद्धरेद्वह्निसुन्दरीम् ।

ॐ सर्वमनोहारिणीपद स्थिति समुद्धरेत् ।

आदिबीजं शिवे युक्तः सर्वमनोहरो मनुः ।

ब्रह्मबीजं समुद्धृत्य ततः कनकवत्यपि ।

मैथुन प्रियेत्या भाष्य रौद्राद्वह्निवधूस्ततः ।

ख्याता कनकवत्येषा सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।

विषं मे मातरागच्छ कामेश्वर्यनलप्रिया ।

कामेश्वरी मनुरसौ वाञ्छितार्थप्रदायकः ।

विषं भूतेश्वरीबीजं क्षतजार्णमतः परम् ।

रौरवं रतिसंयुक्तं प्रिये ज्वलनवल्लभा ।

रतिप्रियामनुः प्रोक्तो वाञ्छितार्थप्रदायकः ।

विषं प्राथमिकं बीजं पद्मिनीज्वलनप्रिया ।

अभीष्टार्थप्रदो नृणामित्युक्तः पद्मिनीमनुः ।

आदिबीजाच्च भूतेशीं नटीतोऽपि महानटीम् ।

स्वर्णाद्रूपवतीं पश्चात् शिवोऽन्तोऽसौ नटीमनुः ।

अनादिरद्रिजाबीजमुच्चरेधनुरागिणीम् ।

मैथुनप्रियेत्या भाष्य द्विठान्तोक्तानुरागिणी ॥ ३ ॥

सुरसुन्दरी का मन्त्र ॐ आगच्छ सुरसुन्दरि ह्रीं हौं स्वाहा ।

मनोहारिणी का मन्त्र ॐ सर्वमनोहारिणी ॐ हौं ।

कनकवती का मन्त्र ॐ कनकवति मैथुनप्रिये हौं स्वाहा ।

कामेश्वरी का मन्त्र ॐ मातरागच्छ कामेश्वरि स्वाहा ।

रतिप्रिया का मन्त्र ॐ ह्रीं रतिप्रिये स्वाहा ।

पद्मिनी का मन्त्र ॐ पद्मिनि स्वाहा ।

महानटी का मन्त्र ॐ ह्रीं नटि महानटि स्वर्गरूपवति हौं ।

अनुरागिणी मैथुनप्रिया का मन्त्र -- ॐ अनुरागिणि मैथुनप्रिये स्वाहा ।

ये मन्त्र अभीष्ट सिद्धि देते हैं ।। ३ ।।

अथासां साधनं वक्ष्य एकैकं क्रोधभाषितम् ।

वज्रपाणिगृहं गत्वा दत्त्वा धूपञ्च गुग्गुलुम् ।

जपेत् त्रिसन्ध्यं मासान्ते ह्यायाति सुरसुन्दरी ।

जननी भगिनी भार्या स्वेच्छया कामिता भवेत् ।

राज्यं दीनारलक्षश्च रसश्वापि रसायनम् ।

माता भूत्वा महायक्षी मातृवत् परिपालयेत् ।

यदि स्याद्भगिनी दिव्यां कन्यामानीय यच्छति ।

रसं रसायनं सिद्धद्रव्यं भार्या भवेद् यदि ।

सर्वाशाः पूरयत्येवं महाधनपतिर्भवेत् ॥ ४ ॥

इस प्रकार आठ यक्षिणियों की साधन-पद्धति को यहाँ क्रोधराज के उप- देशानुसार अलग-अलग कहा जा रहा है। वज्रपाणि के मन्दिर में जाकर गुग्गुलु की धूप से प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में पूर्वोक्त सुरसुन्दरी का मन्त्र जपे । इस प्रकार एक माह जप करने पर मासान्त में देवी आकर साधक की भावना के अनुरूप जननी, बहन, पत्नी बन जाती हैं। यक्षिणी के आगमन पर यदि साधक उन्हें मातृभाव से सम्बोधित करता है, तब वे नाना रसायन द्रव्य देकर मातृवत् पालन करती हैं। भगिनी का भाव रखने से वे दिव्य कन्या, नाना रसायन द्रव्य लाकर देती हैं। भार्या का भाव रखने से साधक की समस्त आशाएँ पूर्ण करके उसे महाधनाधीश बना देती हैं ॥ ४ ॥

गत्वा सरितटं कृत्वा चन्दनेन च मण्डलम् ।

पूजां विधाय महतीं दत्त्वा धूपञ्च गुग्गुलुम् ।

आसप्तदिवसं मन्त्रं जपेदयुतसङ्ख्यकम् ।

सप्तमे दिवसे रात्रौ कृत्वा पूजां मनोरमाम् ।

प्रजपेदर्धरात्रे तु शीघ्रमायाति यक्षिणी ।

साधकं किं करोमीति वदेच्चेत्याह साधकः ।

शताष्टपरिवाराढ्या वाञ्छितार्थश्च यच्छति ।

शतमेकञ्च दीनारं सावशेषं व्ययेद्बुधः ।

तद्व्ययाभावतो भूयो न ददाति प्रकुप्यति ।

न ददाति न चायाति म्रियते सा मनोहरी ॥ ५ ॥

नदीतट पर चन्दन का मण्डल बनाकर महापूजा करे। गुग्गुलु द्वारा धूपित करके पूर्वकथित मनोहारिणी का मन्त्र १०००० जपे । इस प्रकार सात दिन पूजन एवं जप करके सातवें दिन रात्रि में महती पूजा करके मन्त्र का जप करना प्रारम्भ करे। अर्धरात्रि के समय मनोहारिणी यक्षिणी आकर साधक से उसकी इच्छा पूछती हैं। तब साधक कहे- तुम मेरी चेटिका हो जाओ । यक्षिणी वशीभूता होकर अपने १०८ परिवार जनों के साथ साधक का कार्य करती है और वांछित वस्तु, १०१ स्वर्णमुद्राएँ देती हैं। साधक इन सब को उसी दिन व्यय कर दे । व्यय न करने से देवी क्रोधित होकर पुनः द्रव्यादि नहीं देतीं। साथ ही साधक को फिर दर्शन भी नहीं देती। यदि साधक के सम्मुख ( मन्त्रजप ) करने पर भी देवी मनोहारिणी नहीं आती तब उनकी मृत्यु निश्चित है ।। ५ ।।

वटवृक्षतलं गत्वा मत्स्यमांसादिदापयेत् ।

उच्छिष्टेन स्वयं रात्री सहस्रं सप्तवासरान् ।

प्रजपेत् सप्तमेऽह्नधर्धरात्रेऽभ्यर्च्य सुगन्धिभिः ।

सर्वालङ्कारसंयुक्ता सर्वावयवसुन्दरी ।

शताष्टपरिवाराढ्या ध्याताऽऽगच्छति सन्निधिम् ।

अन्वहं द्वादशानाश्च वस्त्रालङ्कारभोजनम् ।

दीनाराणि ददात्यष्टौ भार्या भवति कामिता ।

देवी कनकवत्येषा सिद्धयत्येवं न चान्यथा ।। ६ ।।

वटवृक्ष के नीचे मत्स्य-मांसादि निवेदन करके उस बचे हुए भोज्य द्रव्यों का ( आहार करके ) सात दिन तक प्रतिदिन रात्रि में १००० मन्त्र जपे । सातवें दिन आधी रात्रि में सुगन्ध युक्त द्रव्यों से देवी की अर्चना करे। इससे प्रसन्न होकर सुन्दरी कनकवती समस्त अलंकारों से विभूषित होकर १०८ परिवार- जनों के साथ आती हैं और साधक को १२ प्रकार के वस्त्र, अलंकार, भोज्य द्रव्य तथा ८ स्वर्णमुद्राएँ देकर उसकी पत्नी बन जाती हैं। इस प्रकार की आराधना से देवी कनकवती सिद्ध हो जाती हैं। यह अन्यथा नहीं होता ।। ६ ।।

गोरोचनेन प्रतिमां भूर्जपत्रे विधाय च ।

शय्यामारुह्य एकाकी सहस्रं प्रजपेन्मनुम् ।

मासान्ते महतीं पूजां कृत्वा रात्री पुनर्जपेत् ।

ततोऽर्धरात्रे आयाति भार्या भवति कामिता ।

दिव्यालङ्करणं त्यक्त्वा शयने प्रत्यहं व्रजेत् ।

परस्त्रीगमनत्यागोऽन्यथा मृत्युरदूरतः ।

इयं कामेश्वरीदेवी वाञ्छितार्थप्रदायिनी ।

चिन्तयेत्तां स्वर्णवर्णां दिव्यालङ्कारभूषिताम् ।

सर्वाभीष्टप्रदां शक्ति सर्वज्ञानाभयप्रदाम् ।

जातीप्रभृतिभिः पुष्पैः समभ्यर्च्य धृतोत्पलाम् ।

एवं प्रसाधिते मन्त्रे मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ ७ ॥

भोजपत्र पर गोरोचन से यक्षिणी की प्रतिमा लिखकर रात्रि में एकाकी शय्या पर बैठकर कामेश्वरी यक्षिणी का मन्त्र १००० जपे । ऐसा एक माह तक करने पर मासान्त में देवी का पूजन करके रात्रि में पुनः मन्त्रजप प्रारम्भ करे । अर्धरात्रि में कामेश्वरी साधक की भार्या होकर आती हैं और साधक के साथ रात बिताकर सुबह शय्या पर दिव्य आभूषण छोड़कर चली जाती हैं । इनके सिद्ध होने पर अन्य स्त्री के साथ सहवास न करे, अन्यथा साधक मर जाता है। कामेश्वरी देवी वांछित धन देती हैं। कांचनवर्णा, दिव्य अलंकार से अलंकृता, सर्व अभीष्टदायिनी, सर्वज्ञा, अभयदात्री, शक्तिरूपा, उत्पलधारिणी, कामेश्वरी देवी की चमेली आदि के फूलों द्वारा पूजन तथा ध्यान करे। ऐसा करने से मन्त्र की सिद्धि प्राप्त होती है ।। ७ ॥

धूपश्च गुग्गुलुं दत्त्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

आसप्तदिवस सप्तदिवसान्ते च वैष्णवीम् ।

पूजां विधाय यत्नेन घृतदीपं विधाय च ।

प्रजपेदर्द्धरात्रेऽसौ समायाति रतिप्रिया ।

कामिता सा भवेद्भार्या दिव्यं भोज्यं रसायनम् ।

पञ्चविंशतिदीनारं वस्त्रालङ्करणानि च ।

आशाश्च पूरयत्याशु सिद्धिद्रव्यं प्रयच्छति ॥ ८ ॥

गुग्गुलु की धूप देकर पूर्वोक्त रतिप्रिया मन्त्र ८००० बार जपे । ७ दिन जप करने पर अन्तिम दिन जपान्त में देवी का पूजन करे। रात्रि में घृत दीपक जलाकर पुनः मन्त्र जपे । इससे अर्द्धरात्रि के समय रतिप्रिया यक्षिणी आकर साधक की भार्या बन जाती है और दिव्य रसायन, भोजन द्रव्य, सोने की २५ मुद्राएँ, वस्त्र तथा आभूषण देकर समस्त आशाओं की पूर्ति करती हैं ॥ ८ ॥

स्वगृहे वा शिवस्थाने मण्डलं चन्दनात्मकम् ।

कृत्वा गुग्गुलधूपश्च दत्त्वाभ्यर्च्य विधानतः ।

जपेदष्टसहस्रन्तु मासमेकं निरन्तरम् ।

पौर्णमास्यां समभ्यर्च्य यथाविभवतो निशि ।

प्रजपेदर्द्धरात्रे तु समागच्छति पद्मिनी ।

सर्वाशाः पूरयत्येषा भार्या भवति कामिता ।

रसं रसायनं द्रव्यं सिद्धिद्रव्यं प्रयच्छति ।। ९ ।।

अपने घर में अथवा शिव मन्दिर में चन्दन का मण्डल बनाकर गुग्गुलु से धूपदान करे। प्रतिदिन नियम से पद्मिनी की अर्चना करके एक माह तक पूर्वोक्त पद्मिनी मन्त्र का ८००० जप करे। पूर्णिमा को जप समाप्त होने पर अपने सामर्थ्य के अनुसार पूजन करके पुनः जप करे। अर्द्धरात्रि में पद्मिनी देवी आकर साधक की पत्नी बन जाती है और नाना प्रकार के रसायन द्रव्य देकर साधक की आशा पूर्ण करती हैं ।। ९ ।।

अशोकवृक्षमागत्य मत्स्यमांसं प्रदापयेत् ।

धूपञ्च गुग्गुलुं दत्त्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

मासान्ते महतीं पूजां कृत्वा प्राग्वज्जपेन्निशि ।

अर्द्धरात्रे समायाति जननी भगिनी वधूः ।

स्वेच्छया जननी भूत्वा भोज्यं यच्छति वाससी ।

भगिनी चेत्तदा काम्यं भोज्यालङ्करणादिकम् ।

सहस्रयोजनाद्दिव्यां स्त्रियमानीय यच्छति ।

भार्या चेत् पूरयत्याशा रसञ्चैव रसायनम् ।

दीनाराणि ददात्यष्टौ प्रत्यहं परितोषिता ॥ १० ॥

अशोक वृक्ष के नीचे आकर मछली का मांस निवेदन करके गुग्गुलु द्वारा धूपित करे और महानटी यक्षिणी का जप ८००० बार नित्य एक माह पर्यन्त करे । मासान्त में जप समाप्त होने पर पूजन करके रात्रि में पुनः जप प्रारम्भ करे । अर्द्धरात्रि में यक्षिणी आती हैं। यदि साधक उन्हें माता मानता है, तब वे भोज्य द्रव्य तथा वस्त्र देती हैं। भगिनी मानने पर वांछित भोजन तथा अलंकार प्रदान करती हैं और हजारों योजन दूर होने पर भी वहाँ से दिव्य स्त्री लाकर देती हैं। पत्नी बनने की स्थिति में वे समस्त आशाओं की पूर्ति, नाना रसायन द्रव्य तथा प्रतिदिन ८ स्वर्णमुद्रा देती हैं ॥ १० ॥

कुङ्कुमेन समालिख्य यक्षिणीं भूर्जपत्रके ।

प्रतिपत्तिथिमारभ्य प्रत्यहं परिपूजयेत् ।

धूपाद्यै: प्रजपेदष्टसहस्रमनुरागिणीम् ।

पौर्णमास्यां पुनारात्रौ घृतदीपं प्रकल्पयेत् ।

पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैः सकलां प्रजपेन्निशाम् ।

प्रभातेऽसौ समायाति भार्या भवति कामिता ।

मुद्रासहस्रं भोज्यश्व रसश्वापि रसायनम् ।

प्रयच्छति च वस्त्राणि जीवेद्वर्षसहस्रकम् ।

यदि कालमतिक्रामेन्नागच्छति न सिध्यति ।

विषं क्रोधास्त्रयुक् प्रोच्यामुकी यक्षिण्यतः परम् ।

भूतेशीं सादरं युग्मं द्वयं क्रोधास्त्रसंयुतम् ।

क्रोधेनानेन चाक्रम्य जपेदष्टसहस्रकम् ।

तथा कृते समायाति वाञ्छितार्थं प्रयच्छति ।

यदि नायाति म्रियते अक्ष्णि मूनि स्फुटत्यपि ।

रौरवे नरके घोरे पातयेत् क्रोधभूपतिः ।। ११ ।।

भोजपत्र पर कुंकुम से यक्षिणी की प्रतिमूत्ति बनायें। प्रतिपदा से प्रारम्भ करके प्रतिदिन तीनों सन्ध्या को धूप, दीप आदि उपचारों से पूजा करे तथा रात्रि में ८००० अनुरागिणी मैथुनप्रिया के मन्त्र को जपे । प्रतिदिन यह पूजन जप करते हुए पूर्णिमा की रात्रि में घी का दीपक जलाये और गन्ध, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य आदि उपकरणों द्वारा पूजन करके पुनः रात्रि में जप करना प्रारम्भ करे । इससे प्रभात के समय देवी आती हैं और साधक की पत्नी बनकर उसकी इच्छाएँ पूर्ण करती हैं। वे साधक को १००० मुद्रा, नाना प्रकार के भोजन, द्रव्य तथा वस्त्र आदि देती हैं। इस देवता की सिद्धि से साधक १००० वर्ष जीवित रहता है। यदि उक्त साधना द्वारा देवी न आयें तब समय बीत जाने पर 'ॐ हुं फट् फट् अनुरागिणी यक्षिणी ह्रीं षं षं हुं हुं फट्' इस क्रोधमन्त्र का ८००० जप करे । इससे भी यदि यक्षिणी नहीं आती है, तब उसके मस्तक तथा नेत्र फूट जाते हैं, उसकी मृत्यु होती है एवं क्रोधभूपति उसे घोरतर नरक में छोड़ते हैं ।। ११ ।।

मुष्टिमन्योऽन्यमास्थाय कनिष्ठे वेष्टयेदुभे ।

प्रसार्याकुञ्च्य तर्जन्यो कार्यों तावङ्कुशाकृती ।

इयं क्रोधाङ्कुशी मुद्रा त्रैलोक्याकर्षणक्षमा ॥ १२ ॥

अब यक्षिणीमुद्रा कहते हैं । दोनों हाथ की मुट्टियाँ बाँधकर दोनों कनिष्ठा उँगलियों को एक-दूसरे से लपेटे । तदनन्तर दोनों तर्जनियों को फैलाकर अंकुश की आकृति में लाये । यह है क्रोधांकुशी मुद्रा, जिससे त्रिभुवन का आकर्षण हो सकता है ।। १२ ।।

पाणी समो विधायाथ व्यत्ययान्मध्यमाद्वयम् ।

कृत्वा तिर्यगनामान्ते बाह्यतः स्थापयेद्बुधः ।

तर्जन्याभिनिविष्टेन कनिष्ठागर्भसंस्थिता ।

ज्येष्ठाङ्गुष्ठेनावाहयेद् मुद्रया यक्षिणीं शुभाम् ॥ १३ ॥

यक्षिणी की अन्य मुद्रा यह है। दोनों हथेलियों को समान करके मध्यमाद्वय को तिर्यक्रूपेण अनामिका के बाहर स्थापित करे। तदनन्तर दोनों तर्जनियों द्वारा कनिष्ठा उँगलियों को हाथ के भीतर रखकर वृद्धांगुलि द्वारा यक्षिणी का आवाहन करे ।। १३ ।।

विषबीजं समुद्धृत्य बीजं प्राथमिकं ततः ।

आभाष्य तामसीं गच्छ संयुक्तां हि समुद्धरेत् ।

यक्षिणाग्निप्रियान्तोऽयं यक्षिण्याह्वानकृन्मनुः ।

आह्वानमुद्रया वामाङ्गुष्ठेनापि विसर्जयेत् ।

यक्षिणीमनुनानेन वक्ष्यमाणेन पूजिता ।

प्रालेयं रौद्रीयं बीजं गच्छद्वयसमन्वितम् ।

अमुकक्षिण्युद्धृत्य पुनरागमनाय च ।

द्विठान्तमुद्धरेन्मन्त्रं यक्षिणीनां विसर्जयेत् ॥ १४ ॥

ॐ ह्रीं आगच्छागच्छ अमुक यक्षिणि स्वाहा' इस मन्त्र से यक्षिणी का आवाहन करे । आवाहन मुद्रा द्वारा किंवा बायें अंगूठे द्वारा ॐ ह्रीं गच्छ गच्छ अमुकयक्षिणि पुनरागमनाय स्वाहा' इस मन्त्र से यक्षिणियों का विसर्जन करे ।। १४ ।।

कृत्वान्योऽन्यमुभे मुष्टी प्रसार्य मध्यमाद्वयम् ।

सम्मुखीकरणी मुद्रा यक्षिणीनां प्रदर्शयेत् ।

विषं महायक्षिणीति ह्यद्धरेन्मैथुनप्रिये ।

वह्निजायां तथोक्तोऽयं सम्मुखीकरणो मनुः ।। १५ ।।

दोनों हाथों से मुट्ठी बांधकर मध्यमा उंगलियों को फैलायें। यह है सम्मुखीकरणी मुद्रा । यक्षिणी का आवाहन करके इस मुद्रा का प्रदर्शन करे ।

ॐ महायक्षिणि मैथुनप्रिये स्वाहा' यह सम्मुखीकरण का मन्त्र है ।। १५ ।।

अन्योऽन्यमुष्टिमास्थाय प्रसार्याकुश्ञ्चयेदुभे ।

कनिष्ठे चापि मुद्रेयं सान्निध्यकारिणी स्मृता ।

विषं कामपदाद् भोगेश्वरी स्वाहेति संयुता ।। १६ ।।

एक साथ दोनों हाथों की मुट्ठी बन्द करके दोनों कनिष्ठाओं को फैलाकर फिर सिकोड़े। यह सान्निध्यकारिणी मुद्रा है। इसका मन्त्र है - ॐ कामभोगेश्वरि स्वाहा' यह मन्त्र सान्निध्यकरण के लिए प्रयुक्त होता है ।। १६ ।।

कृत्वा मुष्टि ततोऽन्योऽन्यं साधकानां हृदि न्यसेत् ।

वक्ष्यमाणेन मनुना मुद्रास्थापनकर्मणि ।

विषं समं समुद्धृत्य त्रैलोक्यग्रसनात्मकम् ।

संयुक्तं धूम्रभैरव्या नादबिन्दुसमन्वितम् ।

हृदयाय शिरोऽन्तोऽयं हृदि संस्थापयेन्मनुम् ॥ १७ ॥

दोनों हाथों की एक साथ मुट्ठी बाँधकर 'ॐ ह्रीं हृदयाय नमः' मन्त्र से दोनों मुट्ठियों को वक्षःस्थल पर रखें। यह यक्षिणी का मन्त्र है तथा यह मुद्रा त्रिभुवन को निगल सकती है ॥ १७ ॥

कृत्वा मुष्टि ततोऽन्योऽन्यं तर्जनीमपि मध्यमाम् ।

प्रसार्य प्रमुखी वेद्या मुद्रा मन्त्रसमन्विता ।

ॐ सर्वमनोहारिणी द्विठान्तश्च समुद्धरेत् ।

पश्चोपचारमुद्राया मनुष उदाहृतः ।। १८ ।।

दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधकर तर्जनी तथा मध्यमाङ्गुली को फैलाये । यह है प्रमुखी मुद्रा । इस मुद्रा द्वारा 'ॐ सर्वमनोहारिणि स्वाहा' मन्त्र से गन्ध-पुष्प-धूप- नैवेद्यादि पंचोपचार से यक्षिणी का पूजन करे ।। १८ ।।

इति भूतडामरे महातन्त्रे यक्षिणीसाधनं नाम एकादशं पटलम् ।

भूतडामर महातन्त्र का एकादश पटल समाप्त ।

आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल 12 

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