गङ्गा सहस्रनाम स्तोत्र
समस्त पापों को नष्ट करने के लिए,
सकल कामों की सिद्धि के लिये और अक्षय स्वर्ग-प्राप्ति के लिए इस गङ्गा
सहस्रनाम स्तोत्र के पाठ करना चाहिए । गंगा से अन्यत्र रहकर भी मनुष्य इस स्तोत्र
का एक श्लोक भी पढ़ करता है वह गंगास्नान के फल को तत्क्षण प्राप्त कर लेता है ।
गङ्गासहस्रनामस्तोत्रम्
पार्वत्युवाच -
देव देव महादेव भक्तानां
प्रीतिवर्धन ।
कानि नामानि प्रोक्तानि तेन राज्ञा
महात्मना ॥ १॥
पार्वती ने कहा-- हे महादेव !
भक्तों की प्रीति को बढ़ाने वाले ! उस महात्मा राजा ने गंगा के कौन से सहस्र नाम
कहे ?
मुझे बताओ ।
सहस्रनाम गङ्गायाः स्तोत्रं
परमदुर्लभम् ।
वद मे देवशार्दूल भक्तास्मि सततं
प्रिया ॥ २॥
वह स्तोत्र अत्यन्त दुर्लभ है
किन्तु हे देवशार्दूल ! मैं तुम्हारी सर्वदा भक्त हूँ तथा तुम मेरे प्रिय हो ॥
१-२॥
ईश्वर उवाच -
साधु साधु महादेवि पृष्टं नामामृतं
त्वया ।
गुह्याद्गुह्यतरं स्तोत्रं
प्रवक्ष्यामि समासतः ॥ ३॥
ईश्वर ने कहा-हे महादेवि ! तुम धन्य
हो । तुमने तो गुप्त से गुप्त अमृतस्वरूप नामस्तोत्र को पूछा । मैं संक्षेप में ही
कहूँगा ।
यस्य स्मरणमात्रेण नरो वै शिवतां
व्रजेत् ।
पठनाल्लिखनाच्चैव पूजनात् किं न
जायते ॥ ४॥
जिस स्तोत्र के स्मरण मात्र से
मनुष्य शिवत्व को प्राप्त होता है उसके पढ़ ने, लिखने
और पूजन से क्या नहीं हो सकता ?
श्लोकमेकं पठित्वापि गङ्गायाः शतयोजने
।
गङ्गास्नानफलं सद्यः
प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ ५॥
गंगा से सौ योजन दूर रहकर मनुष्य इस
स्तोत्र का एक श्लोक भी पढ़ कर गंगास्नान के फल को तत्क्षण प्राप्त कर लेता है,
इसमें कोई सन्देह नहीं ।
सहस्रनामस्तोत्रस्य भगीरथऋषिर्मतः ।
छन्दोऽनुष्टुप्
तथा ख्यातं गङ्गा वै देवता मता ॥ ६॥
सर्वतः पापनाशार्थं
सर्वकामार्थसिद्धये ।
अक्षयस्वर्गकामाय विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ ७॥
इस सहस्रनामस्तोत्र के ऋषि भगीरथ
कहे गए हैं । इसका छन्द अनुष्टुप है और देवता गंगा, समस्त पापों को नष्ट करने के लिए, सकल कामों की
सिद्धि के लिये और अक्षय स्वर्ग-प्राप्ति के लिए इसका विनियोग है ।
गङ्गा सहस्रनाम स्तोत्रम्
ॐ गङ्गा सरिद्वरा
विष्णुपादाम्बुजजनिः परा ।
शिवशेखरसंवासा
ब्रह्मणः कलशस्थिता ॥ ८॥
आकाशगामिनी भद्रा चतुरात्मा
प्रवाहिनी ।
ब्रह्मरन्ध्रसमुद्भूता
ब्रह्मरन्ध्रनिवासिनी ॥ ९॥
ब्रह्मरन्ध्रधरा देवी
सर्वकामार्थदायिनी ।
ब्रह्माण्डोझेदनपरा परब्रह्मधरा परा
॥ १०॥
द्रवरूपधरा चैव शिवसङ्गमदायिनी ।
मुक्तिदा भुक्तिदानङ्गा
शत्रुदावानलात्मिका ॥ ११॥
अनङ्गाङ्गी त्रिमूर्तिश्च ब्रह्माणी
कमला स्थिता ।
सरस्वती च सावित्री जयसेना
जयात्मिका ॥ १२॥
जयभद्रा वैष्णवी च चिच्छक्तिः
परमेश्वरी ।
त्रयी वेदवदान्या च मेदिनी भेदिनी
धरा ॥ १३॥
वेदमूर्तिस्त्रिमूर्तिश्च
देवमूतिर्दयापरा ।
दामिनी दामिनीवासा कुलिशा
कुलिशप्रिया ॥ १४॥
कुलिशाङ्गी कुलाङ्गी च
कुलनाथकुटुम्बिनी ।
कुलीना सुभगा भाग्या भाग्यगम्या
यशोमती ॥ १५॥
कला कलाधरधरा कलाधरशतप्रिया ।
षोडशी षोडशाराध्या षोढान्याससहायिनी
॥ १६॥
षोढा समासविलया षोढाङ्गी कालरूपिणी
।
कालिका मुण्डमाला च कालानां
शतनाशिनी ॥ १७॥
कालाङ्गी कालनिलया काला कालेश्वरी
वरा ।
शैवी माया शिवा रुण्डा चण्डमुण्ड
विनाशिनी ॥ १८॥
चण्डाट्टहासा दुर्गम्या चण्डानां
प्रीतिवर्द्धिना ।
चण्डेश्वरी महाप्राज्ञा प्रसाधीः
सिद्धिदायिनी ॥ १९॥
लक्षलाभस्य जननी शतलाभा सुरेश्वरी ।
कौमारी शक्तिरुद्दिष्टा
क्रौचदैत्यविनाशिनी ॥ २०॥
(अब नामावली कहते हैं) जो गंगा,
नदियों में श्रेष्ठ, विष्णु के चरणकमलों से
उत्पन्न, शंकर की जटा में निवास करने वाली, ब्रह्मा के कमण्डलु में रहने वाली, आकाश मार्ग से
जाने वाली, भद्रा, चार प्रवाहों में
विभक्त, ब्रह्मरन्ध्र से उत्पन्न, ब्रह्मरन्ध्र
में रहने वाली, ब्रह्माण्ड के उद्भेदन में तत्पर और परब्रह्म
को धारण करने वाली है । जो द्रवरूप को धारण किए हुई है और शिवसंगम को देने वाली है
। मुक्ति देने वाली, भक्ति देने वाली तथा अनंगा है। जिसे
अनंगाँगी, त्रिमूर्ति, ब्रह्माणी,
कमला, सरस्वती, सावित्री
जयसेना तथा जयात्मिका कहते हैं । जो जयभद्रा, वैष्णवी,
चित्शक्ति, परमेश्वरी, त्रयी,
वेदवन्दित, मेदिनी, भेदिनी
को धारण करने वाली, वेदमूर्ति त्रिमूर्ति, देवमूर्ति, दयापरा, दामिनी,
दामिनी के समान वस्त्र वाली, कुलिशा, कुलिशप्रिया, कुलिशांगी, कुलांगी,
कुलीना, भाग्या, भाग्यगम्या,
यशोमती तथा कुलनाथ-कुटुम्बिनी है । जिसे कला, कलाधर
को धारण करने वाली, कलाधरशतप्रिया, षोडशी,
षोडशाराध्या (सोलह विधियों से पूजित), छः
न्यास में सहायिनी षोढासमासनिलया, षोढांगी, कालरूपिणी, कालिका, मुण्डमाला,
शतकालों को नष्ट करने वाली, कालांगी, काली, कालेश्वरी, शैवी,
माया, शिवा, रुण्डा,
चण्डमुण्ड को नष्ट करने वाली, चण्ड अट्टहास
करने वाली, दुर्गम्य, चण्डों की प्रीति
को बढ़ाने वाली, चण्डेश्वरी, महाप्राज्ञा,
आराधना करने पर सिद्धि देने वाली, लक्षलाभ को उत्पन्न
करने वाली, शतलाभा, सुरेश्वरी, कौमारी, शक्ति, उद्दिष्टा,
क्रौंच-दैत्य-विनाशिनी कहते हैं ॥ ८-२०॥
तारकासुरहन्त्री च तारकामयगामिनी ।
तारकस्य पराशक्तिस्तारकाणां
पतिप्रिया ॥ २१॥
तारकेशपरा ज्योत्स्ना तारेशशतरूपिणी
।
नारायणी दयासिन्धुः
सिन्धूत्तरनिवासिनी ॥ २२॥
सिन्धुश्रेष्ठतमा भार्या रत्नदा
रत्नहारिणी ।
जलन्धरस्य जननी जलन्धरविरूपिणी ॥
२३॥
काममाता च कामघ्नी रतिरूपा शतप्रिया
।
भीष्ममाता महाभीष्मा भीष्माणां
प्रीतिवर्द्धिनी ॥ २४॥
ज्वाला कराली तुङ्गेशी
तुङ्गशेखरवासिनी ।
तुङ्गेश्वरसहाया वदर्याश्रमवासिनी ॥
२५॥
जो तारक राक्षस को मारने वाली,
तारकामयगामिनो, तारकों की दूसरी शक्ति,
पतिप्रिया, तारकेशपरा, ज्योत्स्ना,शतचन्द्रस्वरूपिणी, नारायणी, दयासिन्धु,
सिन्धु के उत्तर में रहने वाली, सिन्धु से
श्रेष्ठतम, भार्या, रत्न को देने वाली, रत्न का हरण करने वाली, जलन्धर की जननी, जलन्धर को विरूप करने वाली, काम की माता, काम को नष्ट करनेवाली, रतिरूपा, शतप्रिया, भीष्म की माता, महाभीष्मा,
भीष्मों की प्रीति बढ़ाने वाली, ज्वाला,
कराली, तुंगेशी, उच्च शिखर
पर रहने वाली, तुंगेश्वरसहाया तथा बदरिकाश्रम में रहने वाली
हैं ॥ २१-२५॥
श्रीक्षेत्रनिलया चैव द्वारस्था
द्वारपालिनी ।
जाह्नवी जह्नतनया नागालयनिवासिनी ॥
२६॥
नागानां जननी चैव
नागप्रीतिविर्द्धिनी ।
नागेश्वरसहाया च कैलासनिलया तथा ॥
२७॥
महाप्रभा वरेण्या च वेदमाता विलासिनी
।
हरसङ्गरता चैव हरिपादविनिःसृता ॥
२८॥
अदितिश्च दितिश्चैव कद्रू च विनता
तथा ।
सुरसा चाग्निभार्या च रत्नगर्भा
विभावरी ॥ २९॥
शारदी वै चन्द्रकला नलकूबरसेविता ।
अरिष्टनेमिदुहिता नहुषाङ्गणवासिनी ॥
३०।
शन्तनोर्गुहिणी भव्या वसुमाता
कृशोदरी ।
मत्स्योदरी सुराराध्या सुराणां
प्रीतिदायिनी ॥ ३१॥
यमुना चन्द्रभागा च शतद्रूः
सरयूस्तथा ।
सरस्वती
शुभामोदा नन्दनाद्रिनिवासिनी ॥ ३२॥
नन्दप्रियाङ्गनिलया
देवतीर्थनिवासिनी ।
रुद्राणी रुद्रसावित्री
महाभैरवनादिनी ॥ ३३॥
भैरवी भाषणवरा भृगुतुङ्गनिवासिनी ।
केदारशिखरावासा महावलयवासिनी ॥ ३४॥
तुङ्गभद्रा सुषेणा च
मान्धातृजयदायिनी ।
भूतभव्यपरा शर्वाखर्ववर्गा
नृपेश्वरी ॥ ३५॥
जिसे श्रीक्षेत्र में रहने वाली,
द्वारस्था, द्वारपालिनी, जाह्नवी, जह्नु तनया, नागलोक
में रहने वाली, नागों की जननी, नागों
की प्रीति को बढ़ाने वाली, नागेश्वरसहाया, कैलाश में रहने वाली, महाप्रभा, वरेण्या, वेदमाता, विलासिनी, शंकर के साथ आनन्दित, हरिचरणों से निकली हुई,
अदिति, दिति, कद्रू,
विनता, सुरसा, अग्निगर्भा,
रत्नगर्भा, विभावरी,
शारदीयचन्द्रकला, नलकूबर से सेवित, अरिष्टनेमि
की कन्या तथा नहुष के आँगन में रहने वाली कहते हैं । जो शान्तनु की गृहिणी,
भव्या, वसुमाता, कृशोदरी,
मत्स्योदरी, देवताओं से आराध्य, देवताओं को प्रीति देने वाली, यमुना, चन्द्रभागा,शतद्रु, सरयू,
सरस्वती, शुभामोदा, नन्दन
पर्वत पर रहने वाली,नन्दप्रिया के अंग में रहने वाली,
देवतीर्थ में रहनेवाली, रुद्राणी, रुद्रसावित्री, महाभैरवनाद करने वाली, भैरवी, भीषण वर को देने वाली, भृगु
के उच्च शिखर पर रहने वाली, केदार के शिखरों पर रहने वाली,
महावलयवासिनी, तुंगभद्रा, सुषेणा, मान्धाता को जय देने वाली,भूतभव्यपरा, शर्वा, अखर्वगर्वा
तथा नृपेश्वरी है ॥ २६-३५॥
भविष्यज्ञानदा भूतज्ञानदा वर्तमानदा
।
शुक्रस्य जननी सौम्या व्यासमाता
सुरेश्वरी ॥ ३६॥
धारापानधरा धीरा धैर्यदा शुभदायिनी
।
कङ्कणा कङ्कणप्रख्या शुभकङ्कणदायिनी
॥ ३७॥
कङ्कणैः पातकहरा प्रबला शत्रुनाशिनी
।
स्मरतां
मुक्तिदा भुक्तिरूपा रूपविर्जिता ॥ ३८॥
देवानीका देवसेव्या सेवारूपफलामला ।
कृत्तिका कार्तिकावासा
कार्तिकस्नानदायिनी ॥ ३९॥
पुष्करा पुष्करावासा
पुष्पप्रचयसुन्दरी ।
मुनिसेव्या मुनिर्मेना
मानवाकारधारिणी ॥ ४०॥
जिसे भविष्य को बताने वाली,
भूत बताने वाली, वर्तमान बताने वाली, शुक्र की जननी, सौम्या, व्यासमाता, सुरेश्वरी धारापानधरा, धीरा, धैर्य
देने वाली, शुभ देने वाली, कंकणा,
कंकणसदृशा, शुभ कंकण देने वाली, कंकणों से पातकों को नष्ट करने वाली, प्रबल शत्रुओं
को नष्ट करने वाली, स्मरण करते ही मुक्ति-भुक्ति देने वाली, रूपरहित, देवताओं की सेना स्वरूप, देवसेव्या, सेवारूपफलामला; कृत्तिका,
कार्त्तिकावासा, कार्त्तिक-स्नान को देने वाली
पुष्करा, पुष्कारावासा । पुष्पप्रचय से सुन्दर, मुनियों से सेव्य, मुनियों से माननीय, तथा मानव शरीर को धारण करने वाली कहते हैं ॥ ३६-४०॥
मैनाकशिखरावासा काशीपुरनिवासिनी ।
महाप्रयागनिलया तीर्थराजप्रसाधिनी ॥
४१॥
अक्षया क्षयरूपा संसारक्षयकारिणी ।
मृगशीर्षधरा मार्गशीर्षस्नानफलप्रदा
॥ ४२॥
पुण्यनक्षत्ररूपा च पौषेऽतीवफलप्रदा
।
माघी मघायुता माध्या
माघस्नाननिवासिनी ॥ ४३॥
श्री पञ्चमी श्रियोरूपा
षष्टिचारण्यसंज्ञिता ।
अचला
निश्चला जम्बूर्जम्बूद्वीपसहायिनी ॥ ४४॥
भीष्माष्टमी भीष्मगर्भा
भीष्मपञ्चकसेविता ।
एकादशी
द्वादशी च पुण्यापुण्यसहायिनी ॥ ४५॥
पुण्यदा पुण्यनिलया पुण्याङ्गी
चारुवाहिनी ।
फाल्गुनी फाल्गुने सेव्या होलिका
गन्धरूपिणी ॥ ४६॥
जो मैन्नाक शिखर पर रहने वाली,
काशीपुर में रहने वाली, महाप्रयाग में निवास
करने वाली, तीर्थराज की सेवा करने वाली, अक्षया, क्षय-रूपा, संसार का
क्षय करने वाली, मृगशीर्षधरा, मार्गशीर्ष
में स्नान का फल देने वाली, पुष्य नक्षत्र स्वरूप, पौष मास में अत्यन्त फल देने वाली, माघी, मघायुता, माध्या माघस्नान में रहने वाली, श्री पंचमी को शोभास्वरूप, षष्टिचारण्य नामवाली,
अचला, निश्चला जम्बू, जम्बूद्वीप
की सहायता करने वाली, भीष्माष्टमी, भीष्मगर्भा,
भीष्म पंचक से सेवित, एकादशी, द्वादशी, पुण्य और अपुण्य में सहायता करने वाली,
पुण्यदा, पुण्य में रहने वाली, पुण्यांगी, सुन्दर वाहन वाली, फाल्गुनी,
फाल्गुन में सेवनीय, होलिका तथा गन्धरूपिणी है
॥ ४१-४६॥
हुताशनी मह देवी सन्तुष्टा
भस्मधारिणी ।
वसन्तर्तुसुसेव्या च
वसन्तोत्सवदायिनी ॥ ४७॥
चैत्री चित्रा पुष्पगणरूपा गणेश्वरी
।
मकरन्दस्वरूपा च मकरन्दनिवासिनी ॥
४८॥
चैत्रशुक्लप्रतिपदा वर्षारम्भकरा
शुभा ।
माधवी
माधवागारा माधवप्रीतिदायिनी ॥ ४९॥
विशाखा वेणुपापघ्नी वैशाखी
भानुसप्तमी ।
वैशाखस्नानशुभदा पिण्डाकरनिवासिनी ॥
५०॥
जिसे हुताशनी,
महादेवी, सन्तुष्ट, भस्म
को धारण करने वालो, वसन्त ऋतु में सेवनीय, वसन्तोत्सव देने वाली चैत्री, चित्रा, पुष्पगण रूप, गणेश्वरी, मकरन्द
स्वरूप, मकरन्द में रहने वाली, वर्षारम्भ
करने वाली चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा, माधव की प्रीति देने वाली,
माधव स्वरूप, माधवी, विशाखा,
वेणु पापघ्नी, वैशाखी सूर्य सप्तमी, पिण्डों के समूह में रहकर शुभ वैशाखस्नान देने वाली कहते हैं ॥ ४७-५०॥
तथाक्षयतृतीया च सक्तुदानशुभप्रदा ।
प्रपापुण्यप्रदा चैव
नित्यस्नानवशीकृता ॥ ५१॥
ज्येष्ठा ज्येष्ठस्य महता
दशपापप्रणाशिनी ।
निर्ज्जला रूपिणी चैव तथानलशया मता
॥ ५२॥
आषाढ़ई चारुसर्वाङ्गी तथा
हरिशयस्थिता ।
श्रावणी
श्रवणानन्दा सर्वसौख्यप्रदायिनी ॥ ५३॥
भद्रा भाद्रपदे सेव्या जन्मा
जन्माष्टमी तथा ।
दूर्वापूजनसन्तुष्टा
बीजाङ्कुरनिवासिनी ॥ ५४॥
आश्विने सुतरां सेव्या
पितृभक्तिप्रदायिनी ।
नवमी कृष्णपक्षस्य शुक्लपक्षस्य
पूर्णिमा ॥ ५५॥
नवरात्रसहायां च
कालरात्रिर्महाष्टमी ।
अश्विनी भौमवारस्य शतरूपा ह्ययोनिजा
॥ ५६॥
जो शुभ सक्तुदान का फल देने वाली
अक्षय तृतीया, नित्यस्नान से वशीकृत हो पुण्य
देने वाली, ज्येष्ठा, ज्येष्ठ के दस
पापों को नष्ट करने वाली निर्जला स्वरूप, अग्निस्वरूप,
आषाढी, चारुसर्वांगी, हरिशयन
करने वाली, श्रवण को आनन्द देने वाली तथा सर्वसौख्य देने
वाली श्रावणी भद्रा, भाद्रपद में सेव्य, जन्माष्टमी, दूर्वापूजन से सन्तुष्ट, बीजांकुर में रहने वाली, आश्विन में भली प्रकार
सेवनीय, कृष्णपक्ष की नवमी तथा शुक्लपक्ष की पूर्णिमा,
नवरात्र में सहायता करने वाली, कालरात्री,
महाष्टमी, मंगलवार का अश्विनी नक्षत्र स्वरूप,
शतरूपा, योनि से अनुत्पन्न हैं ॥ ५१-५६॥
हरसेव्या हराङ्गी च हरमन्दिरगामिनी
।
प्रमोदा मोदसङ्कल्पा नानारूपा
महोदरी ॥ ५७॥
महानन्दप्रदात्री च
नानालङ्कारधारिणी ।
अलङ्कारप्रिया
चैव नानातिथिसमाश्रया ॥ ५८॥
तिमिङ्गिलधरा स्वच्छा
नानाग्रावविदारिणी ।
गण्डशैलवहा चैव कामदेवधराम्बरा ॥
५९॥
सर्वतीर्थमयी सर्वदेवदानवरूपिणी ।
काशीप्रान्तवहा तुच्छप्रवाहा
भारनाशिनी ॥ ६०॥
जिसे हरसेव्य,
हरांगी, हर-मन्दिर में जाने वाली, प्रमोदा, मोदसंकल्पा, नानारूपा,
महोदरी, महान आनन्द देने वाली, अनेक अलंकार दान करने वाली, अलंकारप्रिया, अनेक तिथियों में रहने वाली, तिमि आदि जल-जन्तुओं को
धारण करने वाली, अनेक चट्टानों को फोड़ने वाली, बड़ए-बड़ए पर्वत के टुकड़ओं को बहाने वाली, आकाशगामिनी,
सर्वतीर्थमयी, सब देव और दानव स्वरूपिणी,
काशी में प्रातःकाल बहने वाली, तुच्छप्रवाहा,
और भारनाशिनी कहते हैं ॥ ५७-६०॥
भरणी भारणाङ्गी च तथ्यातथ्यप्रिया
सती ।
सतीनां प्रथमं गण्या गण्या सर्वमयी
प्रभुः ॥ ६१॥
धीर्द्धारणावती सर्वजनस्य हृदि
संस्थिता ।
स्थितिरूपा स्थितिधरा स्थिराङ्गी
कमलप्रिया ॥ ६२॥
कुशोच्छिन्नतरा चैव
दुर्वाङ्कुरविराजिता ।
तरङ्गिणी शैवलिनी तरङ्गशतसङ्कुला ॥
६३॥
महाकच्छपनिलया कच्छपपृष्ठसंस्थिता ।
नानाजन्तुधरा प्रोक्ता
नानाजन्तुविनाशिनी ॥ ६४॥
वर्षाकालतरा सौम्या वातकल्लोलकारिणी
।
तीरस्थशवसञ्च्छन्ना धन्यानां
शववाहिनी ॥ ६५॥
जो भरणी,
भारणांगी, तथ्य तथा अतथ्य को प्रिय समझने वाली,
सती, सतियों में प्रथम गणनीय, सर्वमयी, प्रभु, बुद्धि को
धारण करने वाली, सब लोगों के हृदय में स्थित, स्थिति रूप, स्थितिधरा, स्थिरांगी,
कमलप्रिया, कुशों से उच्छिन्न तट वाली,
दूर्वाकुरों से विराजित, तरंगिणी, सेवार से युक्त, सैकड़ओं तरंगों से व्याकुल, महाकच्छप पर रहने वाली,कच्छप के पृष्ठ पर बैठी हुई
अनेक जन्तुओं को धारण करने वाली, अनेक जन्तुओं को नष्ट करने
वाली, वर्षा काल में सौम्य, वायु से
कल्लोल करने वाली, किनारे के प्रेतों से आवृत तथा अन्य लोगों
के प्रेत को ढोने वाली है ॥ ६१-६५॥
तरङ्गशतशोभाढ्या तरङ्गशतमालिनी ।
स्वर्नारीकुचकुम्भस्य
कुङ्कुमारुणसुन्दरी ॥ ६६॥
नानापुष्पोपहारा च
सुखसम्पत्तिदायिनी ।
मन्दाकिनी सरिच्छ्रेष्ठा
सर्वदेवविगाहिनी ॥ ६७॥
सर्वलोकमयी तन्द्रा
तन्त्रशास्त्रविनोदिनी ।
तन्त्री तन्त्रस्थिता विद्या
महादेवकुटुम्बिनी ॥ ६८॥
सर्वशास्त्रमयी नन्दा
वासवेश्वरपालिनी ।
शची पुलोमजा तुङ्गा कश्यपश्य प्रिया
मता ॥ ६९॥
सृष्टिः सृष्टिकृदाराध्या प्रलये
कालरूपिणी ।
द्वादशादित्यसदृशी प्रभा
त्रैलोक्यदीपिका ॥ ७०॥
जिसे सैकड़ों तरंगों की शोभा से
युक्त,
सैकड़ओं तरंग मालाओं से शोभित, स्वर्गीय
स्त्रियों के स्तन-कुम्भ के कुमकुम से अरुण होने के कारण सुन्दर, अनेक पुष्पोपहारों से युक्त, सुख-सम्पत्ति को देने
वाली, मन्दाकिनी, नदियों में श्रेष्ठ,
सब देवों ने जिसमें स्नान किया है, सर्वलोकमयी,
तन्द्रा, तन्त्र शास्त्र से बिनोद करने वाली,
तन्त्री, तन्त्रस्थिता, विद्या,
महादेव की कुटुम्बिनी (स्त्री), सर्वशास्त्रमयी,
नन्दा वासवेश्वरपालिनी, शची, पुलोमजा, तुंगा, कश्यप की
प्रिया, सष्टि, सृष्टिकर्ता से आराध्य,
प्रलय में कालस्वरूप और द्वादश सूर्यों के समान त्रैलोक्य को
प्रकाशित करने वाली प्रभा के सहित कहते हैं ॥ ६६-७०॥
त्रिलोकनिलया वेद्या एदरूपाघमदिन् ।
??
मणिप्रचयसम्पूज्या मध्याह्नार्क
निवासिनी ॥ ७१॥
प्रभातारुणसर्वाङ्गी
सर्वकामप्रदायिनी ।
प्रातः सन्ध्या तथा प्रोक्ता
सन्ध्या मध्याह्निकी मता ॥ ७२॥
सायं सन्ध्या तथा रात्रिसन्ध्या
तिमिररूपिणी ।
निशीथतारका
प्रख्या विद्युद्रूपा महोत्सवा ॥ ७३॥
दुःखानां च विहन्त्री च नाना
दुःखनिवारिणी ।
विनोदिनी सुकल्लोला सागरस्वननिःस्वना
॥ ७४॥
गम्भीरावर्तशोभाढ्या गम्भीरगजगामिना
।
नानापक्षिसमाकीर्णा जलकुक्कुटशोभिता
॥ ७५॥
जो त्रैलोक्य में रहने वाली,
जानने योग्य, वेद स्वरूप, पापों को नष्ट करने वाली, मणियों के समूह से पूजनीय,
मध्याह्न के सूर्य में रहने वाली, प्रभात काल
में सर्वाग से अरुण, सर्व काम को देने वाली, प्रातः-सन्ध्या स्वरूप,मध्याह्न-सन्ध्या स्वरूप,
सायं सन्ध्या स्वरूप, अभिसन्ध्या स्वरूप,
अन्धकार स्वरूपिणी, रात्रि में तारका स्वरूप,
विद्युत् स्वरूप, महोत्सव स्वरूप, दुःखों को नष्ट करने वाली, अनेक प्रकार के दुःखों का
निवारण करने वाली, विनोदिनी, अत्यन्त
कल्लोल करने वाली, समुद्र की आवाज की तरह आवाज करने वाली,
गहरे भंवरों की शोभा से युक्त, गजवत्
गम्भीरगामिनी अनेक पक्षियों से युक्त तथा जलमुर्गों से सुशोभित हैं ॥ ७१-७५॥
जलजारुणसर्वाङ्गी शङ्खवत्कैरवाम्बरा
।
कुन्दश्वेता कुन्दभूषा श्वेताम्बरविराजिता
॥ ७६॥
राजहंसपरीवारा तटस्थद्रुमशोभिता ।
द्रुमाम्बरा द्रुमावासा
वृहद्द्रुमविदारिणी ॥ ७७॥
पद्मलेखा पद्मसेव्या पद्मा
पद्मजपूजिता ।
लक्ष्मी श्यामा वरारोहा वराङ्गी
भुवनेश्वरी ॥ ७८॥
तारा श्रीदनिदा धन्या दानवानां
विनाशिनी ।
छिन्नमस्ता च नक्षत्रा योगिनी
योगसेविता ॥ ७९॥
योगगम्या योगिधरा
योगिप्रीतिविर्द्धिनी ।
योगमार्गरता साध्या
साधकाभीष्टदायिनी ॥ ८०॥
जिसे लाल कमल की तरह शरीरवाली,
शंख की तरह स्वच्छ वस्त्र वाली, कुन्द के फूल
की तरह श्वेत, श्वेतवस्त्र से शोभित, राजहंस
के परिवार वाली; तटस्थद्रुमों से शोभित, द्रुमावासा, बड़ए-बड़ए पेड़ओं को नष्ट कर देने वाली,
पद्मलेखा, पद्मसेव्या, पद्मा,
ब्रह्मा से पूजित, लक्ष्मी, श्यामा, वरारोहा वरांगी, भुवनेश्वरी,
तारा, श्री, दान
देनेवाली, धन्या, राक्षसों को नष्ट
करने वाली, जिनका अस्त कभी नहीं होता ऐसे नक्षत्र-स्वरूप,
योगसेविता, योग से प्राप्त होने वाली, योगियों की प्रीति को बढ़ाने वाली, योगमार्ग में रत,
साध्या और साधक को अभीष्ट देने वाली कहते हैं ॥ ७६-८०॥
सिद्धिदा सिद्धिसंसेव्या
सिद्धिपूज्या सुरेश्वरी ।
साधिका साधना तुष्टा साधकानां
प्रियङ्करी ॥ ८१॥
प्रद्युम्नस्यैव जननी
प्रद्युम्नशतसुन्दरी ।
प्रद्युम्नाङ्गा सुप्रद्युम्ना
वराभयकरा तथा ॥ ८२॥
वरदा वरसेव्या च वराङ्गी वरवर्णिनी
।
वनेचरगणाधीशा वनेचरजनप्रिया ॥ ८३॥
वनेचरान्दृशा हन्त्री
वनेचरमनःप्रिया ।
सुरवदा सुखसेव्या च सुभानां
शतसंयुता ॥ ८४॥
बलभद्रसमाभासा बलभद्रप्रिया तथा ।
बलाराध्या बला वृष्टिबालानां
प्रीतिवर्द्धिनी ॥ ८५॥
जो सिद्धि देने वाली,
सिद्धियों से सेवित, सिद्धी से पूज्य, सुरेश्वरी, साधिका, साधना,
सन्तुष्ट, साधकों का प्रिय करने वाली, प्रद्युम्न की जननी, सौ प्रद्युम्नों के समान सुन्दर,
प्रद्युम्न के समान शरीरवाली, हाथों में वर
तथा अभय मुद्रा रखने वाली, वर देनेवाली, वरांगी वरसेव्या, अच्छे वर्ण वाली, वनेचरगणों की स्वामिनी, वनेचर लोगों को प्रिय
वनेचरों को दृष्टि से मारने वाली, वनेचरों को मन से प्रिय,
सुख देने वाली, सुखसेव्या, सैकड़ओं शुभों से युक्त,बलभद्र के समान भासित होने
वाली, बलभद्र की प्रिया, बलदेव की
आराध्य देवता, बला और वृष्णि वंश की कन्याओं की प्रीति
बढ़ाने वाली हैं ॥ ८१-८५॥
रामा रामप्रिया साध्वी
सीतारामसुसेविता ।
रमणीया सुरम्याङ्गी तथा
श्रीरमणप्रिया ॥ ८६॥
रेवती रैवते गम्या तथा रैवतवासिनी ।
रतिरूपधरा सुभ्रर्नारदी नारदेरिता ॥
८७॥
मृदङ्गशतसंवाद्या मृदङ्गशतपूजिता ।
पणवा पणवाकारा पणवेरितशब्दिका ॥ ८८॥
नानावादित्रकुशला वादित्रशतशोभिता ।
रससारा रसाकारा शतसारसशोभिता ॥ ८९॥
सन्धिः सन्धिस्वरूपा च
सन्धिनिर्णयदीपिका ।
सन्धिस्वरूपदुर्गम्या
स्वरसन्धिस्थिता प्रिया ॥ ९०॥
जिसे रामा,
रामप्रिया, साध्वी, सीता
के स्मरण से सुसेवित, रमणीय, सुरम्यांगी,
श्रीरमणप्रिया, रेवती, रैवत
पर्वत पर प्राप्य, रैवत पर्वत पर रहने वाली, रति रूप को धारण की हुई, सुभ्रू , नारदी, नारद से प्रेरित, सैकड़ओं
मृदंगों से संवाद्य, सैकड़ओं मृदंगों से पूजित, पणवा, ढोल के समान आकार वाली, ढोल
से प्रेरित है शब्द जिसका, अनेक वाद्यों में कुशल, सैकड़ओं वाद्यों से शोभित, रससारा, रसाकारा, सैकड़ओं सारस पक्षियों से शोभित, सन्धि, सन्धिस्वरूपा, सन्धिनिर्णय
की दीपिका, सन्धि स्वरूप के कारण दुर्गम, स्वर सन्धि में स्थित तथा प्रिय कहते हैं ॥ ८६-९०॥
शब्दा शब्दस्वरूपा च
शब्दशास्त्रप्रमोदिनी ।
युष्मदस्मत्स्वरूपा च कारका
कारकप्रिया ॥ ९१॥
शब्दसन्धिस्वरूपा च तद्धितप्रत्यया
परा ।
धातुवादरता चैव धातूनां सन्धिरूपिणी
॥ ९२॥
नैय्यायिकी तर्कविद्या तर्काराध्या
सुतार्किका ।
चतुः प्रमाणगम्या च द्रव्यरूपा
गुणेश्वरी ॥ ९३॥
कर्मज्ञा कर्मनिलया सामान्या
समपूजिता ।
समवायस्थिता भावरूपा सर्वप्रियङ्करी
॥ ९४॥
पञ्चविशतितत्त्वज्ञा मीमांसकरता तथा
।
मीमांसाशास्त्रनिरता तथा
मीमांसकप्रिया ॥ ९५॥
जो शब्दा,
शब्दस्वरूपा, व्याकरण में प्रमोद करने वाली,
युष्मद् अस्मत्स्वरूपा, कारक स्वरूप, कारकप्रिय, शब्दसन्धि स्वरूप, तद्धित
प्रत्यय स्वरूप, धातुवाद में र क्त, धातुओं
की सन्धिस्वरूप, नैय्यायिकी, तर्कविद्या,
तर्क से आराध्य, सुतार्किक, चार प्रमाणों से गम्य, द्रव्यरूप गुणेश्वरी, कर्मज्ञा, कर्म में वास करने वालो, सामान्य, समपूजित, समवाय में
स्थित, भावरूप, सबका प्रिय करने वाली,
पंचविंशति तत्त्वों को जानने वाली, मीमांसकों
पर प्रेम रखनेवाली, मीमांसाशास्त्र में रत तथा मीमांसाकों को
प्रिय हैं ॥ ९१-९५॥
मीमांसागम्यरूपा च
कर्मब्रह्मप्रचोदिता ।
साङ्ख्या साङ्ख्यपरा सङ्ख्या साङ्ख्यसूत्रप्रमोदिनी
॥ ९६॥
प्रकृतिः पुरुषाकारा
भिन्नाभिन्नस्वरूपिणी ।
स्पर्शिनी स्पर्शरूपा च स्पर्श्या
चुम्बकलोहवत् ॥ ९७॥
पातञ्जलिधरागम्या पतञ्जलिमुनिप्रिया
।
वेदान्तिनी
वेदगम्या वेदान्तप्रतिपादिनी ॥ ९८॥
वेदान्तनिलया वेद्या
वेदान्तिकजनप्रिया ।
अद्वैतरूपिणी चैव अद्वैतप्रविवादिनी
॥ ९९॥
अगम्याकाशरूपा च सर्वदेहस्वरूपिणी ।
वृथा सर्वप्रपञ्चा च संसारशतसङ्कुला
॥ १००॥
जिसे मीमांसागम्यरूपा,
कर्मब्रह्म से प्रेरित, सांख्या, सांख्यपरा, संख्या, सांख्य
सूत्रों से प्रसन्न होने वाली, प्रकृति, पुरुषाकारा, भिन्न तथा अभिन्न स्वरूप वाली, स्पर्शिनी, स्पर्श रूप, चुम्बक
लौह की तरह स्पर्श्य, पतंजलि को धारण करने वाली, पतंजलि मुनि को प्रिय, वेदान्तिनी, वेदगम्या, वेदान्त का प्रतिपादन करने वाली, वेदान्त निलया, वेद्या, वेदान्ति
जनों की प्रिय, अद्वैतरूपिणी, अद्वैत
की प्रेरणा करने वाली, अगम्या, आकाश
रूप को धारण की हुई, सबके शरीर में वर्तमान, सर्व प्रपंच को वृथा बताने वाली तथा सैकड़ओं संसारों से युक्त कहते हैं ॥
९६-१००॥
ससृतिर्मर्मनिरता धर्मनिष्ठा
पुरावरा ।
धर्मिष्ठा धर्मनिरता
धर्मशास्त्रप्रबोधिनी ॥ १०१॥
यज्ञीया यज्ञविद्या च यज्ञगम्या जनाधिपा
।
अश्वमेधादियज्ञानां जननी
जानकिप्रिया ॥ १०२॥
यज्ञभूमिर्यज्ञदेवी यज्ञानां
नाशकारिणी ।
यज्ञवाटस्थिता यज्ञा हविर्दात्री
प्रभञ्जिनी ॥ १०३॥
वाय्वाहारा वायुसेव्या शीतवातमनोहरी
।
ललना सरला पूर्वा दक्षिणा वारुणी
तथा ॥ १०४॥
कौवेरी च तथा शैवी आग्नेयी नैऋती
तथा ।
मारुती नन्दिनी चैव
नन्दनारण्यवासिनी ॥ १०५॥
जो संसृति,
मर्म में निरत, धर्मनिष्ठ, पुरा, अवरा धर्मिष्ठ, धर्मनिरत,
धर्मशास्त्र का बोध कराने वाली, यज्ञीय,
यज्ञ विद्या, यज्ञगम्य, जनाधिप,
अश्वमेधादि यज्ञों की जननी, जानकी की प्रिय,
यज्ञभूमि, यज्ञदेवी, यज्ञों
का नाश करने वाली, यज्ञ के मार्ग पर स्थित, यज्ञा, हवि को देने वाली, प्रभंजिनी,
वायु भक्षण करने वाली, वायुसेव्या, शीतवात से मनोहर, ललना, सरला,
पूर्वा, दक्षिणा, वारुणी,
कौवेरी, शैली, आग्नेयी,
नैरृती, मारुती, नन्दिनी
तथा नन्दनारण्य में रहने वाली हैं ॥ १०१-१०५॥
पातालनिलया सौम्या बोधी
बुद्धकुलोद्भवा ।
राजनीतिर्दंण्डनीतिस्त्रयीवार्तापरायणा
॥ १०६॥
स्वाहा स्वधा वषट्कारा ओङ्कारसदृशी
च या ।
नारिकेलप्रिया खज्जू प्रिया
रोगविनाशिनी ॥ १०७॥
जगदाधाररूपा च रूपेणाप्रतिमा तथा ।
भद्रकालस्वरूपा च मधुकैटभनाशिनी ॥
१०८॥
योगमाया महामाया निद्रा तन्द्रा
प्रवासिनी ।
नित्यानन्दस्वरूपा च सुधामात्रा
त्रिधात्मिका ॥ १०९॥
निःप्रपञ्चा निराधारा खङ्गचर्मधरा
सरित् ।
वनौकसारा सवना अलका चामरावती ॥ ११०॥
जिसे पातालनिलया,
सौम्य, बोधी, बुद्धकुल
में उत्पन्न, राजनीति, दण्डनीति,
त्रयीवार्तापरायण, स्वाहा, स्वधा, वषट्कारस्वरूप, ओंकारसदृश,
नारिकेलप्रिय, खर्जूप्रिय, रोगविनाशिनी, जगदाधाररूप, स्वरूप
से अप्रतिम, भद्रकाल स्वरूप, मधुकैटभ
नामक दैत्य को नष्ट करने वाली, योगमाया, महामाया निद्रा, तन्द्रा, प्रवासिनी,
नित्यानन्दस्वरूप, सुधामात्रा, त्रिधाभूत, प्रपञ्च रहित, निराधार,
चर्मखड्ग को धारण करने वाली नदी, वन में रहने
वाली, वन मेंनृत्य करने वाली, अलका तथा
अमरावती कहते हैं ॥ १०६-११०॥
भोगा भोगवती चैव यमसंयमनी कृपा ।
ईर्ष्यासूया तथा निन्दा तितिक्षा
क्षान्तिरार्जवम् ॥ १११॥
दुर्गा दुर्गतमा दुर्गवासिनी
वासवप्रिया ।
चन्द्रानना
चन्द्रवती तथा त्रिपुरसुन्दरी ॥ ११२॥
त्रिपुरा त्रिपुरेशानी त्रिपुरेशी
त्रिनेत्रका ।
निपुरध्वंसिनी चित्रा नित्यल्किन्ना
भगेश्वरी ॥ ११३॥
शुभगा शुभगाराध्या भर्गपूजनतत्परा ।
सुवासिन्यर्चनप्रीता सुवासाः
सुमनोहरा ॥ ११४॥
सुप्रकाशा निराराध्या शोभना शुम्भनाशिनी
।
रजोगुणविनिर्मुक्ता निर्मुक्ता
मुक्तिदायिनी ॥ ११५॥
जो भोगा,
भोगवती, कृपा, यम का
संयमन करने वाली, ईर्ष्या, असूया,
निन्दा, तितिक्षा, शान्ति,
आर्जव,दुर्गा, दुर्गतमा,
दुर्गवासिनी, वासव प्रिय, चन्द्रानना, चन्द्रवती,त्रिपुरसुन्दरी,
त्रिपुरा, त्रिपुर की स्वामिनी, त्रिपुरेशी, त्रिनेत्रक, त्रिपुर
का ध्वंस करने वाली, चित्रा नित्यक्लिन्न, भगेश्वरी, शुभगौं, शुभगों से
आराध्य, शंकर कि पूजा में तत्पर, सुवासिनियों
की पूजा से प्रसन्न होने वाली, सुगन्ध युक्त, सुमनोहर, सुप्रकाशा, देवताओं
से आराध्य, शोभना, शम्भु को नष्ट करने
वाली, रजो गुण से मुक्त, निर्मुक्त तथा
मुक्ति देने वाली हैं ॥ १११-११५॥
निःप्रकाशा निराधारा साधारा
गुणसंयुता ।
गम्भीर वेदिनी सौरी तपनी तपनप्रिया
॥ ११६॥
अम्भोजिनी पुरारातिसेव्या तु
सुरभिःस्वरा ।
नादिनी सुनदा नन्दी अम्बिका
अम्बिकेश्वरी ॥ ११७॥
रिमागङ्ग् ??
त्रिवलिनी त्रिजिह्वा त्रितयात्मिका ।
त्रिनन्दा त्रिप्रिया चैव अनसूया
त्रिमालिनी ॥ ११८॥
त्रिपादिका त्रितन्त्री च
तन्त्रशास्त्रप्रमोदिनी ।
मन्त्रज्ञा मन्त्रनिलया
मन्त्रसाधनतत्परा ॥ ११९॥
मन्त्राणी मन्त्रसुभगा
मन्त्रजाप्यजला विभुः ।
रक्तदन्ती रक्ततुण्डा रक्तबीजविनाशिनी
॥ १२०॥
जिसे निःप्रकाश,
निराधार, साधार, गुणसंयुता,
गम्भीरवेदिनी, सौरी, तपनी,
तपनक्रिया, अम्भोजिनी, पुरारातिसेव्य
सुरभिःस्वरा, नादिनी, सुनदा, नन्दी, अम्बिका अम्बिकेश्वरी, त्रिमार्गगा,
त्रिवलिनी, त्रिजिह्वा, त्रितयात्मिका,
त्रिनन्दा, त्रिप्रिया, अनसूया,
त्रिमालिनी, त्रिपादिका, त्रितन्त्री, तन्त्रशास्त्र से आनन्दित होने वाली,
मन्त्रज्ञ, मन्त्रनिलय, मन्त्रसाधन
में तत्पर, मन्त्राणी, मन्त्रसुभग,
मन्त्र से उत्पन्न होने पर भी जल रहित, विभु,
लाल दाँत वाली, लाल मुंह वाली तथा रक्तबीज को
नष्ट करने वाली कहते हैं ॥ ११६-१२०॥
रक्ताम्बरधरा रक्ता रक्ताक्षी
रक्तवर्जिता ।
रक्ततृप्ता रक्तहरा रक्तस्य
वृद्धिदायिनी ॥ १२१॥
हरिताभा हरिद्राभा
हरिद्रागन्धपूजिता ।
हरिद्वारससम्पूज्या हरिद्राङ्गी
हरित्स्थिता ॥ १२२॥
पीताम्बरधरानन्ता पीतगन्धसुवासिनी ।
कर्बुराङ्गीकर्बुरा
च कर्बुराम्भःप्रपूजिता ॥ १२३॥
कनकाभा श्यामरूपा कामरूपधरा ।
कामरूपस्थिता विद्या कामरूपनिवासिनी
॥ १२४॥
पीठगा पीठसम्पूज्या पीठस्था
पीठवासिनी ।
स्वर्णपीठासना पीठा
सर्वपीठप्रपूजिता ॥ १२५॥
जो रक्त वस्त्र धारण करने वाली,
रक्तरूपा, रक्तनेत्रा, रक्तवर्जिता,
रक्त से तृप्त होने वाली, रक्तहरा, रक्त को बढ़ाने वाली, हरित वर्ण की शोभा से युक्त
हरिद्रा के वर्ण के समान चमकने वाली, हरिद्रा के गन्ध से
पूजित, हरिद्रा के रस से पूजित होने योग्य, हरिद्रा की तरह अंग वाली, दिशाओं में वर्तमान,
पीताम्बर को धारण की हुई अनन्त, पीतगन्ध से
सुवासित, विविध वर्ण के शरीर वाली, कर्बूरा,
चित्र-विचित्र वर्ण वाले जल से पूजित, कनकाभा, श्यामरूपा, कामरूप को धारण की हुई, काम रूप में स्थित, कामरूपनिवासिनी, विद्या, पीठगा, पीठसम्पूज्य,
पीठस्था, पीठवासिनी, स्वर्णपीठ
पर बैठी हुई और सर्व पीठों से पूजित मुख्य पीठ के समान हैं ॥ १२१-१२५॥
राजराजेश्वरी माला राजराजधनाधिपा ।
कुबेरगृहसम्पच्च यज्ञगन्धर्वसेविता
॥ १२६॥
विद्याधरगणाधीशा विद्याधरप्रपूजिता
।
यज्ञविद्या देवविद्या दैत्यविद्या
दैत्यविद्या विदेहिका ॥ १२७॥
शुक्रमाता शुक्रसेव्या शुक्रहस्तगता
तथा ।
सञ्जीवनामृता विद्या कचगा कचसेविता
॥ १२८॥
देवयानी च शर्मिष्ठा शर्मदा
शर्मभाविनी ।
सुरा सर्पिस्तथा माध्वी
मदविह्वललोचना ॥ १२९॥
सर्वभक्ष्या सर्वगम्या
सर्वस्वर्गप्रदायिनी ।
छन्दोमाता पिङ्गलाक्षी
सूत्रपिङ्गलदीपिका ॥ १३०॥
जिसे राजराजेश्वरी,
माला, राजराजधनाधिपा, कुबेर
के गृह की सम्पत्ति, यक्ष तथा गन्धर्वो से सेवित, विद्याधर गणों की स्वामिनी, विद्याधरों से पूजित,
शरीररहित, यक्षविद्या, देवविद्या,
दैत्य विद्या, शुक्रमाता, शुक्र से सेवित, शुक्र हस्तगत, संजीवन करने वाली अमृत विद्या, कचगा, कच से सेवित, देवयानी, शर्मिष्ठा,
शर्मदा, शर्मभाविनी, सुरा,
सर्पिष (घृत स्वरूप) माध्वी, मद से विह्वल नयन
युक्त, सर्वभक्ष्या, सर्वगम्या,
सब को स्वर्ग देने वाली, छन्दों की माता,
पिंगल (छन्दशास्त्र) स्वरूप नेत्र वाली तथा पिंगल सूत्रों को
प्रकाशित करने वाली कहते हैं ॥ १२६-१३०॥
वृत्ता वृत्तप्रिया मन्दा पापानां
शतमर्दिनी ।
जगती पृथ्वी आर्या अनुष्टुप्
त्रिष्टुबुष्णिका ॥ १३१॥
स्रग्धरा स्रग्धरा चैव माल्या
माल्यप्रिया सुधीः ।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्मोहा
मोहर्जिता ॥ १३२॥
मोहनाशकरा कार्या सर्वकार्यकरी मता
।
मोहिनी मोहवलया महावलयसुन्दरी ॥
१३३॥
सुमेरुशिखरावासा सुमेरुगृहपूजिता ।
सुमेरुमालिनी सुन्दा सुमुखी
सुमुखप्रिया ॥ १३४॥
वैनायिका विघ्नहरी
दुष्टविघ्नकरीश्वरी ।
मुक्ताम्बरा मुक्तकेशी
मत्तमातङ्गगामिनी ॥ १३५॥
जो वृत्ता,
वृत्तप्रिया, मन्द, सौ
पापों को नष्ट करने वाली, जगती, पृथ्वी,
आर्या, अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्,
उष्णिका, स्रग्धरा, (माला
को धारण की हुई) स्रग्धरा (छन्दः स्वरूप) माल्या, माल्यप्रिया,
निर्मम, निरहंकारा, निर्मोह,
मोहवजित, मोह का नाश करने वाली, कार्यस्वरूप, सब कार्यों को करने वाली, मोहिनी, मोहवलय युक्त, महान
वलय से सुन्दर, सुमेरु के शिखर पर रहने वाली, सुमेरु गृह में पूजित, सुमेरु, मालिनी, सुन्दा, सुमुखी,
सुमुखप्रिय, वैनायकी, विघ्नहरी;
दुष्टों के लिए विघ्न करने वाली मोतियों के समान स्वच्छवस्त्र युक्त,
मुक्तकेशी तथा मत्त हाथी की तरह चलने वाली हैं ॥ १३१-१३५॥
ज्वालाकरालवदना ज्वरनाङ्गी जलोदरी ।
जलपूरितसर्वाङ्गी जलेश्वरप्रपूजिता
॥ १३६॥
जलेश्वरजनिर्जाया जालपा जालशोभिता ।
वृन्दा वृन्दाधिपा वृन्दसेविका
वृन्दवृक्षिका ॥ १३७॥
त्वचा त्वचाविहीना च पल्वला पल्वले
स्थिता ।
मीना मीनसहाया च मीनध्वजविर्दिनी ॥
१३८॥
वडिशा वडिशाकारा धीवरा धीवरात्मजा ।
पारिजातप्रसूनाभा पारिजातप्रपूरिता
॥ १३९॥
पारिजाततटापारा कामधेनुर्विहङ्गमा ।
भेरुण्डा गरुडा गौडी
गुडनैवेद्यवासिनी ॥ १४०॥
जिसे ज्वाला,
कराल मुख वाली, ज्वलनांगी, जलोदरी, जलपूरित सर्वांग वाली, जलेश्वर (वरुण) से पूजित, जलेश्वर से उत्पन्न स्त्री
स्वरूप, जालपा, जालशोभित, वृन्द, वृन्दाधिपा, वृन्दा
(देव समूह) को सेविका, अनेक वृक्षों से युक्त, त्वक् विहीन, पल्वल (छोटा तालाब) पल्वल स्वरूप,
पल्वल में स्थित, मीना, मीनसहाया,
मीनध्वज को नष्ट करने वाली, वड़ैशा, वड़ैश के समानस्वरूप वाली, धीवर स्वरूप धीवरात्मजा,
पारिजात के फूलों की तरह आभावाली, पारिजात से
पूरित, दोनों तटों पर पारिजात के वृक्षों से शोभित, कामधेनु स्वरूप, आकाश में गमन करनेवाली (विहंगमा)
भेरुण्डा, गरुडा, गौडी, तथा गुड़ के नैवेद्य से सन्तुष्ट होने वाली कहते हैं ॥ १३६-१४०॥
जातमात्रहरा जाता जातगम्या सुजातिका
।
कालिन्दी कालतनया कला षोडशिका तथा ॥
१४१॥
दशमी विजया नाम राज्ञां वै जगदायिनी
।
युद्धश्रीर्विजया नाम
युद्धाङ्गणनिवासिनी ॥ १४२॥
मांसरक्ताशना चण्डा प्रचण्डा
शिववल्लभा ।
शिवदा मथुरावन्ती काञ्ची द्वारावती
तथा ॥ १४३॥
सरित्पतिप्रिया शुद्धा
गङ्गासागरसङ्गमा ।
प्रद्युम्नपूजिता
चचुचन्द्रिका चण्डसुन्दरी ॥ १४४॥
चम्पा चम्पकपुष्पाग्रा चम्पकाभा
सुचैलिका ।
चञ्चत्तरङ्गा सर्वाद्या
सर्वब्राह्मणपूजिता ॥ १४५॥
जो उत्पन्न होते ही हरण की गई,
जातगम्या, सुजातिका, कालिन्दी,
कालतनया, षोडशिका, कला,
राजाओं को जय देने वाली, विजया दशमी, युद्धांगण में बहने वाली, विजया नाम की युद्धश्री,
मांस-रक्त को खाने वाली शिवप्रिया, प्रचण्डा,
शिव को प्राप्त कराने वाली, मथुरा, अवन्ती, कांची तथा द्वारावती स्वरूप, सरित्पति (समुद्र) की प्रिया, गंगासागर से मिली हुई,
प्रद्युम्न से पूजित, चंचुचन्द्रिका, चण्डसुन्दरी, चम्पा, चम्पक
पुष्प के अग्र भाग पर रहने वाली, चम्पक की तरह आभा वाली,
सुन्दर वस्त्रों से शोभित, चंचल तरंगो से
युक्त, प्राणिमात्र में प्रथम तथा सब ब्राह्मणों से पूजित
हैं ॥ १४१-१४५॥
ब्राह्मणी ब्राह्मणाकारा
ब्राह्मणैःशुभसंवृता ।
यज्ञोपवीतिनी विप्रा कुमारी बृहदानना
॥ १४६॥
बृहस्पतिप्रपूज्या च
गुरुगीर्गुरुत्परा ।
गुरुप्रीतिर्गुरोर्विद्या
गुरुपूजनतत्परा ॥ १४७॥
गुर्विणी गुरुगम्या च
गयासुरविनाशिनी ।
पञ्चक्रोशी पञ्चहीना पञ्चमी
पञ्चसुन्दरी ॥ १४८॥
पवेषुः पञ्चनिलया पञ्चास्या
पञ्चमात्मिका ।
पञ्चपाण्डवमाता च कुन्ती कुन्तधराकरा
॥ १४९॥
तथा कुन्तलशोभाढ्या प्रमथा प्रमथा
तथा ।
स्वतन्त्रकीर्ती कार्यघ्नी द्वितीया
कर्मसस्थिता ॥ १५०॥
जिसे ब्राह्मणी,
ब्राह्मणाकारा, ब्राह्मणों से घिरी हुई,
यज्ञोपवीत को धारण की हुई, विप्र स्वरूप,
कुमारी, बृहद् मुख वाली, बृहस्पति से पूज्य, गुरुवाणी स्वरूप, गुरु कार्य में तत्पर, गुरुप्रीति स्वरूप, गुरुविद्या स्वरूप, गुरुपूजन में तत्पर, गुरुपत्नीस्वरूप, गुरुगम्य, गयासुर
को नष्ट करने वाली, पंचकोशी, पंचहीन,
पंचमी, पंचसुन्दरी, पंचेषु,
पंचनिलया, पाँच मुख वाली, पंचमात्मिका, पांचों पाण्डवों की माता कुन्ती कुन्त
(भाले) को हाथ में ली हुई, कुन्तल (केश)से शोभित प्रमथा,
स्वतन्त्र करने वाली, कार्य को नष्ट करने वाली,
कर्म में स्थित द्वितीया कहते हैं ॥ १४६-१५०॥
तृतीया करणे गम्या सम्प्रदाने
चतुर्थिका ।
अपादाने पञ्चमी च तथा
सम्बन्धषष्ठिका ॥ १५१॥
सप्तम्यधिकरणाख्या विभक्तिवरदातुरा
।
प्रतिबन्धस्य जननी औषधि वैद्यजीवनी
॥ १५२॥
हरीतकी च शुण्ठी च कणा हंसपदी तथा ।
हुसेनी हुँकृर्तिहुँवा गौरार्या
वृषभात्मिका ॥ १५३॥
गोस्तनी निम्नगा निम्बा नारदादिभिर
र्चिता ।
रेणुका रेणुतनया रजोनाशनतत्परा ॥
१५४॥
पापराशिहरा मन्त्री तथा नीरजशोभना ।
जया रिक्ता सुषेणा च केदारपथगामिनी
॥ १५५॥
जो करण (साधन) में प्राप्त होने
वाली तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी, अधिकरण में सप्तमी विभक्ति रूप, वर देने के लिए आतुर,
रोग का प्रतिबन्ध करने वालों की माता, वैद्यों
का जीवन देने वाली औषधि, हरीतकी (हरे) , शुण्ठी (सोण्ठ) , हंसपदी, कणा,
हुसेनी, हुंकृति, हुंवा,
गो, आर्या, वृषभ स्वरूप,
गोस्तनी, निम्नगा, निम्बा,
नारदादिकों से पूजित, रेणुका, रेणुतनया रजोगुण को नष्ट करने में तत्पर, पापराशि को
नष्ट करने वाली मन्त्रयुक्त कमलों से शोभित जया, रिक्ता,
सुषेणा, तथा केदार युक्त (कीचड़) मार्ग से
चलने वाली हैं ॥ १५१-१५५॥
जलयन्त्रामरी कन्दा कन्दमूलफलाशिनी
।
पितृमाता पितृपूज्या पितृणां
स्वर्गदायिनी ॥ १५६॥
भगीरथकृपा सिन्धुर्भवानी भवनाशिनी ।
सागरस्वर्गदा चैव सर्वसंसारगामिनी ॥
१५७॥
जिसे जलयन्त्र की देवता,
कन्दा, कन्दमूल तथा फल खाने वाली पितृमाता,
पितृपूज्य, पितरों को स्वर्ग देने वाली,
भगीरथ की कृपा स्वरूप, सिन्धु, भवानी, भव (संसार) को नष्ट करने वाली, सगर के पुत्रों को स्वर्ग देने वाली तथा सम्पूर्ण संसार में गमन करने वाली
कहते हैं ॥ १५६- १५७ ॥
गङ्गा सहस्रनाम स्तोत्र फलश्रुति
ईश्वर उवाच -
नाम्नां सहस्रमाख्यानं गङ्गायः
सर्वकामदम् ।
यस्तु वै पठते नित्यं मुक्तिभागी
भवेन्नरः ॥ १५८॥
ईश्वर ने कहा-इच्छित फल को देने
वाले गंगा के सहस्र नाम मैने तुम्हें
बताये । इसका जो नित्य पाठ करता हैं वह
अवश्य ही मुक्त हो जाता है ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं
भगीरथशमन्द्रुतम् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां
वाचस्पतिसमो भवेत् ॥ १५९॥
पुत्र की इच्छा करने वाले को शीघ्र
ही भगीरथ के समान पुत्र प्राप्त होता हैं । विद्यार्थी विद्या को प्राप्त करता है
और बृहस्पति के समान हो जाता है ।
श्राद्धे श्रृणोति यो भक्त्या पठते
वै समाहितः ।
दुर्गता अपि पितरो मुक्तिं
गच्छन्त्यनामयाः ॥ १६०॥
श्राद्ध के समय जो मनुष्य स्थिर
चित्त से इसे पढ़ता अथवा सुनता है, उसके
अत्यन्त दुर्गति में प्राप्त हुए भी पितर पापरहित होकर स्वर्ग में चले जाते हैं ।
तथा दशहरायां हि गङ्गामध्ये
स्थितःपुमान् ।
पठते प्रत्यहं देवि तस्य मुक्तिर्न
संशयः ॥ १६१॥
इसी प्रकार दशहरे में (ज्येष्ठ शु०
प्रतिपदा से १० तक) जो मनुष्य गंगाजल में खड़ा होकर इस सहस्रनाम का पाठ
प्रतिदिन करता है उसकी निश्चित ही
मुक्ति हो जाती हैं ।
इति श्री स्कन्दपुराणान्तर्गत
केदारखण्डतो भगीरथोपाख्याने गङ्गावतरणे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २
श्री स्कन्द पुराणान्तर्गत केदार खण्ड से भगीरथोपाख्यान के गंगावतरण में गंगासहस्रनाम नामक द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ । २।
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