विष्णु स्तुति

विष्णु स्तुति 

रावण के भय से सब देवता ने वैकुण्ठ में आकर अपनी वाणी द्वारा भगवान्‌ विष्णु की स्तुति आरम्भ की ।

विष्णु स्तुति

विष्णु स्तुति: 

नमो भगवते तुभ्यं देवदेव जगत्पते ।

त्वदाधारमिदं सर्वं जगदेतच्चराचरम्‌ ॥

देवता बोले- देवदेव जगदीश्वर ! आप छहों ऐेश्वर्यो से युक्त होने के कारण भगवान्‌ कहलाते हें । आपको नमस्कार है। यह सम्पूर्णं चराचर जगत्‌ आपके आधार पर टिका हुआ है।

एतल्लिङ्गं त्वया विष्णो धृतं वै पीठरूपिणा ।

अवताराः कृताः पूर्वमस्मदर्थे त्वया प्रभो॥

यह जगत्‌ एक लिंग है, जिसे आपने आधारपीठरूप होकर धारण किया है। प्रभो! हमलोगों के लिये पहले भी आपने अनेक बार अवतार धारण किया है।

मत्स्यो भूत्वा त्वया वेदाः स्थापिता ब्रह्मणो मुखे ।

हयग्रीवस्वरूपेण घातितौ मधुकैटभौ ॥

आपने ही मत्स्यरूप धारण करके ब्रह्याजी के मुख में वेदों की स्थापना की है । आपने ही हयग्रीवरूप से मधु और कैटभ नामक दैत्यों को मारा है।

तथा कमठरूपेण धृतो वै मन्दराचलः ।

वराहरूपमास्थाय हिरण्याक्षो हतस्त्वया ॥

हिरण्यकशिपुर्दैत्यो नृसिंहरूपिणा हतः ।

कच्छप अवतार धारण करके आपने ही अपनी पीठ पर मन्दराचल पर्वत उठाया था। वाराहरूप धारण कर आपने हिरण्याक्ष दैत्य का वध किया तथा नरसिंहरूप से हिरण्यकशिपु को मौत के घाट उतारा है।

तथा चैव बलिर्बद्धो दैत्यो वामनरूपिणा॥

भृगूणामन्वये भूत्वा कार्तवीर्यात्मजो हतः ।

हता दैत्यास्त्वया विष्णो त्वमेव परिपालकः॥

वामन अवतार धारणकर आपने ही दैत्यराज बलि को बांधा और भृगुकुल में परशुरामरूप से प्रकट होकर आपने ही कार्तवीर्यं अर्जुन का वध किया है। विष्णो! आपने बहुत-से दैत्यों का संहार किया है । आप ही सम्पूर्णं विश्व के पालक हैं ।

रावणस्य भयात्तस्मात्रातुमर्हसि च ध्रुवम्‌ ।

अतः रावणके भयसे अवश्य हमारा उद्धार करे ।

(स्क० पु०, मा० के० ८। १००- १०६)

विष्णु स्तुति 

स्वर्ग के राज्य से भ्रष्ट हो चुके इन्द्र ऋषियों सहित और ब्रह्माजी ने भगवान्‌ विष्णु की स्तुति आरम्भ की ।

॥ब्रह्मोवाच॥

देवदेव जगान्नाथ सुरासुरनमस्कृत ॥

पुण्यश्लोकाव्ययानंत परमात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ ९.३० ॥

ब्रह्माजी बोले-देवदेव ! जगन्नाथ! देवता और दैत्य दोनों आपके चरणो में मस्तक झुकाते हैं । आपकी कीर्तिं परम पवित्र है, आप अविनाशी और अनन्त हैं । परमात्मन्‌! आपको नमस्कार है।

यज्ञोऽसि यज्ञरूपोऽसि यज्ञांगोऽसि रमापते ॥

ततोऽद्य कृपया विष्णो देवानां वरदो भव ॥ ९.३१ ॥

रमापते! आप यज्ञ है, यज्ञरूप हैं तथा यज्ञांग है । अतः आप कृपा करके देवताओं को वरदान दीजिये।

गुरोरवज्ञया चाद्य भ्रष्टराज्यः शतक्रतुः॥

जातः सुरर्षिभिः साकं तस्मादेनं समुद्धर ॥ ९.३२ ॥

भगवन्‌! गुरु की अवहेलना करने के कारण इन्द्र इस समय ऋषियों सहित स्वर्ग के राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं; इसलिये इनका उद्धार कीजिये।

(स्क पु०, मा० के० ९।३०- ३२)

इति स्कन्दपुराणामहेश्वरखण्ड केदारखण्डान्तर्गता विष्णु स्तुति:।

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