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कर्मकाण्ड

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गायत्री पुरश्चरण

गायत्री पुरश्चरण

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में मन्त्रमहार्णव के गायत्रीतन्त्र के भाग-४ में गायत्री - पुरश्चरण का प्रयोग को दिया जा रहा है।

गायत्री पुरश्चरण

गायत्री - पुरश्चरण का प्रयोग

Gayatri Tantra- gayatri purashcharan

गायत्री तन्त्र   

ब्रह्म गायत्री मन्त्र :

"ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।

ॐ आपोज्योतीरसोमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम्'

यह सप्तव्याहृत सहित गायत्री मंत्र है।

अस्य विधानम् ।

चन्द्रतारादिबलान्विते सुमुहूर्ते शिवालयादिपवित्रस्थले जपस्थानं प्रकल्प्य तत्र दहनखननसंप्लावनादिभिः स्मृत्युक्तैः शोधनोपायैःशुद्धि सम्पाद्य गोमयेनोपलिप्य तत्रासनभूमी कूर्मशोधनं कृत्वा अनुष्ठानारम्भं कुर्यात् ।

इसका विधान : चन्द्र और तारा के बलवान् होने पर शुभ मुहूर्त में शिवालय आदि स्थान पर जपस्थान कल्पित करके वहाँ दहन, खनन तथा सिञ्चन आदि स्मृतियों में कहे गये शुद्धि के उपायों से संशोधन करके गोबर से लीपकर उस आसनभूमि पर कूर्मशोधन करके अनुष्ठान प्रारम्भ करना चाहिये ।

तथा च कर्ता प्रारम्भत्पूर्वदिने ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय यथोपदेशं शौचं कृत्वा नद्यादौ स्नात्वा प्रातः सन्ध्यादि नित्यकर्म समाप्य आचार्यमाहूय सम्पूज्य तदनुज्ञया सपलीकः स्वासने प्राङ्मुख उपविश्य सपवित्रकरः आचम्य प्राणानायम्य सामान्यतो गणपत्यादिस्मरणं कृत्य देहशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं कुर्यात् ।

पुरश्चरण करनेवाला पुरश्चरण प्रारम्भ करने के दिन से पूर्व दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नियमानुसार शौचादि से निवृत्त होकर नदी, तालाब, कूपादि पर स्नान कर, सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म समाप्त कर, आचार्य को बुलाकर उसका सत्कार करके पत्नी सहित उत्तम आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर, हाथों को धोकर आचमन करके प्राणायाम करे । तत्पश्चात् सामान्य रूप से गणेश आदि का स्मरण कर देहशुद्धि के लिए प्रायश्चित और उसके बाद संकल्प करे :

देशकालौ संकीर्त्य करिष्यमाणगायत्रीपुरश्चरणेऽधिकारप्रांत्यर्थं कृच्छ्रत्रयममुकप्रत्याम्ना येनाहमाचरिष्ये ।

इस प्रकार संकल्प के पश्चात् गोदान करके तिल का होम सुवर्णादि प्रत्याम्नाय द्वारा कृच्छ्र पूरा करके हाथ जोड़कर ब्राह्मणों से कहे :

अमुकशर्मणो मम गायत्रीपुरश्चरणेऽनेन कृच्छ्रत्रयानुष्ठानेनाधिकारसिद्धिरस्त्वितिविप्रान् वदेत् ।

तब ब्राह्मण कहें : "अधिकारसिद्धिरस्त्विति"

पुनर्देशकालौ संकीर्त्य करिष्यमाणपुरश्चणाङ्गत्वेन पुरश्चरणाधिकारप्राप्त्यर्थं गायत्र्ययुत जपं करिष्ये इति संकल्प्य गायत्र्ययुतं जपेत् ।

उक्त संकल्प के बाद एक लाख गायत्री मन्त्र का जप करे ।

गायत्री पुरश्चरण

ततः

ॐ तत्सवितुरित्यस्याऽचार्यमृषि विश्वामित्रं तर्पयामि ।। १।।

गायत्रीछन्दस्तर्पयामि ॥२॥

सवितृदेवतांतर्पयामि ॥ ३ ॥

इति तर्पणं कृत्वा रुद्रं नमस्कृत्य कद्रुदायेत्यादीनि रुद्रसूक्तानि सकृज्जपेत् इति पूर्वदिनकृत्यम् ।

तर्पण करके रुद्र को नमस्कार करके कद्रुदाय इत्यादि रुद्रसूक्तों का जप करे । पूर्व दिन का कृत्य समाप्त ।

जपप्रारम्भदिने सुमुहूर्ते सपत्नीको यजमानः सुगन्धतैलाभ्यंगपूर्वकमुष्णोदकेन मङ्गलस्नानं कृत्वा शुक्लधौतवामांसि परिधाय यथायोग्यालंकृतो धृतकुंकुमादित्रिपुण्ड्रतिलकः सपवित्रोपग्रहः स्वासने प्राङ्मुख उपविश्य आचम्य प्राणानायम्य- 

जप के प्रारम्भ दिन में शुभ मुहूर्त में सपत्नीक यजमान सुगन्ध तेल लगाकर गर्म जल से मङ्गल स्नान करके स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण करके यथायोग्य आभूषण पहनकर केशर आदि का त्रिपुण्ड लगाकर पवित्र सामग्रियों के साथ पूर्वाभिमुख अपने आसन पर बैठकर आचमन करके प्राणायाम करे। 

तदनन्तर

देशकालौ संकीर्त्य मम इह जन्मनि जन्मान्तरेषु कृतकायिकवाचिकमानसिक सासर्गिक समस्तपापक्षयार्थ पुत्रपौत्रधनधान्यभिवृद्ध्यर्थ चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थ श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ सप्रणवव्याहृतिपूर्वक चतुर्विंशति लक्ष जपात्मकगायत्रीपुरश्चरणं स्वयं विप्रद्वारा वा करिष्ये ।

यह संकल्प करें

तदंगत्वेन गणेशपूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धमाचार्यजपकर्तृवरणं च करिष्ये इति संकल्प्य गणेशपूजनादिनान्दीश्राद्धान्तं कृत्वा नान्दीश्राद्धान्ते सविता प्रीयतामिति पठित्वा आचार्यजपकर्तृवरणं कुर्यात् ।

तथा च आचार्य जपकर्तृचोदंमुखानासनेषूपवेश्य सर्वेषां पादप्रक्षालनं कृत्वा दक्षिणहस्ते वरण द्रव्याणि गृहीत्वा देशकाली संकीर्त्य मम सकलपापक्षयद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ करिष्यमाणगायत्रीजपपुरश्चरण कर्मणि अमुकगोत्रोत्पन्नममुक वेदशाखाध्यायिनममुकशर्माणं ब्राह्मणमेभिर्गन्धाक्षतताम्बूलस्वर्णांगुलीयकासनमाला कमण्डलु युग्मवासोभिर्जपकरणार्थ आचार्यत्वेन त्वा महं वृणे ।। इति ।।

यह संकल्प करके, गणेशपूजन, नान्दी श्राद्ध आदि करके, उसका अङ्ग होने से गणेशपूजन करके स्वस्तिपुण्याहवाचन मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध, आचार्थ तथा जपकर्ताओं का वरण मैं करूंगा यह संकल्प करके गणेशपूजन से लेकर श्राद्ध के अन्त तक क्रिया करके नान्दीश्राद्ध के अन्त में 'सविता प्रीयताम्' यह पढ़कर आचार्य तथा जपकर्ताओं का वरण करे। इसके बाद आचार्य और जपकर्ताओं को उत्तराभिमुख आसनों पर बैठाकर सबके पैर धोकर दाहिने हाथ में वरणद्रव्यों को लेकर कहे : 'देशकाल के संकीर्तन के साथ समस्त पापक्षय के द्वारा श्रीपरमेश्वर की प्रसन्नता के लिए किये जाने वाले गायत्रीजप-पुरश्चरण कर्म में अमुक गोत्रोत्पन्न, अमुक वेद शाखाध्यायी, अमुक शर्मा ब्राह्मण को इन गन्ध, अक्षत, ताम्बूल, सोने की अंगूठी, आसन, माला, कमण्डलु तथा एक जोड़ा वस्त्र के साथ जप करने के लिए मैं वरण करता हूं।'

आचार्य वृत्वा ॐ वृतोस्मीति प्रतिवचनान्तरं पृथक्पृथक् हस्तेयज्ञकङ्कणं बद्ध्या गन्धपुष्पादिभिः सम्पूज्य प्रार्थयेत् ।

इसके बाद आचार्य के 'वृतोस्मि' इस उत्तर के बाद पृथक - पृथक हाथ में यज्ञ - कंकण को बाँधकर गन्ध पुष्पादि से उनकी पूजा करके प्रार्थना करे:

ॐ अस्य यागस्य निष्पत्ती भवन्तोऽभ्यर्थिता मया ।

सुप्रसन्नैः प्रकर्तव्यं मद्यशं विधिपूर्वकम् ॥१॥

अङ्गीकुर्वन्तु कमैतत्कल्पद्रुमसमांशिषः ।

यथोक्तनियमैर्युक्त जपार्थे स्थिरबुद्धयः ।।२।।

अस्मिन् यज्ञे मया पूज्याः सन्तु मे नियमान्विताः ।

अक्रोधनाः शौचपराः सततं ब्रह्मचारिणः ।।३।।

जपध्यानरता नित्यं प्रसन्नमनसः सदा ।

अदुष्टभाषिणः सन्तु मा सन्तु परनिन्दकाः ।

ममापि नियमा होते भवन्तु भवतामपि ॥४॥

इस यज्ञ की पूर्ति के लिए मैं आप लोगों से प्रार्थना करता हूं कि आप सब अच्छी तरह प्रसन्न होकर मेरे यज्ञ को पूरा करें । मेरे इस कल्पवृक्ष के समान यज्ञ कर्म को आप लोग स्वीकार करें।

आप लोग जप के लिए नियुक्त किये गये हैं । इस यज्ञ में आप लोग मेरे पूज्य हैं अतः आप सभी स्थिरबुद्धि, नियमों के पालन करने वाले, क्रोधरहित, पवित्र, सदा ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, जप और ध्यान में लगे हुए, नित्य प्रसन्न चित्त रहने वाले, दुष्टों से भाषण न करने वाले तथा दूसरों की निन्दा न करने वाले होवें। यही सब नियम मेरे लिए भी हैं तथा आप लोगों के लिए भी हैं।

इति सम्प्रार्घ्य प्रत्येकं वस्त्रद्वयम् आसनं १ अर्घ्यपात्रं १ आचमनपात्रं १ जलपात्रं १ सुवर्णागुलीयकं १ माला १ च दद्यात् ।

अत्र जापकास्त्वेकविंशतिः २१ न्यूनाधिका वा कार्याः ।

ततः सर्वे जापका आचम्य प्राणानायभ्य: ।

इस प्रकार प्रार्थना करके जपकर्ताओं को दो वस्त्र, एक आसन, एक आचमनपात्र, एक जलपात्र, एक सोने की अंगूठी, एक माला दे । यहाँ जप करनेवाले इक्कीस होते हैं । इनसे कम या अधिक भी हो सकते हैं। इसके बाद जप करनेवाले आचमन और प्राणायाम करके :

"सूर्यः सोमो यमः कालः सन्ध्ये भूतान्यहः क्षपा ।

पवमानो दिक्पतिर्भूराकाशं खेचरामराः ।

ब्रह्मशासनमास्थाय कल्पध्वमिह सन्निधिम् यह प्रार्थना करे।

इसके पश्चात्

देशकाली संकीर्त्य ममामुकशर्मगो यजमानस्य सकलपापक्षयद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ यजमानानुज्ञया गायत्रीपुरश्चरणान्तर्गतामुक सहस्रसंख्यापरिमितविहितगायत्रीजपं करिष्ये ।

इस प्रकार सभी जापक अपने-अपने प्रतिदिन के जप का संकल्प करके अङ्गन्यास करें। सभी जापकों का जप समान संख्या में होना चाहिये । किसी का कम और किसी का अधिक नहीं होना चाहिये । यहाँ उत्तम जप दो हजार, मध्यम जप ढाई हजार और अधम जप तीन हजार समझना चाहिये।

इसके पश्चात् तीन प्राणायाम करके न्यास आरम्भ करे।

गायत्री पुरश्चरण

न्यासाः :

ॐ गुरुवे नमः ॥१॥

गणपतये नमः ॥२॥

दुर्गायै नमः ।।३।।

वेदमातृभ्यो नमः ।।४।।

विनियोगः

ॐ प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दः। परमात्मा देवता । शरीरशुद्धयर्थे जपेविनियोगः ।

प्रणवेनमष्यादि न्यास :

ॐ ब्रह्मऋषये नमः शिरसि ।।१।।

गायत्रीछन्दसे नमः मुखे ॥२॥

ॐ परमात्मादेवतायै नमः हृदि ॥३॥

विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।। ४ ।।

इति प्रणवेन ऋष्यादि न्यासः ।

विनियोग :

तप्तव्याहृतीनां जमदग्निभरद्वाज (तन्वान्तरेपि भृगु इति पाठः) अत्रिगौतमकश्यपविश्वामित्रवसिष्ठा ऋषयः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपंक्तिस्त्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांसि । अग्निवायुसूर्यबृहस्पतिवरुणेन्द्रविश्वेदेवा देवताः । सर्वपापक्षयार्थे जपे विनियोगः ।

सप्तव्याहृतीनामृष्यादिन्यासः

ॐ जमदग्निभरद्वाजात्रिगौतमकाश्यपविश्वामित्रवसिष्ठऋषिभ्यो नमः शिरसि ॥१॥

गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्जगतीछन्देभ्यो नमो मुखे ॥२॥

अग्निवायुसूर्यवृहस्पतिवरुणेन्द्रविश्वदेवदेवताभ्यो नमः हृदये ॥३॥

विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥४॥

इति सप्तव्याहृतिनामृष्यादि न्यासः ।।

गायत्र्याऋष्यादिन्यासः

ॐ गायत्र्याः विश्वामित्र ऋषिः । गायत्री छन्दः । सविता देवता । जपोपनयने विनियोगः ।

ॐ विश्वामित्र ऋषये नमः शिरसि ।।१।।

गायत्रीछन्दसे नमः मुखे ॥२॥

सवितृदेवतायै नमः हृदये ॥३॥

विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।। ४ ।।

इति गायत्राऋष्यादिन्यासः ।

मन्त्रवर्णन्यासः

ॐ भूः नमः हृदये ।।१।।

ॐ भुवः नमः मुखे ।।२।।

ॐ स्वः नमः दक्षांसे ॥ ३ ॥

ॐ महः नमः वामांसे ॥ ४ ॥

ॐ जनः नमः दक्षिणोरौ ॥५॥

ॐ तपः नमः वामोरौ ॥६॥

ॐ सत्यंनमः जठरे ॥७ ॥

ॐ तत् नमः पादांगुलिमूलेषु ।।८।।

ॐ सं नमः गुल्फयोः ।।९।।

ॐ विनमः जानुनोः ॥१०॥

ॐ तुं नमः पादमूलयोः ।।११।।

ॐ वं नमः लिङ्गे ।। १२ ।।

ॐ रें नमः नाभौ ।।१३।।

ॐ णिं नमः हृदये ।।१४।।

ॐ यं नमः कण्ठे ।। १५ ।।

ॐ भं नमः हस्तांगुलिमूलेषु ।।१६।।

ॐ गो नमः मणिबन्धयोः ।।१७॥

ॐ दें नमः कूर्परयोः ।। १८॥

ॐ वं नमः बाहुमूलयोः ।।१९।।

ॐ स्यं नमः आस्ये ॥२०॥

ॐ धीं नमः नासापुटयोः ।।२१।।

ॐ में नमः कपोलयोः ।। २२।।

ॐ हिं नमः नेत्रयोः ।।२३।।

ॐ पिं नमः कर्णयोः ।।२४ ।।

ॐ यों नमः भूमध्ये ॥ २५ ॥

ॐ यों नमः मस्तके ॥२६ ।।

ॐ नं नमः पश्चिमवक्त्रे ॥२७॥

ॐ प्रं नमः उत्तरवक्त्रे ।।२८॥

ॐ चों नमः दक्षिणवक्त्रे ।।२९।।

ॐ दं नमः पूर्ववक्त्रे ।।३०।।

 ॐ यात् नमः ऊर्ध्ववक्त्रे ।।३१।।

इति मन्त्रवर्णन्यासः ।

पदन्यास :

ॐ तत् नमः शिरसि ।। १।।

ॐ सवितुर्नमः भ्रूवोर्मध्ये ।।२।।

ॐ वरेण्यं नमः नेत्रयोः ॥३ ॥

ॐ भर्गो नमः मुखे ।। ४ ।।

ॐ देवस्य नमः कण्ठे ।। ५॥

ॐ धीमहि नमः हृदये ।। ६ ।।

ॐ थियो नमः नाभौ ।।७।।

ॐ यो नमः गुह्ये ।।८।।

ॐ नः नमः जानुनोः ।। ९ ।।

ॐ प्रचोदयात् नमः पादयोः ।।१०।।

ॐ आपोज्योती रसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोमिति शिरसि ।।११।।

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं नमः नाभ्यादिपादांगुलीपर्यन्तम् ।। १२ ।।

ॐ भर्गो देवस्य धीमहि नमः हृदयादिनाभ्यान्तम् ।। १३ ।।

ॐ घियो यो नः प्रचोदयात् नमः मूदिहदयान्तम् ।। १४ ।।

इति पदन्यासः ।

करन्यास :

ॐ तत्सवितुर्ब्रह्मणे अंगुष्ठाभ्यां नमः ।। १।।

ॐ वरेण्यं विष्णवे तर्जनीभ्यां नमः ।।२।।

ॐ भर्गो देवस्य रुद्राय मध्यमाभ्यां नमः ॥३॥

ॐ धीमहि ईश्वराय अनामिकाभ्यां नमः ।। ४ ।।

ॐधियो यो नः सदशिवाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।।५।।

ॐ प्रचोदयात् सर्वात्मने करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।६।।

इति करन्यासः ।

हृदयादिषडङ्गन्यासः

ॐ तत्सवितुर्ब्रह्मणे हृदयाय नमः ।। १ ।।

ॐ वरेण्यं विष्णवे शिरसे स्वाहा ॥२॥

ॐ भर्गो देवस्य रुद्राय शिखायै वषट् ।। ३ ।।

ॐ धीमहि ईश्वराय कवचाय हुम् ।। ४ ।।

ॐ धियो यो नः सदाशिवाय नेत्रत्रयाय वौषट् ॥५॥

ॐ प्रचोदयात् सर्वात्मने अस्त्राय फट् ।।६।।

इति हृदयादिषडङ्गन्यासः ।

इस प्रकार न्यास करके ध्यान करें।

गायत्री पुरश्चरण

ध्यान:

ॐ मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायै मुखैस्त्रीक्षणैर्युक्ता-

मिन्दुनिबद्धरलमुकुटां तत्त्वात्मवर्णात्मिकाम् ।

गायत्रीं वरदाभयांकुशकशापाशं कपालं गुणं

शंख चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं मजे ॥१॥

कुमारीमृग्वेदयुतां ब्रह्मरूपां विचिन्तयेत् ।

हंसस्थितांकुशकरां सूर्यमण्डलसंस्थिताम् ।। २ ।।

मध्याह्ने विष्णुरूपाञ्च तार्क्ष्यस्थां पीतवासिनीम् ।

युवती सयजुर्वेदां सूर्यमंडलसंस्थिताम् ।। ३ ।।

सायाहे शिवरूपाञ्च वृद्धा वृषभवाहिनीम् ।

सूर्यभण्डलमध्यस्थां सामवेद समायुताम् ।।४।।

इस प्रकार ध्यान करके मानसोपचार से पूजा करे । इसके पश्चात् सर्वतोभद्रमण्डल रचित पीठ पर मण्डूक से लेकर परतत्व तक के पीठ देवों को सब देवताओं की उपयोगी पद्धति से संस्थापित करके "ॐ मण्डूकादि परतत्वान्त पीठदेवताभ्यो नमः" से पूजा करके अथवा स्व-स्व नामों से पूजा करके नवपीठ शक्ति की पूजा करे । तदनुसार पूर्वादि आठ दिशाओं में:

ॐ रां दीप्तायै नमः १।

ॐ री सूक्ष्मायै नमः २।

ॐ जयायै नमः ३ ।

ॐ रें भद्रायै नमः ४ ।

ॐ विभूत्यै नमः ५ ।

ॐ रों विमलायै नमः ६ ।

ॐ अमोघायै नमः ७ ।

ॐ रं विद्युतायै नमः ८ । मध्ये ।

ॐ रः सर्वतोमुख्यै नमः ॥९॥

इस प्रकार पीठ शक्तियों की पूजा करे।

गायत्री पुरश्चरण

गायत्री पुरश्चरण- ब्रह्मगायत्रीपूजनयन्त्र

ततः सवर्णादिनिर्मितं यन्त्रं ताम्रपात्रे निधाय घृतेनाभ्यज्य तदुपरिदुग्धधारां जलधारां च दत्त्वाग्न्युत्तारणमन्त्रं पठित्वा स्वच्छवस्त्रेणाशोष्य तदुपरि देव्या अष्टगन्धेन त्रिकोणं कृत्वा तद्बहिर्वर्तुलं तद्बाह्ये अष्टदलं तदहिश्चतुरस्रं चतुर्द्वारोपशोभितं यन्त्रं लिखित्वा "ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रबिम्बात्मकाय सौराय योगपीठाय नमः" ।

इति मन्त्रेण पुष्पाद्यासनं दत्त्वा पीठमध्ये संस्थाप्य पुनात्वा मूलेन मूर्ति प्रकल्प्य ।

'ॐ आगच्छ वरदे देवि अक्षरे ब्रह्मवादिनि ।

गायत्री छन्दसां मातर्ब्रह्मयोने नमोस्तु ते ।।१।।

इति मन्त्रेणावाह्य गायत्रीमूलमन्त्रेण पाधादिपुष्पांतैरुपचारैः सम्पूज्य देव्या आज्ञां गृहीत्वा आवरणपूजां कुर्यात् ।

तथा च पुष्पाञ्जलिमादाय मूलमुच्चार्य 'ॐ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये ।

अनुज्ञां देहि गायत्री परिवारार्चनाय मे ।'

इति पठित्वा पुष्पाञ्जलिं च दद्यात् । 

इत्याज्ञां गृहीत्वा आवरणपूजामारभेत् ।

इसके बाद सोने आदि से बने यन्त्र को ताम्रपात्र में रखकर घी लगाकर उसके ऊपर दूध की धारा, जल की धारा देकर अग्नि उतारने का मन्त्र पढ़कर सूखे वस्त्र से सुखाकर उसके ऊपर देवी का आठ सुगन्धों से त्रिकोण बनाकर उसके बाहर गोला बनाकर उसके बाहर आठ दल बनाकर उसके बाहर चतुष्कोण रेखा बनाकर उसमें चार द्वारों से शोभित मन्त्र लिखकर ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रबिम्बात्मकीय सौराययोगपीठाय नमः ।" इस मन्त्र से पुष्पाद्यासन देकर पीठ के बीच में रखकर पुनः ध्यान करके मूल से मूर्ति बनाकर ॐ आगच्छ वरदे देवि अक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रि छन्दसां मातर्ब्रह्मयोनि नमोस्तुते' इस मन्त्र से आवाहन करके गायत्री मन्त्र से पाद्यादि पुष्पान्त उपचारों से पूजा करके देवी से आज्ञा लेकर आवरण पूजा करे । फिर अंजलि में फूल लेकर मूल का उच्चारण करके "ॐ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये । अनुज्ञां देहि गायत्रि परिवारार्चनाय मे ।" यह पढ़कर पुष्पाञ्जलि देवे । इस प्रकार आज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।

ततः त्रिकोणस्य

पूर्वकोणे  ॐ गायत्र्यै नमः १ ।

निर्ऋतिकोणे ॐ सावित्र्यै नमः २ ।

वायुकोणे ॐ सरस्वत्यै नमः ३ ।

इति पूजयेत् ।

ततः पुष्पाञ्जलिमादाय मूलमुच्चार्य

'ॐ अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सले ।

भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ।। १।।'

इति पठित्वा पुष्पाञ्जलिं च दत्त्वा पूजितास्तर्पिताः सन्तु इति वदेत् । इति प्रथमावरणम् ।।१।। 

(ब्रह्मगायत्रीपूजनयन्त्र देखिये चित्र १)

इसके बाद त्रिकोण के पूर्वकोण में

पूर्वकोणे ॐ गायत्र्यै नमः ।।१।।

निर्ऋतिकोणे ॐ सावित्र्यै नमः ।।२।।

वायुकोणे ॐ सरस्वत्यै नमः ।। ३ ।।

इससे पूजा करे । इसके बाद हाथ में फूल लेकर मूलमंत्र का उच्चारण करके

"ॐ अभीष्ठसिद्धिं मे देहि शरणागत वत्सले ।

भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम्"

इसे पढ़कर पुष्पाञ्जलि देकर "पूजितास्तर्पिताः सन्तु" यह बोले । इति प्रथमावरणाम् ।।

वहाँ त्रिकोण के बाहर वृत्त में:

ॐ ब्रह्मणे नमः ॥१॥ ब्रह्म श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । इति सर्वत्र वदेत् ।

ॐ विष्णवे नमः । विष्णुश्रीपा० ।।२।।

ॐ रुद्राय नमः । रुद्रश्रीपा० ॥३।।

इस प्रकार पूजा करके पुष्पांजलि देदे । इति द्वितीयावरण ॥२॥

इसके बाद अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में :

ॐ आदित्याय नमः । आदित्यश्रीपा० ॥१॥

ॐ भानवे नमः । भानुश्रीपा० ॥ २॥

ॐ भास्कराय नमः । भास्करश्रीपा० ॥३॥

ॐ रवये नमः । रविश्रीपा० ॥४॥

आग्नेयादिचतुष्कोणेषु

ॐ ऊषायै नमः" । ऊषाश्रीपा० ॥५॥

ॐ प्रज्ञायै नमः । प्रज्ञाश्रीपा० ॥ ६॥

ॐ प्रभायै नमः। प्रभाश्रीपा० ॥७॥

ॐ सन्ध्यायै नमः" । सन्ध्याश्रीपा० ॥ ८॥

इस प्रकार आठों दिशाओं की पूजा करके पुष्पाञ्जलि देवे । इति तृतीयावरण ।३।

इसके बाद अष्टदलों में पूर्वादिक्रम से :

ॐ प्रह्लादिन्यै नमः । प्रह्लादिनीश्रीपा० ।।१।।

ॐ प्रभायै नमः। प्रभाश्रीपा० ॥२॥

ॐ नित्यायै नमः । नित्याश्रीपा० ॥३॥

ॐ विश्वंभरायै नमः । विश्वंभराश्रीपा० ॥४॥

ॐ विशालिन्यै नमः । विशालिनीश्रीपा०॥५॥

ॐ प्रभावत्यै नमः । प्रभावतीश्रीपा० ॥६॥

ॐ जयायै नमः । जयाश्रीपा० ॥७॥

ॐ शांत्यै नमः । शांतिश्रीपा० ।।८।

इस प्रकार आठों दलों की पूजा करके पुष्पाञ्जलि देनी चाहिये । इति चतुर्यावरण ।४।

इसके बाद अष्टदलों के मूलों में पूर्वादि क्रम से :

ॐ कात्यै नमः । कांतिश्रीपा० ॥१॥

ॐ दुर्गायै नमः । दुर्गाश्रीपा० ।।२।।

ॐ सरस्वत्यै नमः । सरस्वतीश्रीपा० ॥३॥

ॐ विश्वरूपायै नमः । विश्वरूपाश्रीपा० ॥४॥

ॐ विशालायै नमः । विशालाश्रीपा० ॥ ५॥

ॐ ईशायै नमः । ईशाश्रीपा०॥६॥

ॐ चापिन्यै नमः । चापिनीश्रीपा०॥७॥

ॐ विमलायै नमः । विमला श्रीपा० ।।८।

इस प्रकार आठों की पूजा करके पुष्पाञ्जलि देवे । इति पञ्चमावरण ।५।

इसके बाद अष्टदलों के मध्य में पूवादि क्रम से :

ॐ अपहारिण्यै नमः । अपहारिणीश्रीपा० ।।१।।

ॐ सूक्ष्मायै नमः । सूक्ष्माश्रीपा० ॥२॥

ॐ विश्वयोन्यै नमः । विश्वयोनिश्रीपा० ॥३॥

ॐ जयावहायै नमः। जयावहाश्रीपा० ॥ ४॥

ॐ पद्यालयायै नमः | पद्मालयाश्रीपा० ॥५॥

ॐ परायै नमः । पराश्रीपा० ॥६॥

ॐ शोभायै नमः । शोभाश्रीपा० ॥७॥

ॐ पद्यरूपायै नमः । पद्यरूपाश्रीपा० ॥ ८॥

इस प्रकार आठों की पूजा करके पुष्पाजलि देवे । इति षष्ठावरण ।६।

इसके बाद अष्टदलाग्नों में :

ॐ आं ब्राह्मयै नमः । ब्राह्मीश्रीपा० ॥१॥

ॐ ईं माहेश्वर्यै नमः । माहेश्वरीश्रीपा० ॥२॥

ॐ ऊं कौमार्यै नमः । कौमारीश्रीपा० ॥३॥

ॐ ऋं वैष्णव्यै नमः । वैष्णवीश्रीपा० ॥४॥

ॐ लृं वाराह्यै नमः।  वाराहीश्रीपा० ॥५॥

ॐ ऐं इन्द्राण्यै नमः । इन्द्राणीश्रीपा० ॥६॥

ॐ औं चामुण्डायै नमः। चामुण्डाश्रीपा० ॥७॥

ॐ अः महालक्ष्म्यै नमः । महालक्ष्मीश्रीपा० ।।८।

इस प्रकार आठ मातृकाओं का पूजन करके पुमाञ्जलि देवे । इति सप्तमावरण । ७।

इसके बाद भूपुर के भीतर पूर्व आदि आठ दिशाओं में :

ॐ सों सोमाय नमः । सोमश्रीपा० ॥१॥

ॐ बुं बुधाय नमः । बुधश्रीपा० ॥२॥

ॐ गुं गुरवे नमः । गुरुश्रीपा० ॥३॥

ॐ शुं शुक्राय नमः । शुक्रश्रीपा० ।। ४।।

ॐ भौं भौमाय नमः । भौमश्रीपा० ॥५॥

ॐ शं शनैश्चराय नमः । शनैश्चरश्रीपा० ॥६॥

ॐ रां राहवे नम: । राहुश्रीपा० ॥७॥

ॐ कें केतवे नमः । केतुश्रीपा० ॥८॥

इस प्रकार आठों ग्रहों का पूजन करके पुष्पाञ्जलि देवे । इत्यष्टमावरण । ८ ।

गायत्री पुरश्चरण

ततो भूपूराद्बहिः पूर्वादिक्रमेण इन्द्रादिदशदिक्पालान् वज्राद्यायुधानि च सम्पूज्य पुष्पाञ्जलिं च दद्यात् ।।

इत्थमावरणर्दैवीं दशभिः सम्पूज्य धूपादिनमस्कारान्तं सम्पूज्येत् ।

ततो गायत्री शापमोचनं कृत्वा संस्कृतां मालामादाय हृदये धारयन् सर्वे जापकाः बद्धासनेखूपविष्टाः सुनिश्चलाः जपध्यानसमायुक्ताः नासाग्रमवलोकिनो मौनिनः समाहित-मानसउन्नतगात्रा एकाग्र चित्तेन मन्त्रदेवतां सवितारं ध्यायन्तो मन्त्रार्थ स्मरन्तः सप्तव्याहतीस्त्यक्त्वा सप्रणवव्याहृतित्रयपूर्वकं

"ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।। धियो यो नः प्रचोदयात्" ।।

इति मन्त्रं मध्यंदिनावधिजपेयुः ॥

इसके बाद भूपुर के बाहर पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा उनके वज्र आदि आयुधों की पूजा करके पुष्पाञ्जलि देवे । इस प्रकार दश आवरणों से देवी की पूजा करके धूपदान से लेकर नमस्कारपर्यन्त पूजा करे । इसके बाद गायत्रीशाप का मोचन करके संस्कृत माला लेकर हृदय में धारण करते हुए सभी जापक स्थिर आसन पर बैठे हुए जप और ध्यान में लगे हुए नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाये हुए, मौन व्रत धारण किये हुए, मन को समाधिस्य किये शरीर को सीधा रखे हुए एकाग्रचित्त से मंत्र देवता का विस्तारपूर्वक ध्यान और मन्त्रार्थ का स्मरण करते हुए सप्त व्याहृतियों को छोड़कर सप्रणव तीन व्याहृतियों के साथ "ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।" इस मंत्र को मध्याह्नकाल तक जपे।

ततो जपान्ते

"ॐ त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव ॥

शुभं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च देहि मे ॥१॥

ॐ ह्रीं सिद्धयै नमः ।।

इति मालां शिरसि निधाय गोमुखीं रहस्ये स्थापयेत् ।।

न कस्यापि दर्शयेत् । नाशुचिः स्पर्शयेत् ।

नान्येस्मै दद्यात् । स्वयोनिवद्गुप्तां कुर्यात् ।

इति जपं कृत्वा त्रिःप्राणानायम्य पूर्वोक्त न्यासं कृत्वा कवचादिना प्रार्थयित्वा पञ्चोपरारः सम्पूज्य नीराजनं कृत्वा पुष्पाञ्जलिं च दत्त्वा

"ॐ गुह्यातिगुह्यगोत्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।।

सिद्धिर्भवतु मे देवि प्रसन्ना सर्वदा भव ।।१।।"

इति देव्या दक्षिणकरे जपसमर्पणजलं च दद्यात् ।।

एवं प्रत्यहं समासंख्य एव जपो न तु न्यूनाधिकः ।

जप के अन्त में

"ॐ त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव ।

शुभं कुरुष्व मे भद्रे यशोवीर्यञ्च देहि मे ॥ १।।

ॐ हीं सिद्धये नमः ।" इससे माला को शिर पर रखकर गोमुखी को एकान्त में रख देवे, उसे किसी को दिखलाये नहीं, अपवित्र दशा में स्पर्श न करे, अन्य किसी को न दे तथा अपनी योनि के समान गुप्त रक्खे । इस प्रकार जप करके तीन प्राणायाम करके पूर्वोक्त न्यास करके कवच आदि से प्रार्थना करके पञ्चोपचार से पूजा तथा नीराजन करके पुष्पाञ्जलि देकर

"ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत् कृतं जपम् सिद्धिर्भवतु मे देवि प्रसन्ना सर्वदा भव ।।२।।"

इससे देवी के दक्षिण हाथ में जप समर्पण - जल देवे । इस प्रकार प्रतिदिन समान संख्यक जप होना चाहिये । न्यूनाधिक नहीं।

सर्वे जापका भूमौ शयानाः हविष्यान्नमश्नन्तो ब्रह्मचर्याऽस्पृश्यस्पर्शादिनियमांश्चरेयुः ।

अस्य पुरश्चरणं चतुर्विशतिलक्षजपः ।। जपदशांशतो होमः ।

तत्तद्दशांशेन तर्पणमार्जनब्राह्मणभोजनं च कुर्यात् ।।

सभी जापक भूमि पर शयन, हविष्य अन्न का भोजन, तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्पृश्यास्पृश्य के नियमों का पालन करें। इस गायत्री मन्त्र का पुरश्चरण चौबीस लाख जप है। जप का शतांश होम होता है। होम के दशांश से तर्पण, तत्तद्दशांश मार्जन तथा ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये।

देशकालौ संकीर्त्य अद्य पुरश्चरणसाङ्गत्तासिद्धयर्थ होमविघि करिष्ये ॥

इति सङ्कल्प्य सामान्यतो गणपतिं सम्पूज्य ततः कुण्डे स्थण्डिले वा स्वगृह्योक्तविधिना पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं अग्नि प्रतिष्ठाप्य ग्रहपीठे सूर्यादिनवग्रहमण्डलदेवानावाह्य सम्पूज्य कलशस्थापनं कृत्वा कुशकण्डिका सम्पाधाघारावाज्यभागी हुनेत् ।।

इति: गायत्रीतंत्रे गायत्री पुरश्चरण ॥

आगे पढ़ें............. गायत्री होम प्रकार

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