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कर्मकाण्ड

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लक्ष्मी स्तोत्र

लक्ष्मी स्तोत्र  

जो मानव अथवा जिन गृहों में प्रातःकाल एवं सायंकाल परम भक्ति के साथ इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र का पाठ किया जाता है, वहां अलक्ष्मी, कलह एवं विघ्न नहीं आती है तथा वहां कभी भी लक्ष्मी परित्याग नहीं करती अर्थात् वहां अन्न-धन की कभी कमी नहीं रहती है।

लक्ष्मी स्तोत्र

लक्ष्मीस्तोत्रम् 

Laxmi stotram  

इन्द्र उवाच

नमामि सर्वभूतानां जननीं पद्मसम्भवाम् ।

श्रियं मुनीन्द्रपद्माक्षीं विष्णोर्वक्षः स्थलस्थिताम् ॥1

इन्द्र ने कहा - पद्म से अविर्भूता, मुनीन्द्रगणों के पूजोपकरण पद्म के समान आयताक्षी, विष्णु के वक्षःस्थलस्थिता, समस्त प्राणियों की जननी, लक्ष्मीदेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।। 1 ।।

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपालिनी ।

सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूमि मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥2

आप समस्त साधनाओं की सिद्धिस्वरूपा हैं, देवों के उद्देश्य से हविर्दान करते समय स्वाहा मन्त्र-स्वरूपा हैं, पितृगणों के उद्देश्य से द्रव्यदान करते समय स्वधा मन्त्र-स्वरूपा हैं; आप अमृतस्वरूपा, सर्वलोकों की पालनकारिणी, प्रातः मध्याह्न एवं सायंसन्ध्यारूपा, रात्रिरूपिणी, दीप्तिरूपा है; आप पृथिवी हैं, आप ग्रन्थार्थधारणावती बुद्धि हैं; आप अस्तिक्यबुद्धिरूपा हैं एवं आप विद्यादेवी हैं।

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।

आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥3

हे शोभने देवि ! आप यज्ञसम्पादक विद्यारूपिणी हैं, आप महावाक्यरूप ब्रह्मविद्यारूपा हैं, आप वेद की रहस्य - विद्या स्वरूपा हैं, आप आत्मज्ञानस्वरूपा एवं आप मुक्ति-फल-दायिनी हैं ।। 3 ।।

आन्विक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।

सौम्या सौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयेदं देवि पूरितम् ॥4

हे देवि ! आप तर्कविद्या, वेदविद्या, कृष्यादिविद्या हैं एवं आप ही अर्थशास्त्र हैं । आप शान्ता हैं । आप शान्त पदार्थ के रूप में इस जगत् को पूर्ण की हुई हैं ।

का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।

अध्यास्त देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥5

हे देवि ! आपको छोड़कर और कौन ऐसी हैं, जो देवदेव गदाधारी विष्णु के सर्वयज्ञरूपी एवं योगिगणों के द्वारा चिन्तनीय शरीर में (= वक्ष में) अवस्थान कर सकती हैं ?

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् ।

विनष्टप्रायमभवत् त्वयेदानीं समेधितम् ॥6

हे देवि ! पहले आपके द्वारा परित्यक्त समस्त त्रिभुवन नष्टप्राय हो गया था। इस समय पुनः आपके द्वारा (यह त्रिभुवन ) वर्द्धित हो गया है।

दाराः पुत्रास्तथागारं सुहृद् वान्यद्धनादिकम् ।

भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ॥7

हे महाभाग्यवति देवि ! आपकी कृपा दृष्टि से मानव का सब कुछ अर्थात् स्त्री, पुत्र, गृह, बन्धु या अन्य धन प्रभृति सर्वदा परिपूर्ण हो जाता है ।।7।।

शरीरारोग्यमैश्वर्य मपरिपक्षक्षयः सुखम् ।

देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥8

हे देवि ! आपकी कृपादृष्टि जिन लोगों के ऊपर वर्षित होती है, उन मानवों के लिए शरीर का आरोग्य ऐश्वर्य, शत्रुओं का नाश तथा सुख दुर्लभ नहीं होता है ।

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता ।

त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ॥9

हे जननि ! आप समस्त प्राणियों की माता हैं। आप देवदेव महादेव हैं। आप विष्णु हैं; आप ही जगत्-पिता ब्रह्मा हैं। आप ही विष्णु-रूप में चराचर जगत् को व्याप्त करती हुई अवस्थित हैं ।।9।।

मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् ।

मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥10

मा पुत्रान् मा सुहृद्वर्गान् मा पशून् मा विभूषणम् ।

त्यजेथा देवदेवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलाश्रये ॥11

देवदेव विष्णु के वक्षःस्थल स्थिते ! समस्त जगत् पवित्रकारिणि देवि ! आप मेरे अर्थ, धान्यगृह, गृह, परिच्छद (वस्त्र), शरीर, कलत्र, पुत्रसमूह, बन्धुवर्ग सभी पशु एवं अलङ्कार इन सभी का परित्याग न करें ।।10-11।।

सत्येनाशौच सत्त्वाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः ।

त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥12

हे निर्मले देवि ! आप जिन मानवों का परित्याग कर देती हैं, वे सद्यः सद्यः ही (= तत्क्षण ही) सत्य, सम्यक् शौच, बल, शील, प्रभृति गुणों से रहित बन जाते हैं ।।12।।

त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः ।

कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥13

हे देवि ! (पक्षान्तर में) आप जिनके प्रति कृपा पूर्वक अवलोकन करती हैं, वे सभी लोग (आपके अवलोकन से) पूर्व निर्गुण होने पर भी, तत्क्षण ही शील प्रभृति गुणों एवं वंश तथा ऐश्वर्य के द्वारा युक्त बन जाते हैं ।।13।।

स श्लाघ्यो गुणी धन्यः स, स कुलीनः स बुद्धिमान् ।

स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥14

हे देवि ! आप जिसके प्रति कृपापूर्वक अवलोकन करती हैं, वह व्यक्ति प्रशंसनीय, गुणी, धन्य, कुलीन (उच्चवंशीय), बुद्धिमान, वीर एवं पराक्रमयुक्त बन जाता है ।।14।।

सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः ।

पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥15

विष्णुप्रिये ! जगद्धात्रि ! आप जिसके निकट से विमुख हो जाती हैं, उसके शील प्रभृति समस्त गुण भी तत्क्षण ही विगुण (विकल) बन जाते हैं ।।15।।

न मे वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वा हि वेधसः ।

प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥16

हे पद्मपत्रनयने देवि ! ब्रह्मा की जिह्वा भी आपके समस्त गुणों के वर्णन करने में समर्थ नहीं होती है । हे देवि ! आप प्रसन्न होवें । कदापि हमें त्याग न करें ।।16।।

लक्ष्मीस्तोत्रम् महात्म्य  

पराशर उवाच

एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह हृष्टा शतक्रतुम् ।

शृण्वतां देवदेवानां प्रादुर्भूता स्थिता द्विज ॥17

पराशर ने कहा - हे ब्राह्मण ! इस प्रकार ( इन्द्र के द्वारा ) स्रुत होकर लक्ष्मीदेवी आनन्दित होकर देवताओं में आविर्भूता होकर वहीं अवस्थान करती हुईं, इन्द्र से सम्यक् प्रकार से कहने लगीं ।।17।।

श्रीरुवाच-

परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन हेतुना ।

वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं समागता ।।1 8

लक्ष्मी ने कहा -  हे देवाधिपते ! (आपके) इस स्तोत्र से मैं सन्तुष्ट हूँ । आपको जो अभीष्ट है, उसी के अनुसार वर की प्रार्थना करें। मैं वरदायिनी बनकर उपस्थित हुईं हूँ ।। 18 ।।

इन्द्र उवाच

वरदा यदि देवि त्वं वरार्हो यदि वाप्यहम् ।

त्रैलोक्यं न त्वया त्याण्यमेष मे ह्यर्थितो वरः ॥19

इन्द्र ने कहा - हे देवि ! यदि आप वरदायिनी बनी हैं, और मैं यदि वर को ग्रहण करने योग्य बना हूँ, तो आप त्रैलोक्य का परित्याग न करें यही मेरा प्रार्थित वर है ।।19।।

स्तोत्रेण यस्तवैतेन त्वां स्तोष्येत् पद्मसम्भवे ।

स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयस्तु वरो मम ॥20

हे पद्मसम्भूते ! इस स्तोत्र के द्वारा जो आपकी स्तुति करेगा, आप उसका परित्याग न करें - (यही ) मेरा (प्रार्थित) द्वितीय वर है ।

लक्ष्मीरुवाच -

त्रैलोक्यं त्रिदश श्रेष्ठ सन्त्यजामि न वासव ।

दत्तो वरो मया त्वां तु स्तोत्रेण परितुष्टया ॥21

लक्ष्मी ने कहा - हे देवश्रेष्ठ वासव ! मैं त्रैलोक्य का परित्याग नहीं करूँगी। आपके स्तोत्र से सन्तुष्ट होकर मैं आपको यह वर देती हूँ ।। 21 ।।

यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः ।

मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी ॥22

जो मानव प्रातःकाल एवं सायंकाल इस स्तोत्र के द्वारा मेरा गुणगान करेगा, मैं उसके निकट से विमुख नहीं होऊँगी ।। 22 ।।

पराशर उवाच

एवं वरं ददौ देवी देवराजाय वै पुरा ।

मैत्रेय ! श्रीर्महाभागा स्तोत्राराधनतोषिता ॥23

पराशर ने कहा- हे मैत्रेय ! पूर्वकाल में महाभाग्यवती लक्ष्मी देवी इस स्तोत्ररूप आराधना के द्वारा सन्तुष्ट होकर देवराज इन्द्र को इस प्रकार वर प्रदान की थी ।

भृगोर्वंशे समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः ।

देवदानवयत्नेन प्रसूतामृतमन्थने ॥24

पूर्वकाल में लक्ष्मी भृगुवंश में उत्पन्न हुईं थी । पुनः अमृत-मन्थन के उद्देश्य से देव एवं दैत्यों के प्रयत्न से (लक्ष्मी) समुद्र से आविर्भूता हुईं थीं ।।

एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः ।

अवतारं करोत्येव तदा श्रीस्तत्सहायिनी ॥25

इस प्रकार देवदेव जगत्स्वामी जनार्दन जब अवतीर्ण होते हैं, तब लक्ष्मीदेवी उनकी साहाय्यकारिणी बन जाती हैं ।। 25।।

पुनश्च पद्मादुद्भूता यदादित्योऽभवद्धरिः ।

यदा च भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम् ॥26

विष्णु जब आदित्य-अवतार में अवतीर्ण हुए थे, तब लक्ष्मी पुनः पद्म से आविर्भूता हुई थीं और जब भृगुवंश में परशुराम अवतीर्ण हुए थे, तब यही लक्ष्मी 'पृथिवी' बनी थीं ।

राघवत्वेऽभवत् सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि ।

अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषा सहायिनी ॥27

श्रीरामचन्द्र के अवतार (काल) में लक्ष्मीदेवी सीता बनीं थी । कृष्णावतार में (लक्ष्मी ही) रुक्मिणी बनी थीं । अन्यान्य अवतारों में ये विष्णु की सहायिका बनी थीं ।।27 ।।

देवत्वे देवदेहेयं मानवत्वे च मानवी ।

विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनूम् ॥28

भगवान् विष्णु देवतारूप में अवतीर्ण होने पर, लक्ष्मी देवदेह को धारण करती हैं, (विष्णु) मानवरूप में अवतीर्ण होने पर मानवदेह को धारण करती हैं । यह लक्ष्मी एवं विध प्रकार से विष्णु के ( धारण किये गये) देह के अनुसार अपना शरीर धारण करती हैं ।।28।।

यश्चैतच्छृणुजाज्जन्म लक्ष्म्याः स्तोत्रं पठेन्नरः ।

श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावद् कुलत्रयम् ॥29

जो मानव लक्ष्मीदेवी के जन्म (कथा) का श्रवण करता है एवं उनके इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके गृह में (उसके परवर्त्ती) तीन वंश पर्यन्त लक्ष्मी से विच्युति नहीं होती है ।

पठ्यते येषु गेहेषु सुभक्त्या श्रीस्तवो मुने ।

अलक्ष्मीः कलहो वाधा न तेष्वास्ते कदाचन ॥30

हे मुने ! जिन गृहों में परम भक्ति के साथ लक्ष्मी स्तोत्र का पाठ किया जाता है, उन सभी गृहों में कदापि अलक्ष्मी, कलह एवं वाधा ( विघ्न) नहीं आती है ।

एतत्ते कथितं ब्रह्मन् यस्मात्त्वं परिपृच्छसि ।

क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्वं भृगुसुता सती ॥31

हे ब्रह्मन् ! पूर्वकाल में लक्ष्मी भृगुकन्या बनकर क्षीरसमुद्र से जिस प्रकार आविर्भूता हुई थीं, उसका विवरण आपको दिया गया, क्योंकि आपने यही पूछा था ।

इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतु स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः ।

अनुदिनमनु पठ्यते नृभिर्यैर्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः ॥32

जो मानव समस्त विभूतियों के प्राप्ति के हेतुस्वरूप, इन्द्र के मुख से उच्चारित, लक्ष्मी के इस स्तोत्र का पाठ करता है, उन मानवों में कदापि अलक्ष्मी वास नहीं करती हैं।

इति श्रीविष्णुपुराणे पराशर- मैत्रेय-संवादे लक्ष्मीस्तोत्रं समाप्तम् ॥

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