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योनितन्त्र पटल ७
Yoni tantra patal 7
योनि तन्त्र सातवां पटल
श्री महादेव उवाच-
अथ वक्ष्ये महेशानि वीरसाधनमुत्तमम्
।
यस्य विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तश्च
साधकः ।। १।।
महादेव ने कहा
–
हे पार्वति ! अब मैं उत्तम वीरसाधनपद्धति के विषय में कहूँगा
। इस साधना का ज्ञान लाभ होने से ही साधक जीवनमुक्त हो जाता है ।। १।।
दिव्यस्तु देववत् प्रायो
वीरश्रोद्धतमानसः ।
यद्देशे विद्यते वीरः स देशः
पूज्यते सुरैः ।। २।।
दिव्यसाधकगण प्रायः देवतुल्य होते
हैं। वीरसाधकगण उग्र एवं उद्धतमना होते हैं। जिस देश में वीरसाधक हों,
देवगण भी उस देश की पूजा करते हैं ।। २।।
वीरदर्शनमात्रेण तीर्थ कोटिफलं
लभेत् ।
वीरहस्ते जलं दत्त्वा मुक्तः
कोटिकुलैः सह ।। ३।।
वीरसाधक के दर्शनमात्र से कोटितीर्थ
के दर्शन का लाभ होता है। वीरसाधक को जलदान करने से दाता कोटिकुल के साथ मुक्त हो
जाता है ।। ३।।
वीरं सन्तोष्य देवेशि किमलभ्यं
जगत्रये ।
वीराणां जपकालस्त सर्वकालः
प्रशस्यते ।। ४।।
हे देवेशि ! वीर साधक को सन्तुष्ट
करने से तीनों लोकों में कुछ भी अलभ्य नहीं होता । वीरगणों के जप के लिए सभी समय
प्रशस्त काल होता है ।।४।।
विल्वमूले श्मशाने वा प्रान्तरे वा
गृहेऽथवा ।
एकलिङ्गे महायोनौ जप्यते साधकोत्तमैः
।। ५।।
उत्तम वीरसाधक विल्वमूल,
श्मशान, प्रान्तर प्रदेश, एकलिङ्ग मन्दिर या योनिपीठ में सदैव जप कर सकता है ।। ५।।
सर्वेषामन्नमाश्रित्य कुर्यात्
स्वोदरपूरणं ।
मद्यं -मांस बिना देवि क्षणार्ध्वं
न जीवति ।। ६ ।।
वीरमन्त्र का आश्रय लेकर वीरसाधक
आहार ग्रहण कर उदरपूर्ति करे। मद्य एवं मांसाहार के बिना वीरसाधक एक क्षण से अधिक
प्राण नहीं धारण कर सकता ।। ६।।
तस्मात् भुक्त्वा च पीत्वा च
विहरेत् क्षितिमण्डले ।
सर्वेषामन्नमासाद्य भोजनं
चाकुतोभयम् ।। ७ ।।
मैथुनञ्च महेशानि सर्वयोनौ
प्रशस्यते ।
कदाचिच्चन्दनेनापि कदाचित् सुरयापि
वा ।। ८ ।।
लेपनञ्च सदा कुर्यात् पङ्केन रजसापि
वा ।
सदानन्दमयो दुर्गे वीरश्चापि
विराजते ।। ९ ।।
वीराचार के अनुसार पान और भोजन करके
वीरसाधक क्षितिमण्डल में विचरण करता है। वह सभी प्रकार के अन्न को निर्विकार चित्त
से भोजन करता है। हे महेशानि ! वीरसाधक के निकट मैथुन के लिए सभी योनि प्रशस्त
होती है। वीर साधक अपनी देह पर कभी चन्दन, कभी
सुरा, कभी पङ्क और कभी धूलि का अनुलेपन करता है। हे दुर्गे !
वीरसाधक सदा सदानन्दमयरूप में विराजमान रहता है ।। ७-९।।
तत् साधनमहं वक्ष्ये सर्वं सर्वार्थसाधनम्
।
स्नानादिर्मानसः शौचो मानसः प्रवरो
जपः ।। १० ।।
पूजनं मानसं दिव्यं मानसं
तर्पणादिकम् ।
सर्व एव शुभः कालो नाशुभो विद्यते
क्वचित् ।। ११।।
मैं सर्वार्थसाधक वीरसाधन के विषय
में कह रहा हूँ। इस साधना में स्नानादि समस्त शौचक्रिया भी मानसिक तथा श्रेष्ठ जप
भी मानसिक होता है। इसमें मानसिक पूजा ही दिव्यपूजा तथा तर्पणादि भी मानसिक
होती है। इस साधना में कालाकाल- विचार नहीं होता - सभी काल सभी कार्यों के लिए शुभ
(प्रशस्त) होता है। इस साधना के लिए कोई काल किसी कार्य के लिए अशुभ नहीं होता ।।
१०-११।।
न विशेषो दिवारात्रौ न सन्ध्यायां
महानिशि ।
वस्त्रासनं स्नान - गेह-
देहस्पर्शादिकेष्वपि ।। १२ ।।
इस साधना में दिवा,
रात्रि सन्ध्या या महानिशा के मध्य किसी प्रकार का भेदाभेद या विशेष
अविशेष नहीं है। इसमें वस्त्र, आसन, स्नान, गृह देहस्पर्श इत्यादि शुचि अथवा अशुचि
प्रभृति किसी प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए ।। १२।।
शुद्धिं विचारयेन्नात्र निर्विकल्पं
मनश्चरेत् ।
दिक्काल-नियमो नास्ति
स्थित्यादि-नियमो न च ।। १३ ।।
इसमें निर्विकार एवं निर्विकल्प
चित्त होकर साधना में प्रवृत्त होना चाहिए। इसमें दिक काल प्रभृति कोई विधि निषेध
नहीं मानना होता, न तो साधक की
अवस्था नादि इत्यादि के विषय में किसी नियम को मानना होता है ।। १३।।
न जपे काल
- नियमो नार्च्यादिषु बलिष्वपि ।
स्त्रीद्वेषो नैन कर्त्तव्यो
विशेषात् पूजनं स्त्रियाः ।। १४ ।।
स्त्रियं गच्छन् स्पृशन पश्यन् यत्र
कुत्रापि साधकः ।
दत्त्वा भक्ष्य जपेन्मत्रं
भक्ष्यद्रव्यं यथारुचि ।। १५ ।।
स्वेच्छानियमः संप्रोक्तो
वीरसाधनकर्मणि ।
स्त्रियो देवाः स्त्रियः प्राणाः
स्त्रियः परमभूषणम् ।। १६ ।।
अर्चना,
बलि जप प्रभृति किसी कार्य में किसी प्रकार का कालविचार या नियम-
प्रतिपालन आवश्यक नहीं है। कभी स्त्री- द्वेश (ईर्ष्या, विराग
या वैरभाव पोषण) प्रकट नहीं करना चाहिए। स्त्रियों की विशेष भाव से पूजा करनी
चाहिए। यदि किसी स्थान पर कुलस्त्री का गमन, दर्शन, स्पर्शन् हो जाय तो उसे आहार प्रदान करके तथा स्वयं भी यथारुचि आहार ग्रहण
करके साधक को मन्त्र जप करना चाहिए। वीराचार साधन के सभी कार्यों में स्वेच्छानियम
का अवलम्बन करना चाहिए। स्वेच्छाचार ही वीरसाधन की पद्धति है-इसका अन्य कोई नियम
नहीं है। किन्तु इस साधना में नारी ही (शक्ति ही) आराध्यदेवी, नारी ही प्राण एवं नारी ही साधक का आभूषण है- इसे सर्वदा स्मरण रखना चाहिए
।। १४–१६।।
स्त्रीसङ्गिना सदा भाव्यमन्यथा
स्व-स्त्रियामपि ।
तदुक्तं भावसर्वस्वे सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।। १७।।
सर्वदा कुलस्त्री सङ्गिनी के अन्यथा
स्वस्त्री को सदा शक्तिरूपा में देखना चाहिए। इसे केवलमात्र तुम्हारे लिए सर्वस्व
रूप से कहा है। यह विषय अन्यान्य समस्त तन्त्र में गुप्त है ।। १७।।
वीरसिद्धि - विधानन्तु तव स्नेहात्
प्रकाशितम् ।
द्रव्य-भक्षणकाले च आदौ शक्तौ
निवेदयेत् ।। १८ ।।
अथवा प्रथमं भागं
निक्षिपेज्जलमध्यतः ।
श्मशाने प्रान्तरे गत्वा शक्त्या
युक्तोऽपि साधकः ।। १९ ।।
भुक्त्वा द्रव्यं जपेन्मन्त्रं
जप्त्वा मैथुनमाचरेत् ।
शुक्रोत्सरणकाले च श्रृणु पार्वति
सुन्दरि ।। २० ।।
योनितत्त्वं समादाय तिलकं क्रियते
यदि ।
शतजन्माज्जितं पापं तत्क्षणादेव
नश्यति ।। २१ ।।
वीरसाधन पद्धति केवलमात्र तुम्हारे
प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण प्रकाशित किया है। किसी द्रव्य के भक्षण के समय उसे
शक्ति को निवेदित करना चाहिए अथवा भक्ष्यद्रव्य का प्रथमभाग जल में निक्षेप करना
चाहिए। इसके बाद साधक शक्तियुक्त होकर प्रान्तर प्रदेश अथवा श्मशान भूमि में जाकर
द्रव्य भक्षण कर मन्त्र जप करेगा। जप समाप्त होने पर मैथुन में प्रवृत्त होना
चाहिए। हे पार्वति ! सुनो। शुक्रोत्सारण के समय योनितत्त्व ग्रहण करके,
यदि उसके द्वारा साधक तिलक प्रदान करे, तो
शतजन्माज्जित पाप भी तत्काल विनष्ट हो जाता है ।।१८-२१।।
प्रेतभूमेरभावे च शून्यालयगतेहपि च ।
तदभावे जपेन्मन्त्री
निच्छिद्र-गृहमध्यतः ।। २२ ।।
श्मशान तथा शून्यगृह में उसी भाव से
जाकर कार्य करना चाहिए। उसी भाव से निःच्छिद्र गृह में वास करके कार्य करना चाहिए
।।२२।।
प्राणान्ते च महेशानि न वदेत्
पशुसन्निधौ ।
वीरनिन्दा वृथा पानं वृथा मैथुनमेव
च ।। २३ ।।
वृथान्नं वर्जयेन्मन्त्री
वीरसाधनकर्म्मणि।
मद्यं मांस तथा मत्स्यं मुद्रां
मैथुनमेव च ।। २४ ।।
पञ्चतत्त्वं बिना दुर्गे न वीरो
जायते भुवि ।
तस्मात् भुक्त्वा च पीत्वा च
जपेन्मन्त्री महामनुम् ।। २५ ।।
हे पार्वति ! प्राणान्त होने पर भी
इस वीरसाधक पद्धति को पशुसाधक के समीप व्यक्त मत करना। वीरसाधना के लिए अकारण
मद्यपान,
वीर निन्दा वृथा मैथुन एवं वृथा भोजन का सदा परिहार करना चाहिए। हे
दुर्गे ! मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा
एवं मैथुन इन पाँच तत्त्वों की उपेक्षा कर पृथ्वी पर कोई वीरसाधक नहीं हो
सकता। अतएव इन पाँच तत्त्वों का भोग अथवा पान करके वीरसाधक महामन्त्र जप करने में
प्रवृत्त होगा ।। २३-२५।।
अति गुह्यतमं देवि वीराणां साधनं
प्रिये ।
किं द्रव्य साधनैर्लक्षैः किं
वीरसाधनैस्तथा ।। २६ ।।
हे देवि ! वीरगणों की साधन पद्धति
अत्यन्त गोपनीय है। लाखों प्रकार के दिव्यसाधन एवं वीरसाधना का क्या फल है ?
।।२६।।
किं कोटिशतजपैश्च
पुरश्चर्या-शतैस्तथा।
किं तीर्थसेवनैर्लक्षैः किंवा
तन्त्रादि सेवनैः ।। २७।।
किं पूजा शतलक्षैश्च किं
दानैस्तपसापि च ।
भगं बिना महेशानि सर्वश्ञ्चैव वृथा
भवेत् ।। २८ ।।
योनिपूजनमात्रेण सर्वसाधनभाग् भवेत्
।
तर्पणं योनितत्त्वेन पितरः
स्वर्गगामिनः ।। २९ ।।
शतकोटि जप अथवा पुरश्चरण का
क्या फल है? लाखों तीर्थसेवा अथवा तन्त्रादि
सेवा का क्या फल ? शतलक्ष पूजा, दान या
तपस्या आदि का क्या फल ? हे महेशानि ! आद्याशक्ति की पूजा के
अतिरिक्त यह सब कार्य निष्फल हैं। केवलमात्र योनिपूजा द्वारा ही उक्त कार्य सफल
एवं फलदायक होता है। स्वर्गवासी पितृगणों को भी योनितत्त्व द्वारा तर्पण
करना चाहिए ।।२७-२९।।
लालयेच्च सदा योनिं कुन्तला-
कर्षणादिना ।
क्रोड़े कृत्वा महायोनिं ताण्डवं
कुरुते यदि ।। ३० ।।
तदां जन्मायुतैः पापैमुक्तिः
कोटिकुलैः सह ।
शिष्याणां कन्यकायोनिं वधूयोनिं
विशेषतः ।। ३१ ।।
केवलं गन्धपुष्पेण पूजयेद्
भक्तिभावतः ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा देवीलोके
महीयते ।। ३२ ।।
कुन्तलाकर्षण प्रमृति कार्य द्वारा
सर्वदा योनि का (शक्ति का) लालन करना चाहिए। महायोनि के कोड़ को ग्रहण करके यदि
साधक ताण्डव नृत्य में प्रवृत्त हो, तो
जन्मार्जित पापों का कोटिकुल के साथ मोक्षलाभ हो जाता है। विशेष भाव से शिष्याणी,
कन्या तथा क्धूयोनि का मात्र गन्धपुष्प द्वारा ही भक्तिभाव द्वारा
पूजा करनी चाहिए। ऐसा करने से साधक इस लोक में सुखभोग करके मृत्योपरान्त देवीलोक
में गमन करता है ।।३०-३२।।
अभावे गन्धपुष्पाभ्यां कारणेनापि
पूजयेत् ।
पूजाकाले च देवेशि यदि
कोऽप्यत्रागच्छेति ।। ३३ ।।
दर्शयेद्वैष्णवीं पूजां
विष्णोर्न्यासं तथा स्तवम् ।। ३४।।
इन सभी स्थानों पर पूजा के लिए
गन्धपुष्पादि का अभाव होने पर केवलमात्र कारण (सुरा) द्वारा पूजा सम्पन्न करना
चाहिए। हे पार्वति ! यदि पूजा के समय पूजा स्थल पर कोई आ जाय,
तो उसे वैष्णवी पूजा, विष्णुन्यास एवं विष्णुस्तव
प्रदर्शन करना चाहिए (पाठान्तर में तत्पर्यानुसार - वैष्णवी मुद्रा) ।। ३३-३४।।
इति योनितन्त्रे सप्तमः पटलः ।। ७।।
योनितन्त्र के सप्तम पटल का अनुवाद
समाप्त ।
आगे जारी............ योनितन्त्र पटल 8
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