गायत्री होम

गायत्री होम

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में मन्त्रमहार्णव के गायत्रीतन्त्र के भाग-५ में गायत्री होम प्रकार को दिया जा रहा है।

गायत्री होम

गायत्री तन्त्र ५     

गायत्री होम

Gayatri home

होम प्रकार :

संकल्प करके गणपति की पूजा करे तदनन्तर कुण्ड या स्थण्डिल पर अपने गृह्यसूत्र के अनुसार पश्चभूतसंस्कारपूर्वक अग्नि की स्थापना करके ग्रहपीठ पर सूर्यादि नवग्रह मण्डल के देवों का आवाहन कर उनकी पूजा करके कलश स्थापना करके कुशकण्डिका सम्पादित करके आधारावाज्यभाग की आहुति दे।

ॐ इदं हवनीयद्रव्यमन्वाधानोक्तदेवताभ्योस्तु न मम ।।

इति यजमानो द्रव्यत्यागं कुर्यात् ।।

ततः सूर्यादि ग्रहेभ्योऽर्कादिसमिच्चज्यिाहुतिभिः प्रत्येकमष्टाविंशतिमष्टी या हत्वा तैरव ब द्रव्यैरधिप्रत्यधिदेवताभ्यश्चतुश्च तुःसंख्याकाभिः पञ्चलोकपालदिक्पालेभ्यश्च द्विद्विसंख्याकाभिर्जुहयात् ।।

"ॐ इदं हवनीय द्रव्यमन्वाधानोक्त देवताभ्योस्तु न मम इस प्रकार यजमान द्रव्य का त्याग करे। इसके बाद सूर्यादि ग्रहों से अर्कादि समिधा, चरु तथा घी की आहुतियों से प्रत्येक को अट्ठाइस या आठ आहुति देकर उन्हीं द्रव्यों से प्रत्येक देवता के लिये चार - चार संख्यक पञ्च लोकपालों तथा दिक्पालों के लिये दो - दो संख्यक आहुतियों से होम करे ।

ततः आवरणदेवताभ्यश्चर्वादिद्रव्यैरेकैकाहुतिभिर्हत्वां प्रधानहोमं कुर्यात् ।

तथा च प्रधानदेवसवित्रे चतुर्विंशति सहस्रतिलाहुतिमिस्त्रिसहस्र संख्याकाभिः पायसाहुतिभिस्तवतीभिघृताहुतिभिस्तावंतीभिर्दूहुतिभि-स्तावतीभिः क्षीरद्रुमसमिधाहुतिभिश्च हुत्वा शेषेण स्विष्टकृद्धोमं कृत्वा समापयेत् ।।

होमकाले 'इदं सवित्रे न मम' इति त्यागः ।।

होमे सप्रणवा व्याहृतिरहिता स्वाहान्ता गायत्री ।

दूत्रियस्यैकाहुतिः । दूर्वाप्समिधा दधिमध्याज्याक्तानां होमः ।।

इसके बाद आवरण देवताओं के लिये चरु आदि द्रव्यों से एक-एक आहुति से प्रधान होम करे। प्रधान सविता देव के लिये चौबीस हजार तिल की आहुतियों से, एक हजार खीर की आहुतियों से, उतनी ही घी की आहुतियों से, उतनी ही दुर्वा की आहुतियों से, उतनी ही क्षीरीवृक्षों की समिधाओं से आहुति देकर शेष से स्विष्टकृत होम करके समापन करे । होम के समय में 'इदं सवित्रे न मम' इससे त्याग करना चाहिये । होम में प्रणव सहित व्याहृति से रहित स्वाहान्ता गायत्री होती है। तीन दूर्वा की एक आहुति होती है। दूर्वा की समिधा को दही, मधु और घी से तर करके होम करना चाहिए।

ततो बलिदानान्ते मूलादौ संयोज्य समुद्रज्येष्ठ०" इत्यादिभिर्यजमानस्याभिषेकः ।।

अभिषेकान्ते प्रतिलक्षं तु स्वर्णनिष्कत्रयं तदर्ध वा शक्त्या वा दक्षिणां प्रत्येकब्राह्मणाय दत्वा आचार्याय द्विगुणा दद्यात् ।।

ततो जले सवितारं सम्पूज्य होमसंख्यादशांशेन गायत्र्यंते सवितारं तर्पयामीत्युक्त्वा दुग्धमिश्रितजलेन तर्पणं कुर्यात् ।।

ततस्तर्पण दशांशेन गायत्र्यंते आत्मानमभिषिचामि नमः" इति यजमानमूय॑भिषेकः ॥

होमतर्पणाभिषेकानां मध्ये समर्थो न भवति चेत् तत्तत्स्थानेतद्विगुणो जपः ॥

इसके बाद बलिदान करके मूलादि में जोड़ कर 'समुद्र ज्येष्ठा०' (ऋग्वेद ७, ४९,१) इत्यादि मंत्रों से यजमान का अभिषेक करना चाहिये। अभिषेक के बाद लाख पीछे तीन स्वर्णनिष्क अधवा उसका आधा शक्ति के अनुसार प्रत्येक ब्राह्मण को दक्षिणा देकर आचार्य को दूनी दक्षिणा देना चाहिये । इसके बाद जल में सूर्य की पूजा करके होम की संख्या के दशांश से गायत्री के अंत में 'सवितारं तर्पयामि' यह कह कर दुग्धमिश्रित जल से तर्पण करे। इसके बाद तर्पण के दशांश से गायत्री के अंत में 'आत्मानाभिषिञ्चामि नमः, से यजमान के शिर पर अभिषेक करे। होम, तर्पण और अभिषेक के बीच यदि समर्थ न हो तो उस स्थान पर उससे दूना अभिषेक करना चाहिये ।

तत् अभिषेकसंख्यादशांश वाधिकं ब्राह्मणान् भोजयेत् ।

ततो ब्राह्मणान् दक्षिणादिभिः परितोष्य आशीर्वादं गृहीत्वा चतुर्विंशति लक्षात्मकगायत्रीपुरश्चरणं सम्पूर्णमस्त्विति भवन्तो अवन्विति विप्रान प्रार्थ्य ते च गायत्रीपुरश्चरणं सम्पूर्णमस्त्विति ब्रूयः ।।

ततः कर्मपूर्तिकामो विष्णुं स्मरेत् ।।

इसके बाद अभिषेक संख्या का दसवाँ भाग या अधिक ब्राह्मणों को भोजन कराये और दक्षिणा आदि से उन्हें संतुष्ट करके आशीर्वाद लेकर "चौबीस लाख गायत्री मन्त्र का पुरश्चरण सम्पूर्ण हो ऐसा आप लोग कहें यह ब्राह्मणों से प्रार्थना करे। तब ब्राह्मण बोलें 'गायत्री पुरश्चरण सम्पूर्णमस्तु' । इसके बाद कामनापूर्ति की इच्छा से विष्णु का स्मरण करें।

कर्ता ब्राह्मणैः सह हविष्याशी सत्यवागधःशायी परिगृहीतभूप्रदेशानतिचारी च भवेत् ।।

एवं कृते गायत्रीपुरश्चरणं सिद्धं भवित । सिद्धे च मन्त्रे मन्त्री प्रयोगान् साधयेत् ।।

यजमान ब्राह्मणों के साथ हविष्य का आहार करने वाला, सत्यवादी, भूमि पर शयन करने वाला अपने निर्धारित क्षेत्र से बाहर न जाय । ऐसा करने पर गायत्री पुरश्चरण सिद्ध होता है। मन्त्र के सिद्ध होने पर साधक प्रयोगों को सिद्ध करे। जैसा कि कहा गया है-

तथा च

"गायत्रीच्छन्दोमन्त्रस्य यथासंख्याक्षराणि च ।

तावल्लक्षाणि कर्त्तव्यं पुरश्चरणकं तथा ।। १ ।।

जुहुयात्तद्दशांशेन सघृतेन पयोधसा ।

तिलैः पत्रैः प्रसूनैश्च यवैश्व मधुरान्वितैः ॥२॥"

(शारदातिलके तु शतांशहोमोप्युक्तः) । तेन मया प्रोक्तम् ।।

तथा च

"तत्वसंख्यासहस्राणि मन्त्रविज्जुहुयात्तिलैः ।

सर्वपापविनिर्मुक्तो दीर्घमायुः स विंदति ।।३।।

गायत्री मन्त्र के जितने अक्षर हैं उतने लाख पुरश्चरण करना चाहिये । उसके दशवें भाग से घी, दूध और अन्न, तिल, पत्र, पुष्प, मधुर रस से, युक्त यव से होम करना चाहिये । शारदा तिलक में शतांश होम भी कहा गया है। इसीलिये मैंने कहा है-मन्त्रवित् पाँच हजार तिलों की आहुति देवे । जो ऐसा करता है वह सब पापों से मुक्त होकर दीर्घ आयु को प्राप्त करता है।

आयुषेनाज्यहविषा केवलेनाथ सर्पिषा ।

दूर्वात्रिकैस्तिलैर्मन्त्री जुहुयात्रिसहस्रकम् ॥४ ॥

अरुणास्त्रिमध्यक्तैर्जुहयादयुतं ततः

महालक्ष्मीर्भवेत्तस्य षण्मासान्नात्र संशयः ।।५।।

साधक आयुष्य के लिये घी, हविष्य या केवल घी से, तीन-तीन दूब से, तिल से तीन हजार आहुति देवे। इसके बाद मधु से युक्त लाल कमलों से आहुति देवे। जो ऐसा करेगा उसे दस मास से महालक्ष्मी की प्राप्ति होगी। इसमें कोई संशय नहीं है।

ब्रह्मश्रियेऽत्र जुहुयाठासूनर्बह्मवृक्षजैः ।

बहुना किमिहोक्तेन यथा वत्साधुसाधिता ॥६॥

द्विजन्मनामियं विधा सिद्धा कामदुधा मता ।

आमध्याहं जपं कुर्यादुपांशु वाऽथ मानसम् ॥ ७ ॥

साधक ब्रह्मश्री के लिये पलास के फूलों से होम करे। अधिक कहने से क्या ? यथावत् पुरश्चरण करने से द्विजातियों की यह विद्या सिद्ध होने पर इच्छा को पूर्ण करने वाली मानी गयी है। प्रातः से मध्याह्न काल तक उपांशु जाप या मानस जाप करना चाहिये।

गायत्री होम

मन्त्रमहोदधौ :

हविष्यं निशि भुंजीत त्रिःस्नाय्यभ्यङ्गवर्जितः ॥

व्यग्रतालस्य निष्ठीवक्रोधपादप्रसारणम् ।।८।।

अन्यभाषां त्यजेक्षे च जपकाले त्यजेत्सुधीः ।।

स्त्रीशूद्रभाषणं निन्दा ताम्बूलं शयनं दिवा ।।९॥

प्रतिग्रहं नृत्यगीते कौटिल्यं वर्जयेत्सदा ।।

मन्त्रमहोदधि में कहा गया है कि तीन बार स्नान करना चाहिये, शरीर में तेल नहीं लगाना चाहिये और रात्रि में हविष्य का भोजन करना चाहिये। साधक को व्यग्रता, आलस्य, थूकना, क्रोध करना, पैर फैलाना, दूसरों से बात करना, अन्त्यज को देखना जप के समय छोड़ देना चाहिये। उसे स्त्री तथा शूद्र से बात करना, निन्दा, पान चबाना, दिन में सोना, दान लेना, नाचना-गाना, कुटिलता करना भी सदा मना है।

भूशय्यां ब्रह्मचर्य च त्रिकालं देवतार्चनम् ॥१०॥

नैमित्तिकार्चनं देवस्तुतिं विश्वासमाश्रयेत् ।

प्रत्यहं प्रत्यहं तावन्नैव न्यूनाधिकं क्वचित् ।।११।।

एवं जपान्समाप्यान्ते दशांश होममाचरेत् ।

तर्पणं तद्दशांशेन मार्जनं तद्दशांशतः ।।१२।।

एवं कृत पुरश्चर्यः पुरश्चरणसिद्धये ।

सिद्धे मन्त्रे प्रकुर्वीत प्रयोगान्मनसेप्सितान् ॥१३॥

साधक को चाहिये कि वह भूमि पर शयन करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, तीन समय देवताओं की पूजा करे, नैमित्तिक पूजा, देवता की स्तुति और विश्वास में श्रद्धा रक्खे । प्रतिदिन समान ही जप करना चाहिये कम या अधिक नहीं । इस प्रकार जप को समाप्त करके अन्त में दशांश होम करना, उसका दशांश तर्पण करना और उसका दशांश मार्जन करना चाहिये । इस प्रकार पुरश्चरण करने वाला पुरश्चरण की सिद्धि के लिये मन्त्रसिद्ध होने पर यथेष्ट प्रयोगों को करे।

गायत्री होम

अथ कार्यपरत्वेन प्रयोगो यथा । विद्यार्थी वाग्भवाद्यम् ।

लक्ष्मीकामः श्रीबीजम् । वश्यार्थी कामबीजम् ।

सर्वकामार्थी मायाबीजम् ।

आयुःकामार्थी मृत्युञ्जयचतुरक्षसहितं जपेदिति जपविधिः ।

कार्यपरक प्रयोगः विद्यार्थी को वाग्भवादि बीजप्रयोग, धन चाहने वाले को श्री बीजप्रयोग, वशीकरण करने वाले को काम बीज प्रयोग, सर्वकमार्थी को माया बीज प्रयोग और आयुकामार्थी को चार अक्षर सहित मृत्युञ्जय का जप करना चाहिये। 

इति जपविधि।

मध्याह्ने मितभुग्मौनी त्रिस्थानार्चनतत्परः ।

जपेल्लक्षत्रयं धीमान्नान्यमानसिकस्तु यः ॥ १४ ॥

कर्मभिर्यो जपेत्पश्चात् क्रमशः स्वेच्छयापि वा ।

यावत्कार्यं न कुर्वीत न लोपेत्तावता व्रतम् ।।१५।।

आदित्यस्योदये स्नात्वा सहनं प्रत्यहं जपेत् ।

आयुरारोग्यमैश्वर्यं धनं च लभते ध्रुवम् ॥१६॥

बुद्धिमान साधक मध्याह्न में मितभोजी, मौनी, तीन काल देवपूजन करने वाला, अन्यमना न होकर तीन लाख गायत्री का क्रमशः जप करे पश्चात् स्वेच्छा से करे। जब तक कार्य न करे तब तक व्रत को न छोड़े। सूर्योदय होने पर स्नान करके एक हजार प्रतिदिन गायत्री का जप करे। ऐसा साधक आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और धन निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

त्रिरात्रोपोषितः सम्यग्घृतं हुत्वा सहस्रशः ।

सहस्रं लाभमाप्नोति हुत्वाग्नो खदिरेन्धनम् ।। १७।।

जो तीन रात्रि तक उपवास करके घी से एक हजार खैर की समिधा से आहुति देता है वह एक हजार लाभ प्राप्त करता है।

समिद्भिश्चैव पालाशैख़्ताक्तैश्च हुताशने ।

सहनं लाभमाप्नोति राहुसूर्य समागमे ।।१८।।

राहु सूर्य के समागम में अर्थात् सूर्यग्रहणकाल में जो घी से युक्त पलाश की समिधाओं से हवन करता है वह एक हजार लाभों को प्राप्त करता है।

हुत्वा तु खदिरं वही घृताक्तं रक्तचन्दनम् ।

सहस्रहेम चाप्नोति राहुचन्द्रसमागमे ॥१९॥

घी से युक्त खैर की समिधा तथा लाल चन्दन से चन्द्रग्रहण के समय जो होम करता है वह हजार स्वर्ण प्राप्त करता है।

रक्तचन्दनमिश्रं तु सघृतं हव्यवाहने ।

हुत्वा गोमयमाप्नोति सहस्रं गोमयं द्विजः ॥२०॥

जो द्विज घी सहित लाल चन्दन का समिधा और गोबर के कण्डे की अग्नि में होम करता है वह हजार गायें प्राप्त करता है।

जातीचम्पकराजाककुसुमानां सहस्रशः ।

हुत्वा वस्त्रमवाप्नोति घृताक्तानां हुताशने ॥२१॥

जो घी से युक्त चमेली, चम्पा, सफेद मदार के एक हजार फूलों से होम करता है वह वस्त्र प्राप्त करता है।

सूर्यमण्डलविम्बे च हुत्वा तोयं सहस्रशः ।

सहनं प्राप्नुयामि रौप्यमिन्दुमये हुते ॥२२॥

सूर्यमण्डल के बिम्ब की ओर हजारों बार जल का होम कर मुनष्य स्वर्ण प्राप्त करता है तथा चन्द्रबिम्ब की ओर हजारों बार जल का होम कर चाँदी प्राप्त करता है।

सूर्यमण्डलविम्बे च हुत्वा तोयं सहस्रशः ।

सहस्रं प्राप्नुयाद्धेम रौप्यमिन्दुमये हुते ।।२२।।

सूर्यमण्डल के बिम्ब की ओर हजारों बार जल का होम कर मुनष्य स्वर्ण प्राप्त करता है तथा चन्द्रबिम्ब की ओर हजारों बार जल का होम कर चाँदी प्राप्त करता है।

अलक्ष्मीपापसंयुक्त मल व्याधिविनाशके ।

मुच्येत्सहस्रजाप्येन स्नायाधस्तु जलेन वै ।।२३।।

अलक्ष्मी और पाप से संयुक्त व्याक्ति मल, व्याधिविनाशक जल से स्नान करने और एक हजार जप करने पर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

गोघृतेन सहस्रेण लोभ्रेण जुहुयाधदि ।

चौराग्निमारुतोत्यानि भयानि न भवन्ति वै ॥२४॥

जो गो-घृत से युक्त एक हजार लोध की समिधाओं से होम करता है उसे चोर, अग्नि और हवा से उठने वाले भय कभी प्राप्त नहीं होते।

क्षीराहारो जपेल्लक्षमपमृत्युमपोहति ।

जो केवल दुग्धाहार करके एक लाख जप करता है वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।

घृताशी प्राप्नुयान्मेधां बहुविज्ञानसञ्चयाम् ॥२५॥

घृत का सेवन करने वला अनेक प्रकार के विज्ञानों को संचय करने वाली धारणावती बुद्धि को प्राप्त करता है।

हुत्वा वेत सपत्राणि घृताक्तानि हुताशने ।

लक्षाधिपस्य पदवीं सार्वभौमं न संशयः ॥२६॥

अग्नि में घी से युक्त बेंत के पत्तों से जो होम करता है वह लखपति की सार्वभौम पदवी प्राप्त करता है, इसमें कोई संशय नहीं है। 

लक्षेण भस्महोमस्य हुत्वा ह्युतिष्ठते जलात् ।

आदित्याभिमुखः स्थित्वा नामिमात्रे जले शुची ॥ २७॥

गर्भपातातिप्रदराश्चान्ये स्त्रीणां महारुजः ।

नाशमेष्यन्ति ते सर्वे मृतवत्सादि दुःखदाः ॥२८॥

जो पवित्र जलाशय में नाभितक जल में सूर्याभिमुख खड़ा होकर भस्म का एक लाख होम करता है, उसके गर्भपात, प्रदर, मृतत्वत्सा आदि जो भारी दुःखदायक स्त्रियों के रोग हैं, वे सब नष्ट हो जाते हैं।

तिलानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने ।

सर्वकामसमृद्धात्मा परं स्थानमवाप्नुयात् ।।२९।।

अग्नि में घी से युक्त तिलों का एक लाख होम करने से मनुष्य समस्त कामनाओं की सिद्धि से समृद्ध होकर श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त करता है।

यवानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने ।

सर्वकामसमृद्धात्मा परां सिद्धिमवाप्नुयात् ।।३०।।

घृत से युक्त यव की एक लाख आहुतियाँ देने से मनुष्य की कामनायें पूरी हो जाती हैं और वह परम सिद्ध को प्राप्त करता है।

घृतस्याहुतिलक्षेण सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।

पञ्चगव्याशनो लक्षं जपेज्जातिस्मृतिर्भवेत् ।।३१।।

तदेव ह्यनले हुत्वा प्राप्नोति बहुसाधनम् ।

अन्नादिहवनानित्यमन्त्राधं च भवेत्सदा ॥ ३२॥

जुहुयात्सर्वसाध्यानामाहुत्यायुतसंख्यया ।

घी की एक लाख आहुति देने से मनुष्य सब कामनाओं को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति पञ्चगव्य का सेवन करता हुआ एक लाख जप करता है। वह पूर्वजन्म की स्मृतियों को प्राप्त कर लेता है। पञ्चगव्य की ही अग्नि में आहुति देने से मनुष्य बहुत साधनों को प्राप्त करता है। अनादि के नित्य हवन करने से अन्नादि खाद्य पदार्थ नित्य प्राप्त होते हैं। इन साध्यों की प्राप्ति के लिए दस हजार होम करना चाहिये।

रक्तसिद्धार्थकान् हुत्वा सर्वान् साधयते रिपून् ॥३३॥

समस्त देवताओं के लिये लाल सरसों से दस हजार आहुतियाँ देकर मनुष्य सब शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।

लवणं मधुसंयुक्तं हुत्वा सर्ववशी भवेत् ।

मधु से युक्त नमक का होम करके मनुष्य सबको वश में कर लेता है।

करवीराणि च हुत्वा तु रक्तानि ज्वालयेज्जलम् ॥३४॥

हुत्वा भल्लातकं तैलं देशादेव प्रचालयेत् ।

लाल कनेर का होम करने से मनुष्य जल में आग लगा सकता है। भिलावों के तेल का होम कर मनुष्य देश को ही हिला सकता है।

हुत्वा तु निम्बपत्राणि नृणां विद्वेषशान्तये ॥३५॥

नीम के पत्तों का होम करके मुनष्य शत्रुता की शांति कर सकता है।

रक्तानां तण्डुलानां च घृताक्तानां हुताशने ।

हुत्वा बलमवाप्नोति शत्रुभिर्न स जीयते ॥३६।।

लाल चावल तथा घी मिलाकर जो होम करता है वह बल को प्राप्त करता है और शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होता।

प्रत्यानयन सिद्ध्यर्थ मधुसर्पिःसमन्वितम् ।

गवां क्षीरं प्रदीप्तेग्निौ जुइतस्तठाशाम्यति ॥३७॥

प्रत्यानयन -सिद्धि के लिये मधु और घी से युक्त गाय के दूध से जो प्रदीप्त अग्नि में होम करता है वह उसे शांत कर देता है।

ब्रह्मचारी मिताहारो यः सहस्रत्रयं जपेत् ।

संवत्सरेण लभते धनैश्वर्यं न संशयः ।।३८॥

जो मनुष्य ब्रह्मचारी रहकर मिताहार करता हुआ तीन हजार जप करता है वह एक वर्ष में धन और ऐश्वर्य प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है।

शमीबिल्वपलाशानामर्कस्य तु विशेषतः ।

पुष्पाणां समिधश्चैव हुत्वा हेमावाप्नुयात् ॥३९॥

शमी, बेल, पलास तथा विशेष रूप से मदार के फूलों और समिधाओं से जो होम करता है। वह स्वर्ण प्राप्त करता है।

आब्रह्मत्र्यम्बकादीनां यस्यायतनमाश्रितः

जपेल्लक्षं निराहारः स तस्य वरदो भवेत् ।।४० ।।

जो ब्रह्मा, शिव आदि देवताओं के मंदिर में निराहार रहकर एक लाख जप करता है वह उस देवता से वरदान प्राप्त करता है।

बिल्वानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने ।

परां श्रियमवाप्नोति यदि न भ्रूणहा भवेत् ॥४१॥

घी से युक्त बेलों से एक लाख होम करने से मनुष्य परम लक्ष्मी को प्राप्त करता है, यदि उसने भ्रूण हत्या न की हो।

पद्माना लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने ।

प्राप्नोति राज्यमखिलं सुसम्पन्नमकण्टकम् ।।४२।।

घृत से युक्त एक लाख कमलों से जो होम करता है वह सब साधानों से युक्त होकर अकण्टक पूर्ण राज्य प्राप्त करता है।

पञ्चविंशतिलक्षण दधिक्षीरं हुताशने ।

स्वदेहे सिद्ध्यते जन्तुः कौशिकस्य मतं तथा ॥४३॥

कौशिक के मतानुसार जो व्यक्ति दही और दूध की एक लाख आहुतियों से होम करता है वह मनुष्य अपने इसी शरीर में ही सिद्धि प्राप्त करता है।

एकाहं पञ्चगव्याशी एकाहं मारुताशनः ।

एकाहं च द्विजोन्नाशी गायत्रीजप उच्यते ।।४४।।

महारोगा विनश्यन्ति लक्षजयानुभावतः ।

जो मनुष्य एक दिन पञ्चगव्य का आहार तथा एक दिन वायु का आहार करके एक लाख गायत्री का जप करता है उसके जप के प्रभाव से महारोग नष्ट हो जाते हैं।

स्नात्वा शतेन गायत्र्याः शतमन्तर्जले जपेत् ॥४५॥

शतेन यस्त्वपः पीत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

जो मनुष्य सौ गायत्री के जप से स्नान करके सौ गायत्री से जल पीकर जल में सौ गायत्री का जप करता है वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।

गोनः पितृघ्जमातृघ्नौ ब्रह्महा गुरुतल्पगः ॥४६।।

स्वर्णहारी तैलहारी यस्तु विप्रः सुरां पिवेत् ।

चन्दनद्वय संयुक्तं कर्पूरं तण्डुलं यवम् ।।४७।।

लवङ्गं सुफलं चाज्यं सिता चाम्रस्य दारुकैः ।

अन्यो न्यूनविधिः प्रोक्तो गायत्र्याः प्राप्तिकारकः ।।४८॥

एवं कृते महासौख्यं प्राप्नोति साधको ध्रुवम् ।

जो गोघाती, पितृघाती, मातृघाती, ब्रह्मघाती, गुरुतल्पगामी, स्वर्णहारी, तैलहारी और सुरापायी हो वह दोनों प्रकार के चन्दन के साथ कपूर, चावल, यव, लवङ्ग, अनार, घी और शक्कर तथा आम की समिधा का होम करने से पापरहित हो जाता है। यह दूसरी छोटी विधि गायत्री की प्राप्ति के लिए कही गयी है।

अन्नाज्यभोजनं हत्वा कृत्वा वा कर्म गर्हितम् ।।४९॥

न सीदेत् प्रतिगृह्णानो महीमपि ससागराम् ।

ये चास्य उत्थिता लोके ग्रहाः सूर्यादयो भुवि ।

ते यान्ति सौम्यतां सर्वे शिवे इति न संशयः ॥५०॥

अन्न, घी तथा अन्य भोज्य पदार्थों का होम करके निन्दित कर्म करने पर भी साधक निश्चित रूप से महासुख प्राप्त करता है। इस प्रकार साधक द्वारा सागर सहित भूमि का दान लेने पर भी वह दुःख नहीं पाता। उसके विपरीत जो सूर्यादि ग्रह होते हैं, वे भी सौम्य हो जाते हैं; हे पार्वती इस में कोई संशय नहीं है।

इति शारदातिलकादिप्रोक्तो ब्रह्मगायत्री पुरश्चरणप्रयोगः ।।

इस प्रकार शारदा तिलक प्रोक्त ब्रह्म गायत्री पुरश्चरण प्रयोग समाप्त ।

इति: गायत्रीतंत्रे गायत्री पुरश्चरणश्च होम ॥

आगे पढ़ें............. देवी देवताओं का गायत्री मन्त्र

गायत्रीतन्त्र के पूर्व अंक पढ़ें-

गायत्रीतन्त्र भाग- 1

गायत्रीतन्त्र भाग- 2

गायत्रीतन्त्र भाग- 3

गायत्रीतन्त्र भाग- 4

गायत्रीतन्त्र भाग- 6

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