योनितन्त्र पटल ८
योनितन्त्रम् अष्टमः पटलः
योनितन्त्र पटल ८
Yoni tantra patal 8
योनि तन्त्र आठवां पटल
श्रीमहादेव उवाच-
उर्वश्याद्याश्व या नार्यः त्रिषु
लोकेषु विद्यते ।
वीरसाधनकाले च तासां नाथस्त कौलिकः ।।
१।।
महादेव बोले-
त्रिभुवन में उर्वशी प्रभृति जो नारियाँ हैं, वीरसाधनकाल
के समय कौलिक (कुल अथवा वंशपरम्परागत कुलाचार अथवा कुलधर्म अनुष्ठानकारी) उन सबको
नाथेगा ।
मैथुनेन विना मुक्तिर्नेति
शास्त्रस्य निर्णयः ।
श्रुति स्मृति-पुराणानि कृतानि
विविधं मया ।। २।।
पशूनां बुद्धिनाशाय श्रणुष्व प्राणवल्लभे
।
परमानन्दरूपेण भजेत् योनिं
सकुन्तलाम् ।। ३।।
विशेषतः कलियुगे योनिरूपां जगन्मयीम्
।
यो जपेत् परया भक्त्या तस्य मुक्तिः
करे स्थिता ।। ४ ।।
मैथुन के बिना मुक्तिलाभ नहीं होता.
ऐसा शास्त्र का निर्णय है। हे प्राणबल्लभे ! सुनो। पशुसाधकों की बुद्धिनाश के लिए
मैंने श्रुति स्मृति - पुराण जैसे विविधशास्त्रों का प्रणयन किया है।
परमानन्दरूपिणी शकुन्तला योनि की (शक्ति की) भजना करना चाहिए। विशेषतः कलयुग में
योनिरूपा जगन्मयी आद्याशक्ति को जो व्यक्ति परमशक्ति के समान भजता है (स्वतंत्र
पाठ-त्रय लिखित शब्द (Version) त्रय
तात्पर्यार्थानुसार जप करे उसकी मुक्ति करतलगत मानना चाहिए ।
साधकानां सहस्राणि उपास्यानाञ्च
कोटिशः ।
तेषां भाग्यवशेनापि कालीसाधन तत्परः
।। ५।।
सहस्रों साधकों अथवा कोटिसंख्यक
तपस्वीगणों में कदाचित एक व्यक्ति भाग्यवश कालीसाधन के लिए तत्पर होता है।
कालीचजगतां माता
सर्वशास्त्र-विनिश्चिता ।
कालिका- स्मृतिमात्रेण सर्वपापैः
प्रमुच्यते ॥ ६॥
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यमेव
सुनिश्चितम् ।
जप्त्वा महामनुं काल्याः कालीपुत्रो
न संशयः ।। ७ ।।
काली
जगत की माता है। यह सभी शास्त्रों का सुनिश्चित सिद्धान्त है। काली का
स्मरण करने मात्र से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है। यह ध्रुवसत्य है। पुनः सत्य
एवं सुनिश्चित सत्य है। कालीमन्त्र का जाप करने से साधक कालिकापुत्रतुल्य
हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं ।
सा एव त्रिपुरा काली षोडशी
भुवनेश्वरी ।
छिन्ना तारा महालक्ष्मी मती
कमलात्मिका ।। ८ ।।
सुन्दरी भैरवी विद्या प्रकारान्यापि
विद्यते ।
दक्षिणा तारिणी सिद्धि नैव चीनक्रमं
विना ।। ९ ।।
जो काली है,
वही त्रिपुरा, षोडशी, भुवनेश्वरी, तारा, महालक्ष्मी (महामाया), मातङ्गी,
कमला, सुन्दरी, भैरवी प्रभृति विभिन्त विद्यारूपों में प्रकाशित
हैं। चीनाचारक्रमोक्त पद्धति से भिन्न दक्षिणकालिका भी तारा
सिद्धिदायिनी नहीं होती।
यास्मिन मन्त्रे यदाचारः स एव परमो
मतः ।
फलहानिस्त्वविश्वासात्
तस्माद्भावपरो भवेत् ।। १०।।
जिस मन्त्र का जो रूप आचार विहित है
वही उस मन्त्रसाधना की श्रेष्ठ पद्धति है। जो व्यक्ति इस विषय में विश्वास नहीं
रखता उसको मन्त्रसिद्धि लाभ नहीं होता। अतएव सिद्धि अभिलाषा रखने वाले साधक को
सर्वप्रयत्न भावपरायण [स्वतंत्र पाठ (version) - इस मर्मानुसार-भक्तिपरायण] होना चाहिए ।
यदत्र लिखितं देवि तन्त्रे च
योनिसंज्ञके ।
तत् सर्वं साधकानाञ्च कर्त्तव्यं
भावमिच्छता ।। ११।।
हे देवि ! इस योनितन्त्र में जो
लिखा है,
उसे भावपरायण होकर सिद्धि अभिलाषी साधक को अवश्य सम्पादन करना चाहिए
।
जिह्वा योनिमुखं योनिः योनिः
श्रोत्रे च चक्षुषि ।
सर्वत्रापि महेशानि योनिचक्रं
विभावयेत् ।। १२ ।।
योनिं विना महेशानि सर्वपूजा वृथा
भवेत् ।
तथा मन्त्राः न सिद्ध्यन्ति सत्यं
सत्यं वदाम्यहम् ।। १३ ।।
सर्वां पूजां परित्यज्य योनिपूजां समाचरेत्
।
गुरुं विना महेशानि मद्भक्तो नापि
सिद्ध्यते ।। १४ ।।
साधक अपनी जिह्वा,
मुख (स्वतन्त्र पाठ (Version) – इसके
तात्पर्यानुसार - मन] चक्षु एवं कान प्रभृति समस्त इन्द्रियों द्वारा योनि का
ध्यान करेगा। हे पार्वती ! योनिपूजा के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार की पूजा निष्फल
है। मैं सत्य वचन कहता हूँ कि योनिपूजा से भिन्न मन्त्र भी सिद्ध नहीं होता। अतएव
अन्य समस्त पूजा का परित्याग करके योनिपूजा (शक्तिपूजा) सम्पन्न करना चाहिए। हे..पार्वति ! इस साधना में गुरुपदेश के बिना मेरा भक्त भी सिद्धिलाभ नहीं कर सकता
।
ॐ योनिपीठाय नमः ।।
इति योनितन्त्रे अष्टमः पटलः ।। ८
।।
योनितन्त्र के अष्टम पटल का अनुवाद
समाप्त ।
समाप्तोहयं ग्रन्थः ।
।। योनितन्त्र ग्रन्थ समाप्त ।।
योनितन्त्र के पूर्व अंक पढ़ें-
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