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कर्मकाण्ड

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दुर्गा स्तोत्र

दुर्गा स्तोत्र

जो व्यक्ति माँ दुर्गा का पूजा करके मायातन्त्र पटल ३ के श्लोक १२ से २० में वर्णित इस दुर्गा स्तोत्र को पढ़ता है, उसके सारे दुःख या दुर्गति (दुर्दशा) नष्ट हो जाता है ।

दुर्गा स्तोत्र

दुर्गा स्तोत्रम्

Durga stotram

दुर्गे मातर्नमो नित्यं शत्रुदर्पविनाशिनि ! (दैत्यदर्पनिषूदिनिं!) ।

भक्तानां कल्पलतिके! नारायणि! नमोऽस्तु ते ॥१ ॥

हे मां दुर्गे! हे शत्रु के घमण्ड को नष्ट करने वाली मां तुम्हे नमस्कार है। हे भक्तों की कल्पलता (भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली) मां! तुम्हें नमस्कार है ।

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये! शिवे! सर्वार्थसाधिके ! ।

शरण्ये! त्र्यम्बके! गौरि! नारायणि! नमोऽस्तु ते ॥२ ॥

हे सब प्रकार मङ्गलों को प्रदान करने वाली ! हे सब प्रकार के अर्थो को सिद्ध करने वाली ! हे शरण में आये हुये की रक्षा करने वाली, तीन नेत्रों वाली गौरि! नारायणी तुम्हें मेरा नमस्कार है ।

नमो नगात्मजे गौरि ! शैलवासे समन्विते ।

भक्तेभ्यो वरदे मातर्नारायणि नमोऽस्तुत ॥३ ॥

हे नग (पर्वत) की पुत्रि ! हे शैल पर निवास करने वाली, हे शंकर से समन्वित, हे भक्तों को वर देने वाली मां नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

निशुम्भशुम्भमथिनि ! महिषासुरमर्दिनि! ।

आर्तार्तिनाशिनि ! शिवे! नारायणि! नमोऽस्तुते ॥४ ॥

निशुम्भ और शुम्भ को मारने वाली, हे महिषासुर का मर्दन करनेवाली, हे दुखियों के दुःखों को नष्ट करने वाली शिवे ! नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

इन्द्रादिदिविषद्वृन्दवन्दिताङ्घ्रिसरोरुहे ! ।

नानालङ्कारसंयुक्ते ! नारायणि नमोऽस्तु ते ॥५ ॥

इन्द्र आदि विशेष सज्जन समूहों से वन्दित चरण-कमलों वाली, अनेक अलंकारों से संयुक्त नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

नारदाद्यैर्मुनिगणैः सिद्धविद्याधरोरगैः ।

पुरः कृताञ्जलिपुटे ! नारायणि नमोऽस्तु ते ॥६ ॥

नारद आदि मुनिगण, सिद्धगण, विद्या को धारण करने वाले विद्वान् और नागगण हाथ जोड़कर जिसकी स्तुति करते हुए सामने खड़े रहते हैं। ऐसी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

देवराजकृतस्तोत्रे! व्याधराजप्रपूजिते! ।

त्रैलोक्यत्राणसहिते! नारायणि नमोऽस्तु ते ॥७ ॥

देवों के राजा इन्द्र द्वारा जिसकी स्तुति की जाती है और व्याधराज द्वारा जो प्रकृष्ट रूप से पूजित है तथा जो तीनों लोकों की रक्षा करने वाली हैं। ऐसी हे नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

अभक्तभक्तिदे ! चण्डि ! मुग्धबोधस्वरूपिणि ! ।

अज्ञानज्ञानतरणि! नारायणि! नमोऽस्तु ते ॥८ ॥

जो भक्त है अर्थात् भक्त नहीं है, नास्तिक हैं, उन्हें भी भक्ति प्रदान करने वाली चण्डि ! हे मुक्तबोध स्वरूप वाली अर्थात् स्पष्ट ज्ञान रूप वाली, अज्ञान को ज्ञान से मिटाने वाली ! नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ।

इदं स्तोत्रं पठेद् यस्तु प्रदक्षिणापुरःसरम् ।

तस्य शान्तिप्रदा देवी दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ॥९ ॥

जो व्यक्ति प्रदक्षिणपुरः होकर अर्थात् पूरी तरह पूजा करके इस स्तोत्र को पढ़ेगा, उसके लिए मनुष्य की दुर्गति (दुर्दशा) को नष्ट करने वाली दुर्गा शान्ति प्रदान करने वाली होगी ।

इति मायातन्त्रे दुर्गा स्तोत्रम् तृतीयः पटलः ॥

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