मायातन्त्र पटल ११
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ११ में काली,
दुर्गा और तारिणी आदि सब देवियाँ एक ही हैं, केवल
नाम मात्र का भेद है, स्वरूप भेद नहीं है यह बताया है। बाद
में कुलीन द्वारा कुलाचार पद्धति से लता साधन अर्थात् दुर्गा-काली तारिणी की
सिद्धि करनी चाहिये तथा वह सिद्धि कौलाचार में अपनी अथवा दूसरे की स्त्री पर ही हो
सकती है, यह सब बताते हुए समाज में स्त्री के महत्त्व को
समझाया है। अन्त में यह समझाया है कि इस कौलाचार की निन्दा करना स्त्रियों की
निन्दा करना है। अतः स्त्रियों का अप्रिय (अहित) करने वाले तथा उनकी निन्दा करने
वाले के सब फल निष्फल हो जाते हैं।
मायातन्त्रम् एकादश: पटलः
माया तन्त्र पटल ११
Maya tantra patal 11
मायातन्त्र ग्यारहवां पटल
अथैकादशः पटलः
श्री महादेव उवाच
शृणु प्रिये प्रवक्ष्यामि
योगसाधनमुत्तमम् ।
विना भावेन देवेशि न सिध्येत् कदाचन
॥1॥
महादेव ने कहा
कि हे प्रिये ! पार्वति ! सुनो अब मैं तुम्हे योग के उत्तम साधन को बताऊंगा;
परन्तु हे देवेशि ! विना भावविभोर हुए कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती ।
अतः जिसकी सिद्धि करनी हो उसमें भावविभोर हो जाना परम आवश्यक है।।1।।
त्रिधा भावो महेशानि! साधकानां
सुखप्रदः ।
परं मुक्तिमवाप्नोति भावस्थः
साधकाग्रणीः ॥ 2 ॥
पशुभावस्थितो मन्त्रो बहुक्लेशेन
सिध्यति ।
दिव्यभावयुतो देवि ! साक्षाद्
गङ्गाधरः स्वयम् ॥3 ॥
अतः हे महेशानि! साधकों को सुख
प्रदान करने वाला 3 प्रकार का भाव है।
पशुभाव में स्थित मन्त्र बहुत ही कष्ट से सिद्ध होता है तथा हे देवि ! यह पशुभाव
दिव्य भाव से युक्त है। यह स्वयं साक्षात् गंगाधर अर्थात् शिव है। अर्थात्
साक्षात् मेरा भाव है ॥2-3॥
विशेष :-
अन्य पाण्डुलिपि में बहुक्लेशेन के स्थान पर बहूद्देशेन सिध्यति पाठ है,
जिसके अनुसार अर्थ होता है कि पशुभाव बहुत से उद्देश्यों से सिद्ध
होता है अर्थात् इससे बहुत से उद्देश्यों की सिद्धि होती है।
वीरभावस्थितो मन्त्रः कलावाशु
सुसिध्यति ।
दिवा हविष्यं भोक्तव्यं पूरणे
श्रवणादिकम् ॥4॥
रात्रौ शक्तियुतो मन्त्री पञ्चमेन
प्रपूजयेत् ।
लताप्रधानं देवेशि साधकस्य
सुनिश्चितम् ॥5॥
कलियुग में वीरभाव में स्थित मन्त्र
सिद्ध हो जाता है। दिन में हविष्य (हवन से अवशिष्ट खीर,
पंचामृत आदि का भोग करना चाहिए और रात्रि में शक्तियुत् मन्त्र जपने
वाले को पञ्चम मकार से पूजन करना चाहिए। अतः हे देवेशि। साधक को लताप्रधान
सुनिश्चित है ॥4 -5॥
विशेष
- पञ्चमेन का अर्थ यहाँ पञ्चम लिया जा सकता है; क्योंकि
वाम मार्गी पूजा में पांच मकारों द्वारा ही देवी की सिद्धि की जाती है। अतः यहाँ
पञ्च मकार मैथुन है। इसलिए दिन में हवन करना चाहिए और उसका शेष हविष्य का भोग करना
चाहिए और रात्रि में शक्तियुक्त हो मैथुन करना चाहिए; परन्तु
दक्षिण मार्ग के अनुसार पञ्चामृत हैं-दूध, चीनी, घृत, दही और मधु तथा पाँचवां अमृत मधु है। अतः मधु
से ही पूजा करना अधिक उचित है।
मातृभावेन सम्पूज्य जपेदेकाग्रमानसः
।
कालीवदपरां विद्यां कालीवत् पूजयेत्
सदा ॥6॥
कालीवत् साधयेद् देवीं
कालीवच्चिन्तयेत् सदा ।
या काली सा महादुर्गा या दुर्गा सैव
तारिणी ॥ 7 ॥
मां दुर्गा की मातृभाव से सम्यक् प्रकार से पूजा करके एकाग्रचित्त हो जप करना चाहिए। काली के समान अपराविद्या अर्थात् सरस्वती को पूजना चाहिए। काली के समान ही देवी की साधना करनी चाहिए तथा काली के समान ही सदैव देवी का चिन्तन करना चाहिए; क्योंकि जो काली है वहीं, महाकाली है तथा जो काली है, वहीं दुर्गा है तथा जो दुर्गा है, वही तारिणी है ॥6 - 7॥
दुर्गाया: कालिकायाश्च कालं
सङ्गमिहोदितम् ।
अभेदेन यजेद् देवीं सिद्धयोऽष्टौ
भवन्ति हि ॥ 8 ॥
दुर्गा और
कालिका का इस सृष्टि पर उदय होना एक ही समय का है। अर्थात् दोनों एक ही समय
में प्रकट हुई हैं। इसलिए इन दोनों में किसी प्रकार भेद न रखते हुए इनका पूजन-यजन
करना चाहिए। अभेद से अर्थात् भेद न रखते हुए इनका यजन करने से साधक को आठ प्रकार
की सिद्धियां प्राप्त होती है ॥ 8 ॥
अन्तर्योगबहिर्योगरतो मन्त्री
प्रपूजयेत् ।
पूर्वोक्तदूषितो मन्त्रः सर्वं
सिध्यति निश्चितम् ॥ 9 ॥
यदि मन्त्र का जाप करने वाला साधक
अन्तर्योग और बहिर्योग में रहकर अच्छी प्रकार से पूजन करे तो भले ही उसके
पूर्वोक्त मन्त्र दूषित हुए हों,वह निश्चित सब
प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है ॥9॥
कुलीनः सर्वमन्त्राणां जापकः
परिकीर्तितः।
कुलीनः सर्वमन्त्राणामधिकारीति
गीयते ॥10॥
कुलीन व्यक्ति अर्थात् कुलपूजा करने
वाला व्यक्ति सब मन्त्रों का जापक माना गया है तथा कुलीन ही सब मन्त्रों का
अधिकारी है, ऐसा गाया जाता है ॥10॥
कुलीनः परदेवीनां सदा प्रियतमः
प्रिये ।
कुलाचारात् परं नास्ति कलौ देवि
सुसिद्धये ॥11॥
भगवान् शंकर
कहते हैं कि हे पार्वति ! कुलीन ही परदेवियों को सदा ही प्रियतम होता है। इसलिए हे
देवि । कलियुग में अच्छी सिद्धि के लिए कुलाचार से बढ़कर कोई पूजा नहीं है ।।11।।
लतायाः साधनं वक्ष्ये शृणुष्व
हरवल्लभे ।
शतं कोशे शतं भाले शतं
सिन्दूरमण्डले ॥12 ॥
स्तनद्वन्द्वे शतद्वन्द्वं शतं नाभौ
महेश्वरि ।
शतं योनौ महेशानि उत्थाय च शतत्रयम्
॥13॥
भगवान शंकर ने
कहा कि हे देवि ! अब मैं तुम्हें लता का साधन बताऊंगा,
वह है कि 100 मन्त्र नारी के केश पर पढ़े,
सौ मन्त्र नारी के मस्तक पर पढ़े, सौ सिन्दूर
लगाने के स्थान पर पढ़े, दोनों स्तनों पर सौ मन्त्र पढ़े सौ
मन्त्र नाभि पर पढ़े तथा हे महेश्वरि ! सौ मन्त्र योनि पर और तीन सौ मन्त्र योनि को
उठाकर पढ़े। इस प्रकार एक हजार मन्त्रों का जप करके मनुष्य को सब सिद्धों का
स्वामी हो जाना चाहिए ॥12-13॥
एवं दशशतं जप्त्वा सर्वसिद्धीश्वरो
भवेत् ।
अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि साधनं भुवि
दुर्लभम् ॥14॥
रजोऽवस्थां समानीय तत्तनौ
स्वेष्टदेवताम् ।
पूजयित्वा महारात्रौ त्रिदिनं
प्रजपेन्मनुम् ॥15॥
शतत्रयं च षट्त्रिंशदधिकं प्रत्यहं
जपेत् ।
शवसाधनसाहस्त्रं फलं
प्राप्नोत्यसंशयम् ॥16॥
शंकर जी
कहते हैं कि हे देवि ! अब मैं तुम्हे इस पृथ्वी पर दुर्लभ अन्य साधन को
बताऊंगा। वह है कि जब नारी रजस्वला (माहवारी) हो रही है,
ऐसी अवस्था में उसे अच्छी प्रकार आदर के साथ लाकर और उसके शरीर अपने
इष्ट देवता की कल्पना कर, उसे पूजन करके महारात्रि में तीन
दिन तक मनु का जाप करना चाहिए और प्रतिदिन 336 बार जप करे और
शवसाधन (मृतशरीर) पर सहस्र जप करने पर निःसन्देह फल प्राप्त होता है ॥14-16॥
अथान्यत् साधनं वक्ष्ये
सावधानाऽवधारय ।
परकीयलताचक्रे सम्पूज्य
स्वेष्टदेवताम् ॥17॥
अष्टोत्तरशतं पूर्वं चतुर्वक्त्रे
जपेद् बुधः ।
ततस्तां नवभिः
पुष्पैर्यजेदष्टोत्तरं शतम् ॥18
॥
ततः पूर्णाहुतिं दत्त्वा
जपेदष्टोत्तरं शतम् ।
धनवान् बलवान् वाग्मी
सर्वयोषित्प्रियः कविः ।
षोडशाहेन च भवेत् सत्यं सत्यं न
संशयः ॥19॥
शंकर जी ने कहा
कि इसके बाद मैं दूसरा साधन बताऊंगा तुम सावधान होकर सुनो-दूसरे की लताचक्र में
अर्थात् परस्त्री आदि में अपने इष्ट देवता की कल्पना कर उसे अच्छी प्रकार से पूजन
कर ज्ञानी मनुष्य को पहले चार मुख में 108
बार जप करना चाहिए, उसके बाद नवीन फूलों से 108 बार यज्ञ करना चाहिए। उसके बाद पूर्ण आहुति देकर 108 बार जप करना चाहिए। इस प्रकार ऐसा करने पर मनुष्य 16 दिन में ही धनवान्, बलवान्, भाषणकला
में कुशल, सब स्त्रियों का प्रिय और कवि हो जाना चाहिए । यह
सत्य है, सत्य है। इसमें कोई संशय नहीं है॥17-19॥
समयाचारनिरतः सदा तद्गतमानसः ।
किं तस्य पापपुण्यानि येन देवी
समर्चिता ॥ 20 ॥
समयाचार में जो व्यक्ति लगा हुआ है
और सदा समयाचार में जिसका मन लगा हुआ है और जिसने समयाचार द्वारा देवी की सम्यक्
प्रकार से अर्चना की है, उसके पाप और पुण्य
कहाँ अर्थात् उसके (पाप और पुण्य नहीं रहते)। पाप-पुण्यों का प्रश्न ही नहीं होता ॥20॥
केवलं निशि जापेन मन्त्रः सिध्यति
निश्चितम् ।
वृथा न गमयेत् कालं दुरालापादिना
सुधीः ॥ 21 ॥
केवल रात में जप करने से निश्चित
मन्त्र सिद्ध होता है। अत: अच्छी बुद्धि वाले मनुष्य को बुरी बातों से समय को
बर्बाद नहीं करना चाहिए ।। 21।।
गमयेत् साधकः श्रेष्ठः
कवचादिप्रपाठतः ।
परोपकारनिरतः सदाह्लादमनाः सुधीः ॥22॥
श्रेष्ठ साधक को कवच आदि का पाठ
करते हुए दूसरों की भलाई में सदा लगा रहते हुए सदा प्रसन्न रहते समय बिताना चाहिए ॥22॥
गोपयेत् सततं देवि कलमार्ग विशेषतः
।
स्नानयन्त्रे शिलायन्त्रे बिल्वमूले
घटोपरि ॥23॥
लिङ्गे योनौ महापीठे शून्यागारे
चतुष्पथे ।
कुट्टिनीगृहमध्ये च कदलीमण्डपे तथा ॥24॥
पुष्पयुक्तभ देवि गणिकागेहमध्यतः ।
महारण्ये प्रान्तरे च शवे च
शक्तिसङ्गमे ॥25॥
पञ्चानन्दपरो भूत्वा साधयेत्
सकलेप्सितान् ।
यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति
निश्चितम् ॥ 26 ॥
भगवान् शंकर ने
कहा कि हे देवि ! विशेष रूप से कुलमार्ग को निरन्तर गुप्त रखना चाहिए तथा कुलमार्ग
गत पूजा कहाँ करनी चाहिए? यह बताते हुए कहते
हैं कि स्नान यन्त्र (स्नानागार) में, शिलायन्त्र पर
बिल्ववृक्ष के मूल में, घाट पर लिङ्ग में, योनि में और महापीठ में, सूने घर में, चौराहे पर, कुटिनी के घर में, केले
के मण्डप में, पुष्पयुक्त भग द्वारा, वेश्या
के घर के मध्य में, मृत व्यक्ति के शव पर तथा शक्तिसङ्गम में
अर्थात् शक्तिपीठों में कुलाचार पूजा करने वाला साधक पांच आनन्दों के युक्त होकर
समस्त इच्छित वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है तथा वह जो-जो चाहता है, उस उसको निश्चित प्राप्त करता है ।। 23-26 ।।
विशेषः-पंचानन्दपरः
का अर्थ है- पांच आनन्दों से युक्त होकर अतः पांच आनन्द पञ्चमकार है,
जिसमें पहले सबसे साधक को मद्यपान करना है, फिर
मछली और मांस खाना है, फिर जब मद्य की मुद्रा हो जाये तब
मैथुन करना है । तब किसी भी नारी, वह चाहे स्वकीया हो अथवा
परकीया हो, उसमें इष्ट देवता की कल्पना कर मैथुन करना है,
इससे जिस देवी की कल्पना की है, उसकी सिद्धि
होती है। लिङ्ग में योनि में का अर्थ होता है कि जहाँ पर शिवमन्दिर हो; क्योंकि शिव मन्दिर में लिङ्ग और योनि दोनों होते हैं।
नूनं तद्गृहमागत्य कुबेरो दीयते वसु
।
वातस्तम्भं जलस्तम्भं गतिस्तम्भं
विवस्वतः ॥27॥
वह्नेः शैत्यं करोत्येव
महामायाप्रसादतः ।
नासाध्यं विद्यते तस्य त्रैलोक्ये
हि च शङ्करि ॥28॥
योनिकुण्डे कृते होमे साक्षाद्
गङ्गाधरो भवेत् ।
भगवान् शंकर
कहते हैं कि हे देवि ! जब इस प्रकार पूजा की जाती है तो इस कुलाचार पूजा से
प्रसन्न धन के देवता कुबेर उसके घर आकर सब प्रकार की दौलत प्रदान करते हैं
तथा महामाया के प्रसाद से वह साधक हवा को रोक सकता है। यही नहीं वह अग्नि
को भी शीतल कर सकता है तथा हे पार्वति ! उस साधक के लिए तीनों लोकों में कुछ भी
असाध्य नहीं । अतः योनिकुण्ड में हवन करने से मनुष्य साक्षात् गंगाधर शंकर
हो जाना चाहिए ॥27-28॥
पूजास्थाने कामबीजं लिखित्वा
शिवयोजनात् ॥29॥
कवचं प्रपठेद् यस्तु शतावृत्तं
सुरेश्वरि ।
वाग्मी भवति मासेन सत्यं सत्यं न
संशयः ॥30॥
अचिराल्लभते देवि ! कवितां
सुखसाधिनीम् ।
मोदते सर्वलोकेषु शिववत् परमेश्वरि
! ॥31॥
भगवान् शंकर ने
कहा कि हे देवों की स्वामिनि पार्वति ! पूजा के स्थान में शिवपूजन से अथवा शिव
के साथ कामबीज को लिखकर 100 बार कवच का
पाठ करे, वह एक महीने में भाषण देने में योग्य हो सकता है ।
यह सत्य है सत्य है, इसमें कोई संशय नहीं है तथा हे देवि !
शीघ्र- शीघ्र ही वह सुखसाधनी कविता को प्राप्त करता है अर्थात् कवि हो जाता है तथा
हे परमेश्वरि ! वह साधक सब लोकों में शिव के समान आनन्दित रहता है ।।29-31।।
इति ते कथितं देवि ! सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
प्रकाशितं तव स्नेहान्न प्रकाश्यं
कदाचन ॥32॥
शंकर भगवान् ने
कहा कि हे देवि ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सब तन्त्रों के छिपे हुए गूढ़ रहस्य को
बताया है तथा मैंने इस गूढ़तम ज्ञान को तुम्हारे प्रेम के कारण प्रकाशित किया है।
अत: तुम इस गूढ़ ज्ञान को कभी भी किसी को मत बताना ॥32॥
दुर्गामन्त्रता पुंसो योषिद्
भूतिविवर्द्धिनी ।
सा चेद् भवति संक्रुद्धा धनमायुश्च
नाशयेत् ॥33॥
पुरुष को दुर्गा के मन्त्र
में रत रहना चाहिए, तब उनकी स्तुति
ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली होती है। यदि वह स्त्री बहुत अधिक क्रोध करने वाली होती है
तो वह धन और आयु को नष्ट करने वाली होनी चाहिए। भाव यही है कि पुरुष को मां दुर्गा के मन्त्रों का जाप करते रहना चाहिए तथा यदि वह दुर्गा देवी के मन्त्रों
को पढ़ता हुआ जिस स्त्री के साथ मैथुन करे तो वह स्त्री यदि प्रसन्न हो जाये तो धन
दौलत आदि बढ़ाने वाली होती है तथा यदि वह क्रोधी स्वभाव वाली हो जाये तो पति की
आयु तथा धन को नाश करने वाली होती है ॥33॥
वृथा न्यासो वृथा पूजा वृथा जपो वथा
स्तुतिः ।
वृथा सदक्षिणो होमो यद्यप्रियकरः
स्त्रियाः ॥34॥
यदि स्त्रियां अप्रिय करने वाली हों
अर्थात् जिस घर में स्त्री प्रेम करने वाली न हों, अर्थात् पति से प्रेम न करती हो, वहाँ पर किसी देवता
का न्यास रखना व्यर्थ है, वहाँ किसी देवता की पूजा व्यर्थ है,
वहाँ किसी देवता का जप तथा स्तुति व्यर्थ है, उस
घर में दक्षिणा देने के साथ हवन करना भी व्यर्थ है ॥34॥
बुद्धिर्बलं यशो रूपमायुर्वित्तं सुतादयः
।
तस्य नश्यन्ति सर्वाणि
योषिन्निन्दापरस्य च ॥35॥
जो मनुष्य स्त्री अर्थात् पत्नी की निन्दा
बुराई करता रहता है, उस व्यक्ति की
बुद्धि, बल, यश, रूप,
आयु, धन और पुत्र-पुत्री आदि सब नष्ट हो जाते
हैं ॥35॥
मातापित्रोर्वरं त्यागस्त्याज्यौ
शम्भुस्तथा हरिः ।
वरं देवी परित्याज्या नैव त्याज्या
स्वकामिनी ।
वरं जनमुखान्निन्दा वरं वा गर्हितं
यशः ॥36 ॥
वरं प्राणाः परित्याज्या न
कुर्यादप्रियं स्त्रियाः ।
न धाता नाच्युतः शम्भुर्न च वामा
सनातनी ॥37॥
योषिदप्रियकर्तारं रक्षितुं च क्षमो
भवेत् ।
दुर्गार्चनरतो देवि महापातकसङ्गकैः॥
दोषैर्न लिप्यते देवि
पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥38॥
परिस्थितियों वश मनुष्य माता-पिता
को छोड़ सकता है, उनका त्याग अच्छा
है। शम्भु तथा हरि (विष्णु) का त्याग भी अच्छा है, यदि देवी का त्याग करना है, वह भी अच्छा है, परन्तु अपनी पत्नी कभी भी त्याज्य नहीं है अर्थात् पुरुष को भले ही
माता-पिता, शिव, विष्णु,
दुर्गा आदि का त्याग करना पड़े तो कर
देना चाहिए, परन्तु अपनी पत्नी का त्याग नहीं करना चाहिए।
संसार में मनुष्यों के मुख से यदि
निन्दा होती है, वह अच्छी है, सभी ओर यश की हानि हो रही हो अर्थात् अपकीर्ति होती हो, वह अच्छी है। अगर प्राण भी त्यागने पड़ें तो अच्छा है, परन्तु स्त्रियों को कभी नाराज नहीं करना चाहिए । स्त्रियों का अनिष्ट
करने वाला रक्षा करने योग्य नहीं होता। अतः हे देवि! पार्वति! दुर्गा की पूजा
में लगा हुआ व्यक्ति उसी प्रकार महापाप से युक्त दोषों से लिप्त नहीं होता,
जिस प्रकार कमल का पत्ता जल की गन्दगी से लिप्त नहीं होता ॥36-38 ।।
।। इति श्रीमायातन्त्रे एकादशः पटलः
॥
।। इस प्रकार मायातन्त्र में एकादश
पटल समाप्त हुआ ।।
आगे पढ़ें ............ मायातन्त्र अंतिम पटल 12
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