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कर्मकाण्ड

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उच्चटा कल्प

उच्चटा कल्प

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्र में औषिधीयों के विषय में कहा गया है। काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् के इस भाग में उच्चटा कल्प को कहा गया है।

उच्चटा कल्प

उच्चटाकल्पः

Uchchata kalpa

काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्

अथोच्चटाकल्पः

रसायनं प्रवक्ष्यामि यत्सुरैरपि दुर्लभम् ।

उच्चटेत्योषधी काचिजायते पृथिवीतले ।। १ ॥

देवताओं को भी दुर्लभ रसायन का उपदेश कर रहा हूँ, उच्चटा नाम की कोई ओषधि पृथिवी में होती है ॥ १ ॥

वर्तुलं पर्णमस्याश्च रूपमेवं प्रदश्यते ।

एकनाला भवेत् सा तु वर्णेनाकृष्णनीलिका ॥ २ ॥

इसका रूप इस प्रकार का दीखता है- पत्ते गोलाकार होते हैं, नाल एक होता है और वर्ण से कुछ कृष्ण या नील वर्ण का होता है ॥ २ ॥

तस्याः पुष्पं भवेद् भुग्नं शुकतुण्डसमप्रभम् ।

कन्दं कूर्मप्रतीकाशं तस्या लक्षणमीदशम् ॥ ३ ॥

उसका पुष्प सिरे पर दबा हुआ अत एव तोता के रक्तवर्ण चोंच की आकृति का होता है, और कन्द कच्छप के आकार का होता है। यही उसका लक्षण है ॥ ३ ॥

उपर्यारुह्य तस्या अप्यन्तरिक्षं निरीक्षयेत् ।

देवयक्षगणाः सर्वे दृश्यन्ते नात्र संशयः ॥ ४ ॥

उसके ऊपर स्थित ( आसीन ) होकर अन्तरिक्ष ( अगोचर ) वस्तु का भी दर्शन सुलभ होता है, तथा सभी देवता यक्ष प्रभृति दिखलाई देते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । ॥

रसश्च द्रवते देवि मधुरश्च विशेषतः ।

सादृश्यं सर्वलोहानां सकलेपेन याति सः ॥ ५ ॥

हे देवि ! विशेष करके इससे मधुर रस का स्राव होता है और एक बार लेप करने मात्र से सभी लोह के समान यह हो जाता है ।। ५ ।।

काञ्चनं कुरुते दिव्यं क्षिप्रं चैव च वह्निना ।

मज्जयित्वाङ्गुलिं तत्र लिहेत् तं तु सकृत् पुमान् ॥ ६॥

अग्नि के संयोग से शीघ्र ही दिव्य स्वर्ण में परिणत करता है। उसके रस में अंगुली डुबा कर एक बार मनुष्य उसका प्राशन करे ।। ६ ।।

विमानानि च सर्वाणि तत्र पत्रस्थिता नराः ।

पश्यन्ति नात्र सन्देह ओषध्यास्तु प्रभावतः ॥ ७ ॥

औषध के प्रभाव से उसके पत्र पर स्थित होकर मनुष्य सभी विमानों को देखते हैं इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७ ॥

प्रद्युम्नसदृशं रूपं नागायुतपराक्रमः ।

कान्त्या चन्द्रसमः प्राज्ञो वेगेन पावनोपमः ॥ ८ ॥

बुद्धिमान् इसके प्रभाव से प्रद्युन्न के समान रूप, दश सहस्र (अयुत)हाथी के समान पराक्रम, चन्द्रमा के समान कान्ति और वायु के समान वेग प्राप्त करता है ॥ ८ ॥

मेधावी सर्वशास्त्रशो बलीपलितवर्जितः ।

मार्कण्ड इव दीर्घायुः सत्यं सौभाग्यवान् भवेत् ॥ ९ ॥

तथा मेधासम्पन्न सब शास्त्र को जानने वाला, वार्धक्यजन्य वली( सिकुड़न) और पलित (श्वेत केश) के विरहित, मार्कण्डेय ऋषि के समान दीर्घायु तथा सौभाग्यशाली होता है, यह सत्य है ॥ ९ ॥

अथ वै पत्रपुष्पाणि फलमूलं तथैव च ।

सूक्ष्मचूर्ण प्रकुर्वीत प्रतिवारं च दापयेत् ॥ १० ॥

इसके पत्र पुष्प और फल-मूल का महीन चूर्ण बनावे और हर बार उसका छेदन करते हुए चूर्ण बनावे ॥ १० ॥

छेदे दाहे कर्षणे च हेमीभवति निश्चितम् ।

शूलपत्राणि लेपेन बेधयेनात्र संशयः ॥ ११ ॥

छेदन, दहन और विलेखन से निश्चय ही यह स्वर्ण होता है। और इसके लेप से लौहपत्र का वेध होता है इसमें सम्देह नहीं है ।। ११ ।।

काञ्चनं कुरुते दिव्यं त्रिभिर्दोषैर्विवर्जितम् ।

अथैतदोषधिस्थानं कथयामि समासतः ॥ १२ ॥

तीनों दोषों से रहित दिव्य स्वर्ण होता है। अब संक्षेप से इस औषधि का उत्पत्ति स्थान कहते हैं ।। १२ ।।

कुबेरनगरे रम्ये शङ्खतीर्थे तथैव च ।

हिमालये गिरौ रम्ये तथा जालन्धरे गिरौ ॥ १३ ॥

रम्य कुबेर नगर अलकापुरी में, शंखतीर्थ में रम्य हिमालय पर्वत पर तथा जालन्धर पर्वत पर ॥ १३ ॥

सव्ये विन्ध्ये महानागे नरनारायणाचले ।

चन्द्रकान्तगिरौ चापि हेमपुष्टे च सुस्थळे ॥ १४ ॥

दक्षिण में विन्ध्य महापर्वत पर, नरनारायण नामक पर्वत पर चन्द्रकान्त पर्वत पर तथा हेमपुष्ट पवित्र स्थल पर ॥ १४ ॥

एषु स्थानेषु विज्ञेया घोषधी सुरपूजिता ।

विजया नाम विख्याता त्रिषु लोकेषु सुन्दरी ।। १५ ।।

यह देवताओं से पूजित औषध तीनों लोक में विजया नाम से प्रसिद्ध सुन्दर औषध उपर्युक्त स्थानों में जानना चाहिए ॥ १५॥

आयुष्यं साधकेन्द्रस्य ददाति सुरपूजिता ।

कान्तजीर्ण रसं कृत्वा हेमजीर्ण तया युतम् ॥ १६ ॥

साधकशिरोमणि की यह देवताओं से वन्दित औषध आयुष्य देती है । कामत (लोहविशेष ) जीर्ण रस को करके और उससे ( उच्चटा से ) युक्त हेमजीर्ण करते हैं ।। १६ ।।

उच्चटाया रसं दत्त्वा रसकर्ष विमर्दयेत् ।

पिबेत् मधुघृतैर्युक्तं निद्रा भवति तत्क्षणात् ॥ १७ ॥

उच्चटा का रस देकर कर्ष परिमित पारद का मर्दन करे और मधुर-घृत के अनुपान से पान करे तो तुरन्त निद्रा होती है ॥१७ ॥

उपयुक्ते ततश्चणं तद्योगाच्च जगत्यसी ।

मासैकेनैव देवेशि संशयान् सर्वतस्त्यजेत् ॥ १८ ॥

संसार में वह ( साधक ) उपयुक्त चूर्ण का उसी के योग से एक मास पर्यन्त ही (सेवन करने से) सभी प्रकार के संशय से रहित हो जाता है ॥१८ ॥

स्वयं निगृह्यते सिद्धिः सूर्यतेजस्समप्रभः ।

त्रासयेच्च जगत्सर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ॥ १९ ॥

स्वयं सिद्धि उसका ग्रहण करती है, और सूर्य के तेज के समान कान्ति वाला वह यक्ष, उरग और राक्षस से युक्त सम्पूर्ण संसार को त्रस्त करता है ॥१९॥

अमरानपि निर्जित्य बलेन कुलिशाधिपः ।

हत्वा विद्याधरान् सर्वान् ये चान्ये जयकाङ्क्षिणः ॥ २० ॥

बल में बज्राधिपति इन्द्र के समान वह सभी देवताओं को भी जीत करके, तथा सभी विद्याधरों को तथा और जो कोई जय की इच्छा रखने वाले हैंसबको मारता है ।। २० ।।

स्वयमेव भवेदिन्द्रः कल्पस्यास्य प्रभावतः ।

अधिक क्या इस कल्प के प्रभाव से स्वयं इन्द्र ही हो जाता है।

अथवा सेटकं सूताच्चतुर्थीशं निधाय च ॥ २१ ॥

उच्चटाया रसं दत्त्वा मदयेत् पाणिमध्यतः ।

मर्दिते रवितापेन रसो दिव्यौषधीवलात् ॥ २२ ॥

अथवा पारद से चतुर्थांश सेटक लेकर उसमें उच्चटा का रस देकर दोनों हाथ के बीच में रखकर मर्दन करें। फिर इस दिव्य औषधि के बल से सूर्य- ताप के योग से मर्दन करने पर यह रस ॥ २२-२२ ॥

भिनत्ति सर्वलोहांश्च लक्षांशेन वरानने ।

अथवा तां क्षिपेत्रे सोऽदृश्यो भवति क्षणात् ॥ २३ ॥

व्रजेच्य किन्नरं लोकं तत्रादौ जायते नृपः ।

अपने लक्ष अंश से हे पार्वती, सभी लौह का भेदन करता है अथवा उसको मुख में रखे तो वह क्षण मात्र में अदृश्य हो जाता है और किन्नर लोक में जाता है, और वहाँ पहले राजा होता है ॥ २३ ॥

इति काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् उच्चटाकल्पः॥

आगे जारी पढ़ें ............ नागदमनीकल्प

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