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कर्मकाण्ड

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मुण्डमालातन्त्र पटल १६

मुण्डमालातन्त्र पटल १६          

मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित दशम पटल) पटल १६ में ज्ञानलाभ का उपाय, ज्ञान के भेद का कथन, ज्ञान लाभ के कारण का कथन, मन्त्रसिद्धि स्तोत्र और कवच का वर्णन है।

मुण्डमालातन्त्र पटल १६

मुण्डमालातन्त्रम् षोडश: पटलः

मुंडमाला तंत्र पटल १६               

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् दशमः पटलः

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल १०     

श्रीदेव्युवाच -

देवदेव! महादेव ! नीलकण्ठ ! सदाशिव ! ।

नमस्ते परमेशान! विश्वनाथ ! नमोऽस्तु ते ॥1

श्री देवी ने कहा - हे देवदेव ! हे महादेव ! हे नीलकण्ठ ! हे सदाशिव ! आपको नमस्कार । हे परमेशान ! हे विश्वनाथ ! आपको नमस्कार ।।1।।

नमस्ते परमेशान! सदाशिव! महेश्वर !।

नमस्ते परमानन्द ! ज्ञानमोक्ष-प्रदायक ! ।।2।।

हे परमेशान ! हे सदाशिव ! हे महेश्वर ! आपको नमस्कार । हे परमानन्द ! हे ज्ञानमोक्ष-प्रदायक! आपको नमस्कार ।।2।।

नमस्ते पार्वतीनाथ! नमस्ते भक्त-वत्सल !।

प्रासीद मां जगद्वन्धो ! गोप्यं वद सदाशिव ! ॥3

हे पार्वतीनाथ ! आपको नमस्कार । हे भक्त-वत्सल ! आपको नमस्कार । हे जगद्वन्धो ! मेरे प्रति प्रसन्न होवें । हे सदाशिव ! गोपनीय बातों को मुझे बतावें ।।3।।

श्रीशङ्कर उवाच -

शृणु देवि ! जगद्धात्रि ! सारात् सारतरं परम् ।

श्रुत्वा मोक्षमवाप्नोति साधकेन्द्रो महीतले ।।4।।

श्री शङ्कर ने कहा - हे जगद्धात्रि ! हे देवि ! सार से भी सार, पर से भी पर, बातों का श्रवण करें । साधक-श्रेष्ठ जिन (बातों) का श्रवण कर इस पृथिवी पर मोक्ष-लाभ कर लेता है ।।4।।

शृणुयाद् यो मुण्डमालातन्त्रं परमकारणम् ।

ज्ञानदं मोक्षदं भक्ति-भुक्ति-सौख्यप्रदं शिवे ! ॥5

हे शिवे ! जो ज्ञानप्रद मोक्षप्रद, भक्तिप्रद, भोगप्रद एवं सौख्यप्रद, परम कारण (स्वरूप) 'मुण्डमालातन्त्र' का श्रवण करता है, वह इन सभी का लाभ करता है ।।5।।

इत्येवं परमं देवि! देवानामपि दुर्लभम् ।

यो वेद धरणीमध्ये स एव परमार्थवित् ।।6।।

हे देवि ! जो व्यक्ति इस पृथिवी पर इस प्रकार जानता है कि यह तन्त्र श्रेष्ठ है, यह देवगणों के लिए भी दुर्लभ है, वही पमार्थवित् है ।।6।।

शक्तिमार्ग विना जन्तोर्न भक्तिर्न च सद्गतिः ।

शक्तिमूलं जगत् सर्वं शक्तिमूलं परं तपः ।।7।।

शक्तिमार्ग के विना जीव की भक्ति नहीं है, सद्गति भी नहीं है। जो इन समस्त जगत् की मूलशक्ति है, वह परम तपस्या का मूल एवं शक्ति है ।।7।।

शक्तिमूलं परं कर्म जन्म कर्म महीतले ।

विना शक्ति-प्रसादेन न मुक्तिर्जायते प्रिये ! ॥8 

(जगत् की मूलशक्ति) श्रेष्ठ कर्मों की मूल शक्ति है । इस पृथिवीतल पर (वही) जन्म एवं कर्म की भी मूलशक्ति है। हे प्रिये! शक्ति के अनुग्रह के बिना मुक्ति जन्म नहीं लेती ।।8।।

श्रुतं देवि! वरारोहे! सर्वं गोप्यं महीतले ।

अन्य-गोप्यं किं वदामि तत् सर्वं वद सुव्रते ! ।।9।।

हे वरारोहे! हे देवि! इस पृथिवीतल पर समस्त गोपनीय (बातों) को आपने सुन लिया है। अन्य गोपनीय को क्या बतावें। हे सुव्रते ! उन सभी को आप बतावें ।। 9।।

श्री पार्वत्युवाच -

शृणु देव ! महादेव! कथयस्व जगद्गुरो ! ।

कथमुत्पद्यते ज्ञानं तद् वदस्व कृपानिधे! ॥10

श्री पार्वती ने कहा - हे महादेव ! हे देव ! हे जगद्गुरो ! आप श्रवण करें। हे कृपानिधे ! किस प्रकार ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे बतावें ।।10।।

श्री शिव उवाच -

अहोभाग्यमहोभाग्यमहो भाग्यं सुरेश्वरि ।

कृतार्थोऽहं कृतार्थेऽहं कृतकार्यों महेश्वरि ! ॥11

श्री शिव ने कहा हे सुरेश्वरि! अहोभाग्य! अहोभाग्य! अहोभाग्य! हे महेश्वरि ! मैं कृतार्थ हूँ, मैं कृतार्थ हूँ, मैं कृतार्थ हूँ।

ज्ञानकाण्डं महेशानि! सारात् सारतरं शिवम् ।

ज्ञानञ्च द्विविधं ज्ञेयं दुर्जेयं मनसा अपि ॥12

हे महेशानि ! ज्ञानकाण्ड (वस्तुतः) सारात्सार एवं शिवप्रद है। ज्ञान दो प्रकार का है - ऐसा जानें । वह मन के लिए भी दुर्जेय है ।।12।।

ज्ञानं परम-तत्त्वाख्यं ज्ञानं ज्ञेयार्थ-साधनम् ।

अन्यद् विभ्रान्ति-विषयं ज्ञानं साधारणं मतम् ।।13।।

परमतत्त्व का नाम है ज्ञान और ज्ञेय अर्थ का साधन भी है ज्ञान । अन्य साधारण ज्ञान को 'विभ्रम के विषय' रूप में कहा गया है ।।13।।

एवञ्च त्रिविधं शेष मधमं तत्त्ववर्जितम् ।

तत्त्वज्ञानं वरारोहे! योगीन्द्राणाञ्च दुर्लभम् ॥14

अवशिष्ट ज्ञान, जो तत्त्ववर्जित है, वह अधम है। इस प्रकार, ज्ञान त्रिविध है। हे वरारोहे ! तत्त्वज्ञान योगीन्द्रगणों के लिए भी दुर्लभ है ।।14।।

विना तत्त्वपरिज्ञानात् विफलं पूजनं जपः।

सत्यं तत्त्वपरिज्ञानात् सफलं पूजनं तपः ।।15।।

तत्त्व ज्ञान के बिना पूजा एवं जप विफल है। तत्त्वज्ञान रहने पर पूजा एवं तपस्या सफल होती है। यह सत्य है ।।15।।

एको देवश्च एकोऽहं आत्मा भिन्नः शरीरतः।

घटात् पटान्महेशानि! काल-चक्रान्महीरुहात् ।

एवं ज्ञानं तत्त्वमयं तदा मुक्तिऽचिरेण तु ।।16।।

देवता एक है, मैं एक हूँ, घट एवं पट से शरीर जिस प्रकार भिन्न है, उसी प्रकार यह आत्मा शरीर से भिन्न है। हे महेशानि! एवंविध ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है । जब एवंविध ज्ञान हो जाता है, तब कालचक्र-रूप वृक्ष से (साधक) शीघ्र ही मुक्तिलाभ कर लेता है ।।16।।

नाना-कारणमेवास्य पूजनं ध्यानमेव च ।

सेवनं चैव तीर्थानां शरणं तारिणीपद्म ॥17

स्मरणं मनुराजस्य भ्रमणं वै कुलाचलम् ।

सत्सङ्ग-सेवनं विष्णोः शङ्करस्यापि पूजनम् ।

कालिका-पादयुगलं भजनं ज्ञानकारणम् ।।18

इस तत्त्वज्ञान के 'कारण' अनेक हैं - पूजा, ध्यान, तीर्थों की सेवा, तारिणीपद में शरण, मन्त्रराज का स्मरण, कुलाचल में भ्रमण, सत्सङ्ग, विष्णु की सेवा, शङ्कर की पूजा, कालिका के पादयुगल की भजना - ये तत्त्वज्ञान (प्राप्ति) के 'कारण' हैं ।।17-18।।

यावन्नानात्वमेव स्यात् तावद् भिन्नं महीतले ।

तावज्जातिश्च गोत्रञ्च तावन्नाम पृथग्विधम् ।।19

जब तक नानात्व रहता है, पृथिवी में तब तक ही (सब) परस्पर भिन्न हैं, तब तक ही जाति है, तब तक ही गोत्र है, तब तक ही पृथक्-पृथक् नाम हैं ।।19।।

तावल्लिङ्गं पृथक् सर्वं वर्णानां पृथगेव हि ।

तावन्मित्र-विपक्षौ च तावत् कलत्र-बान्धवौ ॥20

तब तक ही समस्त लिङ्ग पृथक्-पृथक् हैं, तब तक ही वर्णसमूह में समस्त (वर्ण) पृथक्-पृथक् हैं, तब तक ही शत्रु-मित्र हैं, तब तक ही कलत्र (स्त्री) एवं बान्धव हैं ।।20।।

तावत् पृथग्विधा पूजा यन्त्रमन्त्रार्चनादिभिः ।

तावत् पापं तावत् पुण्यं तावद् रागविवर्द्धनम् ॥21

तब तक ही यन्त्र एवं मन्त्रार्चनादि के द्वारा पूजा है, तब तक ही पाप है, तब तक ही पुण्य है, तब तक ही राग की विवृद्धि है ।।21।।

तावत् त्वञ्चाप्यहमहमियञ्च जायते प्रिये !।

यावन्न जायते चण्डि! विद्याऽविद्याविरोधिनी ॥22

हे प्रिये ! हे चण्डि ! जब तक अविद्या-विरोधिनी विद्या उत्पन्न नहीं होती है, तब तक 'आप' एवं 'मैं', 'मैं', एवं 'ये' - इस प्रकार भेदज्ञान उत्पन्न होता है ।।22।।

अविद्यानाशिनी विद्या विद्याऽविद्या-विमर्दिनी ।

या तारिणी महाविद्या विद्याऽविद्या-विरूपिणी ।।23।।

अविद्यानाशिनी विद्या अविद्या को चूर्ण विचूर्ण कर देती है। यह जो तारिणी महाविद्या है, वही 'विद्या' है, अविद्या के विपरीता हैं ।।23।।

अतएव वरारोहे! विद्यामुत्पाद्य भूतले ।

निर्वाणमोक्षमाप्नोति सत्यं त्रिपुरसुन्दरि ! ॥24

अत; हे वरारोहे ! हे त्रिपुरसुन्दरि ! इस महीतल पर विद्या को उत्पन्न कर लेने पर ही निर्वाणमोक्ष का लाभ (साधक) कर लेता है। यह सत्य है ।।24।।

श्री दुर्गाचरणाम्भोजे भक्तिरव्यभिचारिणी।

तदैव जायते ब्रह्म-ज्ञानं ब्रह्मादि-दुर्लभम् ।।25।।

जब श्री दुर्गा के पादपद्म में अव्यभिचारी शक्ति उत्पन्न होती है, तभी ब्रह्मादि देवगणों के लिए भी दुर्लभ ब्रह्मज्ञान उत्पन्न होता है ।।25।।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च वासवाद्या दिवौकसः ।

भैरवाश्चैव गन्धर्वा विद्याभ्यास-समुत्सुकाः ॥26

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्रादि देववृन्द, भैरवगण एवं गन्धर्वगण विद्या के अभ्यास के लिए समुत्सुक हैं ।।26।।

ब्रह्मविद्या-समा विद्या ब्रह्मविद्या-समा क्रिया ।

ब्रह्मविद्या-समं ज्ञानं नास्ति नास्ति कदाचन ।

तत्त्वज्ञानं श्रुतं देवि ! किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।।27

ब्रह्मविद्या के तुल्य विद्या, ब्रह्मविद्या के तुल्य क्रिया, ब्रह्मविद्या के तुल्य ज्ञान कदापि नहीं होता है, नहीं होता है। हे देवि! आपने तत्त्वज्ञान का श्रवण किया है । पुनः आप क्या सुनने की इच्छा करती है ? ।।27 ।।

श्री पार्वत्युवाच -

नमस्तुभ्यं महादेव ! विश्वनाथ ! जगद्गुरो ! ।

श्रुतं ज्ञानं महादेव ! नानातन्त्रं तवाननात् ॥ 28

श्री पार्वती ने कहा - हे महादेव ! हे विश्वनाथ ! हे जगद्गुरो ! आपको नमस्कार । हे महादेव ! आपके मुख से ब्रह्मज्ञान एवं नाना तन्त्रों को मैंने सुना है ।।28।।

इदानीं चण्डिकायास्तु गुह्य-स्तोत्रं वद प्रभो !।

कवचं ब्रूहि मे नाथ! मन्त्रचैतन्य-कारणम् ॥29

हे प्रभो ! सम्प्रति चण्डिका के गोपनीय स्तोत्र को बतावें । हे नाथ ! मन्त्रचैतन्य के कारण-स्वरूप कवच को भी बतावें ।।29 ।।

मन्त्रसिद्धिकारं गुह्याद् गुह्यं मोक्षविधायकम् ।

श्रुत्वा मोक्षमवाप्नोति ज्ञात्वा विद्यां महेश्वर ! ॥30।।

हे महेश्वर ! गुह्य से गुह्य, मन्त्र-सिद्धिकर, मोक्षजनक स्तोत्र एवं कवच को सुनकर एवं विद्या को जानकर (साधक) मोक्षलाभ करता है ।।30।।

श्री शिव उवाच -

दुर्लभं तारिणी-मार्ग दुर्लभं तारिणीपद्म ।

मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं दुर्लभं शवसाधनम् ।।31 ।।

श्री शिव ने कहा - तारिणी का मार्ग दुर्लभ है । तारिणी का पद-युगल दुर्लभ है। मन्त्रार्थ, मन्त्र चैतन्य एवं शव-साधन दुर्लभ है ।।31।।

श्मशान-साधनं योनि-साधनं ब्रह्म-साधनम् ।

क्रिया-साधनकं भक्ति-साधनं मुक्ति-साधनम् ।

तव प्रसादाद् देवेशि ! सर्वाः सिद्धयन्ति सिद्धयः ।।32।।

श्मशानसिद्धि, योनिसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि, क्रियासिद्धि, भक्तिसिद्धि, मुक्तिसिद्धि-हे देवेशि! आपके अनुग्रह से समस्त सिद्धियाँ सिद्ध होती है ।।32।।

अब इससे आगे श्लोक ३३ से ५५ में दशमहाविद्या स्तोत्र को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

दशमहाविद्यास्तोत्रम्           

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् दशमः पटलः

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल १०     

मुंडमाला तंत्र पटल १६            

जागर्ति सततं चण्डि ! स्तव-पाठाद् भुजङ्गिनी ।

इत्येवञ्च श्रुतं स्तोत्रं कवचं शृण शङ्करि ! ॥56।।

हे चण्डि ! स्तव-पाठ के द्वारा सर्वदा भुजङ्गिनी (कुलकुण्डलिनी) जागरिता हो जाती हैं । हे शङ्करि ! एवंविध स्तोत्र का श्रवण आपने कर ली है। सम्प्रति कवच का श्रवण करें ।।56।।

अब इससे आगे श्लोक ५७ से ८३ में दशमहाविद्या कवच को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

महाविद्याकवचम्           

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् दशमः पटलः

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल १०     

मुंडमाला तंत्र पटल १६            

पठित्वा कवचं स्तोत्रं मुक्तिमाप्नोति निश्चितम् ।

पठित्वा कवचं स्तोत्रं दशविद्यां यजेद् यदि ।

विद्यासिद्धिर्मन्त्रसिद्धिर्भवत्येव न संशयः ॥84

स्तोत्र एवं कवच का पाठ कर (साधक) निश्चय ही मुक्ति लाभ करता है। स्तोत्र एवं कवच का पाठ कर यदि (साधक) दशविद्या की पूजा करता है, तब उन्हें विद्यासिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि अवश्य होती है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।84।।

तदैव ताम्बुलैः सिद्धिर्जायते नात्र संशयः ।

शवसिद्धिश्चितासिद्धिर्दुर्लभा धरणीतले ॥85

तभी ताम्बूल के द्वारा भी सिद्धि होती है। इसमें सन्देह नहीं है । धरणीतल में शवसिद्धि एवं चितासिद्धि दुर्लभ है ।।85।।

अयत्नसुभगासिद्धिस्ताम्बूलान्नात्र संशयः।

निशामुखे निशायाञ्च महाकाले निशान्तके ।

पठेद्भक्त्या महेशानि! गाणपत्यं लभेत सः ।।86।।

ताम्बूल से, बिना यत्न से ही (अनायास ही) सुभगासिद्धि प्राप्त होती है। इसमें सन्देह नहीं है । हे महेशानि ! निशामुख में, निशा में, श्रेष्ठकाल में, निशा के अन्त में, जो भक्ति के साथ स्तव-कवच का पाठ करता है, वह (साधक) गाणपत्य का लाभ करता है ।।86।।

इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर-सम्वादे मन्त्रसिद्धिस्तोत्रं कवचं नाम दशमः पटलः॥10

मुण्डमालातन्त्र में पार्वती एवं ईश्वर के संवाद में, 'मन्त्रसिद्धि-स्तोत्र-कवच' नामक दशम पटल का अनुवाद समाप्त ।।10।।

आगे जारी............. रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ११

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