श्रीहनुमदुपनिषद्
श्रीहनुमदुपनिषद् अलग से कोई
उपनिषद् नहीं है, अपितु अथर्ववेदीय राम-रहस्य उपनिषद के प्रथम अध्याय ही है। इसमें
सनकादि तथा अन्य ऋषियों ने हनुमानजी से ब्रह्मा तत्त्व के विषय में प्रश्न करना और
श्रीहनुमानजी द्वारा उनका उत्तर कहना का वर्णन है।
श्रीहनुमत् उपनिषद
श्रीरामरहस्योपनिषत्
शान्तिपाठ
कैवल्यश्रीस्वरूपेण राजमानं
महोऽव्ययम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं
श्रीरामपदमाश्रये ।।
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ঌसस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः ।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्ति: !!!
जो एक मात्र मोक्ष कैवल्य पद है,
जो हर श्री से सम्पन्न है, जो राजा के समान
महान एवं आकाश के समान विशाल है, जिसका कोई प्रतिद्वन्दी
(विकल्प) नहीं है, मैं ऐसे श्रीराम के पदों का आश्रय
लेता हूँ।
श्रीहनुमद् उपनिषत्
श्रीरामोपनिषद्
श्रीराम रहस्य उपनिषद
श्रीरामरहस्योपनिषत्
प्रथमोऽध्यायः
ॐ रहस्यं रमतपतं वासुदेवं च
मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुं
महच्छारीरकं शिखा ॥ १॥
सनकाद्या योगिवर्या अन्ये च
ऋषयस्तथा ।
प्रह्लादाद्या विष्णुभक्ता
हनूमन्तमथाब्रुवन् ॥ २॥
ॐ! एक बार श्री वासुदेव (विष्णु) का
जो परम रहस्य राम तापनीयोपनिषद में वर्णित है उसको जानने की इच्छा से मुद्गल,
शाण्डिल्य, पैंगल इत्यादि महान शरीरधारी ऋषि अपने
साथ सनकादि योगेन्द्रों, भगवान विष्णु के प्रहलाद जैसे
भक्तों को साथ ले हनुमानजी के पास ज्ञान की भिक्षा लेने गये ।
वायुपुत्र महाबाहो किंतत्त्वं
ब्रह्मवादिनाम् ।
पुराणेष्वष्टादशसु
स्मृतिष्वष्टादशस्वपि ॥ ३॥
चतुर्वेदेषु शास्त्रेषु
विद्यास्वाध्यात्मिकेऽपि च ।
सर्वेषु विद्यादानेषु
विघ्नसूर्येशशक्तिषु ।
एतेषु मध्ये किं तत्त्वं कथय त्वं
महाबल ॥ ४॥
हे वायुपुत्र! हे महाबाहो! वह कौन
सा ब्रह्म तत्त्व है जिसका उपदेश १८ पुराण, १८
स्मृतियाँ, ४ वेद, सम्पूर्ण शास्त्रों
एवं समस्त अध्यात्म विद्याओं में उपदेश किया गया है? विष्णु के समस्त नामों में अथवा विघ्नेश (गणेश), सूर्य, शिव-शक्ति-
इनमें से वह तत्त्व कौन सा है?' ।
हनूमान्होवाच ॥
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो
विष्णुभक्तास्तथैव च ।
श्रुणुध्वं मामकीं वाचं
भवबन्धविनाशिनीम् ॥ ५॥
हनुमानजी ने उत्तर दिया -
'हे योगीजनो, ऋषिगणों तथा विष्णु के भक्तगणों। आप
संसार के बन्धनों को नाश करने वाले मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनें ।
एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्म
तारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म तत्त्वं श्रीरामो
ब्रह्म तारकम् ॥ ६॥
इन सब में (यानि वेद आदि में)
परमतत्त्व ब्रह्मस्वरूप 'तारक राम' ही है। राम ही परमब्रह्म है। राम ही परमतप स्वरूप है। राम ही परमतत्त्व
हैं। राम ही तारकब्रह्म हैं' ।
वायुप्त्रेणोक्तास्ते योगीन्द्रा
ऋषयो विष्णुभक्ता
हनूमन्तं पप्रच्छुः रामस्याङ्गानि
नो ब्रूहीति ।
वायुपुत्र (हनुमान्) के यह उपदेश
देने पर योगिन्द्रों, ऋषियों और
विष्णुभक्तों ने फिर हनुमानजी से पूछा हे हनुमान्! आप हमें श्रीराम
के अंगों का उपदेश कीजिए'?
हनूमान्होवाच । वायुपुत्रं विघ्नेशं
वाणीं दुर्गां
क्षेत्रपालकं सूर्यं चन्द्रं
नारायणं नारसिंहं
वायुदेवं वाराहं
तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं
शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं
सुग्रीवमङ्गदं
जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि
रामस्याङ्गानि जानीथाः ।
तान्यङ्गानि विना रामो विघ्नकरो
भवति ।
हनुमानजी ने उत्तर दिया-
'गणेश, सरस्वती, दुर्गा,
क्षेत्रपाल, सूर्य, चन्द्र,
नारायण, नरसिंह, वासुदेव,
वाराह तथा और भी दूसरे सभी देवताओं के जो
मंत्र हैं अथवा उन मंत्रों के जो बीज हैं, वे एवं सीता,
लक्ष्मण, हनुमान, शत्रुघ्न,
विभीषण, सुग्रीव, अंगद,
जामवन्त और भरत या उनके बीज अक्षर- इन सबको राम का अंग समझना चाहिए।
अंगों की पूजा के बिना विधिवत् राम मंत्र का (या उनके यंत्र का) जप विघ्नकारक होता
है (यानि कि पूरा फल नहीं देता) ।
[नोट : यहाँ पर ध्यान रखना है कि
तारक मंत्र में सब समाहित है। यहाँ यंत्र पूजा की बात हो रही है न कि राम के तारक
मंत्र के जप की।]
पुनर्वायुपुत्रेणोक्तास्ते हनूमन्तं
पप्रच्छुः ।
आञ्जनेय महाबल विप्राणां गृहस्थानां
प्रणवाधिकारः
कथं स्यादिति ।
इस प्रकार वायुपुत्र हनुमान् के
कहने पर योगेन्द्र आदि मुनियों ने उनसे पुन: पूछा- 'हे बलवान् अञ्जनी कुमार! जो गृहस्थ ब्रह्मवादी हैं उनको प्रणव (ओंकार,
ओंकार मंत्र, परमेश्वर) का अधिकार कैसे हो
सकता है' ।
स होवाच श्रीराम एवोवाचेति ।
येषामेव षडक्षराधिकारो वर्तते तेषां
प्रणवाधिकारः स्यान्नान्येषाम् ।
केवलमकारोकारमकारार्धमात्रासहितं
प्रणवमूह्य
यो राममन्त्रं जपति तस्य शुभकरोऽहं
स्याम् ।
श्रीराम बोले-
'जिन्हें मेरे इस ६ अक्षर के मंत्र (रां रामाय नम:) का अधिकार प्राप्त
है उन्हीं को प्रणव का भी अधिकार प्राप्त है, दूसरे को नहीं।
जो प्रणव (ॐ) के अकार, उकार, मकार एवं
अर्द्धमात्रा सहित जप कर पुन: 'रामचन्द्र' मंत्र जप करता है मैं उसका कल्याण करता हूँ (यानि कि 'ॐ रां रामाय नमः' मंत्र का जप) ।
तस्य प्रणवस्थाकारस्योकारस्य
मकरास्यार्धमात्रायाश्च
ऋषिश्छन्दो देवता
तत्तद्वर्णावर्णावस्थानं
स्वरवेदाग्निगुणानुच्चार्यान्वहं
प्रणवमन्त्रद्द्विगुणं
जप्त्वा पश्चाद्राममन्त्रं यो जपेत्
स रामो भवतीति
रामेणोक्तास्तस्माद्रामाङ्गं प्रणवः
कथित इति ॥
इसलिए प्रणव के अकार,
उकार, मकार एवं अर्द्धमात्रा के ऋषि, छन्द एवं देवता का न्याश करे। इसी प्रकार चतुर्विध स्वर, वेद, अग्नि, गुण आदि का
उच्चारण करके उनका न्यास करे। प्रणव मंत्रों का दुगना जप करे, यानि कि नाम मंत्र के आगे-पीछे प्रणव लगाकर जो जप करता है वह श्रीराम
स्वरूप ही हो जाता है। (अतः, मंत्र का स्वरूप निम्न बना- ॐ +
रां रामाय नमः + ॐ) ।
[नोट : तात्पर्य यह है कि प्रणव
मंत्र ओम- ॐ- के तीन अक्षरों में क्रमश: ऋषि, देवता
एवं छन्द को जानकर उनका न्यास करे। फिर राम मंत्र के आगे-पीछे ओम शब्द लगाकर जप
करने से पूर्ण ब्रह्म का द्वयोतक होता है।
विभीषण उवाच ॥
सिंहासने समासीनं रामं
पौलस्त्यसूदनम् ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ पौलस्त्यो
वाक्यमब्रवीत् ।। ७॥
विभीषण ने प्रार्थना की-
एक बार पौलस्त्य नन्दन (विभीषण) सिंहासनासीन रावणान्तक (पौलस्त्यसूदनम्-रावण का
अन्त करने वाले) श्रीराम को पृथ्वी पर दण्डवत प्रणाम करके उनसे
प्रार्थना की।
रघुनाथ महाबाहो केवलं कथितं त्वया ।
अङ्गानां सुलभं चैव कथनीयं च सौलभम्
॥ ८॥
हे रघुनाथ,
हे महाबाहो! मैंने अपनी 'रामचर्या' में कैवल्य स्वरूप का वर्णन किया है। वह सबके लिए सुलभ नहीं है। अतः
अज्ञजनों की सुलभता के लिए आप अपने सुलभ स्वरूप का उपदेश करें।
श्रीराम उवाच ।
अथ पञ्च दण्डकानि पितृघ्नो
मातृघ्नो ब्रह्मघ्नो गुरुहननः
कोटियतिघ्नोऽनेककृतपापो
यो मम षण्णवतिकोटिनामानि जपति स
तेभ्यः पापेभ्यः
प्रमुच्यते । स्वयमेव
सच्चिदानन्दस्वरूपो भवेन्न किम् ।
यह सुनकर श्रीराम बोले- 'तुम्हारे ग्रन्थ में जो पाँच दण्डक हैं वे घोर से घोर पापात्माओं को भी
पवित्र करने वाले हैं। इनके अतिरिक्त जो मेरे ९६ करोड़ नामों (राम) का जप करता है,
वह भी उन सभी पापों से छूट जाता है। इतना ही नहीं, वह स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप हो जाता है'।
[नोट : दण्डक वह छन्द है जिसमें
वर्गों की संख्या २६ से अधिक हो। यह दो प्रकार का होता है। यानि कि मुक्त जिसमें
या तो अक्षर २६ से अधिक हो अथवा बन्ध जिसमें गणों का नियम या बन्धन होता है।]
पुनरुवाच विभीषणः ।
तत्राप्य शक्तोऽयं किं करोति ।
विभीषण ने पुनः प्रार्थना की- 'जो पाँच दण्डक या ९६ करोड़ नाम जप नहीं कर पाये, वो
क्या करे?'
स होवाचेमम् ।
कैकसेय पुरश्चरणविधावशक्तो
यो मम महोपनिषदं मम गीतां
मन्नामसहस्रं
मद्विश्वरूपं ममाष्टोत्तरशतं
रामशताभिधानं
नारदोक्तस्तवराजं हनूमत्प्रोक्तं
मन्त्रराजात्मकस्तवं
सीतास्तवं च रामषडक्षरीत्यादिभिर्मन्त्रैर्यो
मां
नित्यं स्तौति तत्सदृशो भवेन्न किं
भवेन्न किम् ॥९॥
तब श्रीराम ने बतलाया- 'जो आदि-अन्त में ओम (प्रणव- ॐ) लगाकर मेरे मंत्र का ५० लाख जप करे और इसी
मेरे मंत्र से दुगने प्रणव (ॐ) का जप करता है वह नि:सन्देह मेरा स्वरूप हो जाता
है।
विभीषण ने पुनः प्रार्थना की- 'जो इतना करने में भी असमर्थ हो, वो क्या करे?'
तब श्रीराम ने कहा- 'वह ३ पद्यों का गायत्रीमंत्र का पुरश्चरण करें। जो इसमें भी असमर्थ
हो, वह मेरी 'गीता' (रामगीता) पढे और मेरे 'सहस्रनाम' का जप करे (यह सहस्रनाम मेरे विश्वरूप का परिचायक है)। अथवा मेरे १०८
नामों का जप करे। अथवा नारद द्वारा कहे गये 'रामस्तवराज'
का पाठ करे। अथवा हनुमान्जी द्वारा कहे गये 'मंत्र राजात्मक स्तोत्र' का पाठ करे। अथवा 'सीतास्तोत्र' या 'रामरक्षास्तोत्र' आदि स्रोत्रों से मेरी स्तुति करे। ऐसा करने से
वे भी मेरे ही समान हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है'।
[नोट : (१) 'रामगीता' श्री महर्षि
वेदव्यास कृत अध्यात्म रामायाण के उत्तरकाण्ड में पाँचवां सर्ग है। (२) गायत्री
मंत्र निम्न है- ॐ भुभूवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः
प्रचोदयात् ।]
इति
श्रीहनुमदुपनिषद् सम्पूर्णः।।
इति श्रीरामरहस्योपनिषद्
प्रथमोऽध्यायः।। १ ।।
इस प्रकार श्रीरामोपनिषद् का प्रथम अध्याय
समाप्त हुआ।
शेष जारी...आगे पढ़ें- श्रीरामरहस्योपनिषद् द्वितीय अध्याय
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