वीरविंशति हनुमत् स्तोत्र
कविपति श्रीउमापतिजी की बालकाल में
रचित इस अद्भुत वीरविंशति श्री हनुमत् स्तोत्र का नित्य पाठ करने से अत्यन्त दुःसह
घोर भय का नाश होता है और हनुमानजी की कृपा प्राप्त होता है ।
वीरविंशतिकाख्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रम्
लाङ्गूलमृष्टवियदम्बुधिमध्यमार्ग-
मुत्प्लुत्ययान्तममरेन्द्रमुदो
निदानम् ।
आस्फालितस्वकभुजस्फुटिताद्रिकाण्डं
द्राङ्मैथिलीनयननन्दनमद्य वन्दे ॥
१॥
जो अपनी पूँछ से साफ किये हुए आकाश
तथा समुद्र के मध्यवर्ती मार्ग पर उछलकर चलते समय इन्द्र के आनन्द का कारण
हो रहे थे और आगे की ओर फैलायी हुई जिनकी भुजाओं से पर्वतखण्ड फूटते जाते थे,
जानकीजी के नेत्रों को शीघ्र ही आनन्द
देनेवाले उन हनुमानजी की आज मैं वन्दना करता हूँ॥१॥
मध्येनिशाचरमहाभयदुर्विषह्यं
घोराद्भुतव्रतमियं यददश्चचार ।
पत्ये तदस्य बहुधापरिणामदूतं
सीतापुरस्कृततनुं हनुमन्तमीडे ॥ २॥
जानकीजी ने पति के लिये जो निशाचरों
के बीच अत्यन्त भय के कारण दुःसह, घोर एवं
अद्भुत व्रत किया था, उसी के विविध फलस्वरूप दूतवेष में सीता
के सम्मुख अपने शरीर को प्रकट किये हुए हनुमानजी की मैं स्तुति करता हूँ॥२॥
यः पादपङ्कजयुगं रघुनाथपल्या
नैराश्यरूषितविरक्तमपि स्वरागैः ।
प्रागेव रागि विदधे बहु वन्दमानो
वन्देञ्जनाजनुषमेष विशेषतुष्ट्यै ॥
३॥
जिन्होंने श्रीरघुनाथपत्नी जानकी के
दोनों चरणारविन्दों को, जो निराशारूप धूलि से
धूसरित होने के कारण रागशून्य हो गये थे, बारंबार प्रणाम
करते हुए, अपने अनुरागों द्वारा [पतिमिलन के-] पहले ही
रागरञ्जित कर दिया; उन अञ्जनीनन्दन महावीरजी की मैं
विशेष सन्तोष के लिये वन्दना करता हूँ॥ ३ ॥
ताञ्जानकीविरहवेदनहेतुभूतान्
द्रागाकलय्य सदशोकवनीयवृक्षान् ।
लङ्कालकानिव घनानुदपाटयद्य-
स्तं हेमसुन्दरकपिं प्रणमामि
पुष्ट्यै ॥ ४॥
सुन्दर अशोकवन के घने वृक्षों को
जानकीजी की विरह वेदना को बढ़ाने का कारण समझकर जिन्होंने लङ्कानगरी की स्निग्ध
अलकावली के समान उन्हें शीघ्र ही उखाड़ डाला, उन
सुवर्ण के सदृश सुन्दर शरीरवाले कपिवर हनुमानजी को मैं अपने पालन-पोषण के
लिये प्रणाम करता हूँ ॥४॥
घोषप्रतिध्वनितशैलगुहासहस्र-
सम्भान्तनादितवलन्मृगनाथयूथम् ।
अक्षक्षयक्षणविलक्षितराक्षसेन्द्र-
मिन्द्रं कपीन्द्रपृतनावलयस्य वन्दे
॥ ५॥
अपने गम्भीर घोष से प्रतिध्वनित
पर्वतों की सहस्रों कन्दराओं में रहनेवाले सिंहों के समूह को जिन्होंने सम्भ्रमवश
शब्दायमान एवं विचलित कर दिया और अक्षकुमार के विनाशकाल में राक्षसराज रावण को भी
आश्चर्य में डाल दिया, उन कपिराज सुग्रीव की
सेना के नायक हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥ ५॥
हेलाविलङ्घितमहार्णवमप्यमन्दं
धूर्णद्गदाविहतिविक्षतराक्षसेषु ।
स्वम्मोदवारिधिमपारमिवेक्षमाणं
वन्देऽहमक्षयकुमारकमारकेशम् ॥ ६॥
लीला से ही महासागर को लाँघ जाने पर
भी जो तीव्र गति से घूमती हुई गदा द्वारा राक्षसों के क्षत-विक्षत होने पर अपने
आनन्दसमुद्र को अपार-सा देख रहे थे, उन
अक्षयकुमार के मारकेश रूप महावीरजी को मैं प्रणाम करता हूँ॥६॥
जम्भारिजित्पसभलम्भितपाशबन्धं
ब्रह्मानुरोधमिव
तत्क्षणमुद्वहन्तम्।
रौद्रावतारमपि रावणदीर्घदृष्टि-
सङ्कोचकारणमुदारहरिं भजामि ॥ ७॥
जिन्होंने इन्द्रजित् (मेघनाद) के
हठात् फेंके हुए पाशबन्ध को ब्रह्माजी के अनुरोध की भाँति तत्काल ग्रहण कर लिया और
रुद्र का अवतार होने पर भी जो रावण की विशालदृष्टि के संकोच का कारण बन गये,
उन उदार वानरवीर को मैं भजता हूँ॥७॥
दर्पोन्नमन्निशिचरेश्वरमूर्धचञ्च-
त्कोटीरचुम्बि निजबिम्बमुदीक्ष्य
हृष्टम् ।
पश्यन्तमात्मभुजयन्त्रणपिष्यमाण-
तत्कायशोणितनिपातमपेक्षि वक्षः ॥ ८॥
जो अभिमान से ऊपर उठे हुए रावण के
मस्तकों पर देदीप्यमान किरीटों में अपने प्रतिबिम्ब को देखकर उसमें अपने भुजयन्त्र
द्वारा पीसे जानेवाले रावण के शरीर के रक्तपात की अपेक्षा रखनेवाली अपनी छाती की
ओर निहारते हुए प्रसन्न हो रहे थे, उन्हें
मैं प्रणाम करता हूँ॥८॥
अक्षप्रभृत्यमरविक्रमवीरनाश-
क्रोधादिव
द्रुतमुदञ्चितचन्द्रहासाम् ।
निद्रापिताभ्रघनगर्जनघोरघोषैः
संस्तम्भयन्तमभिनौमि दशास्यमूर्तिम्
॥ ९॥
देवताओं के समान पराक्रम रखनेवाले
अक्षकुमार आदि वीरों के नाशजनित क्रोध से ही मानो जिसने शीघ्र ही बदला लेने के
लिये चन्द्रहास नामक तलवार उठा ली है, उस
दशशीश (रावण) के शरीर का, गम्भीर मेघगर्जना को भी मूक
बनानेवाले अपने भयङ्कर सिंहनाद से स्तम्भन करते हुए हनुमानजी को
प्रणाम करता हूँ ॥९॥
आशंस्यमानविजयं रघुनाथधाम
शंसन्तमात्मकृतभूरिपराक्रमेण ।
दौत्ये समागमसमन्वयमादिशन्तं
वन्दे हरेः क्षितिभृतः
पृतनाप्रधानम् ॥ १०॥
जो अपने किये हुए प्रचुर पराक्रमों द्वारा विजय की आशंसा से युक्त श्रीरामचन्द्रजी के तेज का वर्णन कर रहे हैं और दूतधर्म में प्राप्त होने के समन्वय का [अथवा समस्त शास्त्रों के अन्वय का] उपदेश करते हैं, उन राजा सुग्रीव की सेना के प्रधान (सेनापति) वीर की मैं वन्दना करता हूँ॥ १०॥
यस्यौचितीं समुपदिष्टवतोऽधिपुच्छं
दम्भान्धितां धियमपेक्ष्य
विवर्धमानः ।
नक्तञ्चराधिपतिरोषहिरण्यरेता
लङ्कां दिधक्षुरपतत्तमहं वृणोमि ॥
११॥
उचित उपदेश दे चुकने पर,
जिनकी पूँछ में निशाचरराज रावण का कोपानल ही उसकी दम्भ से अन्धी हुई
बुद्धि के सहारे बढ़कर, लङ्का को जलाने की इच्छा से वहाँ कूद
पड़ा था, उन्हीं हनुमानजी का मैं वरण करता हूँ॥११॥
क्रन्दन्निशाचरकुलां ज्वलनावलीढैः
साक्षाद्गृहैरिवबहिः परिदेवमानाम्।
स्तब्धस्वपुच्छतटलग्नकृपीटयोनि-
दन्दह्यमाननगरीं परिगाहमानाम् ॥ १२॥
उनकी तनी हुई पूঁछ के किनारे अग्नि लगी
थी,
उससे समस्त लङ्कानगरी अत्यन्त वेग से जल रही थी, बाहर निशाचरकुल का करुणक्रन्दन मचा हुआ था, उस समय
ऐसा जान पड़ता था मानो अग्निज्वाला से झुलसे हुए घर ही बाहर निकलकर रो रहे हैं,
ऐसी लङ्का में चारों ओर दौड़ते हुए हनुमानजी को मैं प्रणाम
करता हूँ॥ १२ ॥
मूर्तैर्गृहासुभिरिव द्युपुरं
व्रजद्भि-
र्व्योम्नि क्षणं परिगतं
पतगैर्ज्वलद्भिः ।
पीताम्बरं दधतमुच्र्छितदीप्ति
पुच्छं
सेनां वहद्विहगराजमिवाहमीडे ॥ १३॥
प्रासादशिखर पर रहनेवाले तोता और
कबूतर आदि पक्षी जलते हुए जब आकाश में उड़ते थे, तो ऐसा मालूम होता था मानो उन दग्ध होनेवाले गृहों के प्राण ही मूर्तिमान्
होकर स्वर्ग में जा रहे हैं; उन पक्षियों से क्षणभर घिरकर
ऊपर उठी हुई ज्वालाओं वाली पूँछ धारण किये, जिनकी शोभा
पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु को पीठ पर चढ़ाकर अपना समूह साथ लिये
विचरनेवाले पक्षिराज गरुड की-सी हो रही थी, उन हनुमानजी
की मैं स्तुति करता हूँ ॥ १३ ॥
स्तम्भीभवत्स्वगुरुबालधिलग्नवह्नि-
ज्वालोल्ललद्ध्वजपटामिव देवतुष्ट्यै
।
वन्दे यथोपरि पुरो दिवि दर्शयन्त-
मद्यैव रामविजयाजिकवैजयन्तीम् ॥ १४॥
लङ्कानगर के ऊपर अपनी विशाल
पूँछरूपी खंभे में लगी हुई अग्नि की ज्वाला ही जिसमें पताका के समान है,
ऐसी रामचन्द्रजी की रणविजयवैजयन्ती को देवताओं की प्रसन्नता के
लिये मानो आज ही आकाश में दिखलाते हुए महावीरजी की मैं वन्दना करता हूँ॥ १४
॥
रक्षश्चयैकचितकक्षकपूश्चितौ यः
सीताशुचो निजविलोकनतो मृतायाः ।
दाहं व्यधादिव तदन्त्यविधेयभूतं
लाङ्गूलदत्तदहनेन मुदे स नोऽस्तु ॥
१५॥
जिन्होंने सीताजी की पीड़ा को,
जो उनके दर्शनमात्र से मर चुकी थी, एकमात्र
राक्षस-समूहरूप काठ-कबाड़ों से बनी हुई लङ्कारूपिणी चिता पर सुलाकर, अपनी पूँछ की लगायी हुई अग्नि से उसका मरणान्त कालोचित दाह-संस्कार किया,
वे हनुमानजी हमारी प्रसन्नता के कारण हो ॥ १५॥
आशुद्धये रघुपतिप्रणयैकसाक्ष्ये
वैदेहराजदुहितुः सरिदीश्वराय ।
न्यासं ददानमिव पावकमापतन्त-
मब्धौप्रभञ्जनतनूजनुषं भजामि ॥ १६॥
विदेहनन्दिनी सीता की शुद्धि के
लिये श्रीरामचन्द्रजी के प्रति प्रेम के एकमात्र साक्षी पद पर स्थित पावक को
मानो समुद्र के यहाँ धरोहर रखने के निमित्त, उसमें
कूद पड़नेवाले, वायुनन्दन को
मैं भजता हूँ॥ १६॥
रक्षस्स्वतृप्तिरुडशान्तिविशेषशोण-
मक्षक्षयक्षणविधानमितात्मदाक्ष्यम् ।
भास्वत्प्रभातरविभानुभरावभासं
लङ्काभयं करममुं भगवन्तमीडे ॥ १७॥
[राक्षसों के साथ संग्राम] में तप्त
न होने के कारण, क्रोध एवं अशान्ति से जो विशेष
रक्तवर्ण हो गये हैं, अक्षकुमार के संहारकाल के कार्यों से
जिनकी दक्षता का अनुमान किया जा चुका है तथा जो प्रभात समय के प्रभामय सूर्य
के किरणों के समान कान्तिमान् हैं, लङ्का को भय देनेवाले उन भगवान्
हनुमानजी की मैं स्तुति करता हूँ ॥ १७॥
तीर्त्वोदधि जनकजार्पितमाप्य चूडा-
रत्नं रिपोरपि पुरं परमस्य दग्ध्वा
।
श्रीरामहर्षगलदश्वभिषिच्यमानं
तं ब्रह्मचारिवरवानरमाश्रयेऽहम् ॥ १८॥
समुद्र लाँघकर,
सीता के दिये हुए चूडारत्न को पाकर और शत्रु के महान् नगर को भी
जलाकर, श्रीरामचन्द्रजी के
आनन्दाश्रु से सींचे जानेवाले, ब्रह्मचारिश्रेष्ठ वानरवीर
की मैं शरण लेता हूँ ॥ १८ ॥
यः प्राणवायुजनितो गिरिशस्य शान्तः
शिष्योऽपि गौतमगुरुर्मुनिशङ्करात्मा
।
हृद्यो हरस्य हरिवद्धरितां गतोऽपि
धीधैर्यशास्त्रविभवेऽतुलमाश्रये तम्
॥ १९॥
जो पूर्वजन्म में गौतम ऋषि के
शंकरात्मा नामक शान्त शिष्य होने पर भी उनके गुरु के समान श्रद्धापात्र थे;
शङ्करजी के प्राणवायु से जिनका
प्रादुर्भाव हुआ है, जो हरि (वानर) भाव को प्राप्त
होकर भी हरि (विष्णु) की भाँति शङ्करजी के हार्दिक प्रेमी हैं तथा
बुद्धि, धैर्य और शास्त्र के वैभव में जिनकी कहीं समता नहीं
है, उन हनुमानजी की मैं शरण लेता हूँ॥ १९ ॥
स्कन्धेऽधिवाह्य जगदुत्तरगीतिरीत्या
यः पार्वतीश्वरमतोषयदाशुतोषम् ।
तस्मादवाप च वरानपरानवाप्यां-
स्तं वानरं परमवैष्णवमीशमीडे ॥ २०॥
जिन्होंने आशुतोष उमानाथ को कंधे पर
चढ़ाकर,
अपनी लोकोत्तर गायनशैली से उन्हें प्रसन्न किया और उनसे पाने योग्य
उत्तम वरों को भी प्राप्त कर लिया, मैं उन परम वैष्णव भगवान्
वानरवीर की स्तुति करता हूँ ॥ २०॥
उमापतेः कविपतेः
स्तुतिर्बाल्यविजृम्भिता ।
हनूमतस्तुष्टयेऽस्तु
वीरविंशतिकाभिधा ॥
कविपति श्रीउमापतिजी की बालकाल में
रचित,
यह वीरविंशति का नाम की स्तुति हनुमानजी की प्रसन्नता के
लिये हो।
इति कविपति उमापतिविरचितम् वीरविंशतिकाख्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रं समाप्तम् ॥
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