रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल तंत्र पटल १७ में अथर्ववेद
का लक्षण कहा गया है। यह सभी वर्णो के लिए सार रूप है और शक्त्याचार के समन्वय के
रूप मे वर्णित है। फिर ऋगादि वेद, जलचर-भूचर-
खेचर, कुलविद्या, महाविद्या, विन्दुत्रयलयस्थिति, ब्रह्मा-विष्णु-शिव और चौबीस
तत्व आदि सभी अथर्ववेद में निवास करते है। पुरदेवता रूप कुण्डलिनी के चैतन्यकरण में
मात्र छ: मास के अभ्यास की उपादेयता वर्णित है। उस चैतन्य सम्पत्ति से बहुत से
फलों का प्रतिपादन है।
कामरूप मूलाधार मे वह देवी
कुण्डलिनी प्रज्वलित रहती है। तब वह सहस्रदल कमल में शिरोमण्डल में प्रज्वलित होकर
सम्बन्ध स्थापित करती है। तब साधक योगिराड् होकर अत्यन्त परमानन्द में निमग्न हो
जाता है। जब वह भगवती कुण्डलिनी शिर में समागम करके अमृत पान करती है,
तब साधक परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । यहीं पर वायवी सिद्धि
का उपाय वर्णित है। वहाँ मिताहार, मन का संयम, दया, शान्ति, सर्वत्र समबुद्धि,
परमार्थं विचार, भूमि के तल में शर शय्या पर
शयन, गुरु के चरणों में श्रद्धा, अतिथिसत्कार,
ब्रह्मचर्यव्रत का पालन, हर्ष या शोक में
सर्वत्र समभाव, मौन धारण, एकान्त स्थान
का सेवन, बहुत न बोलना, हंसी या हिंसा
से रहित रहना आदि भगवती कुण्डलिनी के चैतन्य करने के साधन हैं। ललाट, भ्रूमध्य, अष्टपुर कण्ठ में, नाभिप्रदेश
में और कटि आदि में स्थित पीठो में वायु निरोधात्मक कुम्भक प्राणायाम से कुण्डलिनी
जागरण का परमोपाय निरूपित है। इस रीति से एक वर्ष तक अभ्यास करने पर महाखेचरता प्राप्त
होती है। इसी वायवी सिद्धि के प्रसङ्ग में साधक रूप से महर्षि वसिष्ठ की चर्चा भी
की गई है।
महर्षिं वसिष्ठ चिरकाल तक तपस्या
करते रहे किन्तु उन्हें साक्षात् विज्ञान नहीं प्राप्त हुआ। इससे क्रुद्ध होकर
महर्षि अपने पिता ब्रह्मा के पास गए और जब उनसे अन्य मन्त्र के लिए कहा और तपोमार्ग
से भगवती की वायवी सिद्धि के लिए उत्साहित किया। तब महर्षि वसिष्ठ ने समुद्र तट पर
एक हजार वर्ष तक जप योग किया। फिर भी सिद्धि जब प्राप्त नहीं हुई तब वे महाविद्या
को शाप देने के लिए उद्यत हए। शाप देते ही भगवती महाविद्या प्रकट हो गई और कहा-
मैं वेद से गोचर नही हूঁ।
आप बौद्ध देश चीन में अथर्ववेद में जाइए" फिर महर्षिं वसिष्ठ चीन गए और वहां भगवान्
बुद्ध ने वसिष्ठ को कुलमार्गं का उपदेश दिया। तभी से शक्ति चक्र,
सत्त्वचक्र, नौ विग्रह और विष्णु का आश्रय
करने वाली भगवती कात्यायनी का जप आरम्भ हुआ। यहाँ भगवती के स्वरूप का भी वर्णन है।
परममार्ग रूप से कुलमार्गं का विधान है जिसका आश्रय लेकर सृष्टि कर्ता ब्रह्मा,
पालनकर्ता विष्णु और संहारकारी रुद्र प्रकट होते है। इस प्रकार के
वर्णन में यहां जीवात्मा और परमात्मा का महान् सम्बन्ध प्रकाशित किया गया है।
रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल सप्तदशः पटलः - अथर्ववेदचक्रस्थाकुण्डलिनीमहिमा
शक्त्याचारस्मन्वितम् अथर्ववेदलक्षणम्
रुद्रयामल सत्रहवां पटल
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
आनन्दभैरवी उवाच
अथ वक्ष्ये महादेव अथर्ववेदलक्षणम्
।
सर्ववर्णस्य सारं हि
शक्त्याचारसमन्वितम् ॥१॥
अथर्वदादुत्पन्नं सामवेदं तमोगुणम्
।
सामवेदाद्यजुर्वेदं महासत्त्वसमुद्भवम्
॥२॥
रजोगुणमयं ब्रह्मा ऋग्वेदं यजुषः
स्थितम् ।
आनन्दभैरवी ने कहा
--- हे महादेव ! अब इसके अनन्तर अथर्ववेद का लक्षण कहती हूँ,
जो शक्त्याचार से समन्वित समस्त वर्णों का स्थिरांश है । अथर्ववेद
से तमोगुण वाला सामवेद उत्पन्न हुआ । पुनः उस सामवेद से समस्त महासत्त्व का
उत्पत्ति स्थान भूत यजुर्वेद उत्पन्न हुआ । उस यजुर्वेद से रजोगुणमय ऋग्वेद
उत्पन्न हुआ, जहाँ ब्रह्मदेव की स्थिति है ॥१ - ३॥
मृणालसूत्रसदृशी अथर्ववेदरुपिणी ॥३॥
अथर्वे सर्ववेदाश्च जलखेचरभूचराः ।
निवसन्ति महा विद्या कुलविद्या
महर्षयः ॥४॥
समाप्तिपत्रशेषार्थं समीपं
लोकमण्डले ।
शक्तिचक्रसमाक्रान्तं
दिव्यभावात्मकं शुभम् ॥५॥
अथर्ववेद रुपिणी यह महाशक्ति
मृणालतन्तु के सदृश है । इस अथर्ववेद में सभी वेद समस्त जलचर,
खेचर तथा भूचर समाहित है । इसमें महाविद्यायें, अनय विद्यायें, कुल विद्या तथा समस्त महर्षिगण निवास
करते हैं । समाप्त होने वाले वाले पत्र पर शेष सभी वस्तुयें हैं जो इस लोकमण्डल की
सीमा से संयुक्त हैं । यह पत्र शक्तिचक्र से समाक्रान्त तथा कल्याण करने वाला
दिव्यभावात्मक है ॥३ - ५॥
तत्रैव वीरभावञ्च तत्रैव पशुभावकम्
।
सर्वभावात् परं तत्त्वमथर्वं
वेदपत्रकम् ॥६॥
द्विबिन्दुनिलयस्थानं ब्रह्माविष्णुशिवात्मकम्
।
चतुर्वेदान्वितं तत्त्वं शरीरं
दृढानिर्मितम् ॥७॥
कारण वेद पत्र वाला यह अथर्व सबका
तत्त्व है । वह दो बिन्दुओं के निलय का स्थान, ब्रह्मा, विष्णु, शिवात्मक यह शरीर तत्त्व चारों वेदों से युक्त
है, इसकी दृढ़तापूर्णक की गई है ॥६ - ७॥
चतुर्विंशतितत्त्वानि सन्ति गात्रे
मनोहरे ।
ब्रह्मा रजोगुणाक्रान्तः
पूरकेनाभिरक्षति ॥८॥
विष्णुः सत्त्वगुनाक्रान्तः
कुम्भकैः स्थिरभावनैः ।
हरस्तमोगुणाक्रान्तो रेचकेणापि
विग्रहम् ॥९॥
इस मनोहर शरीर में चौबीस तत्त्व हैं,
इसकी रक्षा रजोगुण से आक्रान्त ब्रह्मदेव पूरक
प्राणायाम से करते हैं । सत्त्वगुण से आक्रान्त विष्णुदेव
स्थिरभावना वाले कुम्भक प्राणायाम से तथा तमोगुण से आक्रान्त सदाशिव रेचक
के द्वारा इस शरीर की रक्षा करते हैं ॥८ - ९॥
अथर्ववेदचक्रस्था कुण्डली परदेवता ।
एतन्माया तु यो नैव
ब्रह्मविष्णुशिवेन च ॥१०॥
शरीरं देवनिलय्म भक्तं ज्ञात्वा
प्रवक्ष्यति ।
सर्ववेदमयी देवी
सर्वमन्त्रस्वरुपिणी ॥११॥
कुण्डलिनी की महिमा
--- अथर्ववेद के चक्र पर रहने वाली कुण्डलिनी परा शक्ति हैं । यही माया
है जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से अलग रहती है । यह शरीर देवताओं का निवास स्थान है,
जिसे सर्वदेवमयी, सर्व मन्त्र स्वरुपिणी यह
कुण्डलिनी अपने भक्त को ही प्रदान करती है ॥१० - ११॥
सर्वयन्त्रात्मिका विद्या
वेदविद्याप्रकाशिनी ।
चैतन्या सर्वधर्मज्ञा
स्वधर्मस्थानवासिनी ॥१२॥
अचैतन्या ज्ञानरुपा हेमचम्पकमालिनी
।
अकलङ्का निराधारा शुद्धज्ञानमनोजवा
॥१३॥
यह सर्व यन्त्रात्मिका है । यह
विद्या है तथा वेद विद्या का प्रकाश इसी से होता है । यह चैतन्य है । यह सब प्रकार
के धर्मो को जानने वाली है तथा अपने धर्मस्थान पर निवास करती है । यह अचैतन्या एवं
ज्ञानरुपा है । यह सुवर्ण के समान पीत वर्ण की चम्पकमाला धारण करने वाली हैं और
कलङ्क से रहित सर्वक्षा स्वच्छ एवं किसी के आधार पर न रहने वाली शुद्ध ज्ञान
स्वरुपा तथा मन के समान वेगवती है ॥१२ - १३॥
सर्वसङ्कटजन्त्री च सा शरीरं
प्रपाति हि ।
तस्याः कार्यमिदं विश्वं तस्याः
पुण्यानि हन्ति हि ॥१४॥
तस्याचैतन्यकरणे सदा व्याकुलचेतसः ।
महात्मानः प्रसिद्धयन्ति यदि
कुर्वन्ति चेतनाम् ॥१५॥
तस्या अनुग्रहादेव किं न सिद्धयति
भूतले ।
षण्मासाभ्यासयोगेन चैतन्या कुण्डली
भवेत् ॥१६॥
यह सारे सङ्कटों का विनाश करने वाली
है । वही शरीर की रक्षा भी करती है, यह
समस्त विश्व उसी का कार्य है, उसी के पुण्य इस विश्व का
विनाश भी करते हैं । महात्मा लोग उसी को सचैतन्य बनाने के लिए सदा व्याकुल हो कर
यत्न करते रहते हैं यदि उसे सचेतन बना लेते है । तब उसके अनुग्रह से इस भूतल पर
क्या सिद्ध नहीं होता ? छः महीने निरन्तर अभ्यास करते रहने
पर यह कुण्डलिनी चेतना प्राप्त करती है ॥१४ - १६॥
सा देवी वायवी शक्तिः परमाकाशवाहिनी
।
तारिणी वेदमाता च बहिर्याति दिने
दिने ॥१७॥
द्वादशाङ्गुलमानेन आयुः क्षरति
नित्यशः ।
द्वादशाङ्गुलवायुश्च क्षयं
कुर्यादिदने दिने ॥१८॥
यावद् यावद् बहिर्याति कुण्डली
परदेवता ।
तावत्तावत्खण्डलयं भवेद्धि
पापमोक्षणम् ॥१९॥
यही वायवी शक्ति है जो सर्वदा
परमाकाश में बहती रहती है । यह तारने वाली है । वेदों की जननी है तथा प्रतिदिन (
शरीर के ) बाहर जाती रहती है । मनुष्य की आयु १२ अंगुल के प्रमाण से नित्य संक्षरण
करती है । इसलिए पुरुष को चाहिए कि वह १२ अंगुल के वायु का नित्य क्षय करता रहे।
यह पर देवता स्वरुपा,कुण्डलिनी,
जब जब बाहर जाती है तब तब खण्डलय होता रहता है और पाप से छुटकारा
मिलता रहता है॥१७ - १९॥
यदा यदा न क्षरति वायवी
सूक्ष्मरुपिणी ।
बाह्यचन्द्रे महादेव आग्नेयी
सोमण्डले ॥२०॥
मूलाधारे कामरुपे ज्वलन्ती चण्डिका
शिखा ।
यदा शिरोमण्डले च सहस्त्रदलपङ्कजे
॥२१॥
तेजोमयीं सदा याति शिवं कामेश्वरं
प्रभुम् ।
अच्युताख्यं महादेवं तदा ज्ञानी स
योगिरट् ॥२२॥
हे महादेव ! जब यह सूक्ष्मरुपिणी
अग्निदेवता वाली वायवी शक्ति वाह्म चन्द्र वाले सोम - मण्डल में संक्षरण
नहीं करती तब तक कामरुप मूलाधार में यह चण्डिका बन कर शिखा के समान जलती
रहती है । जब यह तेजोमयी शिरो मण्डल में स्थित सहस्त्र दल कमल में कामेश्वर सदाशिव
अच्युत महादेव के समीप जाती है, तब
साधक ज्ञानी एवं योगिराज बन जाता है ॥२० - २२॥
यदि क्षरति सा देवी बाह्रचन्द्रे
मनोलये ।
तदा योगं समाकुर्यात् यावत् शीर्षण
गच्छति ॥२३॥
यदि शीर्षे समागम्यामृतपानं करोति
सा ।
वायवी सूक्ष्मदेहस्था
सूक्ष्मालयप्रिया सती ॥२४॥
तदेव परमा सिद्धिर्भक्तिमार्गो न
संशयः ।
चतुर्वेद ज्ञानसारं अथर्व
परिकीर्तितम् ॥२५॥
जब यह देवी मन को लीन करने वाले
बाह्म चन्द्र में क्षरण करती हैं तब योगारम्भ करना चाहिए,
जिससे यह शिरः प्रदेश से सहस्त्र दल पङ्कज में गमन करे । यदि
सूक्ष्म देह में रहने वाली सूक्ष्मालय प्रिया यह वायवी शक्ति शिरः स्थान के
सहस्त्रदल पङ्कज में जाकर अमृत पान करती है, तभी साधक को
परमा सिद्धि प्राप्त होती है । वही भक्ति मार्ग है । इसमें संशय नहीं । इसलिए
अथर्व चारों वेदों के ज्ञान का सार कहा जाता है ॥२३ - २५॥
अथर्ववेदविद्या च देवता वायवी मता ।
तस्याः सेवनमात्रेण रुद्ररुपो
भवेन्नरः ॥२६॥
केवलं कुम्भकस्था सा एका ब्रह्मप्रकाशिनी
।
अर्थववेद विद्या की देवता वायवी
शक्ति कही गई है । उसके सेवन मात्र से मनुष्य रुद्रस्वरुप बन जाता है । वह
केवल कुम्भक प्राणायाम में अकेले रह कर ब्रह्मविद्या का प्रकाश करती है ॥२६ - २७॥
भैरव उवाच
केन वा वायवी शक्तिः कृपा भवति
पार्वति ॥२७॥
भैरव ने कहा---
हे पार्वती ! यह वायवी शक्ति किससे उत्पन्न होती है और किस प्रकार कृपा करती है ?
॥२७॥
स्थिरचेता भवेत् केन विवेकी वा कथं
भवेत् ।
मन्त्रसिद्धिर्भवेत् केन कायसिद्धिः
कथं भवेत् ॥२८॥
विस्तार्य वद चामुण्डे
आनन्दभैरवेश्वरी ।
साधक अपने चित्त को किस प्रकार
स्थिर करता है ? और किस प्रकार विवेकी बनता है ?
किस प्रकार से मन्त्र की सिद्धि की जाती है ताथा काय की सिद्धि कैसे
होती है ? हे आनन्द
भैरवेश्वरि चामुण्डे ! विस्तार पूर्वक इसका वर्णन कीजिए । ॥२८ - २९॥
आनन्दभैरवी उवाच
श्रृणुष्वैकमनाः शम्भो मम प्राणकुलेश्वर
॥२९॥
आनन्द भैरवी ने कहा -
हे मेरे प्राणकुलेश्वर ! हे शम्भो ! अब सावधान होकर सुनिए ॥२९॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल सप्तदशः पटलः
रुद्रयामल तंत्र सत्रहवां पटल वायवीसिध्दीः
एकवाक्येन सकलं कथयामि समासतः ।
श्रद्धया परया भक्त्या मनोनियमतत्परः
॥३०॥
स प्राप्नोति पराशक्तिं वायवीं
सूक्ष्मरुपिणीम् ।
धैर्यक्षमामिताहारी शान्तियुक्तो
यतिर्महान् ॥३१॥
सत्यवादी ब्रह्मचारी दयाधर्मसुखोदयः
।
मनसः संयमज्ञानी दिगम्बाकलेवरः ॥३२॥
सर्वत्र समबुद्धिश्च
परमार्थविचारवित् ।
शरशयया भूमितले वायवीं परमामृतम्
॥३३॥
वायवी सिद्धि का वर्णन
--- मैं आपके सभी प्रश्नों का संक्षेप में एक वाक्य से उत्तर दे रही हूँ । श्रद्धा
एवं पराभक्ति से जो साधक अपने मन को नियम में तत्पर रखता है,
वह सूक्ष्मरुपिणी वायवी पराशक्ति को प्राप्त कर लेता है । जो धैर्य
धारण करने वाला क्षमावान् परिमित आहार करने वाला शान्ति युक्त, चित्त को संयम में रखने वाला महान् है । सत्यवादी, ब्रह्मचारी, दयावान्, धर्मवान्,
सुख पूर्वक अभ्युदय चाहने वाला, मन के संयम का
उपाय जानने वाला, नग्न वेश में रहने वाला, सभी में समान बुद्धि रखने वाला, परमार्थ के विचार को
जानने वाला, भूमितल पर अथवा चटाई पर सोने वाला साधक है वही
वायवी परमामृत शक्ति को प्राप्त करता है ॥३० - ३३॥
य एवं पिबतिं क्षिप्रं तत्रैव वायवी
कृपा ।
गुरुसेवापरे धीरे
शुद्धसत्त्वतनुप्रभे ॥३४॥
भक्ते अष्टाङनिरते वायवी सुकृपा
भवेत् ।
अतिथिं भोजयेद्यस्तु न भुक्ता
स्वयमेव च ॥३५॥
वायवी कृपा
--- जो इस प्रकार रह कर उस वायवी परमामृत का पान करता हैं उसी पर वायवी शक्ति की
कृपा होती है, जो गुरु की सेवा में
सर्वदा निरत रहने वाला धैर्यवान् शुद्ध सत्त्व से युक्त शरीर वाला, अष्टाङ्ग योग से युक्त भक्त है उस पर वायवी शक्ति की सुकृपा होती है,
जो स्वयं बिना भोजन किए, अतिथि को भोजन कराता
है, उस पर वायवी शक्ति की कृपा होती है ॥३४ - ३५॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो वायवी सुकृपा
ततः ।
अन्तरात्मा माहात्माः कुरुते
वायुधारणम् ॥३६॥
देवगुरौ सत्यबुद्धिर्वायवी सुकृपा
ततः ।
एककालो वृथा याति नैव यस्य महेश्वर
॥३७॥
वायव्यां चित्तमादाय तत्रनिलकृपा
भवेत् ।
विचरन्ति महीमध्ये
योगशिक्षानिबन्धनम् ॥३८॥
प्राणायामेच्छुको यो वा वायवीं
सुकृपा ततः ।
प्रतिवत्सरमानेन पीठे पीठे वसन्ति
ये ॥३९॥
वायवीं प्रजपन्तीह वायवी सुकृपा ततः
।
जो सभी पापों से विनिर्मुक्त है उस
पर वायवी कृपा होती हैं, जो अन्तः करण से
महात्मा है और वायु को धारण करता है । देवता तथा गुरुजनों में सात्त्विक बुद्धि
रखता है उस पर वायवी सुकृपा होती है, हे महेश्वर ! वायवी
शक्ति को चित्त में धारण करने से जिसका एक काल भी व्य़र्थ नहीं जाता, उस पर वायवी कृपा होती है, जो लोग योग शिक्षा से
निपुणता प्राप्त कर पृथ्वी मण्डल में विचरण करते हैं अथवा जो प्राणायाम में
अभिलाषा रखते हैं उन पर वायवी कृपा होती है । जो एक - एक संवत्सर के क्रम से शक्ति
के एक एक पीठ में निवास करते हैं और वायवी शक्ति का जप करते हैं उन पर वायवी शक्ति
की कृपा समझनी चाहिए ॥३६ - ४०॥
अल्पाहारी निरोगी च
विजयानन्दनन्दितः ॥४०॥
वायवीं भजतो योगी वायवी सुकृपा
भवेत् ।
अन्तर्यागे पीठचक्रे चित्तमाधाय
यत्नतः ॥४१॥
नामनिष्ठो धारनाख्यो वायवी सुकृपा
ततः ।
जो स्वल्प आहार करने वाला,
नीरोग, विजया के आनन्द से मस्त रहने वाला योगी
वायवी शक्ति का भजन करता है उस पर वायवी कृपा होती है । जो साधक यत्न पूर्वक
अन्तर्याग रुप पीठचक्र में चित्त को स्थिर कर नाम में निष्ठा रखता हुआ धारण करता
है, उस पर वायवी कृपा होती है ॥४० - ४२॥
पशुभाव समाक्रान्तः सदा रेतोविवर्जितः
॥४२॥
शुक्रमैथुनहीनश्च वायवी सुकृपा ततः
।
अकालेऽपि सकालेऽपि नित्यं
धारणतत्परः ॥४३॥
योगिनामपि सङी यो वायवी सुकृपा ततः
।
जो पशुभाव से समाक्रान्त होकर रेतः
का स्खलन नहीं करता तथा शुक्रपात वाला मैथुन नहीं करता उस पर वायवी सुकृपा होती है
। अकाल में अथवा उत्तम काल में जो नित्य ’धारणा’
में लगा रहता है और योगियों का साथ करता है, उस
पर वायवी कृपा समझनी चाहिए ॥४२ - ४४॥
बन्धुबान्धवहीनश्च
विवेकाक्रान्तमानसः ॥४४॥
शोकाशोकसमं भावं वायवी सुकृपा ततः ।
सर्वदानन्दह्रदयः कालज्ञो भौतसाधनः
॥४५॥
मौनधारणजापश्च वायवी सुकृपा ततः ।
निर्जनस्थाननिरतो निश्चेष्टी
दीनवत्सलः ॥४६॥
जो बन्धु - बान्धव से हीन तथा विवेक
युक्त चित्त वाला है, शोक और हर्ष के भाव
जिसके लिए समान है, उस पर वायवी कृपा समझनी चाहिए । जिसका
ह्रदय सर्वदा आनन्द से परिपूर्ण है, जो काल का ज्ञाता है,
पञ्चभूत शरीर जिसका साधन है, जो मौन धारण करने
वाला तथा जप करने वाला है, उस पर वायवी कृपा समझनी चाहिए ॥४४
- ४६॥
बहुजल्पशून्यश्च स्थिरचेताः
प्रकीर्तितः ।
हास्य सन्तोषहिंसादिरहितः पीठपारगः
॥४७॥
योगशिक्षासमाप्त्यर्थी स्थिरचेताः
प्रकीर्तितः ।
निर्जन स्थान में रहने वाला,
किसी प्रकार की चेष्टा न करने वाला, दोनों के
ऊपर प्रेम करने वाला, अधिक न बोलने वाला पुरुष स्थिरचित्त
कहा जाता है । हास्य, असंतोष, हिंसादि
से रहित, पीठ (आसन) का पारवेत्ता योग शिक्षा की समाप्ति
चाहने वाला साधक स्थिरचित्त कहा जाता है ॥४७ - ४८॥
मत्कुलागमभावो ज्ञो
महाविद्यादिमन्त्रवित् ॥४८॥
सुद्धभक्तियुतः शान्तः स्थिरचेताः
प्रकीर्तितः ।
मेरे कुलागम के समस्त प्रक्रियाओं
को जानने वाला महाविद्या आदि मन्त्रों का जानकार शुद्ध भक्ति से युक्त तथा शान्त
साधक स्थिर चित्त वाला कहा जाता है ॥४८ - ४९॥
मूलाधारे कामरुपे ह्रदि जालन्धरे
तथा ॥४९॥
ललाटे पूर्णगिर्याख्ये उड्डीयाने
तदूर्ध्वके ।
वाराणस्यां भ्रुवोर्मध्ये
ज्वलन्त्यां लोचनत्रये ॥५०॥
मायावत्यां सुखवृत्ते कण्ठे
चाष्टपुरे तथा ।
अयोध्यानां नाभिदेशे कट्यां
काञ्च्यां महेश्वर ॥५१॥
पीठेष्वेतेषु भूलोके चित्तमाधाय
यत्नतः ।
उदरे पूरयेद् वायुं
सूक्ष्मसङ्केतभाषया ॥५२॥
मूलाधार रुपी कामरुप पीठ में,
ह्रदय रुपी जालन्धर पीठ में, ललाट रुपी
पूर्णगिरि पीठ में, उससे ऊपर (मूर्धा) उड्डीयान में, भ्रु के मध्य रुपी वाराणसी में, लोचनत्रय रुपी
ज्वालामुखी में, मुखवृत्त रुपी माया तीर्थ में, कण्ठ रुपी अष्टपुरी में, नाभिदेश रुपी अयोध्या में,
कटिरुपी काञ्चीपुरी में हे महेश्वर ! जो भूलोक के इन पीठों में यत्न
पूर्वक चित्त को लगाकर सूक्ष्म सङ्केत की भाषा से उदर में वायु को पूर्ण बनाता है
॥४९ - ५२॥
पादाङगुष्ठे च जङ्कायां
जानुयुग्मे च मूलके ।
चतुर्दले षड्दले च तथा दशदले तथा
॥५३॥
दले द्वादशके चैव
सिद्धिसिद्धान्तनिर्मले ।
कण्ठे षोडशपत्रे च द्विदले
पूर्णतेजसि ॥५४॥
कैलासाख्ये ब्रह्मन्ध्रपदे
निर्मलतेजसि ।
सहस्त्रारे महापद्मे
कोटिकोटिविधुप्रभे ॥५५॥
चालयित्वा महावायुं कुम्भयित्वा
पुनः पुनः ।
पूरयित्वा रेचयित्वा
रोमकूपाद्विनिर्गतम् ॥५६॥
अपने पैर के दोनों अंगूठों को जंघा
पर तथा दोनो जानुओं को मूलाधार में स्थापित कर चार दल वाले छः दल वाले,
दश दल वाले, सिद्धि सिद्धान्त से निर्मल
द्वादश दल वाले, कण्ठ में रहने वाले सोलह पत्र वाले, पूर्वतेजः स्वरुप में दो दल वाले, करोड़ों करोड़ों चन्द्रमा
की प्रभा के समान सहस्त्र पत्र वाले महापद्य में महावायु को चला चला कर,
पुनः पुनः उसे कुम्भक कर, फिर पूरक करे । तदनन्तर
रेचक कर रोमकूप से निकले हुये ॥५३ - ५६॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १७ स्थिरचित्तसाधक लक्षण
रुद्रयामल सप्तदशः पटलः
रुद्रयामल तंत्र सत्रहवां पटल
तिस्त्रः कोट्यर्धकोटि च यानि
लोमानि मानुषे ।
नाडीमुखानि सर्वाणि धर्मबिन्दुं
च्यवन्ति हि ॥५७॥
यावत्तद्बिन्दुपातश्च तावत्कालं
लयं स्मृतम् ।
तावत्कालं प्राणयोगात्
प्रस्वेदाधमसिद्धिदम् ॥५८॥
अधम सिद्धि का लक्षण
--- मनुष्य के शरीर में होने वाले साढ़े तीन करोड़ रोम हैं वे तथा सभी प्रमुख
नाडियाँ घर्म बिन्दु को चुआते रहते हैं । जब तक इस प्रकार का बिन्दु पात होता रहता
है तब तक लय की स्थिति रहती है, उतने समय तक
अर्थात् प्रस्वेद पर्यन्त किया गया प्राणायाम अधम प्रकार की सिद्धि प्रदान करता
है॥५७- ५८॥
सूक्ष्मवायुसेवया च किन्न सिद्धयति
भूतले ।
लोमकूपे मनो दद्यात् लयस्थाने
मनोरमे ॥५९॥
स्थिरचेता भवेत् शीघ्रं नात्र कार्या
विचारणा ।
वायुसेवां विना नाथ कथं
सिद्धिर्भवेद् भवे ॥६०॥
स्थिरचित्त साधक के लक्षण
--- सूक्ष्म वायु की सेवा से (= प्राणायाम ) इस पृथ्वी तल में कौन सी वस्तु
है जो सिद्ध न हो लोभकूप में जो मनोरम लय का स्थान है उसमें अपने मन को लगाना
चाहिए । ऐसा करने से साधक अपने चित्त को स्थिर कर लेता है,
इसमें संदेह या विचार की आवश्यकता नहीं । हे नाथ ! वायु सेवा
(प्राणयाम) किए बिना इस संसार में भला सिद्धि किस प्रकार प्राप्त हो सकती है ॥५९ -
६०॥
स्थिरचित्तं बिना नाथ मध्यमापि न
जायते ।
स्थाने स्थाने मनो दत्वा वायुना कुम्भकेन
च ॥६१॥
धारयेन्मारुतं मन्त्री कालज्ञानी
दिवानिशम् ।
एकान्तनिर्जने स्थित्वा स्थिरचेता
भवेद् ध्रुवम् ॥६२॥
हे नाथ ! चित्त को स्थिर किए बिना
मध्यमा सिद्धि भी नहीं होती । इसलिए कुम्भक रुप वायु के द्वारा उन उन स्थानों में
मन को लगाना चाहिए । काल का ज्ञान रखते हुये मन्त्रज्ञ साधक किसी एकान्त निर्जन
स्थान में रह कर वायु धारण( प्राणायाम ) करे । ऐसा करने से वह निश्चय ही स्थिर
चित्त वाला हो जाता है ॥६१ - ६२॥
स्थिरचित्तं विना शम्भो सिद्धिः
स्यादुत्तमा कथम् ॥६३॥
निवाह्र पञ्चएन्द्रियसञ्ज्ञकानि
यत्नेन धैर्यायतिरीश्वरस्त्वम् ।
प्राप्नोति मासन्नयसाधनेन विषासवं
भोक्तुमसौ समर्थः ॥६४॥
हे शम्भो ! जब तक चित्त स्थिर न हो
तब उत्तमा सिद्धि भी क्या किसी प्रकार प्राप्त हो सकती है ?
पञ्चेन्द्रिय संज्ञक वालों को अपने वश में कर यति यत्नपूर्वक धीरता
धारण करते हुये एक महीने पर्यन्त वायु का साधन करने से ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता
है और वह विष के आसव को भी पान करने में समर्थ हो जाता है ॥६३ - ६४॥
मासत्रयाभ्या-सुसञ्चयेन
स्थिरेन्द्रियः स्यादधमादिसिद्धिः ।
सा खेचरी सिद्धिरत्र प्रबुद्धा
चतुर्थये मासे तु भवेद्विकल्पनम् ॥६५॥
तीन महीने तक इस प्रकार के अभ्यास
के सञ्चय से साधक की इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है और उसे अधम प्राणायाम की सिद्धि
हो जाती है । फिर चार महीने में उसे प्रबुद्ध होने वाली खेचरी ( आकाशगमत्व )
सिद्धि भी प्राप्त होती है ऐसा विकल्प संभव है ॥६५॥
तदाधिकारी पवनाशनोऽसौ स्थिरासनानन्दसुचेतसा
भुवि ।
प्रकल्पने सिद्धिं
यथार्थगामिनीमुपेति शीघ्रं वरवीरभावम् ॥६६॥
इस भूमण्डल में वह अधिकारी तब हो
सकता है जब स्थिरासन होकर आनन्द युक्त चित्त से वायु पीता रहे अर्थात् प्राणायाम
करता रहे,
ऐसा करते रहने से उसे यथार्थ गामिनी सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह
शीघ्र ही श्रेष्ठ वीरभाव को प्राप्त कर लेता है ॥६६॥
सा वयवी शक्तिनन्तरुपिणी लोभावलीनां
कुहरे महासुखम् ।
ददाति सौख्यं गतिचञ्चल जयं
स्थिराशयत्वं सति शास्त्रकोवदम् ॥६७॥
यह वायवी शाक्ति अनन्त स्वरुपिणी है,
जो रोम समूहों से कुहर में रह कर साधक को महासुख प्रदान करती है,
सौख्य देती है तथा गति चाञ्चल्य प्रदान करती है, जय देती है, अन्तः करण में स्थिरता देती है तथा
शास्त्र का ज्ञान प्रदान करती है ॥६७॥
षण्मासयोगासननिष्ठदेहा
वायुश्रमानन्दरसाप्तविग्रहः ।
विहाय कल्पावितयोगभाव श्रुत्यागमान्
कर्तुमसौ समर्थः ॥६८॥
जो साधक छः महीने तक योगासन (के
अभ्यस) में शरीर को लगा देता है, उसे वायु के
श्रम से आनन्द रस की प्राप्ति होती रह्ती है, फिर वह कल्प
युक्त योगभाव को त्याग कर श्रुति (वेद) तथा आगम (मन्त्र या तन्त्र शास्त्र) की
रचना करने में भी समर्थ हो जाता है ॥६८॥
स्थिरचेता महासिद्धिं प्राप्नोति
नात्र संशयः ।
संवत्सरकृताभ्यासे महाखेचरतां
व्रजेत् ॥६९॥
यावन्निर्गच्छति प्रीता वायवी
शक्तिरुत्तमा ।
नासाग्रमववार्यैव स्थिरचेता महामतिः
॥७०॥
जिसका चित्त स्थिर होता है,
वही महासिद्धि प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं । संवत्सर पर्यन्त
अभ्यास करते रहने पर साधक महाखेचरत्त्व प्राप्त कर लेता है । जब तक यह उत्तमा
वायवी शक्ति, सुखपूर्वक बाहर निकलती रहती है, तब महाबुद्धिमान् नासा के अग्रभाग में चित्त को लगावे, ऐसा करने से वह स्थिर चित्त हो जाता है ॥६९ - ७०॥
चण्डवेगा यदा क्षिप्रमन्तरालं न
गच्छति ।
सर्वत्रगामी स भवेत् तावत्कालं
विचक्षणः ॥७१॥
यदि शीर्षादूर्ध्वदेशे द्वादशाङ्गुलकोपरि
।
गन्तुं समर्थो भगवान् शिवतुल्यो
गणेश्वरः ॥७२॥
सर्वगामी प्रभवेत खेचरी योगिराड्
वशी ।
इति सिद्धिर्वत्सरे स्यात्
स्थिचित्तेन शङ्कर ॥७३॥
प्रचण्ड वेग वाली वायु जब शीघ्रता
से भीतर न प्रवेश करे तब तक वह विचक्षण सर्वत्रगामी हो सकता है । यदि शिरःप्रदेश
के ऊपर १२ अंगुल ऊपर तक साधक जाने में समर्थ हो जावे तो वह शिव के सदृश
भगवान् एवं गणेश्वर है । हे शङ्कर ! एक वर्ष के भीतर स्थिर चित्त होने से सिद्धि
अवश्य हो जाती है, वह साधक आकाशचारी,
सर्वत्रगामी, योगिराट् तथा जितेन्द्रिय हो जाता
है ॥७१ - ७३॥
योगी भूत्वा मनःस्थैर्यं न करोति
यदा भुवि ।
कृच्छ्रेग पदमारुह्य प्रपतेन्नारकी
यथा ॥७४॥
अत एव महाकाल स्थिरचेता भव प्रभो ।
तदा मां प्राप्स्यसि क्षिप्रं
वायवीमष्टसिद्धिदाम् ॥७५॥
यदि साधक इस भूगोल में योगी बन कर
भी मन की स्थिरता का अभ्यास न करे तो वह बड़े कष्ट से ऊचाई पर जा कर भी नारकीय
मनुष्य के समान नीचे गिर जाता है । इसलिए हे महाकाल ! हे प्रभो ! चित्त को स्थिर
रखिए,
तब बड़ी शीघ्रता से आठों प्रकार की सिद्धियों को देने वाली मुझे आप
प्राप्त कर लेंगे ॥७४ - ७५॥
यदि सिद्धो भवेद् भूमौ
वायवीसुकृपादिभिः ।
सदा कामस्थिरो भूत्वा
गोपयेन्मातृजारवत् ॥७६॥
यदि साधक वायवी शक्ति की सुन्दर
कृपा आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त कर ले तो वह सभी कामनाओं से स्थिर हो कर अपनी
सिद्धि को इस प्रकार गोपनीय रखे जैसे कोई अपनी माता के जार(उपपति) को प्रगट नहीं
करता॥७६॥
यदा यदा महादेव योगाबासं करोति यः ।
शिष्येभ्योऽपि सुतेभ्योऽपि दत्वा
कार्यं करोति यः ॥७७॥
तदैव स महासिद्धिं प्राप्नोति नात्र
संशयः ।
संवत्सरं चरेद्धर्मं योगमार्गं हि
दुर्गमम् ॥७८॥
हे महादेव ! जो पुरुष जैसे - जैसे
योगाभ्यास करता है । उसे वह अपने शिष्यों को तथा अपने पुत्रों को भी शिक्षित करते
हुते साधना कार्य करता रहे । उस समय ही वह महासिद्धि प्राप्त कर लेता है,
इसमें संशय नहीं । यतः योगमार्ग बहुत दुर्गम है । अतः संवत्सर
पर्यन्त धर्म का आचरण करते रहना चाहिए ॥७७ - ७८॥
प्रकाशयेन्न कदापि कृत्वा
मृत्युमवाप्नुयात् ।
योगयोगाद् भवेन्मोक्षो
मन्त्रसिद्धिरखण्डिता ॥७९॥
न प्रकाश्यमतो योगं
भुक्तिमुक्तिफलाय च ।
नित्यं सुखं महाधर्मं प्राप्नोति
वत्सराद् बहिः ॥८०॥
योगमार्ग में सिद्धि प्राप्त कर
लेने पर साधक उसे कदापि प्रगट न करे । यदि सबको प्रगट कर देता है तो वह मृत्यु को
प्राप्त करता है । योग से युक्त हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और
मन्त्रसिद्धि भी खण्डित नहीं होती । यतः योग ’भोग
और मोक्ष’ दोनों प्रकार का फल देने वाला है, इसलिए उसे प्रकाशित न करे । एक संवत्सर से ऊपर बीत जाने पर साधक योगाभ्यास
से सुख तथा महाधर्म प्राप्त करने लग जाता है ॥७९ - ८०॥
आत्मसुखं नित्यसुखं मन्त्रं यन्त्रं
तथागमम ।
प्रकाशयेन्न कदापि कुलमार्ग
कुलेश्वर ॥८१॥
यद्येवं कुरुते धर्मं तदा
मरणमाप्नुयात् ।
योगभ्रष्टो विज्ञानज्ञोऽजडो
मृत्युमवाप्नुयात् ॥८२॥
आत्मानन्द का सुख,
नित्य सुख, मन्त्र, यन्त्र
तथा आगम शास्त्र तथा कुलमार्ग कुण्डलिनी का ज्ञान हो जाने पर, हे कुलेश्वर ! उसे कदापि प्रकाशित नहीं करना चाहिए । यदि इस प्रकार के
धर्म का आचरण करे तो उसकी मृत्यु नहीं होती । योग से भ्रष्ट हो जाने वाला एवं
विधान को न जानने वाला चाहे कितना भी पण्डित हो वह मृत्यु अवश्य प्राप्त करता है
॥८१ - ८२॥
येन मृत्युवशो याति तत्कार्यं नापि
दर्शयेत् ।
दत्तात्रेयो महायोगी शुको नारद एव च
॥८३॥
येन कृतं सिद्धिमन्त्रं वर्णजालं
कुलार्णवम् ।
एकेन लोकनाथेन योगमार्गपरेण च ॥८४॥
तथा मङुलकार्येण ध्यानेन साधकोत्तमः
।
उत्तमां सिद्धिमाप्नोति वत्सराद्
योगशासनात् ॥८५॥
जिसके प्रकाशित करने से साधक मृत्यु
के वश में जा सकता हैं उस कार्य को कदापि प्रकाशित न करे । दत्तात्रेय,
महायोगी शुक्र, और नारद इनमें
से प्रत्येक लोगों ने कुलार्णव के समस्त मन्त्र जालों को सिद्ध किया था। योगमार्ग
प्रदर्शित करने वाले, लोक को वश में करने वाले एवं समस्त मङ्गल
प्रदान करने वाले केवल एक ही मन्त्र से साधकोत्तम अपने ध्यान की सहायता से
योगशास्त्र के अनुसार एक संवत्सर में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥८३ - ८५॥
आदौ वै ब्रह्मणो ध्यानं
पूरकाष्टाङुलक्षणैः ।
कुर्यात्
सकलसिद्ध्यर्थमम्बिकापूजनेन च ॥८६॥
ऋगवेदं चेतसि ध्यात्वा मूलाधारे
चतुद्र्दले ।
वायुना चन्द्ररुपेण धारयेन्मारुतं
सुधीः ॥८७॥
सर्वप्रथम पूरक प्राणायाम कर (
अष्टाङ्ग विशिष्ट ) लक्षण योग से ब्रह्मदेव का ध्यान करना चाहिए । फिर समस्त
प्रकार की सिद्धि की प्राप्ति के लिए अम्बिका का पूजन करे । मूलाधार स्थित
चतुर्दल कमल में अपने चित्त में ऋग्वेद का ध्यान कर सुधी साधक चन्द्ररुप वायु से
वायु धारण ( प्राणायाम ) करे ॥८६ - ८७॥
अथर्वान्निर्गतं सर्वं ऋग्वेदादि
चराचरम् ।
तेन पूर्णचन्द्रमसा जीवेनार्यामृतेन
च ॥८८॥
जुहुयादेकाभावेन कुण्डलीसूर्यगोऽनले
।
कुम्भक कारयेन्मन्त्री
यजुर्वेदपुरःसरम् ॥८९॥
अथर्ववेद से समस्त ऋग्वेदादि चराचर
निकले हुये है । इसलिए उस चन्द्रमा से निर्गत अमृत द्वारा कुण्डलिनी रुप
सूर्यग्नि में होम करना चाहिए । मन्त्र वेत्ता यजुर्वेद को आगे रखकर कुम्भक
प्राणायाम करे ॥८८ - ८९॥
सर्वसत्त्वाधिष्ठितं तत्
सर्वविज्ञानमुत्तमम् ।
वायव्याः पूर्णसंस्थानं
योगिनामभिधायकम् ॥९०॥
पुनः पुनः कुम्भयित्वा सत्त्वे
निर्मलतेजसि ।
महाप्रलयसारज्ञो भवतीति न संशयः
॥९१॥
रेचकं शम्भुना व्याप्तं
तमोगुणमनोलयम् ।
सर्वमृत्युकुलस्थानं व्याप्तं
धर्मफलाफलैः ॥९२॥
कुम्भक समस्त सत्त्वों से अधिष्ठित
है और वह सभी विज्ञानों में उत्तम है । वायवी शक्ति का पूर्व रुप से स्थान है तथ
योगियों के द्वारा प्रशंसित है । बारम्बार निर्मल तेज वाले सत्त्व में कुम्भक
प्राणायाम कर साधक महा प्रलय के सार का मर्मज्ञ हो जाता है इसमें संशय नहीं । रेचक
प्राणायाम शिव से व्याप्त है । वह तमोगुण वाले मन को अपने में लीन कर लेता
है । समस्त मृत्यु रुप कुल का स्थान है तथा धर्म के फलाफल से व्याप्त है ॥९० - ९२॥
पुनः पुनः क्षोभनिष्ठा रेचकेन
निवर्तते ।
रेचकेन लयं याति रेचनेन परं पदम्
॥९३॥
प्राप्नोति साधकश्रेष्ठो रेचकेनापि
सिद्धिभाक् ।
रेचकं वहिनरुपञ्च कोटिवहिनशिखोज्ज्वलम्
॥९४॥
द्वादशाङुगुलमध्यस्थं ध्यात्वा
बाह्ये लयं दिशेत् ।
चन्द्रव्याप्तं सर्वलोकं
सर्वपुण्यसमुद्भवम् ॥९५॥
पुनः पुनः होने वाली चञ्चलता रेचक
से दूर हो जाती है । रेचक से चञ्चलता लय को प्राप्त होती है,
रेचक से परम पद की प्राप्ति होती है । श्रेष्ठ साधक केवल रेचक से भी
सिद्धि का अधिकारी हो जाता है । रेचक वह अग्नि है जो करोड़ों - करोड़ों अग्नि
ज्वाला से उज्वल है । यह बारह अंगुला के मध्य में रहने वाला है इसका ध्यान कर
बाह्म लय करना चाहिए । सब प्रकार के पुण्यों से उत्पन्न यह समस्त लोक चन्द्रमा
से व्याप्त है ॥९३ - ९५॥
रेचकाग्निर्दहतीह वायुसख्यो महाबली
।
तत् शशाङ्कजीवरुपं जीवति वायवी ॥९६॥
आग्नेयी दह्याति क्षिप्रं एष होमः
परो मतः ।
एतत् कार्यं यः करोति स न मृत्युवशो
भवेत् ॥९७॥
वायु की मित्रता वाली महाबली
रेचकाग्नि उसे जलाती रहती है । इस प्रकार वायवी कला शशाङ्क जीवरुप को पी कर वहा
सर्वदा जीवित रहती है । आग्नेयी उस वायु को शीघ्र जलाती रहती हैं,
यहा सबसे उत्कृष्ट होम है जो इस कार्य को करता है, वह मृत्यु के वश में नहीं जाता ॥९६ - ९७॥
एतयोः सन्धिकालञ्च कुम्भंक तत्त्वसाधनम्
।
तदेव भावकानाञ्च परमस्थानमेव च ॥९८॥
महाकुम्भलाकृत्या स्थिरं स्थित्त्वा
च कुम्भके ।
अथर्वगामिनीं देवीं भावयेदमरो महान्
॥९९॥
कुम्भक
--- इस वायवी तथा रेचकाग्नि को मिलाने वाला कुम्भक उस तत्त्व का साधन है,
जो उन भावुकों के लिए परमस्थान कहा जाता है । महाकुम्भ की कला की
आकृती वाले कुम्भक में स्थिर रुप से स्थित रह कर अमर महान् साधक अथर्ववेद में रहने
वाली ( योगिनी ) देवी का ध्यान करे ॥९८ - ९९।
अननतभावनं शभ्भोरशेषसृष्टिशोभितम् ।
अथर्वं भावयेन्मन्त्री
शक्तिचक्रक्रमेण तु ॥१००॥
आज्ञाचक्रे वेददले चतुर्दलसुमन्दिरे
।
अथर्वयोगिनीं ध्यायेत् समाधिस्थेन
चेतसा ॥१०१॥
यह अथर्व अनन्त भावना वाला है । सदाशिव
की समस्त सृष्टि से शोभित है । उसका शक्ति चक्र के क्रम मन्त्रवेत्ता साधक
ध्यान करे । आज्ञाचक्र में चार पत्तों वाला कमल है उस चतुर्दल कमल कोष में अथर्व
रुप योगिनी का समाधि में स्थित चित्त से ध्यान करे ॥१०० - १०१॥
ततोऽच्युताख्यं जगतामीश्वरं
शीर्षपङ्कजे ।
प्रपश्यति जगन्नाथं
नित्यसूक्श्मसुखोदयम् ॥१०२॥
आज्ञाचक्रे शोधनमशेष्रदलमथर्वं
परिकीर्तितम् ।
ज्योतिश्चक्रे तन्मध्ये योगमार्गेण
सद्बिलम् ॥१०३॥
तदनन्तर शीर्षस्थ कमल में जगत् के ईश्वर
जिन्हें अच्युत कहा जाता है उन जगन्नाथ का दर्शन होता है,
जो नित्य सूक्ष्म तथा सुखोदय स्वरुप हैं । इस आज्ञाचक्र में जिसका
संपूर्ण दल शुद्ध करने वाला है वही अथर्व नाम से पुकारा जाता है उसी के मध्य में
ज्योतिश्चक्र है जिसका उत्तम बिल (द्वार) योगामार्ग से जाना जाता है ॥१०२ - १०३॥
प्रपश्यति महाज्ञानी बाह्यदृष्ट्या
यथाम्बुजम् ।
कालेन सिद्धिमाप्नोति ब्रह्माज्ञानी
च साधकः ॥१०४॥
ततो भजेत् कौलमार्गं ततो विद्यां
प्रपश्यति ।
महाविद्यां
कोटिसूर्यज्वालामालासमाकुलम् ॥१०५॥
महाज्ञानी बाह्म दृष्टि से जिस
प्रकार कमल देखते हैं उसी प्रकार उस द्वार का भी दर्शन करते है जिससे ब्रह्मज्ञानी
साधक काल ( समय ) पाकर सिद्धि प्राप्त करते हैं । इसलिए कौलमार्ग का आश्रय लेना
चाहिए । तभी महाविद्या का दर्शन संभव है । वह महाविद्या करोड़ों सूर्य की
ज्वालामाला से व्याप्त है ॥१०४ - १०५॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल सप्तदश पटल -
बुद्धवसिष्ठवृत्तान्त
रुद्रयामल तंत्र सत्रहवां पटल
एतत्तत्त्वं विना नाथ न पश्यति
कदाचन ।
वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रोऽपि चिरकालं सुसाधनम्
॥१०६॥
चकार निर्जने देशे कृच्छ्रेण तपसा
वशी ।
शतसहस्त्र्म वत्सरं च व्याप्य
योगादिसाधनम् ॥१०७॥
बुद्ध - वशिष्ठ वृत्तान्त
--- हे नाथ ! यही तत्त्व है, जिसके बिना
महाविद्या का दर्शन नहीं होता । ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ जी ने भी बहुत काल तक
निर्जन स्थान में निवास कर बहुत बड़ी कठिन तपस्या से श्रेष्ठ साधन किया । इस
प्रकारा वे योगादि साधन निरान्तर एक लाख वर्ष तक करते रहे ॥१०६ - १०७॥
तथापि साक्षिद्विज्ञानं न बभूव
महितले ।
ततो जगाम क्रुद्धोऽसौ तातस्य निकटे
प्रभुः ॥१०८॥
सर्वं तत् कथयामास स्वीयाचारक्रमं
प्रभो ।
अन्यमन्त्रं देहि नाथ एषा विद्या न
सिद्धिदा ॥१०९॥
इतना करने पर भी उन्हें इस पृथ्वीतल
पर साक्षाद् महाविद्या का विज्ञान नहीं हुआ । तब सर्वसमर्थ वशिष्ठ ऋषि क्रुद्ध हो
कर अपने पिता ब्रह्मदेव के पास गये । हे प्रभो ! वहाँ जाकर उन्होंने अपने पिता से
सभी आचार का क्रम बतलाया और कहा -हे पिता ! मुझे अन्य मन्त्र प्रदान कीजिये।
क्योंकि यह विद्या सिद्धि नहीं देती॥१०८- १०९॥
अन्यथा सुदृढं शापं तवाग्रे
प्रददामि हि ।
ततस्वं वारयामास एवं न कुरु भो सुत
॥११०॥
पुनस्तां भज भावेन योगमार्गेण
पण्डित ।
ततः सा वरदा भूत्वा आगमिष्यति तेऽग्रतः
॥१११॥
यदि आप ऐसा नहीं करते तो मैं उस
महाविद्या को आप के आगे ही दृढ़्तर शाप दूँगा । तब ब्रह्मा ने उन्हें मना
किया कि हे पुत्र ! ऐसा मत करो । हे पण्डित ! तुम पुनः भावपूर्वक ’योग-मार्ग’ से उन महाविद्या की आराधना करो । पुनः
ऐसा करने से वहा वरदायिनी बन कर तुम्हारे आगे आएंगी ॥११० - १११॥
सा देवी परमा शक्तिः सर्वसङ्कतारिणी
।
कोटिसूर्यप्रभा नीला
चन्द्रकोटिसुशीतला ॥११२॥
स्थिरविद्युल्लताकोटिसदृशी
कालकामिनी ।
सा पाति जगतां लोकान् तस्याः कर्म
चराचरम् ॥११३॥
वह देवी परमा शक्ति है । समस्त
सङकटों से तरण तारण करने वाली है । वहा करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमती
तथा नीलवर्णा हैं और करोड़ों चन्द्रमा के समान सुशीतल भी हैं । सर्वदा स्थिर
रहने वाली और करोड़ों विद्युल्लता के समान प्रकाश करने वाली महाकाल की
कामिनी है । वह समस्त जगत् के लोगों का पालन करने वाली हैं,
यह चराचर जगत् उन्ही का कार्य है ॥११२ - ११३॥
भज पुत्र स्थिरानन्द कथं शप्तुं
समुद्यतः ।
एकान्तचेतसा नित्यं भज पुत्र
दयानिधि ॥११४॥
हे स्थिरानन्दा ! हे पुत्र ! तुम
उन्ही का भजन करो । उन्हे शाप देने के लिए क्यों उद्यत हो ?
हे दयानिधे ! हे पुत्र ! तुम मन को एकाग्र कर निरन्तर भजन करो ॥११४॥
तस्या दर्शनमेवं हि अवश्यं
समवाप्स्यसि ।
एतत् श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं प्रणम्य
च पुनः पुनः ॥११५॥
जगाम जलधेस्तीरे वशी वेदान्तवित्
शुचिः ।
सहस्त्रवत्सरं सम्यक् जजाप परमं
जपम् ॥११६॥
ऐसा करते रहने से आप उनका दर्शन
अवश्य प्राप्त करेंगे । अपने पिता ब्रह्मा की इस बात को सुनकर वेदान्तवेत्ता,
परम पवित्र, इन्द्रियों को वश में रखने वाले
वशिष्ठ जी बारम्बार उन्हें प्रणाम कर समुद्र के किनारे गये । वहाँ जाकर उन्होंने
पुनः एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त नियमपूर्वक देवी के श्रेष्ठ मन्त्र का जप किया ॥११५
- ११६॥
आदेशोऽपि न बभूव ततः क्रोधपरो मुनिः
।
व्याकुलात्मा महाविद्यां वसिष्ठः
शप्तुमुद्यतः ॥११७॥
द्विराचम्य महाशापः प्रदत्तश्च
सुदारुणः ।
तेनैव मुनिना नाथ मुनेरग्रे
कुलेश्वरी ॥११८॥
इतना कहने पर भी जब देवी का कोई
संदेश नहीं प्राप्त हुआ । तब वे मुनि बहुत क्रुद्ध हो उठे और व्याकुल चित्त हो कर
महाविद्या को शाप देने के लिए उद्यत हो गये । उन्होंने दो बार आचमन किया फिर बहुत
कठिन शाप दिया । तब वह कुलेश्वरी मुनि के आगे आ कर खड़ी हो गईं ॥११७ - ११८॥
आजगाम महाविद्या योगिनामभयप्रदा ।
अकारनमरे विप्र शापो दत्तः सुदारुणः
॥११९॥
योगियों को अभयदान देने वाली
महाविद्या ने वशिष्ठ से कहा - हे ब्राह्मण ! तुमने अकारण ही ऐसा कठिन शाप दिया
॥११९॥
मम सेवाम न जानाति मत्कुलागम्
चिन्तनम् ।
कथं योगाभ्यासवशात्
मत्पदम्भोजदर्शनम् ॥१२०॥
प्राप्नोति मानुषो देवे
मनध्यानमदुःखदम् ।
यः कुलार्थी सिद्धमन्त्री
मद्वेदाचार निर्मलः ॥१२१॥
ममैव साधनं पुण्य़ं वेदानामप्यगोचरम्
।
बौद्धदेशेऽर्ववेदे महाचीने तदा व्रज
॥१२२॥
तुम न तो मेरी सेवा का विधान जानते
हो और न मेरे कुलागम के चिन्तन का प्रकार ही जानते हो । कोई भी मनुष्य य़ोगाभ्यास
मात्र से मेरे चरण कमलों का दर्शन किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ?
देवताओं में मन द्वारा किया गया ध्यान सुख का कारण होता है । सिद्ध
मन्त्रज्ञ और मेरे वेद का स्वच्छ रुप से आचरण करने वाला शक्ति मार्ग का अधिकारी तो
वेद से भी अगोचर मेरा ही साधन करता है जो महापुण्यदायक है । अतः यदि तुम मेरी
साधना चाहते हो तो अथर्ववेद वाले बौद्धों के देश महाचीन में जाओ ॥१२० - १२२॥
तत्र गत्वा महाभावं विलोक्य
मत्पदाम्बुजम ।
मत्कुलज्ञो महर्षे त्वं महासिद्धो
भविष्यसि ॥१२३॥
एतद्वाक्यं कथयित्वा सा
वायव्याकाशवाहिनी ।
निराकाराऽभवत् शीघ्रं ततः
साकाशवाहिनी ॥१२४॥
हे महर्षे ! वहाँ जाकर अत्यन्त
भावपूर्वक मेरी साधना से मेरे चरण कमलों का दर्शन करोगे,
मेरा कुलाचार जान लोगे तब महासिद्ध हो जाओगे । आकाश में रहने वाली
उस वायवी शक्ति ने इतना कह कर शीघ्र ही निराकार रुप धारण कर लिया ॥१२३ - १२४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल सप्तदश पटल
रुद्रयामल तंत्र सत्रहवां पटल वसिष्ठ
गमन
ततो मुनिवरः श्रुत्वा महाविद्यां
सरस्वतीम् ।
जगाम चीनभूमौ च यत्र बुद्धः
प्रतिष्ठति ॥१२५॥
पुनः पुनः प्रणम्यासौ वसिष्ठः
क्षितिमण्डले ।
रक्ष रक्ष महादेव सूक्ष्मरुपधराव्यय
॥१२६॥
तदनन्तर उन श्रेष्ठ महामुनि वशिष्ठ
ने महाविद्या सरस्वती के द्वारा कहे गये वाक्य को सुनकर फिर वे चीन देश को चले गये,
जहाँ बुद्ध प्रतिष्ठित हैं । महामुनि वशिष्ठ ने उस देश में जाकर
बारम्बार प्रणाम कर कहा - हे सूक्ष्मरुप ! हे अव्यय ! हे महादेव ! मेरी रक्षा करो,
मेरी रक्षा करो ॥१२५ - १२६॥
अतिदीनं वसिष्ठं मां सदा
व्याकुलचेतसम् ।
ब्रह्मपुत्रो महादेवीसाधनायाजगाम च
॥१२७॥
सिद्धिमार्गं न जानमि वेदमार्गपरो
हर ।
तवाचारं समालोक्य भयानि सन्ति मे
ह्रदि ॥१२८॥
मैं अत्यन्त दीन वशिष्ठ हूँ तथा
सर्वदा मन्त्र साधन के लिए चित्त से व्याकुल रहने वाला हूँ,
ब्रह्मदेव का पुत्र हूँ, तथा महादेवी की
आराधना के लिए आया हुआ हूँ आपके ( सिद्धि ) मार्ग को देखकर मेरे हृदय में अनेक भय
उत्पन्न हो रहे हैं ॥१२७ - १२८॥
तन्नाशय नम क्षिप्रं दुर्बुद्धिं
भेदगामिनीम् ।
वेदबहिष्कृतं कर्म सदा ते चालये
प्रभो ॥१२९॥
कथमेतत् प्रकारञ्च मद्यं मांसं
तथाङनाम् ।
सर्वे दिगम्बराः सिद्धा
रक्तपानोद्यता वराः ॥१३०॥
इसलिए भेद में पडी़ हुई मेरी
दुर्बुद्धि का शीघ्र ही विनाश कीजिये । हे प्रभो ! अब मैं आपके वेद बहिष्कृत मार्ग
का सर्वदा प्रचार करुँगा । मद्य मांस तथा अङ्गना सेवन
का यह कौन सा प्रकार है ? जिससे ये नग्न रहने
वाले रक्तपायी सभी जन श्रेष्ठ तथा सिद्ध हो जाते हैं ॥१२९ - १३०॥
मुहुर्मुहुः प्रपिबन्ति रमयन्ति
वराङनाम् ।
सदा मांसासवैः पूर्णा मत्ता
रक्तविलोचनाः ॥१३१॥
निग्रहानुग्रहे शक्ताः
पूर्णान्तःकरणोद्यताः ।
वेदस्तागोचराः सर्वे
मद्यस्त्रीसेवने रताः ॥१३२॥
ये बारम्बार मद्य पान करते हैं
वराङ्गनाओं को रमण कराते है, मद्य, मांस तथा आसव से उदर पूर्ति करते हैं इनके नेत्र मद्य से निरन्तर लाल रहते
हैं तथा उन्मत्त वेष धारण किए रहते हैं । ये निग्रह और अनुग्रह ( कोप तथा प्रसाद )
में समर्थ हैं । ये अन्तः करण से परिपूर्ण हैं ये मद्य एवं स्त्री सेवन में सर्वदा
निरत हैं, जो वेद से सर्वथा परे हैं ॥१३१ - १३२॥
0इत्युवाच महायोगी दृष्टवा
वेदबहिष्कृतम् ।
प्राञ्जलिर्विनयाविष्टो वद चैतत्
कुलं प्रभो ॥१३३॥
मनःप्रवृत्तिरेतेषां कथं भवति पावन
।
कथं वा जायते सिद्धिर्वेदकार्यं बिना
प्रभो ॥१३४॥
वेद बहिष्कृतों को देखकर महायोगी
वशिष्ठ ने हाथ जोड़कर विनय वेष धारण करते हुये बुद्ध से कहा - कि हे प्रभो ! आप
इसका कारण कहिये कि यह कुलमार्ग क्या है ? ।
हे पावन ! इनके मन की प्रवृत्ति इन कार्यां में किस प्रकार होती है और हे प्रभो !
वेद कार्य के बिना इन्हे किस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है ? ॥१३३ - १३४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १७
रुद्रयामल सप्तदशः पटलः -
अमहाचीनाचारः
रुद्रयामल तंत्र सत्रहवां पटल
श्रीबुद्ध उवाच
वसिष्ठ श्रृणु वक्ष्यामि
कुलमार्गनुत्तमम् ।
येन विज्ञातमात्रेण रुद्ररुपी भवेत्
क्षणात् ॥१३५॥
साक्षेपेण सर्वसारं
कुलसिद्ध्यर्थमागमम ।
तब श्रीबुद्ध ने कहा --- हे
वशिष्ठ ! सुनिए, मैं सर्वश्रेष्ठ कुलमार्ग कहता
हूँ, जिसके विज्ञान मात्र से साधक क्षण मात्र में रुद्रस्वरुप
हो जाता है । संक्षेप में कुलमार्ग की सिद्धि के लिए आगम को कहता हूँ जो सबका
स्थिर अंश है ॥१३५ - १३६॥
आदौ शुचिर्भवेद्
विवेकाक्रान्तमानसः ॥१३६॥
पशुभावस्थिरचेताः पशुसङुविवर्जितः ।
एकाकी निर्जने स्थित्वा
कामक्रोधादिवर्जितः ॥१३७॥
दमयोगाभ्यासरतो योगशिक्षादृढव्रतः ।
वेदमार्गाश्रयो नित्यं
वेदार्थनिपुणो महान् ॥१३८॥
१ . सर्वप्रथम विवेक चाहने वाला धीर
साधक पवित्र रहे। २ . पशुओं का साथ न करे , किन्तु
पशुभाव में चित्त को स्थिर रखे । ३ . अकेला निर्जन बन में निवास करे तथा काम
क्रोधादि दोषों से अलग रहे । ४ . इन्द्रियों का दमन करते हुये योगाभ्यास करे । ५ .
योगशिक्षा में दृढ़ता का नियम रखे, निरन्तर वेदमार्ग का
आश्रय ले कर वेदार्थ में महती निपुणता प्राप्त करें ॥१३६ - १३८॥
एवं क्रमेण धर्मात्मा शीलो
दाढ्योगुणान्वितः ।
धारयेन्मारुतं नित्यं श्वासमार्गे
मनोलयम् ॥१३९॥
एवमभ्यासयोगेन वशी योगी दिने दिने ।
शनैः क्रमाभ्यासाद् दहेद्
स्वेदोद्गमोऽधमः ॥१४०॥
इस प्रकार के क्रमशः अभ्यास से
धर्मात्मा, शीलवान् और दृढ़ना गुण से
संपन्न साधक ( प्राणायाम द्वारा ) वायु को धारण करे तथा श्वास मार्ग में अपने मन
का लय करे । इन्द्रिनों को वश में रखने वाला योगी इस प्रकार प्रतिदिन के अभ्यास से
धीरे - धीरे अधम सिद्धि ( द्र० , १७ . ५८ ) में प्राप्त
स्वेद के उद्गम को भस्म कर देवे ॥१३९ - १४०॥
मध्यमः कल्पसंयुक्तो भूमित्यागः परो
मतः ।
प्रानयामेन सिद्धिः स्यान्नरो
योगेश्वरो भवेत् ॥१४१॥
मध्यम कल्प संयुक्त भूमित्याग (
भूमि से ऊपर उठाने वाला प्राणायाम ) उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ होने के कारण मध्यम है ।
क्योंकि प्राणायाम से सिद्धि होती हैं और साधक मनुष्य योगेश्वर बन जाता है ॥१४१॥
योगी भूत्वा कुम्भकज्ञो मौनी भक्तो
दिवानिशम् ।
शिवे कृष्णे ब्रह्मपदे
एकान्तभक्तिसंयुतः ॥१४२॥
ब्रह्मविष्णुशिवा एते
वायवीगतिचञ्चला ।
एवं विभाव्य मनसा कर्मणा वचसा शुचिः
॥१४३॥
आदौ चित्तं समाधाय चिद्रुपायां
स्थिराशयः ।
ततो महावीरभावं कुलमार्गं महोदयम्
॥१४४॥
महावीर भाव के लक्षण ---
योगी बन कर कुम्भक का ज्ञान करे । दिन रात मौन धारण करे और (एकाग्र मन से) शिव
कृष्ण तथा ब्रह्मपद में निश्चल भक्ति रखकर भक्त बने । ब्रह्मा,
विष्णु तथा शिव ये वायवी गति से
चञ्चल रहते हैं, ऐसा विचार कर मन से, कर्म
से तथा वचन से पवित्र रहकर चित्त को एकाग्र कर चिद्रुपा महाविद्या में सर्व प्रथम
मन को समाहित करे । यही महाभ्युदय कारक कुलमार्ग महावीर भाव कहा जाता है ॥१४२ -
१४४॥
शक्तिचक्रं सत्त्वचक्रं वैष्णवं
नवविग्रहम् ।
समाश्रित्य भजेन्मन्त्री
कुलकात्यायनीं पराम् ॥१४५॥
प्रत्यक्षदेवतां श्रीदां
चण्डोद्वेगनिकृन्तिनीम् ।
चिद्रुपां ज्ञाननिलयां
चैतन्यानन्दविग्रहाम् ॥१४६॥
कोटिसौदामिनीभासां
सर्वतत्त्वस्वरुपिणीम् ।
अष्टादशभुजा रौद्रीं
शिवमांसाचलप्रियाम् ॥१४७॥
वीरभाव की प्रक्रिया ---
शक्तिचक्र तथा नवीन विग्रह वाला वैष्णव सत्त्वचक्र का आश्रय ले कर मन्त्रज्ञ साधक
कुल में रहने वाली परा कात्यायनी की सेवा करे । यह कात्यायनी
प्रत्यक्ष देवता हैं और श्री प्रदान करने वाली हैं। यह प्रचण्ड उद्वेण को नाश करने
वाली,
चित्स्वरुपा, ज्ञाननिलया और चैतन्यानन्द
स्वरुपिणी है । इनकी कान्ति करोड़ों विद्युत् के समान हैं, सर्वसत्त्व
स्वरुपा अठारह भुजा वाली हैं शिव में, मांस (बलि) में
तथा अचल (कैलासादि) में प्रेम करने वाली हैं ॥१४५ - १४७॥
आश्रित्य प्रजपेन्मन्त्रं
कुलमार्गाश्रयो नरः ।
कुलमार्गात् परं मार्गं को जानाति
जगत्त्रये ॥१४८॥
एतन्मार्गप्रसादेन ब्रह्मा
स्त्रष्टा स्वयं महान् ।
विष्णुश्च पालने शक्तो निर्मलः
सत्त्वरुपधृक् ॥१४९॥
सर्वसेव्यो महापूज्यो यजुर्वेदाधिपो
महान् ।
हरः संहारकर्त्ता च वीरेशोत्तममानसः
॥१५०॥
कुलमार्ग का आश्रय लेने वाला साधक
इन्हीं का आश्रय लेकर मन्त्र का जप करे । इस त्रिलोकी में कुलमार्ग से श्रेष्ठ
अन्य मार्ग को कौन जानता है । इस कुलमार्ग की कृपा से ब्रह्मदेव महान् बन गये तथा
सत्त्वरुपधारी एवं निर्मल विष्णु सृष्टि पालन करने में समर्थ हो गये । सदाशिव
इस कुलमार्ग की कृपा से सबके सेवनीय सर्वपूज्य, यजुर्वेद
के अधिपतिः महान् वीरेश तथा उत्तम मन वाले हो गए ॥१४८ - १५०॥
सर्वेषामन्तकः क्रोधी क्रोधराजो
महाबली ।
वीरभावप्रसादेन दिक्पाला
रुद्ररुपिणः ॥१५१॥
वीराधीनमिदं विश्वं कुलाधीनञ्च
वीरकम् ।
अतः कुलं समाश्रित्य
सर्वसिद्धीश्वरो जडः ॥१५२॥
वे सभी के काल,
क्रोध करने वाले, क्रोधराज तथा महाबली हो गये
। वीरभाव की कृपा से सभी दिक्पाल रुद्ररुप वाले हो गये । यहा सारा विश्व
वीरभाव के अधीन है और वीरभाव कुल मार्ग के अधीन है, इसलिए
जड़ (जल) कुल मार्ग का आश्रय ले कर सर्व सिद्धिश्वर बन गया ॥१५१ - १५२॥
मासेनाकर्षणं सिद्धिर्द्धिमासे वाक्पतिर्भवेत्
।
मासत्रयेण संयोगाज्ज्ञायते
सुखवल्लभः ॥१५३॥
एवं चतुष्टये मासि भवेद्
दिक्पालगोचरः ।
पञ्चमे पञ्चबाणः स्यात्षष्ठे रुद्रो
भवेद् ध्रुवम् ॥१५४॥
साधक को मास मात्र के अभ्यास से
सिद्धि का आकर्षण प्राप्त होता है, दो
मास के अभ्यास से वह वाक्पति बन जाता है और तीन मास के अभ्यास से आनन्द का वल्लभ
जाना जाता है । इसा प्रकार चार मास के अभ्यास से उसे दिक्पालों के दर्शन होते हैं,
पञ्चम मास में काम के समान सुन्दरता प्राप्त होती है तथा छः मास में
रुद्रस्वरुप बन जाता है ॥१५३ - १५४॥
एतदाचारसारं हि सर्वेषामप्यगोचरम् ।
एतन्मार्गं कौलमार्ग कौलमार्गं परं
नहि ॥१५५॥
मात्र इतना ही वीराचार का सार है जो
सबके लिए अगोचर है । इसी को कौलमार्ग कहते हैं । कौलमार्ग से बढ़कर कोई अन्य मार्ग
नहीं ॥१५५॥
योगिनां दृढचित्तानां
भक्तानामेकमासतः ।
कार्यसिद्धिर्भवेन्नारी
कुलमार्गप्रसादतः ॥१५६॥
कौलमार्ग की फलश्रुति
- दृढ़ता से चिन्तन करने वाले भक्त योगियों को कुल मार्ग की कृपा से एक मास में ही
कार्य सिद्धि हो जाती है उसके शत्रु नहीं होते ॥१५६॥
पूर्णयोगी भवेद् विप्रः
षण्मासाभ्यासयोगतः ।
शक्ति बिना शिवोऽशक्तः किमन्ये
जडबुद्धयः ॥१५७॥
ब्राह्मण साधक छः महीने के
योगाभ्यास से पूर्णयोगी बन जाता है । शक्ति के बिना शिव जैसा योगी भक्त भी असमर्थ
बन जाता है, फिर अन्य जड़बुद्धियों की बात ही
क्या ? ॥१५७॥
इत्युक्त्या बुद्धरुपी च कारयामास
साधनम् ।
कुरु विप्र महाशक्तिसेवनं
मद्यसाधनाम् ॥१५८॥
महाविद्यापदाम्भोजदर्शनं समवाप्यसि
।
एतच्छुत्वा गुरोर्वाक्यं स्मृत्वा
देवीं सरस्वतीम् ॥१५९॥
ऐसा कहकर बुद्धरुपी सदाशिव
ने साधन का उपदेश किया और कहा - हे ब्राह्मण ! मद्य साधना करो,
यही महाशक्ति का सेवन है । ऐसा करने से महाविद्या के चरण कमलों का
दर्शन प्राप्त कर सकोगे । अपने गुरु सदाशिव की बात सुन कर वशिष्ठ ने सरस्वती
देवी का स्मरण किया ॥१५८ - १५९॥
मदिरासाधनं कर्त्तुं जगाम कुलमण्डले
।
मद्यं मांसं तथा मांसं मुद्रा
मैथुनमेव च ॥१६०॥
पुनः पुनः साधियित्वा पूर्णयोगी
बभूवः सः ।
योगमार्गं कुलमार्गमेकाचारक्रमं
प्रभो ॥१६१॥
वे मदिरा की आराधना के लिए कुल
मण्डल ( शाक्त समुदायों ) में गये । वहाँ मद्य, मांस,
मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन की बारम्बार साधना
कर वशिष्ठ पूर्णयोगी बन गये । हे प्रभो ! योगमार्ग तथा कुल मार्ग दोनों ही एक
मार्ग के क्रम है ॥१६० - १६१॥
योगी भूत्वा कुलं ध्यात्वाअ
सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ।
सन्धिकालं कुलपथं योगेन जडितं सदा
॥१६२॥
पहले योगी बनें । फिर कुल (शक्ति)
का ध्यान करे, तब साधक सभी सिद्धियों का
अधीश्वर बन जाता हैं । यह कुलपथ जीवात्मा तथा परमात्मा का सन्धिकाल हैं जो
योगमार्ग से सर्वदा जोडा़ गया है ॥१६२॥
भगसंयोगमात्रेण सर्वसिद्धिश्वरो
भवेत् ।
एतद्योगं
विजानीयाज्जीवात्मपरमात्मनोः ॥१६३॥
जब उसमें भग ( ऐश्वर्य ) का संयोग
कर दिया जाता है तो साधक सर्व सिद्धिश्वर बन जाता है और योग उसी को कहते हैं
जिसमें जीवात्मा और परमात्मा एक में मिल जाते हैं ॥१६३॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने भावप्रश्नार्थनिर्णये सिद्धमन्त्रप्रकरणे चतुर्वेदोल्लासे
भैरवभैरवीसंवादे सप्तदशः पटलः ॥१७॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र
में महातंत्रोद्दीपन के भावार्थबोधनिर्णय में सिद्धमन्त्र प्रकरण के चतुर्वेदोल्लास
में भैरवी भैरव संवाद में सत्रहवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या
पूर्णं हुई ॥ १७ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल १८
0 Comments