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कर्मकाण्ड

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रुद्रयामल तंत्र पटल १६

रुद्रयामल तंत्र पटल १६          

रुद्रयामल तंत्र पटल १६ में आज्ञाचक्र का भुवन करण सामर्थ्यं वर्णित है। वहाँ पर अधोमण्डलमण्डित द्विबिन्दुनिलय के द्विदल स्थान में श्रीगुरुचरणों का ध्यान कहा गया है । उसके मध्य मे महावह्निशिखा का भी चिन्तन वर्णित है। इस योग के प्रसाद से साधक को चिरंजीवित्व और वागीश्वरत्व प्राप्त होने का निर्देश है। फिर त्रिखण्ड आज्ञाचक्र में श्मशानाधिप से घिरे हुए, कलानिधि, महाकाल, तीक्ष्ण दष्ट्रा वाले बहुरूपी सुरेश्वर का ध्यान कहा गया है। नासिका के ऊर्ध्वं भाग में भ्रूमध्य में परेश्वर काल रुद्र के ध्यान से शीघ्र ही तन्मयता होती है। फिर नाना अलङ्करणों से विभूषित, नवयौवना, रौरवादि नरकों का विनाश करने वाली डाकिनी देवी के ध्यान का विधान है। यही भगवती त्रिपुरसुन्दरी नाम से विख्यात है । पूरक, कुम्भक एवं रेचक प्राणायाम के द्वारा अत्यन्त मनोयोग से इनका ध्यान करना चाहिए। छः मास तक प्रातः, सायं और निरन्तर ध्यान से महती सिद्धि प्राप्त होती है। एक वर्षं पर्यन्त ध्यान से खेचरी सिद्धि मिलती है और साधक योगिराट्‌ हो जाता है। अन्ततः कौलमार्ग का पालन करते हुए वह अमर हो जाता है । 

रुद्रयामल तंत्र पटल १६

रुद्रयामल तंत्र पटल १६        

रुद्रयामल षोडशः पटलः - गुरूमीश्वरकीर्तनम्

सामवेदमधश्चक्रस्वरूपकथनम्

रुद्रयामल सोलहवां पटल 

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

गुरूमीश्वरकीर्तनम्

आनन्दभैरवी उवाच

श्रृणुष्वानन्दरुद्रेश तृतीयदललक्षणम् ।

सामवेदमधश्चक्रं तमोगुणानिराकुलम् ॥१॥

वर्णजालादिनाक्रान्तं रुद्ररुपं महेश्वरम् ।

लयस्थानं कामरुपं परमानन्दमन्दिरम् ॥२॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे आनन्द के ईश्वर ! हे रुद्रदेव ! अब तृतीय दल का लक्षण सुनिए । वह नीचे की ओर रहने वाला, तमोगुण से व्याप्त सामवेद नामक चक्र है । वह वर्ण समूहों से परिपूर्ण है । वह रुद्र रुप धारण करने वाला महेश्वर है । वह लय का स्थान तथा कामना के अनुसार रुप वाला है । इस प्रकार तीसरा दल परमानन्द का मन्दिर भी है॥१-२॥

वहिनवृत्तिसुस्थान विभाव्य योगिराड्‌ भवेत् ।

तत्स्थानं योगिनां धर्मो गुरोराज्ञाफलप्रदम् ॥३॥

तत्पदाब्जं श्रीगुरुणां भ्रूमध्ये द्विदलाम्बुजे ।

मुहुर्मुहुः शनैर्ध्यायेत् समीरास्पदभास्वरम् ॥४॥

अग्नि को धारण करने वाले ऐसे सुख स्थान का ध्यान कर साधक योगिराज होता है । वह स्थान योगियों का धर्म स्थान है तथा गुरु की आज्ञा के समान फल देने वाला है । गुरु का ध्यान श्री गुरु का पदाम्बुजभूत वह स्थान भ्रु के मध्य में है जिसमें द्विदल कमल का निवास है । धीरे - धीरेवायु के समान तेजस्वी उस स्थान का साधक को बारम्बार ध्यान करना चाहिए ॥३ - ४॥

विभाव्य मनसा वाचा कर्मणा सूक्ष्मवायुना ।

लीनं कृत्वा सदा ध्यायेत् सदा हर्षकलेवरः ॥५॥

सहस्त्रारें यथा ध्यानं तद्‌ध्यानं द्विदलाम्बुजे ।

गुरुमात्मानमीशानं देवदेवं सनातनम् ॥६॥

अकस्मात् सिद्धिदातारं योगाऽष्टाङुफलप्रदम् ॥७॥

मन से, वाणी से, कर्म से तथा सूक्ष्म वायु स्वरुप से उसका ध्यान कर अपने शरीर में उसका लय करने से साधक का शरीर सर्वदा प्रसन्न रहता है । जिस प्रकार का ध्यान सहस्त्र दल कमल में किया जाता है उसी प्रकार इस द्विदलाम्बुज में भी गुरु का ध्यान करना चाहिए । वे गुरु आत्मस्वरुप, ईशान स्वरुप, देवाधिदेव सनातन हैं । अतः गुरु अकस्मात् सिद्धि देने वाले योग के आठ अङ्कों का फल देने वाले हैं ॥५ - ७॥

विमर्श --- योगश्चासौ अष्टङ्रश्च तस्य फलं प्रददाति इति कप्रत्ययान्तोऽयं शब्दः ।

नित्यं शब्दमयं प्रमाणाविषय्म नित्योपमेयं गुरुं

चन्द्रोल्लासतनुप्रभं शतविधूल्लास्साय पङ्केरुहम् ।

सर्वप्राणगतं गतिस्थमचलं ज्ञानाधिनिर्लेपनं

रुढालास्यगुणालयं लयमयं स्वात्मोपलब्धि भजे ॥८॥

वह नित्य हैं । शब्द स्वरुप हैं । सभी प्रमाणों के विषय हैं और नित्य उपमेय गुरु है, उनके शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान देदीप्यमान हैं तथा मुख पङ्कज सैकड़ों चन्द्रमा के समान प्रसन्न रहने वाला है । वे सभी के प्राणों में रहने वाले, गतिमान् ‍ पदार्थों वाले तथा अचल हैं । वे गुरु ज्ञान रुपी समुद्र में निर्लिप रुप से रहते हैं । ऐसे रुढ़ आलस्य के गुणस्वरुप, लय स्वरुप, स्वात्म उपलब्धि वाले, अनिर्वाच्य तत्व वाले गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥८॥

यदि भजेज्जगतामलेश्वर स्मरहरं गुरुमीश्वरमात्मनि ।

परमसुन्दरचन्द्रसामाकुलं निपतिताद्यकुलानलसञ्चयम् ॥९॥

यदि साधक अपनी आत्मा में, जगत् ‍ के निर्विकार स्वामी गुरु रुप में कामशत्रु ईश्वर का, अत्यन्त सुन्दर स्वरुप वाले चन्द्रमा को धारण करने वाले तथा मनुष्य के पापकुलों को नष्ट करने के लिए अनल के समूह के समान परमात्मा का भजन करे जो उसे ईश्वर प्राप्त हो जाते है ॥९॥

विमर्श --- गुरु रुप ईश्वर की सुति में ९ से १४ तक के श्लोक द्रुतविलम्बित छन्द में निबद्ध हैं ।

रुद्रयामल सोलहवां पटल- गुरुपदाम्बुज   

प्रणमतां समतां कुरुते गुरो यदि भवान् विफलं परिहन्ति मे ।

तव पदाम्बुजमद्‌भुतलीलया परिभजे भवसागरपारगम् ॥१०॥

गुरुपदाम्बुज --- हे गुरो ! यदि भक्त आप को प्रणाम करे तो आप उसे अपने समान बना लेते हैं । हमारे कुत्सित फल देने वाले कर्म को नष्ट कर देते हैं । इसलिए हे नाथ ! इस भवसागर से अदभुत लीलापूर्वक पार करने वाले आपके पादाम्बुज का मैं भजन करता हूँ ॥१०॥

गुरुपदं सितपङ्कजराजितं कनकनूपुरसुन्दरासञ्जनम‌ ।

रचिताचित्रितचारुनखेन्दुकं भुवनभावनपावनमाश्रये ॥११॥

मैं मनुष्यों से भावना किए जाने वाले, अत्यन्त पवित्र, श्वेत कमल से विराजित गुरु के उन चरणों का आश्रय लेता हूँ, जो सुवर्णमय नूपुर से सुशोभित एवं खञ्जन के समान सुन्दर है और जो अत्यन्त सुन्दर चित्रकारी से युक्त मनोहर नख रुप चन्द्रमा से विरचित है ॥११॥

सकलसत्फल पालनकोमलं विमलशोणित पङ्कज मण्डितम् ।

पदतलं खनिग्रहपालन्म खचितरत्नधराचलनं भजे ॥१२॥

मैं रत्न खचित पर्वत के समान गुरु के उस पाद तल का भजन करता हूँ जो खलों का निग्रह करने वाला, भक्त का पालन करने वाला, संपूर्ण उत्तमोत्तम फल का पालन करने वाला, कोमल तथा निर्मल रक्तवर्ण के कमलों से मण्डित है ॥१२॥

सुकनकजडितासनपङ्कजे परिभवं भवसागरसम्भवम् ।

यदि कृपा विभवेन्मयि पामरे व्यवतु मां तव पादतलं भजे ॥१३॥

परमहंसमनुं हररुपिणं सकलमक्षशङ्‌गुरुमीश्वरम् ।

सकललक्षणचन्द्रमसःकरं तरुगुरोर्मुखपङ्कमाश्रये ॥१४॥

जिस पाद तल का आसन अत्यन्त दिव्य कनक जटित हैं, जो भवसागर से उत्पन्न दुःख समूह का परिभव करने वाला है । हे प्रभो ! यदि आपके चरणों की कृपा मेरे जैसे पामर पर हो जावे तो मेरी रक्षा हो जावे । मैं इस प्रकार के आपके पाद तल का भजन करता हूँ। मैं संपूर्ण लक्षण से युक्त चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल एवं वृक्ष के नीचे रहने वाले तथा कमल के समान मुखवाले उन गुरु का आश्रय लेता हूँ, जो परमहंसों के मन्त्रस्वरुप है । शिव स्वरुप है, कलाओं के सहित, अक्षय धन वाले तथा सबके ईश्वर हैं ॥१३ - १४॥

गुरोराञाचक्रं भुवनकरण्म केवलमयं

सकारं नादेन्दुकुमुदह्रदयं कामकलया ।

लयस्थाने वायोर्नवमधुरसमोदमिलिते

दले वेदक्षेत्रे विधुविरहिते तत्र पदके ॥१५॥

तमोगुनसमाक्रान्ते अधोमण्डलमण्डिते ।

द्विबिन्दुनिलये स्थाने द्विदले श्रीगुरोः पदम् ॥१६॥

यह गुरु का आज्ञाचक्र समस्त भुवन का कारण है, केवल अद्वैत है, सकार स्वरुप है, कामकला दी दृष्टी से नाद, इन्दु तथा कुमुद युक्त ह्रदय वाला है, नवीन मधुर आमोद से मिले हुये वायु के लय स्थान में, वेद रुपी क्षेत्र के दल में, चन्द्रमा से रहित उस स्थान में, जो तमोगुण से समाक्रान्त है, अधोमण्डल मण्डित, द्विबिन्दु निलय वाले द्विदल में श्रीगुरु का पद है ॥१५ - १६॥

महावहिनशिखाकारं तन्मध्ये चिन्तयेत् सुधीः ।

एतद्योगप्रसादेन बीजवाग्भवकूटकैः ॥१७॥

चिरजीवी भवेत् क्षुद्रो वागीशत्वमवाप्नुयात् ।

श्रीगुरोश्चरनाम्भोजनिःसृतं यत् परामृतम् ॥१८॥

तत्परामृतधाराभिः सन्तर्प्य कुलनायिकाम् ।

पुनः पुनः समाकुञ्च प्रबुद्धां तां स्मरेत् सदा ॥१९॥

उस गुरु के पद के मध्य में महावह्नि की ज्वाला के समान तेज का सुधी साधक को ध्यान करना चाहिए । इस योग के सिद्धि हो जाने पर वाग्भव बीज ( ऐं ) कूट के द्वारा साधक चिरजीवीं हो जाता है । पामर नर भी वागीशता प्राप्त कर लेता है । जहाँ श्री गुरु चरणकमलों से परामृत प्रवाहित होता रहता है, उस परामृत धारा मे कुल नायिका कुण्डलिनी का तर्पण करे । फिर बारम्बार उसे संकुचित करे तथा जब तक वह प्रबुद्ध न हो तब तक उसका स्मरण करते रहना चाहिए ॥१७ - १९॥

पर्यायत्त्वापरसं धारयेन्मारुतं सुधीः ।

तत्परामृतधाराभिः सन्तर्प्य कुलनायिकाम् ॥२०॥

ततः पुनः पुनः पात्यं सर्वपुण्यफलं प्रिये ।

धनरत्नमहालक्ष्मीः प्राप्नोति साधकोत्तमः ॥२१॥

सुधी साधक बारी - बारी के क्रम से ( आनन्दरुप ) पर रस का तथा वायु को हृदय से धारण करे । तदनन्तर उस अमृतधारा वाले पर ( श्रेष्ठ ) रस से कुल- नायिका-कुण्डलिनी को संतृप्त कर उसी से सर्वपुण्यफलस्वरुप अमृत धारा को पुनः पुनः गिराता रहे । हे प्रिये ! ऐसा करने से वह उत्तम साधक धन, रत्न तथा महालक्ष्मी प्राप्त करता है ॥२० - २१॥

सर्वत्र जयमाप्नोति युद्धे क्रोधे महाभये ।

महायुधि स्थितो याति सुशीलो मोक्षमाप्नुयात् ॥२२॥

ऐसा साधक युद्ध में, क्रोध में या ( मृत्यु रुप ) महाभय की स्थिति में सर्वत्र जय प्राप्त करता है । किं बुहना, युद्ध में स्थित ( जीवित ) रहता है और वह सुशील अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है ॥२२॥

रुद्रयामल तंत्र पटल १६ हाकिनीदेवीध्यानम्

सामवेदमधश्चक्रस्वरूपकथनम्

इति ते कथितं नाथ ब्रह्मज्ञानमनुत्तमम् ।

आज्ञाचक्रत्रिखण्डस्य दलस्य कामरुपतः ॥२३॥

सत्फलं समवाप्नोति विचार्य भावयेद्यदि ।

आज्ञाचक्र त्रिखण्डे च कामरुपं महेश्वरम् ॥२४॥

चीनाचार समाक्रान्तं श्मशानधिपवेष्टितम् ।

कालं कालकरं चक्रं महाकाल्म कलानिधिम् ।

पलानुपलविपलद्‌दण्डतिथ्यातिपदपथकैः ॥२५॥

मासवत्सरादियुगैर्महाकालैः समन्वितम् ।

उल्काकोटिसमं नेत्रं तीक्ष्णदंष्ट्र सुरेश्वरम् ॥२६॥

कोटिकोटिनेत्रजालशोभिताननपङ्कजम् ।

चिद्रू[पं सदसन्मुक्तिरुपिणं बहुरुपिणम् ॥२७॥

ध्यात्वा त्वतिसुखेनैव कालरुद्रं परेश्वरम् ।

नासिकोद्‌र्ध्वे भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचक्र महाप्रभो ॥२८॥

विभाव्य परमं स्थानं तत्क्षणात्तन्मयो भवेत् ।

हाकिनीं भावयेन्मन्त्रीं रौरवादिविनाशिनीम् ॥२९॥

हे नाथ ! यहाँ तक हमने सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञान का विवेचन किया है । आज्ञाचक्र के तीन खण्ड वाले कमल दल का जो कामनाओं को पूर्ण करने वाला है, यदि विचारपूर्वक उसकी भावना की जाय तो उससे अवश्य ही साधक उत्तम फल प्राप्त कर लेता है । तीन खण्ड वाले आज्ञाचक्र के ऊपर कामरुप महेश्वर का, जो चीनाचार से परिपूर्ण, श्मशानाधिप से परिवेष्टित, काल, कालकर्ता, चक्र स्वरुप, महाकाल, कलाओं के निधान, पल, अनुपल, विपल, द्ण्ड, तिथि आदि पक्ष, मास संवत्सर तथा युगादि महाकालों से समन्वित है, जिनके नेत्र करोड़ों उल्का के समान  तथा जिनकी दाढ़ अत्यन्त तीक्ष्ण है, जो सुरेश्वर हैं जो करोड़ों - करोड़ों नेत्र समूहों से युक्त एवं करोड़ों - करोड़ों मुख कमलों से सुशोभित हैं चिद्रुप, सदसन्मुक्ति रुप तथा अनेक रुप वाले हैं ऐसे कालरुद्र परमेश्वर का साधक अत्यन्त सुख से नासिका के ऊपर दोनों भ्रु के मध्य में रहने वाले आज्ञा चक्र के श्रेष्ठ स्थान में ध्यान कर तत्क्षण तन्मय हो जावे । फिर रौरवादि नरकों का विनाश करने वाली हाकिनी देवी का ध्यान करना चाहिए॥२३- २९॥

कोटिसौदामिनीभासामृतानन्दविग्रहाम् ।

अमातत्त्वपूर्णशोभां हेमवाराणसीस्थिताम् ॥३०॥

नानालङ्कार शोभाङीं नवयौवनशालिनीम् ।

पीनस्तनीं बलोन्मत्तां सर्वाधारस्वरुपिणीम् ॥३१॥

दीर्घप्रणवजापेन तोषयन्तीं त्रिविक्रमम् ।

मौनां मनोमयीं देवीं सर्वविद्यास्वरुपिणीम् ॥३२॥

महाकालीं महानीलां पीतवर्णां शशिप्रभाम् ।

त्रिपुरां सुन्दरीं वामां वामकामदुघां शिवाम् ॥३३॥

ध्यायेदेकासने वामे परनाथस्य पावनीम् ।

सर्वाधारात्मिकां शक्तिं दुर्निवार्यां दुरत्ययाम् ॥३४॥

जिनके शरीर की कन्ति करोड़ों विद्युत् ‍ की आभा के समान है तथा शरीर अमृतानन्दमय हैं, सभी के तत्त्व से परिपूर्ण होने के कारण जिनकी शोभा शरीर में समा नही रही हैं, ऐसी सुवर्णमय वाराणसी में निवास करने वाली, अनेक प्रकार के अलङ्गारों से सुशोभित अङ्गक वाली, नवीन यौवन से परिपूर्ण, मोटे- मोटे स्तन वाली, बल से इठलाती हुई, सबकी आधार स्वरुपा, दीर्घ काल तक प्रणव के जप से त्रिविक्रम वामन को संतुष्ट करने वाली, मौन रहने वाली, मनोमयी, सर्व विद्या स्वरुपिणी देवी महाकाली, महानीला पीतवर्णा एवं चन्द्रवर्णा, त्रिपुरा, सुन्दरी, वामा, वामकामदुघा, परम पावनी शिवा का, जो परनाथ शिव के साथ वाम भाग में एक आसन पर विराजमान है, ध्यान करना चाहिए ॥३० - ३४॥

रूद्रयामल तंत्र षोडश पटल - कुलमार्गकथन

श्वासमात्रेण वसयेत् कुलमार्गं न पण्डितः ।

कुलाकुलविभागेन आत्मानं नीयते परे ॥३५॥

वही सर्वधारात्मिका शक्ति है उनको कोई रोक नहीं सकता । अतएव दुरत्यय हैं । पण्डित साधक श्वासमात्र से उनका कुलमार्ग न रोके वही कुलाकुल के विभाग के द्वारा आत्मा को पर(नाथ शिव) से मिलाने वाली है॥३४- ३५॥

श्वासाभ्यासं विना नाथ अष्टाङाभ्यसनेन च ।

विना दमेन धैर्येण कुलमार्गो न सिद्धयति ॥३६॥

तथा पूरकयोगेन रेचकेनापि तिष्ठतिः ।

विना कुम्भकसत्त्वेन यथैतौ नापि तिष्ठतः ॥३७॥

हे नाथ ! श्वास का अभ्यास तथा अष्टाङ्ग योग का अभ्यास तथा इन्द्रियों के दमन के बिना कुल मार्गसिद्ध नहीं होता । केवल पूरक के योग से तथा केवल रेचक से भी वे स्थिर नहीं रहती । जिस प्रकार कुम्भक के रहते हुये भी ये दोनों पूरक और रेचक नहीं रहते ॥३६ - ३७॥

तथा योगं विना नाथ अष्टाङाभ्यसनं विना ।

कुलमार्गो महातत्त्वो न सिद्धयति कदाचन ॥३८॥

इसी प्रकार हे नाथ ! योग के बिना तथा अष्टाङ्ग के अभ्यास के बिना महा तत्त्ववान् ‍ कुलमार्गकिसी प्रकार सिद्ध नहीं होता ॥३८॥

कुलमार्गं विना मोक्ष कः प्राप्नोति कहीतले ।

कुलमार्गं न जानति योगवाक्यागमाकुलम् ॥३९॥

स कथं पूजयेद्‌देवीं तस्य योगः कृतः प्रभो ।

अज्ञात्वा वीरनाथानामाचारं यः करोति हि ॥४०॥

तेषां बहुदिने योगशिक्षा भवति निश्चितम् ।

प्राणायामं महाधर्मं वेदानामप्यगोचरम् ॥४१॥

कुलमार्ग की सिद्धि किए बिना इस पृथ्वी पर कौन ऐसा है, जिसे मोक्ष मार्ग प्राप्त हो जावे । जो कुलमार्ग नहीं जानता, योगवाक्य नहीं जानता अथवा आगम मार्ग के कुलको नहीं जानता, भला वह किस प्रकार देवी की पूजा कर सकता है । हे प्रभो ! उसे योग भी कैसे प्राप्त हो सकता है ? जो इसको जाने बिना वीरनाथ के परम्परागत सदाचार को करता है, उनको योग की शिक्षा बहुत दिन में प्राप्त होती है यह निश्चित है ॥३९ - ४१॥

सर्वपुण्यस्य सारं हि पापरशितुलानलम् ।

महापातककोटीनां तत्कोटीनाञ्च दुष्कृतम् ॥४२॥

पूर्वजन्मार्जितं पापं नानादुष्कर्मपातकम् ।

नश्यत्येव महादेव षण्मासाभ्यासयोगतः ॥४३॥

प्राणायाम महिमा वर्णन --- प्राणायाम सबसे धर्म है जिसे वेद भी जानने में असमर्थ हैं । यह प्राणायाम सभी पुण्यों का स्थिरांश है । पापराशि रुपी रुई को जलाने के लिए अग्नि है । करोड़ों महापातकों का उसके भी करोड़ों गुना किए गये दुष्कृत, पूर्वजन्मार्जित पाप तथा अनेक प्रकार के दुष्कर्म जन्य पातक, हे महादेव ! प्राणायाम के छः महीने के अभ्यास के योग से नष्ट हो जाते हैं ॥४१ - ४३॥

विमर्श --- पापराशिः तुलः, तूलः तयालमिव अग्निरिव । अथ तुलशब्दे हस्व - उकारश्छन्दोऽनुरोधात् ‍ ।

सन्ध्याकाले प्रभाते च यः करोत्यप्यहर्निशम् ।

वशी षोडशसंख्याभिः प्राणायामान् पुनः पुनः ॥४४॥

संवत्सरं वशी ध्यात्त्वा खेचरो योगिराड्‌ भवेत् ।

योगी भूत्वा कौलमार्गं समाश्रित्यामरो भवेत् ॥४५॥

महाविद्यापतिर्भूत्वा विचारात् साधकोत्तमः ॥४६॥

जो साधक सन्ध्या काल में, प्रभात में अथवा दिन रात संयमशील होकर १६, १६ की संख्या में बारम्बार प्राणायाम करता है, वह संयमी मात्र संवत्सर काल में ध्यान से आकाश गामी योगिराज बन जाता है । योगी हो कर कौलमार्ग का आश्रय लेकर वह साधककोत्तम विचार करता हुआ विद्यापति बन देवता बन जाता है ॥४४ - ४६॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्‌दीपने भावार्थबोधनिर्णये पाशवकल्पे आज्ञाचक्रसारसङ्कते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे षोडशः पटलः ॥१६॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन के भावार्थबोधनिर्णय में पाशवकल्प में आज्ञाचक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में सोलहवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई॥१६॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल १७

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