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रुद्रयामल तंत्र पटल १५
रुद्रयामल तंत्र पटल १५ में आज्ञाचक्र
का ही विस्तार से माहात्म्य वर्णित है ब्रह्मस्तोत्र,
ब्रह्मविद्या, ब्रह्मज्ञानी के लक्षण, ब्रह्ममार्गस्थो का षट्चक्रमण्डल में स्वरूप तथा वैष्णव भक्त के लक्षण
वर्णित है।
रुद्रयामल तंत्र पटल १५
रुद्रयामल पञ्चदशः पटलः - ब्रह्मविवेचनम्
रुद्रयामल पन्द्रहवां पटल
तंत्र
शास्त्ररूद्रयामल
वेदप्रकरणम्
आनन्दभैरवी उवाच
देवकार्य वेदशाखापल्लवं प्रणवं परम्
।
वदामि परमानन्द भैरवाहलादमाश्रृणु
॥१॥
आद्यपत्रे अकारञ्च ऋग्वेदं
परमाक्षरम् ।
ब्रह्मणं तं विजानीयाद्
आद्यवेदार्थनिर्णयम् ॥२॥
आनन्दभैरवी ने कहा
--- हे भैरव ! अब देवकार्य, वेदशाखा के पत्र
तथा पर स्वरुप प्रणव को और जो परमानन्द भैरव को आह्लादित करने वाला है उसके
विषय में सुनिए । आद्यपत्र में रहने वाला अकार ऋग्वेद का सर्वश्रेष्ठ अक्षर
है । उसे ब्रह्मा का स्वरुप समझना चाहिए, जो
सर्वप्रथम वेदार्थ का निर्णय करता है ॥१ - २॥
वेदेन लभ्यते सर्वं वेदाधीनमिदं
जगत् ।
वेदमन्त्रविहीनो यः शक्तिविद्यां
समभ्यसेत् ॥३॥
स भवेद्दि कथं योगी कौलमार्गपरायणः
।
वेद से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । यह सारा जगत् वेद के अधीन है । जो वेदमन्त्र नहीं जानता किन्तु शक्ति विद्या का अभ्यास करता है वह शक्ति ( कौल ) मार्ग का उपासक भला किस प्रकार योगी बन सकता है ।
श्रीआनन्दभैरव उवाच
ब्रह्मास्तोत्रं हि किं देवि!
ब्रह्मविद्या च कीदृशी? ॥४॥
श्री आनन्दभैरव ने कहा
- हे देवि ! ब्रह्मस्तोत्र क्या है तथा ब्रह्मविद्या का स्वरुप कैसा है ?
॥३ - ४॥
ब्रह्मज्ञानी च को वा स्यात् को वा
ब्रह्मशरीरधृक् ।
तत्प्रकारं कुलानन्दकारिणि
प्रियकौलिनि ॥५॥
वद शीघ्रं यदि स्नेहदृष्टिश्चेन्मयि
सुन्दरि ।
ब्रह्मविवेचन
--- कौन लोग ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? तथा
कौन ब्रह्म का शरीर धारण करता है । हे कुलानन्दकारिणि ! हे शक्ति मार्ग से प्रेम
करने वाली ! हे सुन्दरि ! यदि मुझ पर स्नेह रखती हो तो शीघ्र उसे बतलाइए ।
श्री आनन्दभैरवी उवाच
तदेव ब्रह्मणः स्तोत्रं
वायवीशक्तिसेवनम् ॥६॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा
- वायवी शक्ति की जो सेवा है, वही
ब्रह्मस्तोत्र हैं ॥५ - ६॥
सूक्ष्मरुपेण मग्ना या ब्रह्मविद्या
प्रकीर्तिता ।
सदा वायू
प्राणरससूक्ष्मोन्मतप्रसन्नधीः ॥७॥
उसी में सूक्ष्मरुप से जो निमग्न है
वही ब्रह्मविद्या कही जाती हैं । वही वायुरुप प्राणरस का सूक्ष्म स्वरुप तथा
उन्मत्त(
आनन्दोद्रेक ) एवं बुद्धि में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली है ॥७॥
एकान्तभक्तिः श्रीनाथे ब्रह्मविद्या
प्रकीर्तिता ।
अष्टाङुन्यासनिहतः
सूक्ष्मसञ्चारह्रत् शुचिः ॥८॥
सदा विवेकमाकुर्याद ब्रह्मज्ञानी
प्रकीर्तितः ।
ब्रह्मानन्दं ह्रदि श्रीमान्
शक्तिमाधाय वायवीम् ॥९॥
सदा भजति यो ज्ञानी ब्रह्मज्ञानी
प्रकीर्तितः ।
विजयारससारेण बिना बाह्यसवेन च ॥१०॥
श्री नाथ विष्णु में अनन्य
भक्ति ही ’ब्रह्मविद्या’ कही गई हैं । जो अष्टाङ्ग योग में निरत हृदय से सूक्ष्म में विचरण
करते वाला पवित्र तथा नित्य विवेक धारण करने वाला है, वह ’ब्रह्मज्ञानी’ कहा जाता है । जो श्रीमान्
ब्राह्मनन्द में निमग्न रहने वाला, हृदय में वायावी शक्ति
धारण कर सर्वदा भजन करता है, वह ज्ञानी ’ब्रह्मज्ञानी’ कहा जाता है । बिना बाह्य आसाव का
सेवन किए मात्र विजय रस का सार ग्रहण करने वाला वायव्य आनन्द से संयुक्त साधक ’ब्रह्मज्ञानी’ कहा जाता है ॥८ - १०॥
वायव्यानन्दसंयुक्तो ब्रह्मज्ञानी
प्रकीर्तितः ।
सदानन्दरसे मग्नः परिपूर्णकलेवरः
॥११॥
आनन्दश्रुजलोन्मतो ज्ञातो
ब्रह्मशरीररधृक् ।
शक्तिः कुण्डलिनी देवी जगन्मातास्वरुपिणी
॥१२॥
प्राप्तते यैः सदा भक्तैः
मुक्तिरेवागमं फलम् ।
आद्यपत्रे प्रतिष्ठान्ति
वर्णजालसमाश्रिताः ॥१३॥
ब्रह्मशरीर विवेचन
--- जो नित्य आनन्द रस में निमग्न, परिपूर्ण
इच्छा वाला, आनन्द से प्रवाहित अश्रु जल में उन्मत एवं ज्ञान
संपन्न है, उसे ब्रह्मशरीर धारणा करने वाला समझना चाहिए ।
कुण्डलिनी - विवेचन
- समस्त जगत् की मातृ- स्वरुपा कुण्डलिनी ही शक्ति पद से कही जाती है,
जिसकी उपासना से भक्त लोग आगम फल के स्वरुप मुक्ति को
प्राप्त करते हैं, उसके आद्य पत्र पर समस्त वर्णसमूहों का
निवास है ॥११-१३॥
रुद्रयामल पन्द्रहवां पटल - कुण्डलिनीविवेचन
वायवीशक्तयः कान्ता ब्रह्माण्डमण्डलस्थिताः ।
राशिनक्षत्रतिथिभिः
सर्वदोज्ज्वलनायिकाः ॥१४॥
भवानी ब्रह्मशक्तिस्था
साऽवश्यमेवमाश्रयेत् ।
मासेन जायते सिद्धिः खेचरी वायुशोषणी
॥१५॥
समस्त वायवी शक्ति,
राशि, नक्षत्र तथा तिथियों के सहित समस्त
ब्रह्माण्ड मण्डल जिसमें स्थित हैं ऐसी मनोहर कुण्डलिनी सर्वदा उज्ज्वल नायिका
स्वरुपा है । इसलिए साधक को ब्रह्मशक्ति में रहने वालीं उस भवानी स्वरुपा कुण्डलिनी का अवश्य आश्रय प्राप्त हो जाती है ॥१४ - १५॥
द्विमासे वज्रदेहः स्यात् क्रमेण
वर्धयेत् पुमान् ।
द्विमासे कल्पसंयुक्तो यस्य
सम्बधरुपतः ॥१६॥
चैतन्या कुण्डल;ई शक्तिर्वायवी बदतेजसा ।
चैतन्यसिद्धिहेतुस्था ज्ञानमात्रं
ददाति सा ॥१७॥
जिस कुण्डलिनी के सम्बन्ध
रुप से पुरुष दो महीने में वज्र के समान सुपुष्ट शरीर वाला तथा प्रत्येक कार्य के
करने में सक्षम हो जाता है । यह कुण्डलिनी शक्ति सर्वदा चैतन्य स्वरुपा है । यह बल
और तेज से वायवी शक्ति है । इस प्रकार चैतन्य मात्र में स्थित होने के कारण
वह समस्त ज्ञान प्रदान करती है ॥१६ - १७॥
ज्ञानमात्रेण मोक्षः स्याद् वायवी
ज्ञानमाश्रयेत् ।
महाबली महावाग्मी वर्धते च दिने
दिने ॥१८॥
साधक को ज्ञान से ही मोक्ष
प्राप्ति होती है । इसलिए वायवी ( शक्ति ) ज्ञान का आश्रय लेना चाहिए । कुण्डलिनी
का आश्रय लेने वाला महाबली तथा महावक्ता होता है । इस प्रकार वह रात दिन बढ़ता
रहता है ॥१८॥
आयुर्वद्धिः सदा तस्य
जरामृत्युविवर्जितः ।
कुण्डलीकृपया नाथ विना किञ्चिन
सिद्धयति ॥१९॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरञ्च सदाशिवः ।
ततः परशिवो देव वायवी परिकल्पिता
॥२०॥
कुण्डलिनी
का साधक जरा मृत्यु से विवर्जित रहता है । उसकी निरन्तर आयु की वृद्धि होती रहती
है । हे नाथ ! कुण्डलिनी की कृपा बिना प्राप्त किए पुरुष का कुछ भी इष्ट
सिद्ध नहीं होता ।
वायवीशक्ति निरुपण- ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र, ईश्वर, सदाशिव उसके बाद परशिव ये सभी वायवी शक्ति के स्वरुप हैं॥१९- २०॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १५ - वायवीशक्तिनिरूपणम्
एते षट्शङ्कराः सर्वसिद्धिदाः चित्तसस्थिताह ।
सर्वे तिष्ठन्ति
पत्राग्रेऽमूतधारसाप्लुताः ॥२१॥
अधोमुखाः सूक्ष्मरुपाः कोटिसूर्यसमप्रभाः
।
ब्रह्ममार्गस्थिताः सर्वे सन्ति षट्चक्रमण्डले
॥२२॥
चित्त भूमिका में निवास करने वाले
ये छ शङ्कर समस्त सिद्धियाँ प्रदान करने वाले है ये सभी उस पत्र के अग्रभाग
में ( द्र० . १५ . २ , १३ ) अमृतधारा रस
से परिपूर्ण हो कर निवास करते हैं । इनका मुख नीचे की ओर है और स्वरुप अत्यन्त
सूक्ष्म है, इनकी कान्ति करोड़ों सूर्य के समान है,
ये सभी षट् चक्रमण्डल के ब्रह्ममार्ग में स्थित रहने वाले है
॥२१ - २२॥
आज्ञया अध एवं हि चक्रं द्वादशकं
स्मरेत् ।
गलितामृतधाराभिराप्लुतं
कुण्डलीप्रियम् ॥२३॥
आग्नेयीं कुण्डलीं मत्त्वा
अधोधाराभितर्पणम् ।
प्रकुर्वन्ति परनन्दसिकाः षट्शिवाः
सदा ॥२४॥
आज्ञा चक्र के नीचे द्वादश चक्र (
द्र० . १५ . २ , १३ ) का ध्यान करना चाहिए जो
कुण्डलिनी को अत्यन्त प्रिय हैं और गिरते हुये अमृत धाराओं से नित्य परिपूर्ण रहते
हैं । अतः कुण्डलिनी शक्ति अग्नि देवता से सम्बन्धित हैं, अतः उन्हें इस अधोभाग में स्थित रहने वाली अमृत धारा से तृप्त करना चाहिए
। इसीलिए परानन्द के रस का अधोभाग में स्थित रहने वाली अमृत धारा से तृप्त करना
चाहिए । इसीलिए परानन्द के रस का अनुभव करने वाले ये षट् शिव(द्र० . १५ . २०)
उसको तृप्त करते रहते है ॥२३ - २४॥
चन्द्रमण्डलसञ्जाता जीवरुपधारा यथा
।
आत्मज्ञानसमाशक्ताः
शक्तितर्पणतत्पराः ॥२५॥
द्वितीयदलरुपं हि यजुर्वेदं
कुलेश्वर ।
अकस्मात् सिद्धिकरणं विष्णुनां
परिमीलितम् ॥२६॥
ये चन्द्रमण्डल में निवास करने वाले
जीनों के समान आत्मज्ञान की आसक्ति में लीन रह कर शक्ति तर्पण में लगे रहते हैं ।
विष्णु का ध्यान
- हे कुलेश्वर ! उस वेद शाखा का द्वितीय दल यजुर्वेद का स्वरुप है । यह विष्णु
से संयुक्त रहता है तथा अकस्मात् सिद्धि प्रदान करता है ॥२५ - २६॥
वज्रकोटिमहाध्वानघोरनादसमाकुलम् ।
हरिमीश्वरमीशानं वासुदेव सनातनम्
॥२७॥
सत्वाधिष्ठान विनयं
चतुर्वर्गफलप्रदम् ।
वाञ्छातिरिक्तदातारं कृष्णं
योगेश्वर प्रभुम् ॥२८॥
वे विष्णु करोड़ों वज्र के
समान महान् शब्द करने वाले हैं व घोरनाद से संयुक्त हैं । ये हरि,
ईश्वर, ईशान, वासुदेव तथा सनातन कहे जाते हैं। सत्त्व
के अधिष्ठान होने से ये विनयशील हैं । ये धर्म, अर्थ, काम
तथा मोक्ष रुप चतुवर्गों को देने वाले हैं और मनोरथ से भी अधिक देने वाले योगेश्वर
कृष्ण सबके प्रभु हैं ॥२७ - २८॥
राधिका राकिणी देवी
वायवीशक्तिलालितम् ।
महाबलं महावीरं शङ्कचक्रगदाधरम्
॥२९॥
पीताम्बरं सारभूतं यौवनामोदशोभितम्
।
श्रुतिकन्यासमाक्रान्तं
श्रीविद्याराधिका प्रभुम् ॥३०॥
राधिका
जिन्हे राकिणी देवी कहा जाता है ऐसी वायवी शक्ति से वह सेवित हैं । ये महाबलवान्
महावीर तथा शंख, चक्र एवं गदा धारण करने वाले हैं । पीताम्बर धारण करने वाले (
विष्णु ) समस्त जगत् के स्थिरांश, यौवन
के आमोद से परिपूर्ण रुप से सुशोभित, श्रुति रुपी कन्याओं से
घिरे हुये है तथा ’श्रीविद्या’ जिन्हे
राधा भी कहा जाता है उनके प्रभु है ॥२९ - ३०॥
दैत्यदानवहन्तारं शरीरस्य सुखावहम्
।
भावदं भक्तिनिलयं यदा सागर
चन्द्रकम् ॥३१॥
गरुडासनसमारुढं मनोरुपं जगन्मयम् ।
यज्ञकर्मविधानज्ञं आज्ञाचक्रोपरि
स्थितम् ॥३२॥
वह दैत्य दानवों के विनाशकर्ता,
जगत् रुप शरीर को सुख देने वाले, ( द्वाद्श
राशिगत ) भाव के अनुसार फल देने वाले, भक्ति के निलय तथा
सागर से उत्पन्न हुये साक्षात् चन्द्रमा हैं । गरुडासन पर आसीन, मन के अनुसार रुप धारण करने वाले, जगन्मय, यज्ञकर्म विधानवेत्ता तथा आज्ञाचक्र पर निवास करने वाले हैं ॥३१ - ३२॥
अधः परामृतरसपानोन्मत्तकलेवरः ।
साधको योगनिरतः स्वाधिष्ठानगतं यथा
॥३३॥
ऊपर से नीचे की और गिरने वाले,
परामृत के रस के पीने से उन्मत्त ( मस्ती से परिपूर्ण ) शरीर वाले
साधक, योगनिरत तथा स्वाधिष्ठान चक्र में नित्य निवास करते
वाले हैं ॥३३॥
तदाकारं विभाव्यशु सिद्धिमाप्नोति
शङकर ।
को वैष्णवो वाजिकः को धार्मिको वापि
को भुवि ॥३४॥
को वा भवति योगी च तन्मे वद
सुरेश्वरि ।
हे शङ्कर ! इस प्रकार के आकार वाले विष्णु
का ध्यान कर साधक शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।
तब आनन्दभैरव ने पूछा - हे
सुरेश्वरि ! इस पृथ्वी पर कौन वैष्णव है ? कौन वाजिमेघ करने वाला याज्ञिक है ? कौन धार्मिक है ?
और योग किसे कहते है ? वह हमें बताइए।
आनन्दभैरवी उवाच
शङ्कर श्रृणु वक्ष्यामि
कालनिर्णयलक्षणम् ॥३५॥
आनन्दभैरवी ने कहा
- हे आनन्दभैरव ! अब काल का लक्षण सुनिए ॥३४ - ३५॥
रुद्रयामल तंत्र पञ्चदश पटल - वैष्णवभक्त स्वरूपकथन
वैष्णवानां वैष्णवत्वं आज्ञाचक्रे फलाफलम् ।
आज्ञाचक्र महाचक्रं यो जानाति
महीतले ॥३६॥
तस्याऽसाध्यं त्रिभुवने न किञ्चदपि
वर्तते ।
सदा शुचिर्ध्याननिष्ठो
मुहुर्जाप्यपरायणः ॥३७॥
स्मृतिवेदक्रियायुक्तो
विधिश्रुतिमनुप्रियः ।
सर्वत्र समभावो यो वैष्णवः
परिकीर्तितः ॥३८॥
वैष्णवभक्त का स्वरुप
--- आज्ञाचक्र में होने वाला फलाफल ही वैष्णवों का वैष्णवत्व है । इसलिए पृथ्वीतल
पर आज्ञाचक्र स्वरुप महाचक्र को जो जानता है, उसके
लिए इस त्रिभुवन में कुछ भी असाध्य नहीं है । सदैव पवित्र रहने वाला, ध्यान, में निष्ठा रखने वाला, प्रतिक्षण
जप में परायण, स्मृति तथा वेद प्रतिपादित क्रिया से युक्त,
सदाचार वेद तथा मन्त्र से प्रेम करने वाला और सर्वत्र सबमें समान
दृष्टि रखने वाला मनुष्य ’वैष्णव’ कहा जाता है ॥३६ - ३८॥
समता शत्रुमित्रेषु
कृष्णभक्तिपरायणः ।
योगशिक्षापरो नित्यं वैष्णवः
परिकीर्तितः ॥३९॥
यजुर्वेदाभ्यासरतः सदाचारविचारवन् ।
सदा साधुषु संसर्गो वैष्णवः
परिकीर्तितः ॥४०॥
शत्रु एवं मित्र में समत्व बुद्धि
से देखने वाला, कृष्ण भक्ति में नित्य निरत रहने वाला तथा योगशिक्षा को जानने वाला ’वैष्णव’ कहा जाता है । यजुर्वेद का अभ्यास करने
वाला, सदाचारपूर्वक आचार - विचार से रहने वाला तथा सज्जनों
की संगति में रहने वाला पुरुष ’वैष्णव’ कहा जाता है ॥३९ - ४०॥
विवेकधर्मविद्यार्थी कृष्णे चित्तं
निधाय च ।
शिववत् कुरुते कर्म वैष्णवः
परिकीर्तितः ॥४१॥
श्री कृष्ण
में चित्त स्थापित कर विवेक, धर्म तथा
विद्या चाहने वाला और शिव के समान अनासक्त रह कर कर्म करने वाला ’वैष्णव’ कहा जाता है ॥४१॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १५ - याज्ञिकलक्षणम्
यज्ञिको ब्राह्मणो धीरो भवः प्रेमभिलाषवान् ।
वनस्थो घोरविपिने नवीनतरुशोभिते
॥४२॥
एकाकी कुरुते योगं
जीवात्मपरमात्मनोः ।
वाय्वग्नी रेचकः सूर्यः
पूरकश्चन्द्रमा तथा ॥४३॥
याज्ञिक के लक्षण
--- यज्ञ में परायण, ब्राह्मण वृत्ति से
रहने वाला, धीर सदाशिव में प्रेम की अभिलाषा वाला,
नवीन वृक्ष से सुशोभित वन में या घोर अरण्य में अकेला रह कर
जीवात्मा तथा परमात्मा में योग धारण करने वाला ’याज्ञिक’
है । वायु और अग्निरेचक हैं । सूर्य तथा चन्द्रमा पूरक
हैं ॥४२ - ४३॥
ज्वलच्छिखा सूर्यरुपा न च योजनमेव च
।
पुनः पूरकयोगश्च चन्द्रस्य तेजसा
हविः ॥४४॥
ऊद्र्ध्वविषां ज्वलद्वहनौ
वायवीबलचञ्चले ।
योऽनिशं कुरुते होमं मौनी याज्ञिक
उच्यते ॥४५॥
जलती हुई शिखा ही सूर्य स्वरुपा
हैं । उसे बिना युक्त किए जो पुनः पूरक योग करता है और चन्द्रमा के तेज से
उत्पन्न छवि को जो ऊपर की ओर ज्वाला वाली वायवी शक्ति के बल से चञ्चल एवं जलती हुई
अग्नि में जो नित्य होम करता है ऐसा मौन धारण करने वाला साधक ’याज्ञिक’ कहा जाता है ॥४४ - ४५॥
जीवसूर्याग्निकिरणे
आत्मचन्द्राद्यपूरकैः ।
काये यः कुरुते होमं याज्ञिकः
परिकीर्तितः ॥४६॥
सुरा शक्तिः शिवो मांस तद्भोक्ता
भैरवः स्वयम् ।
शक्त्यग्नौ जुहुयान्मांसं याज्ञिकः
परिकीर्तितः ॥४७॥
जीव रुपी सूर्याग्नि के किरण रुप
शरीर में आत्म चन्द्र रुपी अपूप से जो होम करता है वह ’याज्ञिक’ कहा जाता है। सुरा शक्ति है और मांस शिव है,
उन दोनों का भोक्त स्वयं भैरव हैं । अतः जो शक्ति रुप अग्नि
में मांस का हवन करता है वह ’याज्ञिक’ कहा
जाता है ॥४६ - ४७॥
विधिवत् कुलकुण्डे च कुलवहनौ
शिवात्मकैः ।
पूर्णहोमं यः करोति याज्ञिकः
परिकीर्तितः ॥४८॥
भूमण्डले धर्मशाली निर्जने
कामवेश्मनि ।
दृढभक्त्या जीवसारं यो जपेत् स हि
धार्मिकः ॥४९॥
विधि निर्मित ’कुल’ कुण्ड में तथा ’कुलात्मक
वह्नि’ में जो शिवात्मक द्रव्यों से पूर्ण होम करता है वह ’याज्ञिक’ कहा जाता है। भूमण्डल में धर्मशील रहकर या
निर्जन में अथवा गृहस्थाश्रम में रह कर जो दृढ़भक्ति से ’जीवसार’
का जप करता है वह सच्चा धार्मिक है ॥४८ - ४९॥
रुद्रयामल तंत्र पञ्चदशः पटलः - ब्रह्मज्ञानीलक्षणम्
मणौ लोष्ठे समं ध्यानं धर्मेऽधर्मे जयेऽजये ।
कृत्वा त्यागी भवेद्यस्तु
ब्रह्मज्ञानी स साधकः ॥५०॥
सदा ईश्वरचिन्ता च गुरोराज्ञा
व्यवस्थितिः ।
सुशीलो दीनबन्धुश्च धार्मिकः
परिकीर्तितः ॥५१॥
ब्रह्मज्ञानी के लक्षण
--- मणि तथा मिट्टी के ढेले में, धर्म में,
अधर्म में, जय में तथा पराजय में जो समान भाव रखता है अथवा जो सबका
त्याग कर देता है वह साधक ’ब्रह्माज्ञानी’ है ।
धार्मिक के लक्षण
--- सदैव ईश्वर की चिन्ता करने वाला, गुरु
की आज्ञा का नियमपूर्वक पालन करने वाला, उत्तम शीलवान् तथा
दीनों की भलाई करने वाला ’धार्मिक’ कहा
जाता है ॥५० - ५१॥
कालज्ञो विधिवेत्ता च
अष्टाङयोगविग्रहः ।
पर्वते कन्दरे मौनी भक्तो योगी
प्रकीर्तितः ॥५२॥
ब्रह्मज्ञानी चावधूतः पुण्ययात्मा
सुकृती शुचिः ।
वाञ्छाविहिनो धर्मात्मा स योगी
परिकीर्तितः ॥५३॥
योगी के लक्षण
--- कालवेत्ता, विधानवेत्ता, अष्टाङ्ग योग युक्त शरीर वाला और पर्वत की कन्दरा में मौन होकर निवास करने
वाला ’भक्त’ योगी कहा जाता है ।
ब्रह्मज्ञानी, अवधूत वेष में
रहने वाला, पुण्यात्मा, सुकृती,
शुचि, कामना से रहित धर्मात्मा ’योगी’ कहा जाता है ॥५२ - ५३॥
वाग्वादिनीकृपापात्रः षडाधारस्य
भेदकः ।
ऊर्ध्वरेता स्त्रीविहिनः स योगी
परिकीर्तितः ॥५४॥
यजुर्वेदपुरोगामी
यजुःपत्रस्थवर्णधृक् ।
वर्णामालाचित्तजापो भावुकः स हि
योगिराट् ॥५५॥
वाग्वादिनि भगवती का सत्कृपापात्र,
षट्चक्रों का भेदन करने वाला, उर्ध्वरेता तथा
स्त्री का साथ न करने वाला ’योगी’ कहा
जाता है । यजुर्वेद में सबके आगे रहने वाला, यजुर्वेद के
पत्र पर रहने वाले वर्णों को धारण करने वाला, वर्णमाला का
अपने चित्त में जप करने वाला ऐसा भावुक साधक तथा योगिराट् कहा जाता है॥५४-५५॥
मासद्वादशकग्रस्तं राशिद्वादशकान्वितम्
।
तिथिवारं तु
नक्षत्रयुक्तमाज्ञाम्बुजं भजेत् ॥५६॥
दिक्कालदेशप्रश्नार्थ
वायवीशक्तिनिर्णयम् ।
बालवृद्धास्तादिदण्डपलनिश्वाससंख्यया
॥५७॥
व्याप्तमाज्ञाचक्रासारं भजेत्
परमपावनम् ।
चक्रे सर्वत्र सुखदं सतां हानिर्न च
प्रभो ॥५८॥
द्वादश मासों तथा द्वादश राशियों,
तिथि, वार तथा नक्षत्रों से युक्त
आज्ञाचक्राम्बुज की पूजा करनी चाहिए । दिशा काल देश विषयक प्रश्न के लिए वायवी
शक्ति से निर्णय करना चाहिए । बाल, वृद्ध , अस्तादि दण्ड, पल तथा निःश्वास की संख्या से व्याप्त,
परम, पवित्र, आज्ञाचक्रसार
की पूजा करनी चाहिए । हे प्रभो ! चक्र में निर्णय सदैव सुखदायी होता है उसमें
सज्जन पुरुषों की कुछ भी हानि नहीं होती ॥५६ - ५८॥
खलानां विपरीतञ्च निन्दकानां पदे
पदे ।
दुःखानि प्रभवन्तीह पापिनाञ्च
फलाफलम् ॥५९॥
पापी पञ्चत्त्वमाप्नोति ज्ञानी याति
परं पदम् ।
यः श्वासकालवेत्ता च स ज्ञानी
परिकीर्तिताः ॥६०॥
खलों को चक्र विपरीत फल देते हैं ।
निन्दकों को तो पद पद पर विपरीत फल होता है । पापियों के लिए चक्र का फलाफल दुःख
ही उत्पन्न करने वाला होता है । चक्र से पापी पञ्चत्व ( मृत्यु ) प्राप्त करता है
। किन्तु ज्ञानी परम पद प्राप्त करता है । जो श्वास एवं काल का जानकार है वही ’ज्ञानी’ कहा जाता है ॥५९ - ६०॥
श्वासकालं न जानति स पापी
परिकीर्तितः ।
यजुर्वेदं सत्त्वगुण
सत्त्वाधिष्ठाननिर्मलम् ॥६१॥
गुरोराज्ञाक्रमेणैव अधस्तत्त्वेन
कुण्डलीम् ।
महाशक्तिं समाप्नोति ऊद्र्ध्वाधः
क्रमयोगतः ॥६२॥
जिसे श्वास एवं काल का ज्ञान नहीं
है वह ’पापी’ कहा जाता है । यजुर्वेद सत्त्व गुण वाला है ।
इसलिए सत्त्व का अधिष्ठान होने से वह सर्वदा विशुद्ध है । गुरु के आज्ञानुसार चलने
से साधक अधोधिष्ठान वाली, ऊपर तथा नीचे के क्रम के योग से
संञ्चालन कर कुण्डलिनी महाशक्ति को प्राप्त कर लेता है ॥६१ - ६२॥
यजुर्वेदं
महापात्रसत्त्वाधिष्ठानसेवया ।
ललाटमृतधाराभिश्चैतन्या कुण्डली
भवेत् ॥६३॥
यजुर्वेद महापात्र रुप सत्त्व के
अधिष्ठान की सेवा से तथा ललाट में रहने वाली अमृत धारा से कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य होती
है ॥६३॥
विभाव्य द्विदलं चक्रं होमं
कुर्यादहर्निशम् ।
शुद्धाज्यैर्जुहुयान्मन्त्री
अधस्तुण्डे च कुण्डलीम् ॥६४॥
(भ्रुमध्य में रहने वाले) द्विदल
चक्र का अच्छी तरह ज्ञान कर साधक को दिन रात उसमें (ध्यान रुप) होम करते रहना
चाहिए । मन्त्रज्ञ साधक को कुण्डलिनी के अधो मुखाग्रभाग में शुद्ध घृत से होम करना
चाहिए ॥६४॥
भजन्ति रुद्धेन्दिय शुद्धयोगं
प्रचण्डरश्मिप्रगताङ्सुन्दराः ।
आम्बुजं चक्रवरं चतुद्र्दलं
यन्मध्यदेशे शतकोटितेजसम् ॥६५॥
प्रचण्ड रशिम से युक्त मनोहरा अङ्क
वाले साधक इन्द्रियों को रोकने वाले शुद्ध योग से युक्त,
चार दल वाले ’आज्ञा कमल’ नामक श्रेष्ठ चक्र का पूजन करते हैं जिसके मध्य में सेकड़ो करोड़ से युक्त
तेजोमण्डल विराजमान है ॥६५॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने भावनिर्णये पाशवकल्पे आज्ञाचक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे
वेदप्रकरणोल्लासे भैरवभैरवीसंवादे पञ्चदशः पटलः ॥१५॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र
में महातंत्रोद्दीपन के भावनिर्णय में पाशवकल्प में आज्ञाचक्रसारसङ्केत में
सिद्धमन्त्र प्रकरण के वेद प्रकरणोल्लास में भैरवी भैरव संवाद में पन्द्रहवें पटल
की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ १५ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल १६
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