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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देव्या आरात्रिकम्
देव्या आरात्रिकम् – देवि की
आरती है जिसमें देवी से प्रार्थना की गई है कि हे मनोहर रूपवाली देवि माँ! तुम्हारी
जय हो! मैं इस संसारकूप में पड़े हुए हूँ, मेरा उद्धार करो।
देवि की आरती
देव्या आरात्रिकम्
जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे ।
मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ॥
ध्रुवपदम् ॥
प्रवरातीरनिवासिनि निगमप्रतिपाद्ये
पारावारविहारिणि नारायणि ह्वद्ये ।
प्रपञ्चसारे जगदाधारे श्रीविद्ये
प्रपन्नपालननिरते मुनिवृन्दाराध्ये
॥ १॥
जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे ।
मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ॥
हे प्रवरानदीतीरवासिनी,
वेदों से प्रतिपादित, क्षीरसागरविहारिणी,
नारायणप्रिया, मनोहारिणी, संसार की सार और आधाररूपिणी, लक्ष्मी और विद्यास्वरूपिणी, शरणागत की रक्षा में तत्पर,
मुनिगणों से आराधित हे देवि ! तुम्हारी जय हो! जय हो ! हे मनोहर
रूपवाली ! तुम्हारी जय हो ! हे मातः ! इस संसारकूप में पड़े हुए मेरा उद्धार
करो॥१॥
दिव्यसुधाकरवदने कुन्दोज्ज्वलरदने
पदनखनिर्जितमदने मधुकैटभकदने ।
विकसितपङ्कजनयने पन्नगपतिशयने
खगपतिवहने गहने सङ्कटवनदहने ॥ २॥
जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे ।
मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ॥
पूर्णचन्द्र के समान दिव्य मुखवाली,
कुन्दपुष्प के-से स्वच्छ दाँतोंवाली, अपने
पैरों की नख-ज्योति से मदन को पराजित करनेवाली, मधुकैटभ का
संहार करनेवाली, प्रफुल्लित कमल-समान नेत्रोंवाली, शेषशायिनी, गरुडवाहिनी, दुराराध्या,
सङ्कटवन का भस्म करनेवाली (हे देवि! तुम्हारी जय हो ! जय हो!) ॥२॥
मञ्जीराङ्कितचरणे मणिमुक्ताभरणे
कङ्चुकिवस्त्रावरणे
वक्त्राम्बुजधरणे ।
शक्रामयभयहरणे भूसुरसुखकरणे
करूणां कुरू मे शरणे गजनक्रोद्धरणे
॥ ३॥
जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे ।
मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ॥
चरणों में नूपुर धारण करनेवाली,
मणि और मोतियों के आभूषण धारण करनेवाली, चोला
और वस्त्रों से सुसज्जित, कमलमुखी, इन्द्र के विघ्न-बाधाओं को दूर करनेवाली, ब्राह्मणों के
लिये आनन्ददायिनी, गज और ग्राह का
उद्धार करनेवाली हे देवि ! मुझ शरणागत पर कृपा करो। (हे देवि! तुम्हारी जय हो ! जय
हो !) ॥३॥
छित्त्वा राहुग्रीवां पासि त्वं
विबुधान्
ददासि मृत्युमनिष्टं पीयूषं
विबुधान्।
विहरसि दानवऋद्धान् समरे संसिद्धान्
मध्वमुनीश्वरवरदे पालय संसिद्धान् ॥
४॥
जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे ।
मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ॥
तुम राहु की ग्रीवा काटकर
देवों की रक्षा करती हो, असुरों को उनकी
इच्छा के विपरीत मृत्यु और देवताओं को अमृत देती हो, युद्धकुशल
और वीर दैत्यों से रण-क्रीडा करानेवाली हो । हे मध्वमुनीश्वर को वर देनेवाली !
भक्तों का पालन करो। (हे देवि ! तुम्हारी जय हो ! जय हो !) ॥४॥
॥ इति देव्या आरात्रिकं समाप्तम् ॥
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