भूतशुद्धि तन्त्र
भूतशुद्धितन्त्र जिसमें योगतन्त्र
क्रिया का संक्षिप्त रूप बताया गया है, वह
भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार ही चीनाचार तन्त्र के माध्यम से पूजा आचार
के विज्ञान के साथ-साथ भौगोलिकी और ऐतिहासिकी दृष्टि समुद्घाटित होती है। अतः ऐसे
ग्रन्थों का सम्पादन कराकर लोकार्पण एक महान् कार्य है।
भूतशुद्धितन्त्र
हमारे शरीर में पाँच तत्वों -
पृथ्वी, जल, वायु,
अग्नि और आकाश का शुद्धिकरण भूत शुद्धि कहलाता है। भूतशुद्धि का
अर्थ है शरीर को बनाने वाले पाँच तत्वों ( भूतों ) में से प्रत्येक में निवास करने
वाले देवताओं की प्रारंभिक शुद्धि। भूत शुद्धि योगिक आध्यात्मिक अभ्यास या साधना
है, जिसमें जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश के पाँच तत्वों को शुद्ध और
संतुलित किया जाता है। अतः भूत शुद्धि का उद्देश्य योगी को उसकी भौतिक प्रकृति से
मुक्त करना और चेतना के उच्चतर स्तरों के द्वार खोलना है ताकि वह ब्रह्म के साथ एक
हो सके । भूत शुद्धि का अभ्यास करने से शारीरिक, भावनात्मक
और मानसिक परिवर्तन होते हैं जो शरीर, आत्मा और मन को शुद्ध
करते हैं।
भूतशुद्धि तन्त्रम्
Bhut shuddhi tantra
भूतशुद्धि तन्त्र का परिचय-कोलकाता
स्थित विद्वान् श्रीमान् रसिक मोहन चट्टोपाध्याय महोदय ने अपने तन्त्र संग्रह
ग्रन्थ में प्रायः चालीस तन्त्रग्रन्य बंगलिपि में प्रकाशित किये थे।
इस तन्त्र में देवी पार्वती और
भगवान् शंकर का संवाद है। देवी पार्वती भूतभावन भगवान् शंकर से पूँछ रही हैं कि
मानव शरीर ही नहीं, प्रत्येक प्राणी का
जो यह शरीर पंचमहाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु और आकाश से बना है। इस पंचभूतात्मक शरीर की शुद्धि कैसे हो
सकती हैं। इसीलिये भूतभावन भगवान् शंकर उनको भूतशुद्धि के बारे में बताते हैं। इसी
क्रम में देवी पार्वती जी ने पूछा कि हे देव! हे सर्वज्ञ! योग शारीरिक है तथा आप
योग को जानते हैं। योग के बिना जप-होम-पूजा आदि सिद्ध नहीं होते हैं। तथा न ही योग
के बिना आत्मज्ञान ही होता है। अतः आप मुझे योग को बताइए। इसी प्रश्न के उत्तर में
योग की समस्त क्रियाओं को संक्षेप रूप से बताते हैं। इस बताने के क्रम में
उन्होंने कन्दमूल, नाडीत्रय, नाड़ीपञ्चक,
ब्रह्मरन्ध्र, वज्रा, चित्रिणी,
ब्रह्मनाडी, सहस्रदल कमल का वर्णन किया है।
उसके मूलाधार में प्रसुप्त सर्पाकार कुण्डलिनी का वर्णन किया है। फिर स्वाधिष्ठान
चक्र का वर्णन है। फिर मणिपूरक, अनाहत चक्र तथा विशुद्ध नामक
चक्र का वर्णन किया है। आज्ञाचक्र के बाद नाद-नादान्त- शक्ति, समनी और उन्मनी दशाओं का वर्णन करते हुए ब्रह्मपुर की स्थिति बतायी है।
इसके बाद पार्वती के पूँछने पर कुण्डलिनी शक्ति से ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश होने का
उपदेश दिया हैं, फिर पिण्डविशोधन प्रक्रिया अर्थात् इस
पंचभूतात्मक शरीर के शोधन का प्रकार बताया है। अन्त में त्रिवेणी पुष्कर आदि
तीर्थों में स्नान करके सहस्रार में गुरु सदाशिव की समाराधना करनी चाहिये। यह
समझाया है।

Post a Comment