पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

श्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल

श्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा प्रणीत श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका नामक ग्रन्थ श्री श्रीराधागोविन्द की लीला के अनुपम तथा प्रवीण चित्रकार ने अपने परम मधुर स्वभाववशतः प्रेमभक्ति की सुकोमल तूलिका (चित्रकार की कूची) में महामोहन अमृतरस को मिलाकर इस ग्रन्थ में श्री श्रीराधाकृष्ण युगल के चार मनोज्ञ, अद्भुत तथा सुचारु मिलन कौतूहल चित्रों को अङ्कितकर व्रजरस के लोलुप रसिक एवं भावुक पाठकों तथा साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। ये चारों कौतूहल चित्र रस-परिवेशन, शब्द - विन्यास चातुर्य और भाव माधुर्य से रसिकों और भावुकों के चित्त को चमत्कृत कर उन्हें मुग्ध करनेवाले हैं। इसके अलावा ये चारों कौतूहल हास्यरस से भी परिपूर्ण हैं, जो पाठकों और साधकों के चित्त को हास्य रस के आनन्दरूपी सागर में निमग्न कर देते हैं। श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल में मञ्जूषिका मिलन है।

श्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल

श्री श्रीकृष्णचैतन्यचन्द्राय नमः

मङ्गलाचरणम्

यत्कारुण्यं शुचिरस चमत्कारवारां निधस्तान्

नृभ्यो राधा गिरिवरभृतोः स्पर्शयत्तर्षयेनः ।

तेषामेकं पृषतमचिराल्लब्धुमाशाक्षिदानैः

सोऽव्यान्मन्तो दशनविततेः कृष्णचैतन्यरूपः ॥

भावानुवाद - जिनकी करुणा (कृपा) मनुष्य को श्रीश्रीराधा- गिरिवरधारी के शुचि अर्थात् उन्नत उज्ज्वल रसमय चमत्कार-सागर का स्पर्श कराती है, अर्थात् जिनकी कृपा होने से मनुष्य का मन श्रीकृष्ण सम्बन्धित पारावार- विहीन (असीम ) शृङ्गाररस सागर का स्पर्श करता है तथा उसके लिए तृष्णातुर होता है। अर्थात् जिस प्रकार जलपिपासु व्यक्ति जल के लिए व्याकुल होता है, उसी प्रकार जिनकी कृपा प्राप्त होने से व्यक्ति श्रीश्रीराधाकृष्ण की उन्नत - उज्ज्वल - रसमयी लीलाकथा के श्रवणादि के लिए व्याकुल रहता है, वे ही स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु उज्ज्वल - रसमय चमत्कार- सागर की एक बिन्दु प्राप्त करने की आशा का सञ्चार करनेवाले अपने नयन- कटाक्ष के द्वारा अपराधरूपी दन्त पंक्ति से हमारी रक्षा करें ॥

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम: कौतूहल

चमत्कारचन्द्रिका कौतूहल १

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका पहला कौतूहल

अथ प्रथम कौतूहल

मातः प्रातः किमिह कुरुषे नाते पेटिकेयं

यत्नादस्यां किमिह निहितं किन्तवानेन सूनो !

ज्ञातव्येन प्रणयिसखिभिः खेल गेहाद बहिस्त्वं

जिज्ञासा मे भवति महती ब्रूहि नो चेत्र यामि ॥ १ ॥

भावानुवाद- एक दिन प्रातः काल व्रजराज महिषी श्रीयशोदा एक पेटिका में वस्त्रादि विविध शृङ्गार के द्रव्य सजाकर रख रही थीं। उसी समय श्रीकृष्ण वहाँ आये और माता से पूछने लगे - मैया ! सुबह - सुबह तुम यह क्या कर रही हो?

यशोदा-बेटा! एक पेटी सजा रही हूँ।

श्रीकृष्ण - इतने यत्न से इसमें क्या रख रही हो ?

यशोदा- बेटा! तुम्हें इसे जानने की आवश्यकता नहीं है, तुम बाहर जाकर अपने प्रिय सखाओं के साथ खेलो।

श्रीकृष्ण - मैया ! मुझे इसे जानने की बड़ी इच्छा हो रही है, तुम बतला दो न। यदि नहीं बतलाओगी, तो मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा ॥ १ ॥

अस्यां चन्दन चन्द्र पङ्कज रजः कस्तूरिका कुङ्कुमा-

द्यङ्गानामानुलेपनार्थमथ नेपथ्योस्तथा ।

काञ्ची कुण्डल कङ्कणाद्यनुपमं वैदूर्यमुक्ताहरि-

द्रत्नाद्यम्बरजातमप्यतिमहानर्घ्यं क्रमाद्वर्त्तते ॥ २ ॥

भावानुवाद - यशोदा - वत्स! मैं इस पेटिका में अङ्गों में अनुलेपन के लिए चन्दन, कर्पूर, पद्म-पराग, कस्तूरिका तथा कुङ्कुम आदि और अङ्ग को विभूषित करने के लिए काञ्ची (करधनी), कुण्डल, कङ्कण, अनुपम वैदूर्यमणि, मुक्ता तथा मरकत रत्नादि और पहनने के लिए बहुमूल्य वस्त्रादि रख रही हूँ ॥ २ ॥

अत्रेदं निदधासि किं मम कृते रामस्य वा नन्दन !

ब्रूमस्त्वामवधेहि या तु भवतो: हेतुः कृता पेटिका ।

साऽन्याऽतोऽपि बृहत्यनर्घ्य मणिभागेवं बलस्यापरा

तत् कस्मिंश्चन ते जनन्युरुरियान् स्नेहो यतो यास्यति ॥ ३ ॥

भावानुवाद - श्रीकृष्ण - मैया! इस पेटी में जो कुछ रख रही हो, वह सब क्या मेरे लिए है अथवा भैया बलराम के लिए है?

यशोदा- हे पुत्र ! मैं बतला रही हूँ, सुनो। जो पेटिका तुम्हारे लिए रखी है, वह इससे बहुत बड़ी है। उसमें इससे भी बहुमूल्य आभूषण और वस्त्र रखे हैं, इसी तरह बलराम के लिए भी एक और पेटिका रखी है।

श्रीकृष्ण - अरी मैया ! जब आप यह पेटिका मेरे लिए अथवा बड़े भैया के लिए नहीं सजा रही हो, तो फिर किसके लिए सजा रही हो? आपका ऐसा स्नेहभाजन और कौन है ? ॥ ३ ॥

अस्मत्पुण्यतपः फलेन विधिना दत्तोऽसि मह्यं यथा

मत्प्राणावनहेतवे व्रजपुरालङ्कार सूनो तथा ।

कन्या काचिदिहास्ति मन्त्रयनयोः कर्पूरवर्तिः परा

तस्याः अम्बर मण्डनादिधृतये सेयं कृता पेटिका ॥४ ॥

भावानुवाद - यशोदा - हे वत्स ! व्रजपुर के अलङ्कार ! हमारे पुण्य तप के फल से हमारे प्राणों की रक्षा के लिए विधाता ने जैसे तुमको हमें प्रदान किया है, उसी प्रकार हमारी जीवन-स्वरूप एक कन्या इस गोकुल में है। वह हमारे तापित- नयनों के लिए श्रेष्ठ कर्पूर की वर्ति अर्थात् नेत्रों के ताप को हरण करनेवाले कर्पूर के लेप के समान हैं, उसी के लिए वस्त्र और आभूषण रखने के लिए मैंने यह पेटिका तैयार करवायी है ॥४ ॥

काऽसौ कस्य कुतस्तरां जननि ! वा तस्यामतिस्निह्यसि

क्वाऽऽस्ते तद्वद सर्वमेव शृणु भो या मे सखी कीर्त्तिदा ।

तस्याः कुक्षिखनेरनर्घ्यमतुलं माणिक्यमेतत् स्वभा-

वीचीभि: वृषभानुमुज्ज्वलयते मूर्त्तं तदीयं तपः ॥ ५ ॥

भावानुवाद - श्रीकृष्ण-मैया! वह कन्या कौन है? किसकी बेटी है ? वह कहाँ रहती है और आप उससे इतना स्नेह क्यों करती हो? ये सब बातें मुझे बताओ।

यशोदा - हे वत्स ! सुनो-मेरी जो कीर्त्तिदा नाम की एक सखी है, उसी की कोख से अनर्घ्य या महा मूल्यवान और अतुलनीय एक कन्यारत्न प्रादुर्भूत होकर अपनी कान्ति की तरङ्गों से वृषभानु को अर्थात् ज्येष्ठमास के सूर्य को अथवा दूसरे अर्थ में गोपराज वृषभानु को उज्ज्वल करती है, अर्थात् उनका यश सर्वत्र प्रकाशित करती है। इस कन्या को वृषभानु राजा की मूर्तिमान तपस्या कहना ही उचित है ॥५ ॥

सौन्दर्याणि सुशीलता गुरुकुले भक्तिस्त्रपाशालिता

सारल्यं विनयित्वमित्यधिधरं ये ब्रह्मसृष्टा गुणाः ।

ते यत्रैव महत्वमापुरथ मे स्नेहस्तु नैसर्गिकः

सा राधेत्यथ गात्रमुत्पुलकितं कृष्णोऽशुकेनाप्याधात् ॥ ६ ॥

भावानुवाद - हे वत्स ! सौन्दर्य राशि, सुशीलता, गुरुजनों के प्रति भक्ति, लज्जाशीलता, सरलता, विनम्रता इत्यादि जो गुण श्रीब्रह्मा द्वारा पृथ्वी पर सृष्ट हुए हैं, वह गुणसमूह उस कन्या का आश्रय करके स्वयं ही महत्त्व को प्राप्त हुए हैं। गुण जिसका आश्रय करते हैं, उसे महत्त्वपूर्ण बनाते हैं, किन्तु इस कन्या का आश्रय करके गुण स्वयं ही महत्त्वपूर्ण हुए हैं - यही आश्चर्य की बात है। इसीलिए उसके प्रति मेरा स्वाभाविक स्नेह है तथा उसका नाम 'राधा' है।

माता के मुख से श्रीराधा का नाम और गुणों का श्रवण करके श्रीकृष्ण का शरीर पुलकित हो गया, तब उन्होंने अपने अङ्गों को वस्त्र से आच्छादित कर लिया ॥ ६ ॥

सा पत्युः सदनेऽस्ति सम्प्रति पतिश्चास्या इहैवागतो

गोष्ठेन्द्रेण समं स्वगैहिक कृति - व्यासङ्गहेतोर्बहिः ।

आस्ते संसदि यहिं वीक्षितुमयं मामेष्यति प्रीतितो

वक्ष्याम्येनमिमां वहन् निजगृहं तां प्रापयन यास्याति ॥७ ॥

भावानुवाद - वह वधू अपने पति के गृह में है। इस समय उसका पति भी हमारे यहाँ ही आया हुआ है तथा किसी गृह-कार्य के लिए गोष्ठराज ( श्रीनन्दरायजी) के साथ परामर्श करने के लिए बाहर सभा (बैठक) में बैठा हुआ है। जब वह मुझसे मिलने अन्तःपुर में आयेगा तब मैं उससे प्रीति के साथ कहूँगी हे अभिमन्यु ! तुम इस पेटिका को अपने घर ले जाकर राधा को दे देना ॥७॥

अत्रान्तरे निकटमागतया लवङ्ग-

वल्या द्रुतं निजगदे शृणु गोष्ठराज्ञि !

आहूतपूर्वमहि यत् तदिदं सुवर्ण-

कारद्वयं कलय रङ्गण- टङ्गणाख्यम् ॥८ ॥

भावानुवाद- उसी समय लवङ्गलता नाम की एक दासी तीव्र गति से यशोदाजी के पास आकर बोली- हे गोष्ठरानी! देखिये तो, आपने पहले जिन्हें बुलवाया था, वे रङ्गण तथा टङ्गण नाम के दोनों स्वर्णकार आये हैं ॥ ८ ॥

श्रुत्वैतदाऽऽत्तमुदुवाच ततो व्रजेशा

कृष्णस्य-कुण्डल किरीट- पदाङ्गदादि ।

निर्मापयन्त्यचिरतो बहिरेमि यावत्

त्वा पेटिकां नय गृहान्तरितो धनिष्ठे ॥ ९ ॥

भावानुवाद – लवङ्गलता की बात सुनकर व्रजेश्वरी यशोदा आनन्दित होकर धनिष्ठा से बोली- हे धनिष्ठे! कृष्ण के लिए कुण्डल, किरीट तथा पदाङ्गद इत्यादि अलङ्कार बनवाने के लिए मैं बाहर जा रही हूँ । शीघ्र ही लौट आऊँगी - तुम तब तक घर में रखी इस पेटिका की देखभाल करना ॥ ९ ॥

इत्युक्त्वास्यां गतायां सुबल मुख-सुहृत्स्वागतेष्वात्तमोद-

स्तैः साकं मन्त्रयित्वा किमपि रहसि तां पेटिकामुद्घटय ।

निष्काश्यातः समस्तं मणि वसन कुलाद्यर्पयित्वा धनिष्ठा-

पानौ तस्यां प्रविश्य स्वयमथ सखिभिर्मुद्रयामास तां सः ॥ १० ॥

भावानुवाद - यह कहकर व्रजेश्वरी श्रीयशोदा बाहर चली गयीं और तभी सुबल इत्यादि प्रियनर्म सखा वहाँ आये। श्रीकृष्ण उनके आगमन से परमानन्दित हुए तथा उनके साथ परामर्शकर निर्जन स्थान में उस पेटिका को खोलकर उन्होंने उसमें रखी हुई मणियों, आभूषण, वस्त्र इत्यादि समस्त वस्तुओं को बाहर निकालकर धनिष्ठा के हाथ में दे दिया तथा स्वयं उसमें बैठ गये और सखाओं की सहायता से पेटिका को बन्द कर दिया ॥ १० ॥

द्वित्रिक्षणोपरमतः प्रणमन्तमेत्य

तत्राभिमन्युमभिवीक्ष्य पुरो यशोदा ।

पृष्ट्वा शमाह शृणु भो भवतो गृहिण्या

हेतोः कृताद्य मणिमण्डन पेटिकेयम् ॥ ११ ॥

भावानुवाद- कुछ देर बाद श्रीव्रजेश्वरी के अपने कक्ष में आगमन करने पर अभिमन्यु ने आकर उन्हें प्रणाम किया। श्रीयशोदा ने उसे सम्मुख देखकर उसका कुशल पूछा और बोलीं- हे अभिमन्यु ! तुम्हारी पत्नी के लिए मणिमय अलङ्कारों से पूर्ण यह पेटिका तैयार हुई है ॥ ११ ॥

अस्यामनर्घ्य मणिकाञ्चन दाम वासः

कस्तूरिकाद्यति मनोहरमस्ति वस्तु ।

नान्यत्र विश्वसिमि तेन वहंस्त्वमेव

गत्वा गृहं निभृतमर्पय राधिकायै ॥ १२ ॥

भावानुवाद इसमें महामूल्यवान मणियाँ, काञ्चनमाला, वस्त्र, कस्तूरिका इत्यादि मनोरम वस्तुएँ रखी हुई हैं। मैं अन्य किसी का भी विश्वास नहीं करती, अतएव तुम इस पेटिका को स्वयं अपने घर ले जाकर एकान्त में राधिका को दे देना ॥ १२ ॥

सन्देष्टव्यमिदं मदक्षि सुखदे श्रीकीर्त्तिदा-कीर्त्तिदे

राधे प्रेषित - पेटिकान्तर गतेनात्युज्ज्वल - ज्योतिषा ।

त्वात्रोचित- मण्डनेन नितरां त्वद्वल्लभेन स्फुटं

त्वं शृङ्गारवती सदा भव चिरञ्जीवेति सौभाग्यतः ॥ १३ ॥

भावानुवाद- उसे यह समाचार भी कहना - "हे मदक्षि सुखदे ( मेरे नयनों को सुख प्रदान करनेवाली ) ! हे कीर्त्तिदा कीर्त्तिदे (अपनी माता कीर्तिदा की कीर्ति बढ़ानेवाली) हे राधे! मेरे द्वारा भेजी हुई इस अति उज्ज्वल ज्योतिर्मय पेटिका के भीतर तुम्हारे वल्लभ (अतिप्रिय) पक्षान्तर में श्रीश्यामसुन्दर तथा तुम्हारे देहोचित इस मण्डन के द्वारा तुम सदैव शृङ्गारवती अथवा वेशवती पक्षान्तर में उज्ज्वल रसवती होओ तथा सौभाग्य प्राप्त कर चिरञ्जीवी रहो ॥ १३ ॥

श्रुत्वैतत्त्वरितं व्रजेश्वरि ! यथैवाज्ञा तवेति ब्रुवन्

धृत्वा मूर्द्धणि पेटिकां स्वभवनं प्रीत्याऽभिमन्युर्यदा ।

गन्तुं प्रक्रमते स्म तह्यभिसरन् कृष्णस्तमारुह्य तद्-

भार्यां हन्त ! निज- प्रियां स्मितमधात् स्वं कौतुकाब्धौ किरन् ॥१४ ॥

भावानुवाद - यह सुनकर अभिमन्यु ने कहा- हे व्रजेश्वरि! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। यह कहते हुए उसी क्षण उस पेटिका को सिर पर रखकर प्रीतिपूर्वक वह अपने घर जाने के लिए उद्यत हुआ। श्रीकृष्ण भी अभिमन्यु के सिर पर चढ़कर उसी की पत्नी-अपनी प्रेयसी श्रीराधिका के समीप अभिसारी होकर स्वयं को कौतुक – समुद्र में निमग्न करते हुए मृदु-मधुर हास्य करने लगे ॥ १४ ॥

गोपः सोऽपि मुदा हृदाह तदहं धन्यः कृतार्थोऽस्मि यन्

मञ्जूषान्तरिहास्ति काञ्चन - मणीराशिर्महादुर्लभः ।

भारादेव मयानुमीयत इतः क्रीणामि कोटीर्गवां

यद् गोवर्द्धन मल्लवन्मम गृहे लक्ष्मीर्भवित्री परा ॥ १५ ॥

भावानुवाद- वह अभिमन्यु गोप मन ही मन सोचने लगा-आज मैं धन्य हो गया, कृतार्थ हो गया। इस पेटिका के भार से अनुमान होता है कि इसमें जो महादुर्लभ मणिराशि रखी है, मैं उसके द्वारा कोटि-कोटि गायें खरीद लूँगा, जिससे गोवर्धन मल्ल के समान हमारे घर में भी परम लक्ष्मी का निवास होगा ॥ १५ ॥

गोष्ठाधीश पुराद् व्रजन् स्वनिलयाभ्यासावधि स्थानम-

प्यारोहत्-पुलकोल्लसत्तनुरतिप्रीति - प्लुताक्षिद्वयः ।

तादृगभार - शिरा अपि क्षणमपि ग्लानिं स नैवान्बभूत्

पूर्णानन्दघनं वहन् कथमहो जानातु वर्त्मश्रमम् ॥१६ ॥

भावानुवाद - अभिमन्यु इस प्रकार सोचते हुए गोष्ठाधीश श्रीनन्द महाराज की पुरी नन्दगाँव से यात्रा अपने घर तक आते-आते पुलक से परिपूर्ण हो रहा था। उसके समस्त अङ्ग उल्लसित हो रहे थे और प्रीति की अधिकता के कारण दोनों आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। अधिक क्या, सिर पर इतना भार वहन करने से उसने क्षण काल के लिए भी किसी भी प्रकार की थकान का अनुभव नहीं किया। पूर्णानन्दघन वस्तु को वहन करके क्या कभी भी किसी को श्रम का बोध हो सकता है ? ॥ १६ ॥

गत्वा पुरं स्वजननीं जटिलामुवाच

मातः ! शुभक्षणत एव गृहादगच्छम् ।

पश्याद्य काञ्चन मणीवसनादि पूर्णा

लब्धाहतिभाग्यभरतः किल पेटिकेयम् ॥ १७ ॥

भावानुवाद - अनन्तर वह घर जाकर अपनी माता जटिला से बोला - माँ! मैं आज बड़ी शुभ घड़ी में घर से बाहर गया था। देखो, आज मैंने अत्यधिक सौभाग्यवशतः स्वर्ण, मणि तथा वस्त्रादि से पूर्ण इस पेटिका को प्राप्त किया है ॥ १७ ॥

दत्वा स्वयं व्रजपयैव तव स्नुषाये

शृङ्गार - हेतव इहाप्रतिम प्रसादम् ।

कुर्वाणया सपदि तां प्रति पद्यमेकं

प्रोचे च तत् कलय सापि शृणोत्वदूरे ॥ १८ ॥

भावानुवाद - हे मातः ! व्रजेश्वरी ने स्वयं तुम्हारी पुत्रवधू के शृङ्गार के लिए यह अतुलनीय प्रसाद प्रदान किया है तथा उसी समय एक पद्य अथवा श्लोक की रचना कर उसे कहकर भेजा है। उस श्लोक को तुम श्रवण करो और वह भी ( श्रीराधा भी) पास आकर श्रवण करे ॥ १८ ॥

सन्देष्टव्यमिदं मदक्षिसुखदे श्रीकीर्त्तिदा कीर्त्तिदे

राधे प्रेषितपेटिकान्तर गतेनात्युज्ज्वल ज्योतिषा ।

त्वद्वात्रोचित मण्डनेन नितरां त्वद्वल्लभेन स्फुटं

त्वं शृङ्गारवती सदा भव चिरञ्जीवेति सौभाग्यतः ॥ १९ ॥

भावानुवाद- समाचार यह है- "हे मदक्षि सुखदे! हे कीर्त्तिदा कीर्त्तिदे ! हे राधे ! मेरे द्वारा भेजी पेटिका में अति उज्ज्वल, ज्योतिपूर्ण तुम्हारे अतिप्रिय तथा देहोचित मण्डन अथवा अलङ्कार द्वारा तुम सदैव शृङ्गारवती होओ और सौभाग्य से परिपूर्ण होकर चिरञ्जीवी रहो ॥ १९॥

हृदाह तुष्टा जटिलातिभद्र-

मभूदिदं साम्प्रतमेव दिष्ट्या ।

वधूः भविष्यत्यति सुप्रसन्ना

पुत्रेऽत्र मे लब्ध- निजोपकारा ॥ २० ॥

भावानुवाद- इन आशीर्वादपूर्ण वचनों को श्रवण कर जटिला बड़ी सन्तुष्ट हुई तथा मन ही मन कहने लगी- आज सौभाग्य से बड़ा ही मङ्गल उपस्थित हुआ है। इस उपकार (उपहार) को प्राप्त करके वधू मेरे पुत्र के प्रति अत्यन्त प्रसन्न होगी ॥ २० ॥

स्मित्वाऽथ सा स्पष्टमुवाच सूनो !

स्नुषा तथाहं भवतः स्वसा वा ।

न पारयिष्यत्यतिभारमेतद्

इतः समुत्थापयितुं कदापि ॥ २१ ॥

भावानुवाद- तदनन्तर किञ्चित् मुसकराकर जटिला स्पष्ट रूप से बोली- हे वत्स ! तुम्हारी पत्नी, मैं अथवा तुम्हारी बहन कोई भी इस अत्यधिक भारी पेटिका को इस स्थान से उठाने में किसी प्रकार भी सक्षम नहीं है ॥ २१ ॥

मञ्जुषिकां तत्त्वमितो गृहीत्वा

शय्या - गृहान्तर्वृषभानु पुत्र्याः ।

वेद्यां निधायैहि यथोद्घटय

सेमां प्रियं मण्डनमाशु पश्येत् ॥ २२ ॥

भावानुवाद - अतएव तुम ही इस पेटिका को यहाँ से ले जाकर वृषभानुकुमारी के शयन कक्ष की वेदी पर रख आओ, जिससे वह इस पेटिका को खोलकर अपने प्रिय आभूषणों को शीघ्र ही देख सके ॥ २२ ॥

अत्रान्तरे सहचरीष्वति हर्षिणीषु

राधा रहस्यमलधीः ललितामुवाच ।

अद्यालि! वामकुचदो - नयनोरु चारु

किं स्पन्दते मम वदेत्यथ सा- जगाद ॥ २३ ॥

मन्ये मनोहरमिहास्ति मणीन्द्रभूषा-

जातं स्वयं व्रजपया ह्यत एव दत्तम् ।

तत्प्राप्तिरूप शुभसूचक एव राधे !

स्पन्दोऽतिसौभगभरावधिहेतुरेषः ॥ २४ ॥

भावानुवाद - जब अभिमन्यु उस पेटिका को श्रीराधाजी के शयन- कक्ष में रखकर चला गया, तब श्रीराधिका की सहचरियाँ अत्यधिक आनन्द प्रकाश करने लगीं। उस समय विमल बुद्धिमती श्रीराधा निर्जन में ललिता से बोलीं- सखि! बतलाओ तो आज अस्थान पर और असमय ही मेरा वाम-कुच, वाम- बाहु, वाम नयन तथा वाम उरु आदि सुचारु रूप से स्पन्दित क्यों हो रहे हैं?"

इसके उत्तर में ललिता बोली - "श्रीराधे! लगता है, इस पेटिका में मणीन्द्रभूषाजात अर्थात् उत्तम मणि से निर्मित्त भूषण पक्षान्तर में मणि भूषण परिधानकारी श्रीकृष्ण विद्यमान हैं। सचमुच, व्रजेश्वरी ने स्वयं ही इसे प्रदान किया है, अतएव तुम्हारे वाम अङ्ग का स्पन्दन उनकी प्राप्ति रूप शुभ सूचना को ही प्रकट कर रहा है। हे सखि ! यह स्पन्दन अति सौभाग्य की चरमसीमा की प्राप्ति के कारण ही हो रहा है ॥" २३-२४ ॥

दृष्ट्वैव मन्मनसि कञ्चन भावमेषा

मञ्जुषिकैव ललिते! वितनोति बाढ़म् ।

उद्घाटयामि तदिमामधुनैव वीक्षे

सौभाग्यदं किमिह भूषणरत्नमस्ति ॥ २५ ॥

भावानुवाद - श्रीराधाजी कहने लगीं हे ललिते! इस पेटी को देखनेमात्र से ही मेरे मन में कोई एक अनिर्वचनीय भाव (कौतूहल) उत्पन्न हो रहा है। अतएव इसे शीघ्र ही खोलकर देखो कि इसमें सौभाग्यदायक कौन-से भूषणरत्न हैं? ॥ २५ ॥

इत्थं सखीषु सकलासु तदोत्सुकासु

तां पेटिकामभित एव समासितासु ।

द्रष्टुं गतासु निविड़त्वमथ स्वयं सा

दामान्युदस्य रभसादुदघाटयत्ताम् ॥ २६ ॥

भावानुवाद- इस प्रकार सखियाँ उत्सुक होकर "उस पेटिका में कौन-सी निगूढ़ वस्तु है”- यह देखने के लिए उस पेटिका के चारों ओर खड़ी हो गयीं। फिर स्वयं श्रीराधा ने अपने अङ्गों के सारे आवरणों को उतार कर शीघ्र ही उस पेटिका को खोल दिया ॥ २६ ॥

यावत् किमेतदिति ता अहहेति होचु-

र्यावद् भृशं जहसुरेव स्वहस्त - तालम् ।

यावत्रपा सहचरी प्रतिबोधमाप

यावत् प्रमोदलहरी शतमुल्लास ॥ २७ ॥

यावन्निरावरणमङ्ग मनङ्ग-नक्रो

जग्रास यावदतिसम्भ्रम आप पुष्टिम् ।

तत्पूर्वमेव सहसा ततः उत्थितः स

सर्वाः कलानिधि रहो युगपच्चुचुम्ब ॥ २८ ॥

भावानुवाद – पेटिका को खोलते ही सखियाँ- अहह ! ! यह क्या है !! कहती हुई हाथ से ताली बजाकर जोर-जोर से हँसने लगीं । श्रीराधिका की निद्रित लज्जारूप सहचरी जाग उठी तथा शत-शत प्रमोद लहरी उल्लसित होने लगी। तब उनके अनावृत अङ्गों को अनङ्गरूपी मगर ने ग्रास कर लिया और वे लज्जा से अत्यन्त घबड़ा गयीं। किन्तु आश्चर्य का विषय यह था कि इससे पूर्व ही कलानिधि श्रीकृष्ण ने सहसा उस पेटिका से उठकर एक साथ ही सबके मुख का चुम्बन कर दिया ॥२७-२८ ॥

धन्यं भूषणवस्तु ते गृहपतिर्धन्यो यदानीतवान्

धन्या गोष्ठ - महेश्वरी सखि ! यया स्नेहादिदं प्रेषितम् ।

त्वं शृङ्गारवति भवेति च पुन धन्यैव सन्देश - वाग्

धन्यं गेहमिदं यदेत्य निभृतं मञ्जुषिका खेलति ॥ २९ ॥

भावानुवाद- तदनन्तर ललिता ने श्रीराधा से कहा- "हे सखि ! यह जो भूषणादि वस्तुएँ आयी हैं - वह धन्य हैं। जो इन्हें लाया है- वह तुम्हारा पति भी धन्य है तथा जिसने बड़े स्नेह से इन भूषणों को भेजा है - वह गोष्ठमहेश्वरी श्रीयशोदा भी धन्य हैं। हे राधे! मेरे द्वारा प्रेरित इस भूषण द्वारा तुम शृङ्गारवती होओ यह समाचार वाणी भी धन्य है और जहाँ यह पेटिका आकर क्रीड़ा कर रही है- वह घर भी धन्य है ॥ २९ ॥

गोष्ठेशा निदिदेश ते बहुतर स्नेहात्ततस्ते पतिः

श्वश्रूरालि तदन्वतीव रभसाद्दत्वैव मञ्जूषिकाम् ।

त्वं शृङ्गारवती भवेत्ययि गुरुत्रया वचः -पालनं

गान्धर्वे! कुरु सर्वथेति ललिता वाण्याथ सा तत्र ॥ ३० ॥

भावानुवाद - "हे सखि ! गोष्ठेश्वरी ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक तुम्हें आदेश दिया है- 'मैंने जो भेजा है, उसके द्वारा तुम शृङ्गारवती होओ' तथा तुम्हारे पति और सास दोनों ने भी इसमें सम्मति प्रकट की है। अतएव, हे गान्धर्विके! सदा ही इन तीनों गुरुजनों की आज्ञा का पालन करो।ललिता की यह वाणी सुनकर श्रीराधा बड़ी लज्जित हुई ॥ ३० ॥

मञ्जूषिकान्तरिह मे बहुरत्नभूषा

आसन् स्वयं व्रजपया सखि ! या वितीर्णाः ।

संरक्ष्य ताः क्वचन धूर्त्त इह प्रविष्ट-

‍चौराऽयमस्ति तदिदं वद भो मदार्याम् ॥३१ ॥

भावानुवाद- तब श्रीराधा कहने लगी- "सखि व्रजेश्वरी ने अवश्य ही स्वयं इस पेटिका में बहुत-से रत्न- अलङ्कार आदि मेरे लिए दिये थे, परन्तु एक धूर्त चोर उन्हें चुराकर किसी अन्य स्थान पर रखकर स्वयं ही इस पेटिका में प्रवेश कर बैठ गया है। तुम शीघ्र ही यह सारा वृत्तान्त आर्या (सास) जटिला से कह दो ॥ ३१ ॥

राधाभिसारिन्नभिमन्युवाहन !

क्षितिं सतीशून्यतमां चिकीर्षो !

प्रयच्छ रत्नाभरणानि शीघ्रं

नो चेदिहार्यामहमानयामि ॥ ३२ ॥

भावानुवाद - तदनन्तर ललिता ने श्रीकृष्ण से कहा - "हे राधाभिसारिन् ! हे अभिमन्युवाहिन् ! अर्थात् तुम अभिमन्यु के सिर पर चढ़कर उसकी ही पत्नी राधा के समीप अभिसार की इच्छा से आये हो तुम पृथ्वी को सती शून्य करने के लिए ही उद्यत हो रहे हो। शीघ्र ही रत्नालङ्कारों को लौटा दो, नहीं तो यहीं पर आर्या जटिला को बुलाती हूँ॥ ३२॥

धूर्त्ता सखी ते ललिते ! स्वकृत्ये

दक्षावहित्थामधुना ललम्बे ।

मामानयत् प्रेष्य पतिं बलाद् या

मञ्जूषिकान्तः कुतुकाद् वसन्तम् ॥ ३३ ॥

भावानुवाद - श्रीकृष्ण बोले- देखो ललिते! तुम्हारी सखी राधा अत्यन्त धूर्त्त है तथा अपना कार्य साधने में बहुत निपुण है। मैंने कौतूहलवशतः इस पेटिका में प्रवेश किया था, तुम्हारी सखी अपने पति के द्वारा बलपूर्वक मुझे यहाँ लायी है और अब उस बात को तुमलोगों से छिपा रही है ॥ ३३ ॥

मञ्जूषायाः सौरभं वीक्ष्य तस्या

वस्तूदस्य प्रापयंस्तां धनिष्ठाम् ।

तत्र प्रीत्या प्राविशं स्वं सुगन्धी-

कर्त्तुं देवादानयन्मां पतिस्ते ॥ ३४ ॥

भावानुवाद- तत्पश्चात् श्रीकृष्ण श्रीराधिका से कहने लगे- "हे राधे ! मैंने इस पेटिका के सौरभ का आस्वादन करके इसके भीतर रखे द्रव्यों को धनिष्ठा द्वारा तुम्हारे पास भेजकर प्रीतिवशतः इस पेटिका में अपनी देह को सुगन्धित करने के लिए प्रवेश किया ही था कि उसी समय दैववशतः तुम्हारा पति मुझे यहाँ ले आया ॥ ३४ ॥

न्यायं सख्या नौ कुरुध्वं यदस्या

दोषः स्याच्चेदस्तु दण्ड्या ममेयम् ।

नोचेद् युष्मद्दोर्भुजङ्गोग्रपाशै-

बद्धः स्थास्याम्यत्र ताम्यं स्त्रिरात्रम् ॥ ३५ ॥

भावानुवाद - तदनन्तर सखियों से कहने लगे- हे सखियो ! मैं तुम लोगों से इस विषय में नालिश (अभियोग) कर रहा हूँ-तुमलोग उस पर विचार करो। देखो, यदि श्रीराधा का दोष हो, तो मैं श्रीराधिका को दण्ड दूँगा और यदि मेरा दोष हैं, तो तुमलोगों के बाहुरूप सर्प के उग्रपा में बद्ध होकर यहीं तीन रातें दुःख के साथ बिताऊँगा ॥ ३५ ॥

यस्यैवं विभवेन तन्नवयुवद्वन्द्वं स्फुरद् यौवनं

सख्यात्यक्षि- चकोरिकाः शरततिं कामोरसः स्वादनाम् ।

ध्यानं भक्तततिः सदा कविकुलं स्वीया विचित्रा गिरः

कीर्ति क्ष्मा भुवनेषु साधु सफलीचक्रे नुमस्तत्परम् ॥ ३६ ॥

भावानुवाद - जिन युगलकिशोर के ऐसे वैभव के द्वारा सखियों ने अपने नयन-चकोर को, काम ने अपने बाणों को, रस ने आस्वादन को, भक्तों ने ध्यान को, कवियों ने अपनी विचित्र-विचित्र वाणियों को तथा चौदह भुवनों में इस भौम वृन्दावन अथवा पृथ्वी ने अपनी कीर्त्ति को उत्तम रूप से सफल किया है-वैसे विलास-परायण तथा नित्य-यौवन अथवा व्यक्त - कैशोर व्रजनव युगल श्रीश्रीराधाकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं ॥ ३६ ॥

इति:श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका प्रथम कौतूहल ॥

आगे जारी... श्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय: कौतूहल

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