पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

श्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल

श्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल

अलङ्कारिकों का कहना है- रसे सारः चमत्कारः – रस का सार चमत्कार है अर्थात् यह चमत्कारचन्द्रिका रसों का सार है। अतएव इस ग्रन्थ के चारों कौतूहलों में रसों का सार प्रदर्शित होने के कारण इस ग्रन्थ का नाम श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका सार्थक है। द्वितीय कौतूहल में अभिमन्यु के वेष में श्रीकृष्ण का राधाजी से मिलन है।

श्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल

चमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल

श्रीचमत्कारचन्द्रिका दूसरा कौतूहल

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका कौतूहल २

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय: कौतूहल

अथ द्वितीय कौतूहल

प्रातः पतङ्गतनया मनया पदव्या

स्नानाय याति किमियं वृषभानु पुत्री ।

इत्याकुलैव कुटिला व्रजराजवेश्म

कृष्णं विलोकितुमगान्मिषतोऽति मन्दा ॥ १ ॥

भावानुवाद- एक समय माघ मास में श्रीराधा नियमपूर्वक प्रातः यमुना स्नान के लिए जाया करती थीं, इससे कुटिला के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। एक दिन श्रीराधा जब स्नान करने के लिए घर से बाहर निकली, तब पीछे से कुटिला भी कोई बहाना बनाकर नन्दालय में श्रीकृष्ण हैं या नहीं यह जानने के लिए उत्सुक होकर श्रीव्रजराज के महल में गयी । अर्थात् वृषभानुकुमारी श्रीराधा इस रास्ते से यमुना प्रातः स्नान के लिए जाती है या नहीं यह जानने के लिए तथा आकुल चित्त से कृष्ण का दर्शन करने के लिए अति मन्दमति कुटिला किसी छल से व्रजराज के भवन में गयी ॥ १ ॥

स्नातुं स चापि निजमातुरनुज्ञयैव

तद् यामुनं तटमगादिति सम्विदाना ।

गन्तुं तदीय पदलक्ष्मदिशैच्छदेषा

तत्रैव यत्र स तया सुविलालसाति ॥ २ ॥

भावानुवाद- कुटिला को परिजनों के द्वारा पता चला कि श्रीकृष्ण भी माँ यशोदा की आज्ञानुसार स्नान करने के लिए गये हैं। यह सुनकर कुटिला का सन्देह और भी बढ़ गया। तब कुटिला ने श्रीकृष्ण के असाधारण पद- चिह्नों का अनुसरण किया तथा जिस स्थान पर श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ सुन्दर सुन्दर विलासादि करते हैं, वहाँ जाने की इच्छा से अग्रसर हुई ॥ २ ॥

अत्रान्तरे सहचरी तुलसी प्रविश्य

कुञ्ज विलोक्य ललितादि सखी - समेताम् ।

राधां प्रियेण सह हास विलास लीला-

लावण्यमज्जित-हृदं मुमुदे ऽवदच्च ॥ ३ ॥

भावानुवाद – कुटिला को निकुञ्ज के निकट आते देख तुलसी नाम की श्रीराधा की सहचरी ने कुञ्ज में प्रवेश करके देखा कि श्रीराधा ललितादि सखियों से परिवेष्टित होकर ( घिरकर) प्रियतम के साथ हास - विलास-लीला लावण्य में मग्न-चित्त हो रही हैं। उस विलास का दर्शन करके तुलसी अत्यन्त आनन्दित होकर कहने लगी- ॥३॥

भो भोः प्रसूनधनुषो जनुषोऽतिभाग्य-

विख्यापनाय यदिमं महातनुध्वे !

तत् साम्प्रतं शृणुत साम्प्रतमेनमेव

द्रष्टुं व्रजाल्लघुतरं कुटिला समेति ॥ ४ ॥

भावानुवाद - अरी- अरी गोपियो ! कुसुम-धनुष अर्थात् कामदेव के जन्म को अत्यधिक सफल करने के लिए तुम सबने जो यह महोत्सव आरम्भ किया है, उसके सम्बन्ध में इस समय एक बात सुनो- इस सुन्दर उत्सव का दर्शन करने के लिए कुटिला मन्दगति से व्रज से इसी ओर आ रही है। वह अब यहाँ पहुँचने ही वाली है ॥४॥

सा क्व क्व हन्त ! कथयेति सशङ्कनेत्रं

प्रत्याशमालिभिरियं निजगाद पृष्टा ।

सट्टीकविमा समया व्यलोकि

तर्ह्येव सम्प्रति तु वोऽन्तिकमप्युपागात् ॥५ ॥

भावानुवाद - यह सुनकर सब सखियाँ हाय! हाय! वह कहाँ है ?

बोलो बोलो" - ऐसा कहती हुई सशङ्क नेत्रों से प्रत्येक दिशा में देखती हुई तुलसी से पूछने लगीं।

तुलसी ने कहा- मैंने उस समय उसे छुट्टीकरा ( शकटीकरा ) वन के समीप देखा था, लगता है वह इस समय इस स्थान के समीप ही कहीं होगी ॥५ ॥

प्रोचे हरिः क्षणमुदर्कमिहैव कुजे

स्थित्वालय: कलयताहमितो जिहानः ।

तां वञ्चयन् प्रतिभया रचिताऽभिमन्यु-

वेशः कुतूहलमितोऽप्यधिकं विधास्ये ॥ ६ ॥

भावानुवाद - यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- हे सखियो ! तुमलोग इसी कुञ्ज में क्षणकाल रहकर उदर्क अर्थात् सूर्योदय अथवा भावी- फल का दर्शन करो। मैं यहाँ से निकलकर अभिमन्यु का वेश धारण करके अपनी प्रतिभा से कुटिला को ठगकर इसकी तुलना में और अधिक कौतुक का विस्तार करूँगा ॥ ६ ॥

इत्युक्त्वा रहसि प्रविश्य विपिनाधीशात्ततत्तत् पृथङ्

नेपथ्याः पिहित स्वलक्ष्म निचयः कण्ठस्वरं तं श्रयन् ।

निष्क्रम्याणुससार तां सृतिमयं साऽऽयाति दूराद् यया

नार्थे हन्त ! विचक्षणः क्व नु भवेन्नानाकला - कोविदः ॥७ ॥

भावानुवाद - यह कहकर श्रीकृष्ण किसी निकुञ्ज में प्रवेश कर गये तथा वनदेवी वृन्दा से अभिमन्यु के वेशोपयोगी विभिन्न सामग्रियों को ग्रहण किया। उनके द्वारा अपने चिह्नों को ढका तथा अभिमन्यु का वेशधारण कर उसी के समान कण्ठ - स्वर करते हुए कुञ्ज से बाहर आ गये। तदन्तर वह कुटिला जिस पथ से आ रही थी, उसी पथ पर चल पड़े। अहो ! विविध कलाओं में निपुण व्यक्ति क्या कहीं भी अपने कार्य को साधने में विचक्षण नहीं होता अर्थात् अवश्य होता है ॥७ ॥

कस्मात्त्वं कुटिले ! व्रजाद् भ्रमसि किं वध्वा इहान्वेषणा

यायाता क्व नु सार्कजापसु मकर स्नानं मिषं कुर्वती ।

अत्रैवास्ति गता क्वचित् क्व रमणीचौरः स चाप्यागतः

स्नातुं भ्रातरतोऽन्वयास्मि गमिता कुर्वे किमाज्ञापय ॥८ ॥

भावानुवाद - अभिमन्युवेशी श्रीकृष्ण कुछ दूर अग्रसर होने पर कुटिला से मिले और बोले- कुटिले ! इस समय तुम व्रज में भ्रमण क्यों कर रही हो?

कुटिला-वधू को ढूँढने के लिए यहाँ आयी हूँ।

श्रीकृष्ण- वह क्या यहाँ आयी है?

कुटिला – यमुना में मकर स्नान के बहाने से जाकर वह यहीं किसी स्थान पर है ।

श्रीकृष्ण - वह रमणी-चोर कहाँ है ?

कुटिला- वह भी स्नान करने के लिए इधर ही आया है। इसीलिए माताजी ने मुझे यह सब वृत्तान्त जानने के लिए भेजा है। अब मैं क्या करूँ? बतलाओ ॥ ८ ॥

यद्यप्यद्य परिच्युतो मम वृषो नव्यो हले योजना-

दन्वेष्टुं तमिहागतोऽस्मि तदपि स्वल्यैव सा यथा ।

मद्दारेष्वपि लम्पटत्वमिति यत् सोढ्यं किमेतत् क्षमे

गत्वा कंसमितः फलं तदुचितं दास्यामि तस्मै स्वसः ॥ ९ ॥

भावानुवाद - श्रीकृष्ण हे बहन! आज मेरा एक नया बैल खेत जोतते समय हल से निकलकर भाग गया है, मैं उसे खोजते हुए यहाँ आया हूँ । नया बैल चोरी होने पर भी मेरे हृदय में इतना दुःख नहीं है, किन्तु वह रमणी चोर मेरी पत्नी के प्रति भी लाम्पट्य प्रकट करता है - इससे जो अत्यधिक पीड़ा होती है, उसे क्या कोई सहन कर सकता है? अतएव इसी समय मथुरा में महाराज कंस के निकट जाकर उसे उचित दण्ड दिलवाऊँगा ॥ ९ ॥

युक्तिं कामपि मे शृणु प्रथमतो निहृत्य तिष्ठाम्यहं

कुजेऽस्मिन् परितस्त्वयाऽत्र रभसादन्विष्यतां राधिका ।

सा कृष्णेन विनास्ति चेदिह मिषेणानीयतां सोऽपि चेद

आस्तेऽलक्षितमेव तत्र नय मां वीक्ष्यैव तं दूरतः ॥१० ॥

भावानुवाद - सर्वप्रथम तुम मेरी एक युक्ति सुनो। मैं इस कुञ्ज में छिप जाता हूँ, तुम शीघ्र ही राधिका को इधर-उधर खोजो । यदि वह कृष्ण के बिना अकेली मिल जाय, तो उसे छलपूर्वक इस कुञ्ज में ले आना और यदि वह कृष्ण के निकट हो, तो उसे दूर से ही देखकर मुझे अलक्षित भाव से उस जगह ले चलना ॥ १० ॥

भ्रामं भ्रामं फणि हृद तटाद्वीक्ष्य वीक्ष्यैव कुञ्जा

नन्तः प्रोद्यतत्कुटिलिम-धुरा केशितीर्थोपकण्ठे ।

पुष्पोद्यानेऽमल-परिमलां कीर्तिदा-कीर्त्तिवल्लीं

प्रापालीनां ततिभिरभितः सेव्यमानां शनैः सा ॥ ११ ॥

भावानुवाद - इस बात को सुनकर अत्यन्त कुटिल स्वभाववाली कुटिला कालियहद से आरम्भ करके प्रत्येक कुञ्ज में ढूँढ़ती ढूँढ़ती केशीघाट के निकट एक पुष्पोद्यान में आयी । वहाँ उसने देखा कि विमल परिमल - शालिनी कीर्त्तिदा कीर्त्तिवल्ली (अर्थात् निर्मल सुगन्ध से युक्त तथा कीर्त्तिदा की कीर्त्ति को बढ़ानेवाली लता के समान) श्रीराधा सखियों से परिवेष्टित (घिरी हुई) है और सखियाँ धीरे-धीरे उसकी सेवा कर रही हैं ॥ ११ ॥

किं स्नातुमेषि कुटिले ! नहि तत् किमर्थं

युष्मच्चरित्रमवगन्तुमिहान्वगच्छम् ।

ज्ञातं तदाशु ललिते! वद तद् ब्रवीमि

किन्वाऽत्र वक्ति निखिलं हरिगन्ध एव ॥ १२ ॥

भावानुवाद – ललिता ने कुटिला को वहाँ आयी देखकर पूछा- हे कुटिले ! क्या तुम स्नान करने के लिए आयी हो?

कुटिला- नहीं।

ललिता- तो फिर किसलिए आयी हो ?

कुटिला – तुमलोगों के चरित्र को जानने के लिए आयी हूँ।

ललिता- ठीक है, जान लो ।

कुटिला - हे ललिते! मैं सब कुछ समझ गयी हूँ ।

ललिता - समझ गयी हो? जरा अपने मुख से मुझे भी तो बतलाओ क्या समझ गयी हो ?

कुटिला- मैं और क्या बतलाऊँ? 'हरि' की गन्ध ने ही सब कुछ बतला दिया है ॥ १२ ॥

सिंहस्य गन्धमपि वेत्सि स चेदिहास्ति

नित्य कुत्रचन, तद्विभिमोऽति मुग्धाः ।

तूर्णं पलाय तदितो गृहमेव यामः

स्नेहं व्यधा स्त्वममलं यदिहैवमागाः ॥ १३ ॥

भावानुवाद- ललिता 'हरि' शब्द का 'सिंह' अर्थ ग्रहण करके बोली- कुटिले ! यदि तुमने सिंह की गन्ध को पा लिया है, तो अवश्य ही सिंह किसी स्थान पर छिपा होगा। हमलोग तो अति मुग्ध (भोली-भाली ) अबला हैं, अतएव बड़ी भयभीत हो रही हैं। अब यहाँ से भागकर शीघ्र ही घर जा रही हैं। तुमने इस स्थान पर इस प्रकार से आकर हमारे प्रति विमल स्नेह ही प्रकट किया है ॥ १३ ॥

यास्यन्ति गेहमयि धर्मरता भवत्यः

कीर्ति वनेषु विरचय कुलद्वयस्य ।

किन्त्वग्रतो य इह राजति नीपकुञ्ज

स्तद्द्द्वारमुद्घटयतास्मि दिदृक्षुरेतम् ॥ १४ ॥

भावानुवाद - कुटिला क्रोध से भरकर बोली- अरी धर्मपरायण सखियो ! तुमलोग वन-वन में दोनों कुलों की कीर्ति की घोषणा करके ही घर जाओगी। किन्तु सामने जो नीप अथवा कदम्ब का कुञ्ज है, उसके द्वार को खोलो, मैं उसके भीतर देखना चाहती हूँ ॥ १४ ॥

एतत् कयाऽपि वनदेवतया स्ववेश्म

रुद्धा गतं शरशलाक-कवाटिकाभ्याम् ।

का नाम साहसवती परकीय गेह-

द्वारं विनुद्य बत दोषमशेषमिच्छेत् ॥ १५ ॥

भावानुवाद - ललिता- कोई वनदेवता अपने निकुञ्ज गृह का द्वार शर-शलाका (कुश के तीले से) निर्मित कपाट द्वारा बन्दकर किसी अन्य स्थान पर चला गया है। अतएव इस कदम्ब कुञ्ज के द्वार को खोलना युक्तिसङ्गत नहीं है। कौन सी ऐसी साहसवती नारी है, जो दूसरे के घर का द्वार खोलकर सम्पूर्ण दोष ग्रहण करने का प्रयास करेगी? ॥ १५ ॥

सत्यं ब्रवीषि ललिते! कुलजाऽसि मुग्धा

नैवाविशः परगृहं जनुषोऽपि मध्ये ।

किन्तु प्रवेशयसि भोः स्वगृहं परं यत्

तच्छास्त्र पाठनकृते त्वमिहावतीर्णा ॥ १६ ॥

इत्युक्त्वारुणितेक्षणा द्रुतमियं गत्वा कुटीरान्तिकं

भित्वा पुष्प वाटिकामतिजवादन्तः प्रविश्य स्फुटम् ।

दृष्ट्वा कौसुमतल्पमत्र च हरेर्माल्यं तथा राधिका-

हारञ्च त्रुटितं प्रगृह्य रभसादगाराद् बहिः ॥ १७ ॥

भावानुवादकुटिला-ललिते ! तुमने सत्य ही कहा है! तुम भोली-भाली कुलकन्या हो! इस जन्म में ही तुमने कभी दूसरे के घर में प्रवेश नहीं किया। किन्तु अपने घर में पर-पुरुष को प्रवेश कराना अच्छी तरह से जानती हो और कुलनारियों के घर में पर-पुरुष का प्रवेश कराना जिस शास्त्र में लिखा है, उसी शास्त्र को पढ़ाने के लिए तुम पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई हो ।

कुटिला क्रोध से लाल नेत्र करके ऐसी बातों को कहती हुई अति शीघ्र गति से कुञ्ज – कुटीर के समीप आयी तथा वेगपूर्वक पदाघात करके शर-शलाकों से बनी हुई पुष्प-कपाटिका को तोड़कर भीतर प्रवेश कर गयी। वहाँ साक्षात् रूप से कुसुम- शय्या पर श्रीहरि की माला तथा श्रीराधा का टूटा हुआ मुक्ताहार देखकर उन दोनों वस्तुओं को लेकर शीघ्र ही बाहर आ गयी ॥ १६-१७ ॥

माघस्नानमिदं यथा विधिकृतं पुण्यं तथोपार्जितं

पुतं येन कुलद्वयं रविसुतातीरे रविश्चार्चितः ।

तद् यूयं ललिते! यियासथ गृहं किंवात्र रात्रिन्दिवं

धर्मं कर्त्तुमभीप्सथेति वद मे श्रोत्रं समुत्कण्ठते ॥ १८ ॥

भावानुवाद- तब कुटिला ने ललिता को उन दोनों वस्तुओं को दिखाकर कहा- ललिते! तुमलोग जिस प्रकार से माघ स्नान व्रत का आचरण कर रही हो, उसी प्रकार से पुण्य भी उपार्जित कर रही हो - जिससे तुमलोगों ने अपने दोनों कुलों अर्थात् पितृकुल और श्वसुरकुल को पवित्र कर दिया है । आहा ! इस यमुना के तट पर तुमलोग ही यथाविधि सूर्यदेव की पूजा कर रही हो। अब यह तो बतलाओ कि तुमलोग क्या घर लौटना चाहती हो अथवा इसी स्थान पर रहकर दिन-रात धर्मोपार्जन करना चाहती हो? मेरे कान यह सुनने के लिए बड़े ही उत्कण्ठित हो रहे हैं ॥ १८ ॥

किं कुप्यसीह कुटिले! न ममैष हारो

भ्रातुस्तवैव शपथं करवै प्रसीद ।

इत्युक्तवत्यमल चन्द्रमुखी सकम्प-

शीर्ष सहंकृति कटु श्रुतया ततर्जे ॥ १९ ॥

भावानुवाद – कुटिला की व्यङ्गोक्ति को सुनकर विमल चन्द्र के समान मुखवाली श्रीराधा ने कहा- "कुटिले ! तुम क्यों व्यर्थ ही क्रोध कर रही हो? यह हार मेरा नहीं है, तुम्हारे भैया की शपथ लेकर कहती हूँ, तुम प्रसन्न हो जाओ।" तदनन्तर श्रीराधा अपना सिर हिलाकर हुङ्कार करती हुई विकट भ्रू- भङ्गिपूर्वक तर्जन (क्रोध) करने लगी ॥ १९ ॥

नेतः प्रयास्यत गृहं यदि न प्रयात

राज्यं कुरुध्वमिह तावदहन्तु यामि ।

तां मातरं भगवतीमपि हारमाल्ये

सन्दर्श्य युष्मदुचितेष्ट - विधौ यतिष्ये ॥ २० ॥

भावानुवाद- उस समय कुटिला ने कहा- यदि तुमलोगों की घर जाने की इच्छा नहीं हैं, तो अब फिर मत जाओ - तुमलोग इसी वन में ही राज्य विस्तार करती रहो, किन्तु मैं घर जा रही हूँ। मैं अपनी माँ और भगवती पौर्णमासी को यह हार तथा माला दिखाकर तुम्हारे लिए समुचित दण्ड की व्यवस्था करती हूँ ॥ २० ॥

कामं प्रयाहि कुटिले ! कटु किं ब्रवीषि

हारं प्रदर्शय गृहं गृहमेव सर्वाः ।

नास्माकमेष यदतो न विभेमि किञ्चन

मिथ्याप्रवादमपि नो न कदा ददासि ॥ २१ ॥

भावानुवाद - श्रीराधा-कुटिले ! तुम स्वच्छन्दतापूर्वक जाओ। किन्तु तुम कड़वे वचन क्यों सुना रही हो? घर-घर में जाकर सभी को यह हार दिखाना। यह हार जब मेरा है ही नहीं, तो मुझे लेशमात्र भी डर नहीं है। देखो! कभी भी हमारे विरुद्ध मिथ्या आरोप मत लगाना ॥ २१ ॥

सा क्रुद्धा द्रुतमेव गोष्ठगमनं स्वस्य प्रदश्यैव ता

यत्रास्ते हरि राजगाम शनकैस्तत्रैव निहत्य सा ।

भ्रातर्माल्यमघद्विषः कलय भो वध्वाश्च हारं मया

प्राप्तं सौरत - तल्पगं रहसि ता दृष्टाः स नालोकितः ॥ २२ ॥

भावानुवाद- तदनन्तर कुटिला क्रोधित होकर मानों गोष्ठ की ओर जा रही हो, यह भाव दिखलाकर तीव्र गति से अभिमन्यु-वेशधारी श्रीहरि के निकट गयी तथा धीरे-धीरे अति गोपन भाव से कहने लगी- अरे भैया ! अघारि श्रीकृष्ण की इस माला को देखो और बहू का टूटा हुआ मुक्ताहार भी देखो, जिन्हें मैंने सौरत शय्या से प्राप्त किया है। राधिका आदि को तो मैंने निर्जन स्थान में देखा था, किन्तु वह रमणी चोर मुझे कहीं भी दिखायी नहीं पड़ा ॥ २२ ॥

भद्रं भद्रमिदं बभूव मथुरां गच्छामि तूर्णं भगि-

न्येतावद्द्वयमेव लम्बनमभूद् विज्ञापने राजनि ।

किन्तु स्वीय गृहस्य वक्तुमुचितो न स्यात् कलङ्को महां

स्तस्मिन् वृष्णि सदस्यतश्चतुरिमाम्नातव्य एको मया ॥ २३ ॥

भावानुवाद - तब अभिमन्यु-वेशधारी श्रीकृष्ण बोले- अरी बहन ! अच्छा ही हुआ ! मैं शीघ्र ही मथुरा जा रहा हूँ। यह टूटा हार तथा माला दोनों ही मुझे दो। मैं इन्हें दिखलाकर राजा से निवेदन करूँगा, जिससे राजा मेरी बातों पर विश्वास करेगा। किन्तु अपने घर का यह महा- कलङ्क प्रकाशित करना उचित नहीं होगा। अतएव यदुसभा में एक चतुराई प्रकाशित करूँगा ॥ २३ ॥

गोवर्द्धनं प्रियसखं प्रतिवाच्यमेत-

च्चन्द्रावलीमपि भवद् - गृहिणीं निकुञ्जे ।

आनीय दूषयति नन्दसुतस्तदेतद्

वस्तुद्वयं कलय तन्मिथुनस्य लब्धम् ॥ २४ ॥

भावानुवाद- वह चतुराई यह है कि मैं स्वयं राजा के निकट न जाकर अपने प्रिय सखा गोवर्धन मल्ल के निकट निवेदन करूँगा - "हे प्रिय बन्धो ! नन्दनन्दन ने तुम्हारी गृहिणी (पत्नी) चन्द्रावली को निकुञ्ज में बुलाकर उसे दूषित किया है। उनका टूटा हुआ हार तथा माला मुझे प्राप्त हुए हैं- यह देखो ॥ २४ ॥

इत्थं लम्पटतां व्रजे प्रतिगृहं दृष्ट्वेव तस्याधिकां

त्वामाज्ञापयमद्य तत्त्वमधुना विज्ञाप्य राज्ञि द्रुतम् ।

पत्तीनां शतमश्ववार दशकं प्रेष्यैव नन्दीश्वरान्

नन्दं सात्ममानयन् मधुपुरीं तं तत् फलं प्रापय ॥ २५ ॥

भावानुवाद- देखो सखे ! आज जिस प्रकार कृष्ण ने तुम्हारी गृहिणी के प्रति लम्पटता की है, उसी प्रकार प्रत्येक गृह में उसकी लम्पटता अधिक परिमाण में बढ़ती जा रही है-ऐसा देखकर ही मैंने तुम्हें बतलाया है। तुम राजा कंस के निकट निवेदन करके एक सौ पैदल सेना तथा दस घुड़सवार सेना भेजकर नन्दग्राम से पुत्र के साथ नन्द को भी बाँधकर मथुरा लाकर उन्हें दण्ड दिलवाओ ॥ २५ ॥

इत्युक्त्वैव मया पुनः स्वभवनं पूर्वाह्न एवैष्यते

मध्याह्ने खलु राजकीय - पुरुषा यास्यन्ति ते तु व्रजम् ।

त्वं गत्वा गृह एव मातृसहिता तिष्ठेरिति प्रचिवान्

कृष्णो दक्षिणादिङ्मुखोऽव्रजदथो सा ताश्च वेश्माययुः ॥ २६ ॥

भावानुवाद - गोवर्धन मल्ल से ऐसा कहकर मैं पूर्वांह्न  में ही लौट आऊँगा, क्योंकि मध्याह्न काल में राजकीय सेना व्रज में पहुँच जायेगी। तुम घर जाकर माता के पास ही रहना। अभिमन्यु-वेशधारी श्रीकृष्ण इस बात को कुटिला से कहकर दक्षिण की ओर उन्मुख होकर मथुरा की ओर अग्रसर हुए। तदनन्तर कुटिला तथा गोपियाँ भी अपने-अपने घर लौट गयी ॥ २६ ॥

कृष्णो विलम्ब्य घटिकात्रयतोऽथ तादृग्-

वेश: स्वयं स जटिला गृहमाससाद ।

भोः क्वासि मात रयि भो कुटिले ! समेत्य

जानीहि वृत्तमिति ते प्रति किञ्चिदूचे ॥ २७ ॥

भावानुवाद – अभिमन्युवेश में श्रीकृष्ण किसी स्थान पर तीन घड़ी समय व्यतीत करके स्वयं उसी वेश में जटिला के घर में आकर उच्च स्वर से बोले - हे मातः ! तुम कहाँ हो ? हे कुटिले ! कहाँ हो? तुमलोग यहाँ आकर एक बात सुनो ॥ २७ ॥

विज्ञापितः स नृपतिः प्रजिघाय यद् यद्

द्रागश्ववार- दशकं तदिहैति दूरे।

किन्त्वत्र लम्पटवरो धृत-मत्-स्वरूपो

मद्गेहमेति तदलक्षित आगतोऽस्मि ॥ २८ ॥

भावानुवाद - उन दोनों के निकट आने पर अभिमन्यु-वेशधारी श्रीकृष्ण ने कहा- मैंने राजा कंस को सब कुछ बतला दिया है। उन्होंने दस जनों की घुड़सवार सेना को भेज दिया है, वे शीघ्र ही आ रहे हैं। किन्तु वह लम्पट मेरा वेश धारण करके मेरे ही घर आ रहा है, इसलिए मैं छिपकर घर पर ही रहूँगा ॥ २८ ॥

बहिर्द्वारं रुद्धा भगिनि ! सह मात्रा द्रुतमितः

समारुह्यैवाट्टं कलय तरुणी लम्पट - पथम् ।

तमेष्यन्तं तर्जन्त्यतिकटुगिरा तिष्ठ सुचिरं

वधूं रुन्धन् वर्त्ते तलसदन एवाहमधुना ॥ २९ ॥

भावानुवाद - हे बहिन ! तुम बाहर के द्वार को बन्द करके शीघ्र ही माता के साथ अट्टालिका के ऊपर चढ़कर उस तरुणी लम्पट का रास्ता देखती रहो। उसके आते ही अति कटु वचनों से उसका तिरस्कार करना। मैं तब तक तुम्हारी बहू को रोककर नीचे के कक्ष में प्रतीक्षा करूँगा ॥ २९ ॥

अथायान्तं दृष्ट्वा त्वरितमभिमन्युं कटु रट-

न्त्यरे धर्मध्वंसिन् व्रजकुलभुवां किं नु यतसे ।

प्रवेष्टुं मद् भ्रातुर्भवन मयि लोष्ट्रालिभिरितः

शिरो भिन्दन्ती ते बत चपल दास्ये प्रतिफलम् ॥ ३० ॥

भावानुवाद- तदनन्तर श्रीकृष्ण श्रीराधिका के निकट तल भवन में चले गये। थोड़ी ही देर में अभिमन्यु के अपने घर के समीप आने पर कुटिला उसे देखकर कटु भाषा में कहने लगी- अरे ! व्रजकुल की रमणियों के धर्मध्वंसि! क्या तू मेरे भाई के घर में भी प्रवेश करने के लिए प्रवृत्त हुआ है? अरे ! चञ्चल ! देख इस ओर आया तो इस पत्थर के ढेले से तेरा सिर फोड़कर तुझे इसका समुचित फल प्रदान करूँगी ॥ ३० ॥

तवान्यायं श्रुत्वा कुपितमनसः कंस नृपते-

भेटा आयान्त्यद्धा सपितृकमपि त्वां सुखयितुम् ।

यदा कारागारे नृपति - नगरेस्थास्यसि चिरं

निरुद्धस्तर्हि त्वच्चपलतरता यास्यति शमम् ॥ ३१ ॥

भावानुवाद- तेरे दुराचार की बात सुनकर राजा कंस ने क्रोधित होकर तेरे पिता के साथ तुझे सुखी करने के लिए राज- सेना को भेज दिया है, वह शीघ्र ही आती होगी। जब वे तुझे राजधानी मथुरा में ले जाकर जीवन भर के लिए कारागार में बन्द करके रखेंगे, तभी तेरी यह चञ्चलता शान्त होगी ॥ ३१ ॥

इति श्रुत्वा जल्पं विकलमभिमन्युः कथमहो

स्वसारं मे प्रेतोऽलगदहह कचित् कटुतरः ।

तदानेतुं यामि त्वरितमिह तन्मान्त्रिक - जना-

निति ग्रामोपान्तं वितत- बहुचिन्तः स गतवान् ॥३२॥

भावानुवाद - इस प्रकार अपनी बहिन की अटपटी बातों को सुनकर अभिमन्यु अत्यन्त घबड़ाकर सोचने लगा- हाय! हाय! मेरी बहन को भयङ्कर प्रेत ने किस प्रकार पकड़ लिया है? अतएव अब शीघ्र ही मान्त्रिक (मन्त्र-तन्त्र - ज्ञाता) अथवा ओझा को बुलाना ही युक्तियुक्त है। ऐसा निश्चित करके तथा नाना प्रकार की चिन्ताओं से व्याकुल होकर अभिमन्यु गाँव की अन्तिम सीमा पर चला गया ॥ ३२ ॥

एवं हरि स जटिला गृह एव तस्या

वध्वा सहारमत चित्र – चरित्र रत्नः ।

यत्नः क एव फलवत्वमगान्न तस्य

किम्वा फलं परवधूरमणादृतेऽस्य ॥ ३३ ॥

भावानुवाद- इस प्रकार वे चित्र-विचित्ररूप रत्नधारी श्रीहरि जटिला के घर में ही उसी की वधू के साथ अनेक प्रकार के विलास में प्रवृत्त हो गये। जिन्हें परवधू रमण के अलावा अन्य कोई भी कार्य नहीं है, उन श्रीकृष्ण का कौन सा ऐसा प्रयास है, जो सफल न हो अर्थात् उनकी सभी चेष्टाएँ ही फल प्रदायिनी होती हैं ॥ ३३ ॥

इति:श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका द्वितीय कौतूहल ॥

आगे जारी... श्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय: कौतूहल

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