श्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय कौतूहल
रम्यवस्तु समालोके लोलता स्यात्
कौतूहलम् अर्थात् मनोहर वस्तु के दर्शनमात्र से ही लोलुपता या उत्कण्ठा पैदा होती
है,
उसे कौतूहल (उत्सुकता) कहते हैं- इस उक्ति का मर्म भी पाठकों के
हृदय में स्वतः ही अनुभूत होगा । श्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय कौतूहल में श्रीकृष्ण
वैद्यवेष में राधाजी से मिलते हैं।
श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय कौतूहल
चमत्कारचन्द्रिका तृतीय कौतूहल
श्रीचमत्कारचन्द्रिका तीसरा कौतूहल
श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका कौतूहल
३
श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय: कौतूहल
अथैकदा सा जटिला विविक्ते
चिन्तातुरा किञ्चिदुवाच पुत्रीं ।
न रक्षितुं हा प्रभवामि कृष्णाद्
वधूं ततः किं करवाण्युपायम् ॥१ ॥
भावानुवाद
– श्रीराधा के नाना प्रकार के श्रीकृष्ण- अनुराग के लक्षणों से अवगत होकर जटिला एक
दिन अत्यन्त चिन्तातुर होकर अपनी पुत्री कुटिला को एकान्त में बुलाकर कहने लगी-
देखो पुत्री ! अब मैं कृष्ण से अपनी पुत्रवधू की और रक्षा नहीं कर पा रही हूँ,
अतः अब क्या उपाय किया जाय ? ॥ १ ॥
त्वं पुत्रि ! तस्माद् गृह एव
रुन्धि
वधूं बहिर्याति कदापि नेयम् ।
यथा यथायाति हरिर्नगेहं
तथा तथा हा भव सावधाना ॥ २ ॥
भावानुवाद
- पुत्री ! कुटिले ! एक उपाय बतलाती हूँ, पुत्रवधू
को इस तरह रोका जाय कि वे किसी भी प्रकार से घर से बाहर न जा सके। कृष्ण भी किसी
प्रकार से हमारे घर में प्रवेश न कर सके, इस विषय में भी तुम
सब प्रकार से सदा सावधान रहो ॥ २ ॥
मातः भवत्या न वधूर्निरोद्धुं
शक्या यतः प्रत्यहमेव यत्नात् ।
व्रजेश्वरी भोजयितुं स्वपुत्रं
पाकार्थमेतां नयति स्वगेहम् ॥३॥
भावानुवाद
– माता की बात सुनकर कुटिला बोली- माँ ! तुम्हारी बहू को किसी भी प्रकार से रोका
नहीं जा सकता, क्योंकि व्रजेश्वरी (श्रीयशोदा)
प्रतिदिन ही अपने पुत्र के लिए भोजन बनवाने के लिए तुम्हारी बहू को यत्नपूर्वक
अपने घर बुलवा लेती हैं। अतः उसे कैसे रोका जाय ? ॥ ३ ॥
पुत्रि ! त्वमद्य व्रज तां वदैतन्
नातः परं क्वापि वधूः स्वगेहात् ।
प्रयात्यतस्त्वं सुतभोजनार्थं
पाके नियुक्तां कुरु रोहिणीं ताम्
॥४॥
भावानुवाद
- इसके उत्तर में जटिला बोली- पुत्री ! तुम अभी व्रजेश्वरी के समीप जाकर कह दो कि
आज से हमारी बहू घर को छोड़कर कहीं नहीं जायेगी। अतएव तुम अपने पुत्र का भोजन
बनवाने के लिए रोहिणी को नियुक्त कर लो ॥४॥
मातस्तया वक्ष्यत एव तस्यै
दुर्वाससा कोऽपि वरो वितीर्णः ।
त्वद्धस्त-पक्कौदनभोक्तुरायु-
निर्विघ्नमस्त्वित्यधिका प्रसिद्धिः
॥ ५ ॥
भावानुवाद-
तब कुटिला बोली- माँ! मेरी बात सुनकर व्रजेश्वरी कहेंगी कि श्रीराधा को दुर्वासा
मुनि ने एक अनिर्वचनीय वरदान दिया है । वह यह कि जो श्रीराधा के हाथ से पके हुए
अन्न का भोजन करेगा, उसकी आयु की वृद्धि
होगी तथा विघ्नों का विनाश होगा। यह बात तो व्रजमण्डल में बहुत ही प्रसिद्ध है ॥५
॥
एकः सुतो मे बहु दुष्टदानवा-
द्यरिष्टवत्त्वेऽपि कुशल्यभूद् यतः
।
ततस्त्वया साधितमोदनादिकं
नित्यं सुतं भोजयितुं प्रयत्स्यते ॥
६ ॥
भावानुवाद
- कृष्ण मेरा एकमात्र पुत्र है, केवल श्रीराधा
के हाथ से पके हुए अन्न के भोजन के प्रभाव से ही वह दुष्ट दानवों के द्वारा दिये
गये विघ्नों से निर्मुक्त होकर कुशलतापूर्वक रहता है। इसीलिए मैं नित्य ही राधा के
द्वारा तैयार किये गये अन्नादि को अपने पुत्र को भोजन कराने की चेष्टा करती हूँ।
तब इसके उत्तर में मैं क्या कहूँगी ? ॥६॥
पुत्रि ! त्वया वाच्यमिदं परश्वः
श्वो वा स आगत्य मुनिः प्रदद्यात् ।
राधा स्पृशेद्यं स चिरायुरस्त्वि-
त्येवं वरं चेदयि तहिं किं स्यात् ॥
७ ॥
भावानुवाद
- जटिला बोली- हे पुत्री ! तब तुम यह कहना - हे व्रजेश्वरि ! यदि मुनिवर कल अथवा
परसों आकर श्रीराधा को यह वरदान दें कि श्रीराधा जिसका स्पर्श करेगी वह चिरायु
होगा,
तब क्या किया जायेगा – जरा बतलाइये ? ॥७ ॥
किं स्पर्शयन्ती निजपुत्रमेता-
माकारयिष्यस्यसि नीतिविज्ञे !
कुलाङ्गना यत् पर वेश्म गत्वा
नित्यं पचेदित्यपि किं नु नीतिः ॥८
॥
भावानुवाद
- हे नीतिविज्ञे ( नीति को जाननेवाली ) ! तब क्या तुम श्रीराधा को अपने घर में
बुलाकर उसके द्वारा अपने पुत्र का स्पर्श कराओगी? एक बात और है कि कुलस्त्रियों का प्रतिदिन पर- गृह में रसोई बनाने के लिए
जाना क्या कोई नीति है ? ॥८ ॥
वध्वाः कलङ्क प्रतिदेशमेष
भूयानभूद् यत् किमु सह्यमेतत् ।
स्नेहो यथा ते निजपुत्र एवं
स्नेहो ममाप्यस्ति निज स्नूषायाम् ॥
९ ॥
भावानुवाद
- अधिक क्या, बहू का महाकलङ्क व्रज में
सर्वत्र फैल गया है, क्या मैं उसे और सहन कर सकती हूँ?
अपने पुत्र से तुम्हें जितना स्नेह है, क्या
बहू के प्रति मेरा वैसा स्नेह नहीं है ? ॥ ९ ॥
तथापि ते प्रौढ़िरियं भवेच्चे-
द्धनिष्ठया प्रेषितयैव नित्यम् ।
वधुकृतं मोदक-लड्डुकादि
त्रिसन्ध्यमेवानय पुत्र - हेतोः ॥
१० ॥
भावानुवाद
- और यह भी कहना-देखो, इतना सब होने पर भी
यदि तुम अत्यधिक हठ करती हो और मेरी पुत्रवधू के हाथ से ही पके द्रव्यों को अपने
पुत्र को भोजन कराने की नितान्त अभिलाषा करती हो, तब
प्रतिदिन तीनों समय धनिष्ठा को मेरे घर पर ही भेजकर अपने पुत्र के लिए मेरी वधू
द्वारा बने हुए मोदक तथा लड्डु मँगवा लिया करें ॥१०॥
इत्येवमुक्तेऽपि यदि व्रजेशा
कुप्येत्तदा तन्नगरीं विहाय ।
कृत्वैव देशान्तर एव वासं
वधुमविष्यामि तदीय पुत्रात् ॥ ११ ॥
एवं निरोधे सति तौ विषण्णौ
परस्परादर्शन- दाव-तापितौ
बभूवतुर्हन्त ! यथा तथा स्वयं
सरस्वती वर्णयितुं क्षमेत किम् ॥ १२
॥
भावानुवाद-
इस प्रकार से सारी बातें समझा देने पर भी यदि व्रजेश्वरी क्रोध करें,
तो हम उनकी नगरी का त्याग करके अन्य स्थान पर चली जायेंगी। जिस किसी
भी उपाय से मैं उनके लम्पट पुत्र से वधू की रक्षा करना चाहती हूँ। जटिला और कुटिला
ने इस प्रकार परामर्शकर श्रीराधा को घर में बन्द कर दिया। इस प्रकार श्रीराधा के
श्रीकृष्ण के साथ मिलने के सारे रास्ते ( उपाय) बन्द हो गये। हाय ! इस कारणवशतः वे
युगल किशोर अत्यन्त दुःखी होकर परस्पर अदर्शन रूप दावाग्नि से जिस प्रकार तापित
हुए थे- उसका स्वयं सरस्वती भी वर्णन नहीं कर सकतीं ॥११- १२ ॥
सरोजपत्रैर्विधुगन्धसार-
पङ्क - प्रलिप्तैरचितापि शय्या ।
राधाङ्ग – संस्पर्शनतः क्षणेन
हा हन्त हा मुर्मुरतां प्रपेदे ॥ १३
॥
भावानुवाद – श्रीकृष्ण
के विरह में श्रीराधा के अङ्ग-ताप को शान्त करने के लिए सखियों ने पद्मपत्र (कमल की
पंखुड़ियों) और कर्पूर- चन्दनादि के लेप द्वारा शय्या की रचना की,
परन्तु श्रीराधा के विरह-ताप से तापित अङ्ग - स्पर्श मात्र से क्षण
काल में ही वह शय्या मुरझाकर सूख गयी ॥ १३ ॥
निन्देद विधिं पक्ष्मकृतं भृशं या
वाञ्छेदपक्ष्मोत्तम - मीनजन्म ।
नन्दात्मजालोकमृते कथं सा
यामाष्टकं यापयितुं क्षमेत ॥ १४ ॥
नावेक्षतेनापि शृणोति किञ्चिद्
अचेतना सीदति पुष्पतल्पे ।
धनिष्ठयाथैत्य तथाविधा सा
व्रजेश्वरीप्रेषितया व्यलोकि ॥ १५ ॥
भावानुवाद- जो
पलक झपकने के काल को भी कृष्ण दर्शन में बाधा जानकर निमेष- रचयिता विधाता की
अत्यधिक निन्दा करके पलक-रहित मछली का जन्म लेने की वाञ्छा करती हैं,
वही श्रीराधा श्रीनन्दनन्दन के दर्शन के बिना क्या अष्ट प्रहर बिता
सकेंगी? श्रीराधा कुसुम शय्या पर अचेतनावस्था में पड़ी हुई
हैं- वे किसी भी वस्तु का दर्शन नहीं करती तथा कोई भी वचन उन्हें सुनायी नहीं
देता। व्रजेश्वरी के द्वारा भेजी गयी धनिष्ठा ने आकर श्रीराधाकी ऐसी विरह-विह्वलता
का दर्शन किया ॥ १४-१५ ॥
अद्य प्रभाते ललिते पपाच
श्रीरोहिणी कृष्णकृते यदन्नम् ।
तत् प्राश्य सोऽगाद विपिनं व्रजेशा
मां प्राहिणोदत्र विषण्ण-चेताः ॥ १६
॥
भावानुवाद - ऐसा
देखकर धनिष्ठा श्रीललिता को सम्बोधित करके कहने लगीं—हे ललिते! आज सुबह श्रीराधा श्रीकृष्ण के लिए रसोई करने नहीं गयी, अतः श्रीरोहिणी ने ही श्रीकृष्ण के लिए रसोई की । उस अन्न का भोजन करके ही
श्रीकृष्ण गोचारण के लिए चले गये हैं। श्रीकृष्ण को अन्य दिनों की भाँति रुचि से
भोजन करते न देखकर व्रजेश्वरी ने अत्यन्त दुःखित मन से मुझे यहाँ भेजा है ॥ १६ ॥
सायं रजन्यामपि यत्तथा श्वः
स भोक्ष्यते तस्य कृतेऽहमागाम् ।
इयन्तु संज्ञारहितैव पक्तु
कथं क्षमेताद्य करोमि हा किम् ॥ १७
॥
भावानुवाद- मैं
जो मोदकादि खाद्य पदार्थों को तैयार करवाकर ले जाने के लिए आयी हूँ,
उसे आज सायंकाल रात्रि में तथा कल सुबह गोष्ठ गमन के पहले तक ही
श्रीकृष्ण भोजन कर लेंगे। किन्तु श्रीराधा तो अचेतन अवस्था में ही पड़ी हुई है,
हाय! ऐसी अवस्था में वह पुनः किस प्रकार से मोदकादि तैयार करने में
समर्थ होगी? हा ! अब मैं क्या करूँ ? ॥१७॥
कृष्णः पुरस्ते कलयेति तद्वाक्
तां भग्नमूर्च्छामकरोद् यदैव ।
तदा धनिष्ठा सहसा व्रजेशा-
सन्दिष्टमाह स्म सरोरुहाक्षीम् ॥ १८
॥
कटाहमात्रानय रूपमञ्जरि !
प्रलिप्य चुल्लीमिह वह्निमर्पय ।
यथा व्रजेशादिशदेवमेव तत्
कृष्णस्य भक्ष्यं किल साधयाम्यहम्
॥१९॥
भावानुवाद- धनिष्ठा
कोई भी अन्य उपाय न देखकर श्रीराधा के कानों में उच्च स्वर से बोली- "हे राधे
! देखो देखो! श्रीकृष्ण तुम्हारे सम्मुख ही खड़े हुए हैं।" यह बात कानों में
प्रवेश करने मात्र से ही श्रीराधा की मूर्च्छा भङ्ग हो गयी और उसी समय धनिष्ठा ने
सहसा व्रजेश्वरी द्वारा भेजा गया श्रीकृष्ण के लिए मोदकादि तैयार करने का समाचार
उस कमल नेत्रोंवाली श्रीराधा को सुना दिया। विरह-ताप से तापित होने पर भी श्रीराधा
ने धनिष्ठा के मुख से व्रजेश्वरी की आज्ञा सुन करके मानो प्रचुर बल प्राप्त कर
लिया और कहने लगी- “हे रूपमञ्जरि !
शीघ्र ही चूल्हे को लीप कर उसमें अग्नि प्रज्वलित करो। यहाँ कड़ाही ले आओ।
व्रजेश्वरी के आदेशानुसार श्रीकृष्ण के लिए भोजन सामग्री तैयार करूँगी ॥ १८-१९ ॥
करोमि यावत् सखि ! नित्यमेतच्
चतुर्गुणं कुर्व इति ब्रुवाणा ।
चुल्लीतटे दिव्य चतुष्किकायां
राधोपवेशं सहसा चकार ॥ २० ॥
भावानुवाद - हे
सखि । प्रतिदिन जिस मात्रा में मोदकादि तैयार करती हूँ,
आज उससे चौगुना तैयार करूँगी। मेरी दैहिक स्वस्थता के लिए तुम लोग
तनिक भी चिन्ता मत करो। ऐसा कहकर श्रीराधा सहसा चूल्हे के निकट ही दिव्य चौकी के
ऊपर बैठ गयी ॥ २० ॥
यत्स्पर्शनात् पङ्कज-पत्र - शय्या
ययौ क्षणान्मुर्मुरतां तदेव ।
पक्वान्न कर्मण्यनलार्चिषैव
राधावपुः शीतलतां प्रपेदे ॥ २१ ॥
भावानुवाद - महा
आश्चर्य का विषय यह है कि कुछ क्षण पूर्व श्रीराधा के शरीर के संस्पर्श से कमल
पंखुड़ियों द्वारा निर्मित शय्या मुरझाकर सूख गयी थी,
किन्तु इस समय प्रियतम के लिए मिष्टान्न तैयार करने के लिए अग्नि के
ताप से ही उस राधा का शरीर सुशीतल हो गया ॥ २१ ॥
प्रेमोत्तमोऽतर्क्स - विचित्रधामा
यतो जनं तापयते शशाङ्कः ।
वह्निः पुनः शीतलयत्यतस्तं
तदाश्रयं वा किमु कोऽपि वेत्ति ॥ २२
॥
भावानुवाद- उत्तम
प्रेम में अचिन्त्य और विचित्र प्रभाव विद्यमान रहता है,
अर्थात् सुशीतल चन्द्र जिसको ताप प्रदान करता है, अग्नि उसी को शीतलता प्रदान करती है। इसलिए ऐसे प्रेम को अथवा प्रेमाश्रित
प्रेमीजनों को क्या कभी कोई जान सकता है ? ॥ २२ ॥
जगाद किञ्चिल्ललिता धनिष्ठे!
विद्युद्- घनावग्रह एष भूयान् ।
समं किमेष्यत्यधुना सखीना-
मानन्द - शस्यानि विनाशमीयुः ॥ २३ ॥
भावानुवाद- तदनन्तर
श्रीललिता धनिष्ठा से बोली- हे धनिष्ठे ! क्या विद्युतयुक्त मेघों से प्रचुर वर्षा
होगी ?
अर्थात् विद्युतलता जड़ित अब नहीं (बिजली चमकने से युक्त) नव- जलधर का
उदय क्या होगा? उस जलधर के उदित न होने के कारण रस वर्षण के
अभाव में सखियों की आनन्दरूप फसल सूखकर विनष्ट होती जा रही है ॥ २३ ॥
ब्रवीषि सत्यं ललिते वयस्यैः
सह स्वयं सीदति सोऽपि कृष्णः ।
वृन्दावनस्थाः शुक-केकिभृङ्ग
मृगादयोऽप्याकुलतामवापुः ॥ २४ ॥
भावानुवाद - धनिष्ठा
बोली - ललिते! सत्य ही कह रही हो तुम्हें जिस प्रकार से दुःख हो रहा है,
सखाओं के साथ श्रीकृष्ण भी उसी प्रकार दुःख का अनुभव कर रहे हैं।
अधिक क्या कहूँ, इस महा- दुःख से वृन्दावन के शुक, मयूर, भ्रमर तथा मृगादि भी व्याकुल हो रहे हैं ॥ २४
॥
ततश्च राधा ललितादि कर्णे
काञ्चित् कथां प्रोच्य ययौ गृहं सा
।
सायं विशाखा जटिलामुपेत्या-
लीकं रुरोदाधिधरं लुण्ठन्ती ॥ २५ ॥
हा किं विशाखे ! किमु रोदिषि त्वं
राधां ददंशाहिरलक्ष्यरूपः ।
कथं क्व वा कोलितले तदीय-
रत्ने गृहीते निज-रत्न बुद्धया ॥ २६
॥
भावानुवाद- इसके
बाद मिष्टान्न ( अन्न युक्त मीठा पकवान ) तैयार करके श्रीराधा ने धनिष्ठा के हाथों
में प्रदान किया। श्रीराधा और ललिता आदि के कानों में कुछ गोपनीय बात कहकर धनिष्ठा
नन्दालय चली गयी। सायंकाल में विशाखा जटिला के निकट आकर धरती पर लोट- पोट करती हुई
झूठ-मूठ रोदन करने लगी। उसे इस प्रकार रोती हुई देखकर जटिला ने पूछा- हे विशाखे !
तुम रो क्यों रही हो?
विशाखा ने क्रन्दन करते हुए कहा-
राधा को अलक्षित रूप से काले-सर्प ने डस लिया है।
जटिला ने घबड़ाकर पूछा- कहाँ और किस
प्रकार डस लिया ?
विशाखा बोली- वह सर्प बदरी-वृक्ष के
नीचे छिपा हुआ बैठा था। उसके मस्तक पर स्थित रत्न को भ्रम के कारण अपना रत्न समझकर
श्रीराधा ने ज्यों ही उसे ग्रहण करने के लिए हाथ बढ़ाया,
त्यों ही उस सर्प ने उसे डस लिया ॥ २५-२६ ॥
हा मूर्ध्नि कोऽयं मम वज्रपात
इति ब्रुवाणा त्वरया ययौ सा ।
विलोक्य राधां भुवि वेपमानां
तताड़ सोच्चैः स्वमुरः कराभ्याम्
॥२७॥
भावानुवाद – विशाखा
की बात को सुनकर जटिला बोली- हाय ! हाय! मेरे सिर पर यह कैसा वज्राघात हुआ?
ऐसा कहते-कहते जटिला शीघ्र ही श्रीराधा के कक्ष में गयी और देखा कि
श्रीराधा भूमि पर गिरी हुई है और काँप रही है। यह देखकर जटिला दोनों हाथों के
द्वारा अपने वक्षःस्थल को पीट-पीटकर उच्च स्वर से रोने लगी ॥ २७ ॥
गवां गृहादानय पुत्रि ! तावत्
स्वभ्रातरं शीघ्रमितः प्रयातु ।
स मान्त्रिकानानयतु प्रकृष्टां-
स्ते मे वधुं निर्विययन्तु मन्त्रैः
॥ २८ ॥
भावानुवाद - अनन्तर
कुटिला को बुलाकर जटिला बोली- हे पुत्री ! तुम शीघ्र ही गोशाला जाकर अपने भाई
अभिमन्यु को बुला लाओ । वह आकर किसी निपुण मान्त्रिक (मन्त्र-तन्त्र जाननेवाले)
अथवा ओझा को बुला लाये। वे लोग मन्त्रपाठ करके वधू को विष- रहित कर देंगे ॥ २८ ॥
इत्येवमुक्त्वा जरती जगाद
स्नुषे तनुः सम्प्रति कीदृशी ते ।
सन्दह्यमानां विषवहिनेमाद-
मवैमि वक्तुं प्रभवामि नार्ये ॥ २९
॥
मन्त्रैः करात्यां मम मान्त्रिका-
श्चेदेवां पदस्याङ्गलिकामपीह ।
स्पृशेत्तदासून सहसा त्यजामि
कुलाङ्गनाया नियमो ममैषः ॥ ३० ॥
भावानुवाद – कुटिला
को ऐसा कहकर जटिला श्रीराधा से पूछने लगी हे पुत्रवधो! तुम्हारा शरीर इस समय कैसा
है?
श्रीराधा बोली- हे आर्ये (सास)! विष
से सारा शरीर अत्यन्त दग्ध हो रहा है। बस इतना ही जानती हूँ,
इससे अधिक और कुछ बोल नहीं पा रही हूँ। किन्तु यदि मन्त्रविद् पुरुष
अपने हाथों से मेरे पैरों की एक अङ्गुली का भी स्पर्श करेंगे, तो मैं उसी समय देह-त्याग दूँगी। मैं कुलाङ्गना (सती) हूँ, अतः मेरा यह नियम एकदम स्थिर है ॥२९-३० ॥
स्नुषे! किमेवं वदसीह भक्षये-
दभक्ष्यमस्पृश्यमपि स्पृशेन्नरः ।
मन्त्रौषधादौ नहि दूषणंभवे-
दापद्रतस्येति विदां श्रुतिस्मृती ॥
३१ ॥
भावानुवाद - जटिला
बोली- हे पुत्रवधो! ऐसी बातें मत कहो, क्योंकि
ऐसी विपत्तिक समय में सदाचारी व्यक्ति न खाने योग्य वस्तु का भक्षण करते हैं तथा न
छूने योग्य वस्तु का भी स्पर्श करते हैं। विपत्ति के समय में मन्त्र या औषधि ग्रहण
करने में कोई दोष नहीं होता - श्रुति तथा स्मृति शास्त्र जाननेवालों ने यही
व्यवस्था दी है ॥ ३१ ॥
आज्ञां तवेमां नहि पालयामि
प्राणान् पुरस्थे कलय त्यजामि ।
श्रुत्वेति वध्वा वचनं सचिन्तां
जगाद काचित् प्रतिवासिनी ताम् ॥ ३२
॥
यः कालियाघादि - भुजङ्गमर्दी
दृष्ट्यैव ताः पीतविषोदका गाः ।
अजीवयत्तं हरिमानयायें !
स ते वधुं निर्विषयेद्विलोक्य ॥ ३३
॥
भावानुवाद- श्रीराधा
बोलीं- “अभी देखो, मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राणों का
परित्याग करती हूँ, किन्तु तुम्हारी इस आज्ञा का मैं किसी भी
प्रकार से पालन नहीं कर सकूँगी।" वधू की इस बात को सुनकर जटिला बड़ी चिन्तित
हो गयी। उसी समय एक पड़ोसिन ने जटिला से कहा- आर्ये ! जिन्होंने कालिय अघ जैसे
विषधर सर्प का मर्दन किया है तथा कालियहद का विषाक्त जल पान करनेवाली मृत गौओं को
केवल मात्र दर्शन करने से ही जीवित कर दिया था उन श्रीहरि को ही बुला लाओ। वे
तुम्हारी पुत्रवधू का दर्शन करके ही उसे विष से रहित कर देंगे ॥ ३२-३३ ॥
राधाब्रवीद् यत् परिवाद पीड़ां
विषानलादप्यधिकामवैमि ।
तमेव या दशयितुं यतन्ते
ता वैरीणीरेव चिरेण वेद्मि ॥ ३४ ॥
भावानुवाद - यह
सुनकर श्रीराधा ने कहा- जिसके सम्बन्ध में मेरी झूठी - निन्दारूपी पीड़ा मुझे विष की
ज्वाला से भी अधिक दग्ध करती है, जो मुझे उस
कृष्ण को दिखलाने की चेष्टा करेंगे, उनको मैं अपना चिरशत्रु
ही मानती हूँ ॥ ३४ ॥
तर्हि स्नुषेऽहं ससुता प्रयामि
तां पौर्णमासीं द्रुतमानयामि ।
तन्मन्त्र-तन्त्रागमशास्त्र-विज्ञा
सा सुस्थयिष्यत्यलमन्ययुक्त्या ॥ ३५
॥
भावानुवाद—
जटिला बोली- देखो पुत्रवधो ! तब मैं बेटी कुटिला
को साथ लेकर शीघ्र ही पौर्णमासी के पास जाती हूँ। वे उत्कृष्ट सर्प- मन्त्र,
तन्त्रादि और आगम शास्त्रों को अच्छी तरह से जानती हैं, वे आकर तुम्हें स्वस्थ कर देंगी। अब और कोई अन्य युक्ति मत दे देना ॥ ३५ ॥
प्रोचे विशाखा तदलं विलम्बै-
विषं मयारुद्धमवैहि सूत्रैः ।
यामार्द्ध- पर्यन्तमतः परन्तु
शिरोहधिरूढं तदसाध्यमेव ॥ ३६ ॥
भावानुवाद - विशाखा
बोली- आर्ये! यही उत्तम है, अतः अब और विलम्ब न
करके उनके समीप जाओ। मैंने रस्सी द्वारा बाँधकर विष की गति को रोक रखा है। इससे
अर्द्ध प्रहर ( डेढ़ घण्टे ) तक विष ऊपर नहीं चढ़ेगा, किन्तु
उसके बाद विष के सिर में चढ़ जाने पर रोग असाध्य हो जायेगा ॥ ३६ ॥
सा पौर्णमास्याः स्थलमभ्युपेत्य
नत्वाऽखिलं वृत्तमवेदयत्ताम् ।
पप्रच्छ गार्गीमथ पौर्णमासी
त्वं सर्पमन्त्रान् पितुरध्यगीष्ठाः
॥ ३७ ॥
किं पुत्रि ! साख्यन्नहि वेद्मि
किञ्च
कनीयसी मे भगिनी तु वेत्ति ।
क्व सा किमाख्या किल किन्निवासा
काशीपुरात् सा श्वशुरस्य गेहात् ॥
३८ ॥
पितुर्गृहं वृष्णिपुरे गताऽभू-
ततोऽपि मामत्र दिदृक्षमाणा ।
पूर्वेद्युरेवागमदस्ति नाम्ना
विद्यावलिर्मद्गृहमध्य एव ॥ ३९ ॥
भावानुवाद - तदनन्तर
जटिला ने पौर्णमासी के निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया तथा सारा वृत्तान्त निवेदन
किया। यह सुनकर पौर्णमासी गर्गकन्या गार्गी से पूछने लगीं हे पुत्री गार्गि ! क्या
तुमने अपने पिता से सर्प का मन्त्र सीखा है ?
गार्गी ने उत्तर दिया- मैंने तो
नहीं सीखा, परन्तु मेरी छोटी बहन ने सीखा
है।
पौर्णमासी ने पूछा- वह कहाँ रहती है
तथा उसका नाम क्या है? इस समय वह कहाँ मिल
सकेगी?
गार्गी बोली- काशीपुर में उसकी
ससुराल है। वहाँ से वह मथुरा में अपने पितृगृह में आयी हुई है तथा कल ही मुझे
देखने के लिए मेरे पास यहीं आयी है। उसका नाम विद्यावलि है और वह इस समय मेरे ही
घर पर है ॥ ३७-३९ ॥
जरत्यथोचे बहुविक्लवाश्रु-
सिक्तानना गार्गि ! नताऽस्म्यहं
त्वाम् ।
तामानयास्मद् भवनं सपुत्रां
क्रीणीहि मां स्वीय कृपामृतेन ॥ ४०
॥
भावानुवाद- इस
बात को सुनकर बूढ़ी जटिला अत्यन्त दुःखित होकर तथा अश्रुपूर्ण मुख से गार्गी से
बोली- हे गार्गि! मैं तुम्हारे चरणों में गिरती हूँ। तुम अपनी बहन के साथ हमारे घर
चलो तथा मुझे और मेरे पुत्र को अपने कृपामृतरूपी दान से खरीद लो ॥४०॥
गार्गि ! त्वमादौ स्वगृहं प्रयाहि
ततः स कन्या जटिला प्रयातु ।
प्रसाद्य तामानयतां ततः सा
राधां ध्रुवं निर्विषयिष्यते द्राक्
॥ ४१ ॥
भावानुवाद- तब
पौर्णमासी ने गार्गी से कहा- गार्गि ! तुम सबसे पहले अपने घर जाओ और फिर अपनी
कन्या के साथ जटिला भी वहाँ जायेगी। यदि वे विद्यावलि को प्रसन्न करके ले आयेगी तो
निश्चय ही राधिका अतिशीघ्र विषशून्य हो जायेगी ॥ ४१ ॥
पुर्व धनिष्ठा - वचसैव गार्गी
स्त्रीवेशिनं कृष्णमगार मध्ये ।
अस्थापयत्तर्हि तु सा जरत्या
सहैव तत्पार्श्वगता जगाद ॥ ४२ ॥
भावानुवाद – गार्गी
ने इससे पहले ही धनिष्ठा के वचनों के अनुसार श्रीकृष्ण को रमणीवेश में सजाकर अपने
घर में रख दिया था। अतएव, तब आगे-पीछे जाने की
आवश्यकता न देखकर वह जटिला को साथ लेकर ही अपने घर में गयी तथा रमणीवेशधारी श्रीकृष्ण
से बोली ॥ ४२ ॥
विद्यावले! भो भगिनि ! व्रजेऽस्मिन्
या नित्यराजद्-गुणरूपकीर्त्तिः ।
त्वया श्रुता श्रीवृषभानु - पुत्री
तस्या विपत्तिमर्हती वताद्य ॥ ४३ ॥
केनापि दष्टा मणिधारिणा सा
सर्पेण हालाहल - पुरिताऽभूत् ।
श्वश्रुरमुष्याः ससुता प्रपन्ना
त्वां तत्त्वमेतद्भवनं जिहीथाः ॥ ४४
॥
भावानुवाद - हे
बहन विद्यावले! इस व्रज में सर्वगुण सम्पन्न तथा महा - यशस्विनी
श्रीवृषभानुनन्दिनी का तुमने जो नाम सुना है, आज
उस पर महाविपत्ति आयी हुई है। किसी मणिधारी सर्प ने उसे डस लिया है और उसकी देह इस
समय विष से पूर्ण हो गयी है। इसीलिए उसकी सास अपनी बेटी कुटिला के साथ तुम्हारे
पास आयी है, अतः तुम्हें एक बार इनके घर में जाना होगा
॥४३-४४॥
विद्यावलिः प्राह भगिन्ययि त्वं
विज्ञाप्य विज्ञेव गिरं तनोषि ।
कुलाङ्गना विप्रवधुरहं किं
भवन्मते जाङ्गलिकी भवामि ॥ ४५ ॥
भावानुवाद - विद्यावलि
बोली हे बहिन ! तुम जानकर भी अज्ञानी की तरह बात कर रही हो। हाय! हाय! एक तो मैं
कुलस्त्री हूँ और उस पर भी ब्राह्मण-वधू हूँ, अतः
क्या तुम्हारे विचार से मैं जाङ्गलि (साँप पकड़नेवाले - सपेरे ) की विद्या
जाननेवाली हूँ? ॥४५ ॥
पितुः कुलं वृष्णिपुरेऽस्ति पत्युः
कुलन्तु काश्यां प्रथितं नृलोके ।
कलङ्क पङ्केन निमज्जयन्ती
मां त्वं कथं स्निह्यसि तन्न बुध्ये
॥ ४६ ॥
भावानुवाद - देखो,
मथुरा में मेरे प्रसिद्ध पितृकुल को तथा काशी में विख्यात श्वसुरकुल
को इस जगत्में कौन नहीं जानता? तुम इन दोनों कुलों को
कलङ्करूपी दलदल में डुबोकर क्या अपने स्नेह का परिचय दे रही हो? मैं इसे समझ नहीं पा रही हूँ ॥ ४६ ॥
जरत्यवोचत्तव पादपद्मे
नताऽस्मि संजीव्य वधूं मदीयाम् ।
मां त्वं सपुत्रां निज पादधूलि
क्रीतां विधेहीत्यथ किं ब्रवीमि ॥
४७ ॥
भावानुवाद- तब
बूढ़ी जटिला बोली- मैं तुम्हारे चरणकमलों में प्रणत हो रही हूँ ( प्रणाम कर रही
हूँ) । तुम मेरी पुत्रवधू को जीवन दान देकर मेरे पुत्र के साथ मुझे अपनी चरणकमल की
धूलि दान करके खरीद लो और अधिक क्या कहूँ ? ॥
४७ ॥
विद्यावलिः प्राख्यदयि व्रजस्थे
जानासि न ब्रह्मकुलस्य रीतिम् ।
गृहं गृहं गोप्य इव भ्रमन्ति
न विप्रवध्वः सुमहाभिजात्यात् ॥ ४८
॥
प्रोवाच गार्गी शृणु भो श्रुति -
स्मृति-
प्रोक्तं निषिद्धं विहितञ्च
यद्भवेत् ।
ज्ञात्वापि तत् सर्वमिदं ब्रवीषि
चेत्
न तेऽस्ति दृष्टिः किल पारमार्थिकी
॥ ४९ ॥
भावानुवाद - विद्यावलि
बोली- अरी व्रजवासिनि बूढ़ी ! तुम हमारे ब्राह्मण कुल की रीति को नहीं जानती हो ।
विप्र-वधुएँ गोपस्त्रियों के समान घर-घर में नहीं घूमती हैं,
क्योंकि उनका उच्च कुल अत्यन्त महान है।
गार्गी बोली- हे बहन ! तुम श्रुति
और स्मृति में कहे हुए करने योग्य तथा निषिद्ध समस्त कार्यों से अवगत होकर भी इस
समय ऐसी बात अर्थात् जाति-कुल- सम्बन्धी विचार प्रकाशित कर रही हो। इससे ऐसा जाना
जायेगा कि तुम्हारी पारमार्थिकी दृष्टि नहीं है ॥ ४८-४९ ॥
व्रजे स्थिताः कीर्त्तिदयान्विता या
गोप्यस्तथा ये वृषभानु तुल्याः ।
पोपा न तेषां त्वमवैषि तत्त्वं
नाप्याभिजात्यं न च विष्णुभक्तिम् ॥
५० ॥
भावानुवाद - देखो
- कीर्ति,
दया जैसे गुणों से युक्त जो सब व्रजवासिनी गोपियाँ हैं तथा वृषभानु
तुल्य जो सब गोप हैं- तुम उनके तत्त्व, जाति-कुल तथा
विष्णुभक्ति के विषय में कुछ भी नहीं जानती हो ॥ ५० ॥
काश्यां स्थिता विष्णु - बहिर्मुखा
ये
विप्रा भवत्याः श्वशुरादयस्तान् ।
जानामि नो वाचय मां तवेयं
काश्यां स्थितेर्बुद्धिरभूत् कठोरा
॥ ५१ ॥
भावानुवाद - काशीवासी
ब्राह्मणगण, विशेष रूप से तुम्हारे श्वसुर -
सास विष्णु - बहिर्मुख हैं। मैं उन्हें अच्छी प्रकार से जानती हूँ, अतः मुझे इस विषय में और अधिक मत कहो। काशीपुर में वास करने से तुम्हारी
बुद्धि भी कठोर हो गयी है ॥ ५१ ॥
मा कुप्य शान्तिं भज तावदायें !
भगिन्यहं ते हन्त तवाश्रिताऽस्मि ।
यथा ब्रवीष्येवमहं करोमि
किन्त्वत्र शङ्का मम काचिदस्ति ॥ ५२
॥
भावानुवाद - विद्यावलि
बोली हे बहिन ! हे आर्ये! मेरे प्रति कोप मत करो, शान्त हो जाओ। मैं पूर्णता तुम्हारे आश्रित हूँ, तुम
जो कहोगी, मैं वही करूँगी। किन्तु इस सम्बन्ध में मेरी एक
भीषण शङ्का है ॥५२॥
पुरे श्रुता काचन किम्वदन्ती
नन्दस्य पुत्रोऽजनि कोऽपि वीरः ।
स स्वैरर्चयो बत लम्पटत्वा-
न ब्रह्मजातेरपि भीतिमेति ॥ ५३ ॥
भावानुवाद – मथुरा
में मैंने एक प्रवाद सुना है। नन्द महाराज का कोई एक वीर पुत्र है,
वह बड़ा ही स्वेच्छाचारी तथा लम्पट है। वह ब्राह्मण जाति का भी कोई
भय नहीं करता है ॥ ५३ ॥
अत्रेत्य नारीष्विव मय्यपि द्राक्
स लोभदृष्टिर्यदि वर्त्मनि स्यात् ।
सद्यस्तदासून् विसृजामि नैव
कुलद्वयं हन्त ! कलङ्कयामि ॥ ५४ ॥
भावानुवाद - वह
यहाँ की व्रजनारियों की भाँति यदि मेरे प्रति भी सहसा पथ के बीच में लोभ दृष्टि
करेगा,
तो मैं उसी समय अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी। हाय! मैं किसी भी
प्रकार से दोनों कुलों को कलङ्कित नहीं कर सकती ॥ ५४ ॥
न तत्र शङ्का तव कापि यस्माद्
अहं स्वयं त्वत् सहिता प्रयामि ।
इत्येव गार्ग्या वचनाच्चलन्ती
विद्यावलिर्वर्त्मनि किञ्चिदूचे ॥
५५ ॥
भावानुवाद - गार्गी
बोली- हे बहन ! इस विषय में तुम कोई भय मत करो, क्योंकि
स्वयं मैं तुम्हारे साथ चल रही हूँ। विद्यावलि इससे सहमत होकर गार्गी आदि के साथ
जाते-जाते पथ में जटिला से कहने लगी - ॥५५ ॥
मन्त्रौषधाभ्यां गरलस्य नाश-
स्तत्रास्ति मन्त्रो मम कण्ठ एव ।
यच्चौषधं तत्त्वहि वल्लिपर्णं
मन्त्रं जपन्त्यारदपिष्टमेव ॥ ५६ ॥
तत्ते वधुः सा मम भक्षयेत् किं
न वेति पृष्टा जटिला जगाद ।
सा मे स्नुषा ब्राह्मणजातिभक्ता
तद्भक्षयेदेव किमत्र चित्रम् ॥ ५७ ॥
प्रोवाच गार्गी न किलौषधादा-
वभक्ष्यभक्ष्यस्य भवेद्विचारः ।
तत्रापि भूदेवकुलस्य शेषं
राजाऽपि भुङ्क्ते किमुतान्यजातिः ॥
५८ ॥
भावानुवाद- देखो,
मन्त्र तथा औषध द्वारा विष का नाश किया जाता है। मन्त्र तो मेरे
कण्ठ में हैं और जो औषध का प्रयोग करना होगा वह तो दन्त - पिष्ट (दाँतों से पीसा
हुआ) अर्थात् चर्वित तथा मन्त्र- पूत (मन्त्रों से पवित्र) ताम्बूल-बीड़ी मात्र
है। हे आर्ये! क्या तुम्हारी पुत्रवधू उसका भक्षण करेगी ?
विद्यावलि के द्वारा जटिला से ऐसा
पूछे जाने पर वह बोली- मेरी पुत्रवधू ब्राह्मण जाति के प्रति परम भक्तिमती है,
अतएव तुम्हारा चर्वित ताम्बूल अवश्य भक्षण करेगी इसमें सन्देह की
बात ही क्या है?
गार्गी बोली- औषधि में तो भक्ष्य या
अभक्ष्य इत्यादि का विचार नहीं होता। यहाँ तक कि ब्राह्मणों का उच्छिष्ट
राजा-महाराजा भी भक्षण करते हैं, अन्य जाति के
सम्बन्ध में कहना ही क्या ? ॥५६-५८ ॥
प्रविष्टवत्याः स्वगृहं ततः सा
विद्यावले: पादयुगं स पुत्रा ।
अधावयत्तत् सलिलं स्ववध्वा-
श्चिक्षेप मूर्द्धाक्षिमुखोरसि
द्राक् ॥५९॥
भावानुवाद - विद्यावलि
द्वारा जटिला के घर में प्रवेश करने पर उसने अपने पुत्र के साथ उसके (विद्यावलि के)
दोनों चरणों को धोकर उसी समय उस जल को अपनी बहू के मस्तक पर,
नेत्रों पर, मुख पर और वक्षःस्थल पर छिड़क
दिया ॥ ५९ ॥
प्रोचे स्नुषे! कापि महानुभावा
गर्गस्य पुत्र्यागमदत्र भाग्यात् ।
सा सुस्थयिष्यत्यचिरेण विज्ञा
मन्त्रैस्त्वदङ्गानि मुहुः
स्पृशन्ती ॥ ६० ॥
किञ्चाविल्लीदल - वीटिकाञ्च
सञ्चर्वव्य दन्तैः पठितैः
स्वमन्त्रैः ।
निधास्यते तन्मुख एव तत्र
घृणा न कार्या शपथो ममात्र ॥ ६१ ॥
भावानुवाद - जटिला
श्रीराधा से बोली- हे पुत्रवधो ! भाग्यवशतः महानुभवी सर्प- विद्या निपुण गर्गकन्या
आयीं हैं। यह तुम्हारे समस्त अङ्गों को मन्त्र - पाठ सहित स्पर्श करते-करते थोड़ी
देर में ही तुम्हें स्वस्थ कर देंगी। और एक बात है-मन्त्र- पाठ के साथ ये अपने
दाँतों द्वारा ताम्बूल वीटिका का चर्वण करके तुम्हारे मुख में प्रदान करेंगी।
तुम्हें मेरी शपथ है, तुम इस विषय में
घृणा मत करना ॥ ६०-६१ ॥
विद्यावलिस्तन्निलयं प्रविष्टा
विलोक्य राधां वसनावृताङ्गीम् ।
वध्वाः पदान्मस्तकतश्च वस्त्र-
मुदञ्चयादी जरतीत्यवोचत् ॥ ६२ ॥
भुजङ्ग मन्त्रैरभिमन्त्र्य पाणिं
सञ्चालयाम्यङ्घ्रि त उर्द्धगात्रे ।
यद्यावदङ्ग विषमारुरोह
ज्ञात्वैव तन्निर्विषयामि मन्त्रैः
॥ ६३ ॥
भावानुवाद- तब
विद्यावलि ने श्रीराधा के कक्ष में प्रवेश किया। वहाँ देखा कि श्रीराधा के समस्त
अङ्ग वस्त्र द्वारा आवृत है। ऐसा देखकर वह जटिला से बोली- हे बूढ़ी! तुम्हारी
पुत्रवधू को पैरों से सिर तक ढकनेवाले इस वस्त्र को हटा दो,
क्योंकि मैं सर्प मन्त्र का जप करते हुए पैरों से लेकर ऊपर तक हाथ
चलाऊँगी। जिस अङ्ग तक विष चढ़ा हुआ है, उसे हस्त- सञ्चालन से
जानकर उसी अङ्ग में पुनः पुनः मन्त्र-पाठ करके इसे विष शून्य करूँगी ॥ ६२-६३ ॥
ततश्चलन् पाणिरगादमुष्या
वक्षःस्थलं नोर्द्धमतः परं यत् ।
तद् घट्टयामास मुहुः कराभ्या-
मस्या उरो गारुड़ - मन्त्रपाठैः ॥
६४ ॥
भावानुवाद- तदनन्तर
जटिला ने श्रीराधा के अङ्गों को ढकनेवाले वस्त्र को हटा दिया। विद्यावलि हस्त चालन
करते-करते श्रीराधा के श्रीचरणों से क्रमशः वक्षःस्थल तक स्पर्श करने लगी,
किन्तु उसका हाथ इसके ऊपर आगे नहीं जा रहा था तब वह बार-बार गारुड़
मन्त्र पाठ करते करते अपने दोनों हाथों द्वारा श्रीराधा के वक्षःस्थल का
स्पर्श करने लगी ॥ ६४ ॥
विद्यावलिः प्राख्यदहो किमेतद्
विषं न शाम्येत् करवै किमत्र ।
वृद्धाऽब्रवीत् स्वास्थत औषधं
तदास्ये-
स्नुषायाः क्षिप भोजयामुम् ॥ ६५ ॥
भावानुवाद - विद्यावलि
वृद्धा से बोली हे वृद्धे! अहो क्या हो गया है। विष किसी भी प्रकार से उतर नहीं
रहा है। अब मैं इस विषय में क्या करूँ ?
तब वृद्धा बोली- अपने मुख से वधू के
मुख में पूर्व कथित चर्वित औषधि डालकर तो देखो। इसे वही औषधि प्रदान करो ॥ ६५ ॥
मुहुर्मुहुः प्राक्षिपमौषधं त-
दास्ये अमुष्याः कृतमन्त्र - पाठा ।
तथापि वैवर्णवती वधुस्ते
प्रकम्पते निःश्वसिति प्रगाढ़म् ॥
६६ ॥
सर्वा बहिर्यात गृहं कवाटे-
नावृत्य सर्पस्य जपामि मन्त्रम् ।
मुहूर्त-मात्रेण तमेव सर्प-
माहूय तेनापि सहालपामि ॥६७॥
चिन्ता न कार्या तिलमात्र्यपि
द्राक्
संजीवयिष्यामि वधूं त्वदीयाम् ।
एकाग्रचित्ता घटिकात्रयान्ते
मन्त्रं प्रजप्याखिलमीक्षयामि ॥ ६८
॥
भावानुवाद - विद्यावलि
बोली हे वृद्धे ! मैं बार-बार तुम्हारी वधू के मुख में मन्त्रपूत औषधि डाल रही हूँ,
तथापि तुम्हारी वैवर्ण्यवती (विष से पीली हुई) वधू काँप रही है तथा
दीर्घनिःश्वास ले रही है। देखो, चिकित्सा परिवर्तन करना
होगा- तुम सब अब कक्ष से बाहर जाओ, इस कक्ष के द्वार को बन्द
करके मैं सर्पमन्त्र का जप करूँगी । मुहूर्त भर में ही जिस सर्प ने तुम्हारी
पुत्रवधू को डसा है, उसे बुलाकर उसके साथ वार्तालाप करूँगी।
तुम बिन्दुमात्र भी चिन्ता मत करो, शीघ्र ही तुम्हारी वधू को
जीवित करूँगी । एकाग्रचित्त से इस मन्त्र का जप करके तीन घण्टे के पश्चात् तुम
सबको सब कुछ दिखाऊँगी ॥ ६६-६८ ॥
गार्गी - गिरा ता ययुरन्यगेहं
मुहूर्त्ततश्चाययुरप्यथात्र ।
विद्यावलेर्वाचमहेश्च गोप्यो
गृहान्तरे भोः शृणुतेत्यथोचुः ॥ ६९
॥
भावानुवाद- तत्पश्चात्
गार्गी के परामर्श से वे सब दूसरे कक्ष में चले गये तथा एक मुहूर्त्त के बाद ही पुनः
आँगन में उसी कक्ष के निकट लौट आये । अनन्तर जटिला और कुटिला को इङ्गित करके
गोपियाँ परस्पर एक-दूसरे से कहने लग—अरी!
तुमलोग कक्ष में विद्यावलि तथा सर्प के बीच हो रहे वार्त्तालाप का श्रवण करो ॥ ६९
॥
स्वरद्वयेनैव जगाद कृष्णा
यत्तत्तु सख्यः सहसाऽवजग्मुः ।
याः कौतुकानन्द- समुद्रयोर्द्राग्
आवर्त्त मग्नाः सुभृशं विरेजुः ॥ ७०
॥
भो सर्पराजात्र कुतस्त्वमागाः
कैलासतः कस्य निदेशकृत्त्वम् ?
चन्द्रार्द्धमौलेः स च कीदृशोऽभूद्
भुङ्क्ष्वाभिमन्युं जटिला-सुतं
द्राक् ॥७१॥
भावानुवाद - श्रीकृष्ण
दो प्रकार के स्वरों के द्वारा अर्थात् एक स्वर में विद्यावलि की बोली का और दूसरे
स्वर में सर्प की बोली का अनुकरण करने लगे-सखियाँ इसे उसी क्षण समझ गयीं। वे सब एक
साथ कौतुक तथा आनन्दसमुद्र के आवर्त्त में निमग्न होकर परम शोभा का विस्तार करने
लगीं। श्रीकृष्ण विद्यावलि के स्वर में पूछने लगे-हे सर्पराज ! तुम कहाँ से आये हो?
सर्प स्वर में- कैलाश से ।
विद्यावलि स्वर में- तुम किसकी
आज्ञा से आये हो?
सर्प स्वर में - चन्द्रार्द्धमौलि
अर्थात् शिवजी के आदेश से आया हूँ।
विद्यावलि स्वर में- उनका क्या आदेश
है ?
सर्प स्वर में- जटिला पुत्र
अभिमन्यु को डँसो ॥७०-७१ ॥
आगः किमेतस्य न किञ्च किन्तु
तन्मातुरेवास्त्यपराधयुग्मम् ।
सा किं न दष्टा,
गरलानलाद-
प्यपत्य-शोकाग्निरतीव तीव्रः ॥ ७२ ॥
तयाऽनुभूतो भवतु प्रगाढ़-
मित्येतदर्थं नहि दश्यते सा ।
त्यक्त्वाऽभिमन्युं कथमस्य जाया
दष्टाऽत्र साधव्य - वर प्रदानात् ॥
७३ ॥
दुर्वाससासौ प्रथमं न तस्मा-
द्दष्टः स दष्टव्य इह प्रभाते ।
पुत्रस्य वध्वाश्च यथाऽति शोके
जाज्ज्वल्यते सा निखिलं स्वमायुः ॥
७४ ॥
भावानुवाद - विद्यावलि
– अभिमन्यु का अपराध क्या है?
सर्प - उसका कोई अपराध नहीं है,
किन्तु उसकी माता ने दो अपराध किये हैं।
विद्यावलि - तब तुमने अभिमन्यु की
माता को क्यों नहीं डँसा?
सर्प – विषानल से भी पुत्र का
शोकानल अति तीव्र होता है – इसका यथेष्ट अनुभव कराने के अभिप्राय से ही मैंने
जटिला को नहीं डँसा ।
विद्यावलि-फिर अभिमन्यु को छोड़कर
उसकी पत्नी को क्यों डँसा ?
सर्प - मुनिवर दुर्वासा ने श्रीराधा
को सौभाग्यवती होने का वरदान प्रदान किया है अर्थात् सतीकुल शिरोमणि श्रीराधा के
जीवित रहने से अभिमन्यु की मृत्यु होना असम्भव है। दुर्वासा के वरदान का तथा
श्रीराधा के सतीत्व का ऐसा ही प्रताप है। इसलिए यदि पहले श्रीराधा को डँसकर उसे
जीवनहीन न करूँ तो अभिमन्यु का मरण नहीं होगा । अतः आज श्रीराधा को डँसा है,
कल प्रातः अभिमन्यु को डसूঁगा । इससे पुत्र तथा पुत्रवधू के
अत्यधिक शोक से वृद्धा जटिला का जीवन अत्यन्त क्लेशदायक बन जायेगा ॥७२-७४ ॥
किं हन्त तस्याः अपराध-युग्मं
दुर्वाससि श्रील हरस्वरूपे ।
कटाक्ष एकोऽस्त्यपरन्तु शम्भोर्य
इष्टदेवो हरिरस्य चांशे ॥ ७५ ॥
नन्दात्मजेऽलीक महाप्रवाद-
स्तद्भोजने बाधकरः स्व- वध्वाः ।
निरोधतस्तन्निजकन्यया सा
सार्द्धं व्रजे रोदितु सर्वकालम्
॥७६ ॥
भावानुवाद - विद्यावलि
जरा बतलाओ तो वृद्धा के दो अपराध कौन-कौन से हैं ?
सर्प- श्रील हर- स्वरूप दुर्वासा के
प्रति कटाक्ष- पहला अपराध है। और द्वितीय अपराध यह है कि जो शम्भु के भी इष्टदेव
हैं,
उन श्रीहरि के भी अंशी स्वरूप श्रीनन्दनन्दन के विरुद्ध मिथ्या
कलङ्क लगाकर इसने अपनी वधू को रोककर उनके भोजन में बाधा पहुँचायी है। अतएव इन
दोनों अपराधों के लिए पुत्रवधू तथा पुत्र के शोक में जटिला अपनी कन्या के साथ
व्रजमण्डल में चिरकाल तक रोदन करे ॥७५-७६ ॥
हा पुत्र ! हा प्राणसमे स्नुषे किं
शृणोमि हा हन्त ! चिरायुषौस्तम् ।
विद्यावले! त्वच्चरणौ प्रपन्ना
प्रसादयामुं भुजगाधिराजम् ॥७७॥
वधूं न रोत्स्यामि कदापि सेयं
प्रयातु नन्दस्य पुरं यथेष्टम् ।
सम्भोजयित्वैव हरिं प्रकामं
पक्ता पुनर्मद्गृहमेतु नित्यम् ॥७८॥
भावानुवाद - यह
सुनकर वृद्धा उच्च स्वर से रोदन करने लगी तथा आर्त्त नाद के साथ कहने लगी- हा
पुत्र ! हा प्राणों के समान पुत्रवधो! हाय! हाय! तुम दोनों चिरायु हुए हो - क्या
मैं अब ऐसा सुन नहीं सकूँगी ? तदनन्तर जटिला
विद्यावलि को सम्बोधन करके बोली- हे विद्यावले ! मैं तुम्हारे चरणों में शरणागत हूँ।
इस सर्पाधिराज को जिस किसी भी प्रकार से प्रसन्न करो । अब मैं बहू को कभी भी नहीं
रोकूँगी। हमारी पुत्रवधू प्रतिदिन अपनी इच्छानुसार नन्दालय जाकर रसोई बनायेगी,
नित्य पाक-कार्य समाप्त कर श्रीकृष्ण को भोजन करायेगी तथा अन्त में
हमारे घर लौट आयेगी ॥७७-७८ ॥
दुर्वाससं तं शतशो नमामि
मुनेऽपराधं मम हा क्षमस्व ।
जरातुराया अतिमन्दबुद्धे-
राजन्म- बातुलतया स्थितायाः ॥ ७९ ॥
भावानुवाद – हे
मुनिवर दुर्वासा! मैं आपके चरणों में नमस्कारपूर्वक शत-शत दण्डवत् प्रणाम करते हुए
प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरा अपराध क्षमा करो। मैं वृद्धा,
अत्यन्त मन्द बुद्धिवाली तथा जन्म से ही वातुल (पागल) अथवा उन्मत्त
हूँ ऐसी मेरी प्रसिद्धि है ॥७९॥
कन्या ममेयं तु सदा कुबुद्धि-
र्वधूः सुशीलां प्रसभं दुनोति ।
श्रुत्वेति मातुर्वचनं धरण्यां
निपत्य सोचे कुटिलाऽपि नत्वा ॥ ८० ॥
क्षमस्व सर्पेन्द्र कृपां कुरुष्व
मद्भ्रातरं मा दश नैव रोत्स्ये ।
वधूं न चापि प्रवदामि यातु
तत्रालिभिर्यत्र भवेत्तदिच्छा ॥ ८१
॥
भावानुवाद –
मेरी यह कन्या कुटिला सर्वदा ही कुटिल बुद्धि
युक्त है,
अतः मेरी सुशील बहू को अकारण ही अत्यधिक पीड़ा देती है । माता की यह
बात सुनकर कुटिला भी धरती पर गिरकर सर्पराज के उद्देश्य से नमस्कारपूर्वक कहने
लगी- हे सर्पेन्द्र ! क्षमा करो, कृपा करो, मेरे भाई को मत डँसना। अब से मैं बहू को कभी भी नहीं रोकूँगी तथा उस पर
कोई भी आरोप नहीं लगाऊँगी। जहाँ भी इच्छा हो, बहू सखियों के
साथ जा सकेगी ॥८०-८१ ॥
सर्पोऽवदद् भोः शृणुताशु गोप्यः
साध्व्येव राधा शपथोऽत्र शम्भोः ।
त्वञ्चापि कृत्वा शपथं स्वसूनो
मूणो वदात्रास्तु मम प्रतीतिः ॥ ८२
॥
भावानुवाद - सर्पेश्वर
बोले- हे गोपियो ! तुम शीघ्र ही मेरे वचनों को श्रवण करो,
मैं शम्भु की शपथ लेकर कहता हूँ कि श्रीराधा परम साध्वी है। हे
जटिले ! तुम भी मेरी तरह अपने पुत्र के सिर की शपथ लेकर इस बात को स्वीकार करो,
तभी मुझे विश्वास होगा ॥ ८२ ॥
त्वदुक्त इत्थं शपथः कृतोऽयं
वधूं न रोत्स्यामि कदाप्यहीन्द्र !
स्नुषा च पुत्रश्च चिराय जीव-
त्विमं वरं मे कृपया प्रयच्छ ॥ ८३ ॥
भावानुवाद - यह
बात सुनकर जटिला अपने पुत्र के सिर पर हाथ रखकर शपथ लेकर बोली- हे सर्पराज !
तुम्हारे वचनों पर मेरा पूरा विश्वास है। मैं कभी भी पुत्रवधू को नहीं रोकूँगी।
तुम इस समय कृपा करके मुझे यह वर प्रदान करो कि मेरी पुत्रवधू तथा मेरा पुत्र
चिरञ्जीवी रहें ॥ ८३ ॥
बाढ़ं प्रसन्नोऽस्मि जरत्ययि त्वं
दुर्वाससं पूजय भोजयस्व ।
राधाङ्गतः स्वं गरलं गृहीत्वा
व्रजामि कैलासमितोऽधुनैव ॥ ८४ ॥
कृष्ण- प्रवादं यदि ते स्नुषायै
ददासि देहात्र न मेऽस्ति कोपः ।
रुणत्सि तां चेत् सहसागतस्ते
वधूञ्च पुत्रञ्च रुषा दशामि ॥ ८५ ॥
भावानुवाद - सर्प-
अरी वृद्धे ! ठीक है, मैं तुम्हारे प्रति
सम्पूर्णता प्रसन्न हुआ। तुम मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा की पूजा करो तथा उन्हें भोजन
कराओ, मैं इसी क्षण श्रीराधा के अङ्गों से विष ग्रहण कर
कैलाश की ओर यात्रा करता हूँ। हे वृद्धे ! यदि तुम अपनी वधू को श्रीकृष्ण सम्बन्धीय
झूठा कलंक प्रदान करना चाहती हो, तो करो। इससे मैं तुम्हारे
प्रति क्रोधित नहीं होऊँगा, किन्तु आज के बाद उसे कहीं जाने से
रोका, तो मैं उसी समय आकर क्रोधपूर्वक तुम्हारे पुत्र तथा
वधू को डँसकर मार डालूँगा ॥८४-८५ ॥
प्रोवाच विद्यावलि रात्तमोदा
भो गोपिका धत्त मुदं महिष्ठाम् ।
गृहीत्वान्तरधादहीन्द्रो विषं
निरामयाभूद् वृषभानु - पुत्री ॥ ८६
॥
भावानुवाद- तदनन्तर
विद्यावलि अत्यन्त आनन्द से बोली- हे गोपियो ! तुम अब परमानन्दित होओ। विष ग्रहण
करके सर्पराज अन्तर्धान हो गये हैं तथा वृषभानुनन्दिनी भी इस समय पूर्णता स्वस्थ्य
हो गयीं हैं ॥ ८६ ॥
उद्घाटयामास यदा कवाटं
तदैव सर्वा विविशुर्गृहान्तः ।
पप्रच्छु रेतामयि ! कीदृशी त्वं
सुस्थाऽस्मि तापो मम नास्ति कोऽपि ॥
८७ ॥
भावानुवाद- इसके
बाद कपाट खोलकर सभी ने कक्ष में प्रवेश किया तथा श्रीराधा से पूछा-अरी राधे ! तुम
इस समय कैसी हो ?
श्रीराधा बोलीं- मैं अच्छी हूँ,
अब मुझे कोई ताप नहीं है ॥ ८७ ॥
विद्यावलेरङ्घ्रि युगं प्रणेमु
धन्यैव विद्या तव धन्यकीर्ते ।
संजीव्य राधामयि पुण्यवीथीं
धन्यामविन्दस्तव धन्यमायुः ॥ ८८ ॥
भावानुवाद - तब
सभी विद्यावलि के दोनों चरणों में झुककर प्रणाम करते हुए बोलीं- हे विद्यावले!
तुम्हारी कीर्त्ति धन्य है। तुमने श्रीराधा को सञ्जीवित करके प्रचुर पुण्यराशि को
अर्जित किया है तथा तुम्हारी आयु भी धन्य हुई है ॥ ८८ ॥
ललाग कर्णे कुटिला जरत्याः
सा प्राह कन्ये किमिदं ब्रवीषि ।
एकेन हारेण किमद्य सर्वा-
लङ्कारमस्या अधुनैव दास्ये ॥ ८९ ॥
भावानुवाद- उस
समय कुटिला अपनी माता के कान में बोली- इस विद्यावलि को श्रीराधा का हार पुरस्कार
रूप में देना होगा।
जटिला बोली- यह तुम क्या कह रही हो
कुटिले! केवल हार ही क्यों ? श्रीराधा के
समस्त अलङ्कार ही इसी समय इसे दे देती हूँ ! ॥ ८९ ॥
स्नुषे! प्रसीद स्वकरेण सर्वा-
लङ्कारमेतां परिधापय त्वम् ।
व्रजेश्वरी त्वज्जननी च शीघ्रं
दास्यत्यनेकाभरणानि तुभ्यम् ॥ ९० ॥
भावानुवाद - तब
जटिला श्रीराधा से बोली- हे पुत्रवधो ! तुम प्रसन्न चित्त से अपने समस्त अलङ्कारों
को इसे पहना दो। व्रजेश्वरी (श्रीयशोदा) तथा तुम्हारी माता शीघ्र ही तुम्हें अनेक
आभूषण दे देंगी ॥ ९० ॥
विद्यावले! मच्छपथो न नेति
मा ब्रह्यतो मौनवती तव त्वम् ।
ततस्तु राधा परिधापयन्ती
भूषाम्बरादि स्वगतं जगाद ॥ ९१ ॥
भावानुवाद - फिर
वह विद्यावलि से बोली- हे विद्यावले! मेरी पुत्रवधू तुम्हें अपने हाथों से आभूषण
पहनायेगी - तुम्हें मेरी सौगन्ध है, तुम
उसे ग्रहण करो। तुम कदापि ऐसा मत कहना कि "मैं ग्रहण नहीं करूँगी" ।
तत्पश्चात् श्रीराधा विद्यावलि रूपधारी श्रीकृष्ण को वस्त्र, भूषणादि पहनाने लगी और मन ही मन कहने लगी- ॥ ९१ ॥
यो मां सखीनां पुरतोऽपि नैव
शशाक सम्भोक्तुमयं प्रियो मे ।
ननान्दुश्च श्वश्वा समक्षमेव
मां निर्विवादं समभुङ्क्त बाढम् ॥९२
॥
भावानुवाद - जो
मेरी प्राणों के समान प्रियसखियों के सम्मुख मेरे साथ सम्भोग नहीं कर पाते उन्हीं
प्रियतम ने आज मेरी सास तथा ननद के सामने ही मेरा निर्विवाद रूप से यथेच्छ उपभोग
किया है ॥ ९२ ॥
वाम्यञ्च कर्तुम् मम नावकाशो-
अभूवं परं केवल दक्षिणैव ।
किन्त्वद्य वाञ्छा जनुषोऽप्यपुरि
तच्चर्वितं भुक्तमहो मुहुर्यत् ॥ ९३
॥
भावानुवाद- आज
मुझे वाम्य भाव प्रकाश करने का अवकाश ही नहीं मिला - आज तो मैं केवल दक्षिण भाव में
ही रह गयी। जैसा भी हो, आज मेरे जन्म-जन्म की
इच्छा पूर्ण हुई है, क्योंकि प्रियतम का चर्वित ताम्बूल
बार-बार आस्वादन के लिए प्राप्त हो सका ॥ ९३ ॥
पादे निपत्यैव मदीयकान्त-
मानीय साक्षात् समभोजयन्माम् ।
वधूं तदस्याश्चरण ननान्दुः
श्वश्वाश्च मे भक्तिरविच्युताऽस्तु
॥ ९४ ॥
भावानुवाद - जिस
सास और ननद को मैं इतने दिनों तक अपना शत्रु मानती थी,
आज वे ही मेरे प्राण-कान्त के श्रीयुगलचरणों में गिरकर उन्हें अपने
घर में लायी तथा उन्हें मेरे साथ मिलाकर साक्षात् भाव से मुझे उपभोग करवाया। अतएव
अपनी सास तथा ननद के चरणों में मेरी अचला भक्ति हो यही प्रार्थना है ॥ ९४ ॥
सम्भोगपश्चादपि तन्निदेशा-
च्छ्रङ्गावयामि प्रियमग्रतोऽपि ।
अस्या अये धन्य विधेर्नुमस्तां
वृत्तं तवैतत् क्व नु वर्णयामि ॥ ९५
॥
भावानुवाद- आज
मैं मिलन के बाद भी उस सास के आदेशानुसार प्रियतम प्राणवल्लभ को उनके ही सम्मुख
विभूषित कर रही हूँ। हे विधाते ! तुम धन्य हो ! तुम्हें नमस्कार करती हूँ अथवा
स्तुति करती हूँ। तुम्हारा यह वृत्तान्त कहाँ और किसके समीप वर्णन करूँ ?
॥ ९५ ॥
विद्यावलिः प्राह भगिन्यतः किम्
आर्ये! त्वदाज्ञां करवै वदैतत् ।
यावो गृहं शीघ्रमतः परन्तु
रात्रिर्निशीथादपि ह्यधिकाऽभूत् ॥
९६ ॥
भावानुवाद- इसके
बाद विद्यावलि कहने लगी- हे आर्ये (जटिला ) ! अभी मध्य रात्रि से भी अधिक समय हो
गया है। अब तुम्हारे किस निर्देशका पालन करूँ, बतलाओ
। अन्यथा शीघ्र ही हम दोनों बहनें घर जा रही हैं ॥ ९६ ॥
जरत्यवादीदयि गार्गि ! विद्या-
वलिस्तथा त्वञ्च हठादियत्याम् ।
रात्रौ कथं यास्यथ आः सुखेन
ममैव गेहे स्वपितं कथं न ?
॥ ९७ ॥
भावानुवाद- तब
वृद्धा जटिला ने कहा- हे गार्गि हे विद्यावले! तुमलोग इस रात्रि काल में किस
प्रकार अपने घर जाओगी? अहो ! क्यों नहीं
आज तुम दोनों हमारे ही घर पर सुख से शयन करती ? ॥ ९७ ॥
जगाद गार्गी जटिले! त्वदुक्त-
मवश्यमेतत् करवाव बाढ़म् ।
न याति चित्ताद्विष-शेषगन्ध-
सम्भावना मे खलसर्पजातेः ॥ ९८ ॥
भावानुवाद - गार्गी
कहने लगी-जटिले ! मैं अवश्य ही तुम्हारे वचनों का पालन करूँगी,
क्योंकि हमलोगों के चित्त से खल सर्पजाति की विष- गन्ध अभी भी
पूर्णता विदूरित नहीं हुई है, अर्थात् कृष्ण-सर्प द्वारा
डँसे गये लोगों में विष की क्रिया प्रथमतः प्रशमित होने पर भी उसके पुनः उठने की
सम्भावना बनी रहती है, अतएव मन्त्रविदों का निकट रहना अति
आवश्यक होता है ॥ ९८ ॥
प्रोवाच बाढ़ं जटिला स-कन्या
तदद्य वध्वा सह पुष्पतल्पे |
एकत्र विद्यावलिरिद्धमन्त्रा
सुखं वलभ्यां स्वपितु प्रकामम् ॥९९
॥
भावानुवाद - अनन्तर
कुटिला तथा जटिला दोनों ही कहने लगीं- अच्छा! ऐसा ही हो। हे गार्गि ! मन्त्रविद्
विद्यावलि आज छत पर स्थित कक्ष में कुसुम शय्या पर वधू के साथ ही सुखपूर्वक शयन करे
॥ ९९ ॥
इदं विलास - रसिकौ रतसिन्धु चारु
हिल्लोल खेलनकलाः किल तेनतुस्तौ ।
प्रेमाब्धिकौतुकमहिष्ठतरङ्गरङ्गे
सख्यः
सुखेन ननृतुर्न विराममापुः ॥ १०० ॥
भावानुवाद - इस
प्रकार विलास रसिक श्रीश्रीराधाकृष्ण सुरत- सिन्धु के अति सुन्दर हिल्लोल में अनेक
प्रकार से क्रीड़ा-कला-कौशलरूप विद्या का प्रकाश करने लगे। सखियाँ भी उसी प्रेम
सागर के कौतुकरूप महातरङ्गपूर्ण रङ्गमञ्च पर नृत्य करने में प्रवृत्त हुईं- वे उस
नृत्य से विरत नहीं हुई ॥ १०० ॥
इति:श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका तृतीय
कौतूहल ॥
आगे जारी... श्रीचमत्कारचन्द्रिका अंतिम कौतूहल

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