पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

श्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल

श्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा प्रणीत श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका के चतुर्थ कौतूहल में श्रीकृष्ण गायिका रमणी के वेष में राधाजी से मिलित हुए हैं।

श्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका कौतूहल ४

श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका चौथा कौतूहल

चमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल

श्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ: कौतूहल

अथ चतुर्थ कौतूहल

राधा कदाचिदति मानवती बभूव तां

न प्रसादयितुमैष्ट हरिः प्रसह्य ।

सामादिभिर्बहुविधैर्विततैरुपायैः

कौन्या सहाथ किमपि प्रततान मन्त्रम् ॥ १ ॥

भावानुवाद- एक दिन श्रीराधा अत्यधिक मानवती हो गयीं। श्रीकृष्ण साम, दाम, दण्ड तथा भेद आदि बहुत प्रकार के उपायों के द्वारा किसी भी प्रकार से उन्हें प्रसन्न नहीं कर पाये। तब वे कुन्दलता के साथ एकान्त में मन्त्रणा करने लगे ॥ १ ॥

भूषाम्बरादि परिधाय विधाय नारी-

वेशं विकस्वर पिक - स्वर - मञ्जु - कण्ठः ।

सार्द्धं तया मृदुरणन्मणि-नूपुराभ्याम् –

पद्भ्यां जगाम जटिला-निलयं निलीय ॥ २ ॥

भावानुवाद - इसके बाद वे वस्त्र, भूषणादि परिधानों से नारीवेश में सुसज्जित होकर कोयल की मधुर वाणी को विनिन्दित करनेवाला सुन्दर और मनोहर वार्त्तालाप करने लगे। वे छिपकर श्रीचरणयुगल में मणि- नूपुरों से मृदु-मधुर झंकार करते हुए कुन्दलता के साथ जटिला के घर की ओर चलने लगे ॥ २ ॥

आराद्विलोक्य सहसा सहसा सहालि:

सौन्दर्य - विस्मितमना अवदन्मृगाक्षी ।

एह्येहि कुन्दलतिके! वद वृत्तमाशु

किं हेतुकं गमनमेतदभूदकस्मात् ॥ ३ ॥

भावानुवाद- दूर से कुन्दलता के साथ रूपलावण्यवती उस नारीवेशधारी श्रीकृष्ण को सहसा देखकर सखियों के साथ हास्य मुख मृगनयनी श्रीराधा का मन विस्मित हो गया। वे कुन्दलता को सम्बोधित करके कहने लगी-आओ, आओ कुन्दलते! शीघ्र बतलाओ, आज तुम अचानक किसलिए आयी हो ? ॥ ३ ॥

केयं कुतः किमभिधानवतीति पृष्टा

श्रीराधयावददिमां प्रति कुन्दवल्ली ।

नाम्ना कलावलिरियं मथुरा प्रदेशा-

दत्रागता श्रुतभवद्गुण - नामकीर्त्तिः ॥ ४ ॥

गानैगिरां गुरुमपि प्रभवेद्विजेतुं

किम्वाच्यमेतदवगच्छत गापयित्वा ।

कस्मादशिक्षदियतीमयि गान-विद्यां

साक्षात् पुरन्दर - गुरोः क्व नु तत्प्रसङ्गः ॥ ५ ॥

भावानुवाद - अहो ! तुम्हारे साथ यह रमणी कौन है ? कहाँ से आयी है? इसका नाम क्या है? श्रीराधा के इन प्रश्नों को सुनकर कुन्दलता कहने लगी- हे राधे! इसका नाम कलावलि है। तुम्हारे नाम, गुण, कीर्त्ति इत्यादि का श्रवण करके ये मथुरा से यहाँ आयी है। संगीत-विद्या में यह बृहस्पति को भी पराजित करनेवाली है। अधिक क्या कहूँ तुम इसका गान सुनकर स्वयं ही इस विषय में अवगत हो जाओगी।

श्रीराधा ने कहा - सखि कुन्दलते ! इसने यह गानविद्या किससे सीखी है?

कुन्दलता ने कहा- पुरन्दर (इन्द्र) के गुरु बृहस्पति से ।

श्रीराधा - इसने उनका दर्शन किस प्रकार से प्राप्त किया? ॥४-५॥

सत्रं यदाङ्गिरसमत्र वराङ्गि ! वृष्णि-

पुर्यां व्यतन्यत नु माथुर विप्रवयैः ।

तर्ह्येव सोऽमर- पुरात् सहसैत्य मासं

वासं विधाय परमादृत आननन्द ॥ ६ ॥

भावानुवाद – कुन्दलता ने कहा- हे सुन्दर अङ्गोंवाली राधे ! माथुर विप्रों ने जो एक सुमहान आङ्गिरस यज्ञ का (एक प्रकार का यज्ञ) अनुष्ठान किया था, उस यज्ञ में बृहस्पति ने देवलोक से मथुरा में उपस्थित होकर एक महीने तक परम आदर को प्राप्त कर आनन्द का उपभोग किया था ॥ ६ ॥

मध्ये सतां सहि कदाचिदगायदेवं

गीतं यदेतददधादियमालि ! सद्यः ।

मेधावती तदपरेद्यु रहो जगौ तत्

तेन स्वरेण बत तैरपि तालतानैः ॥७ ॥

भावानुवाद- हे सखि राधे ! उसी समय एक दिन सज्जन-सभा में बृहस्पति ने एक गान किया था - अहो ! इस मेधावती कलावलि ने दुरूह (कठिन) उस गीत को शीघ्र ही धारण करके दूसरे दिन उसी गीत को उसी स्वर से तथा उसी ताल मान से गाया था ॥७॥

श्रुत्वा बृहस्पति रहो मम गीतमारात्

का गायतीति बहु विस्मयवानवादीत् ।

मर्त्योऽप्यशिक्षदयि मत् सकृदुक्तितो यद्

दुर्गं द्युगानमपि विप्र ! तदानयैताम् ॥८ ॥

भावानुवाद - बृहस्पति इसका वह गान सुनकर विस्मित होकर मथुरा के एक ब्राह्मण से कहने लगे-अहो ! मेरे इस दुरूह गीत को कौन रमणी गान कर रही है? इस नारी ने मर्त्य-लोकवासिनी होकर भी स्वर्ग सम्बन्धीय इस दुर्गम गान को एक बार में ही मेरे मुख से सुनकर सीख लिया है- यह बड़े आश्चर्य की बात है। अतएव हे विप्र इसे मेरे समीप लाओ ॥८ ॥

विप्रादेशमवाप्य गीष्पतिपुरो यातामिमां सोऽब्रवीत्

त्वामद्यापयिताऽस्मि धीमति ! परां गान्धर्वविद्यामहम् ।

मेधा तेऽनुपमा पिकालिविजयी कण्ठो यदा दृश्यते

नैवादृङ् मनुजेषु लब्ध- जनुषां नो किन्नरीणामपि ॥ ९ ॥

भावानुवाद – बृहस्पति के आदेशानुसार वह ब्राह्मण इस कलावलि को उनके समीप ले आया। तब बृहस्पति बोले - हे धीमति ! (बुद्धिमति) मैं तुम्हें सर्वोत्कृष्ट गन्धर्व- विद्या का अध्ययन कराऊँगा, क्योंकि तुम्हारी मेधा (स्मरण रखने और समझने की मानसिक शक्ति) अतुलनीय है तथा कण्ठ भी पिक अथवा कोयलकुल पर विजय प्राप्त करनेवाला है। अहो ! ऐसी तीक्ष्ण मेधा तथा मधुर कण्ठ मनुष्य-लोक में नहीं होते। अधिक क्या ? किन्नरियों तक में भी कभी ऐसा देखा नहीं जाता ॥ ९ ॥

अधाप्य मासमिह वर्षमपि स्वयं स्व-

नतामपाठयदिमामियमाश्विनान्ते ।

प्राप्यावनीं मधुपुरीमगमद् व्रजे ह्यः

सायं तथाद्य तु तवाग्रतः आगताऽभूत् ॥ १० ॥

भावानुवाद – बृहस्पति ने एक महीने तक मधुपुरी में रहकर इसे सङ्गीत की शिक्षा प्रदान की है तथा उसके बाद स्वर्ग में ले जाकर इसे एक वर्ष तक पढ़ाया है। ये आश्विन मास के अन्त में पृथ्वी पर उतरकर कल ही मथुरा में पहुँची है और आज सायंकाल व्रज में तुम्हारे समीप आयी है ॥ १० ॥

तद् गीयतां किमपि भाविनि कं नु रागं

गायानि मालवहिम प्रणय प्रदोषे ।

कम्बा स्वरं सुमुखि ! षड़जमथ श्रुतिम्बा

कां तस्य वच्मि चतसृष्विति चादिश त्वम् ॥११॥

भावानुवाद – कुन्दलता की सारी बात सुनकर श्रीराधा ने कहा- हे भाविनि ( सुन्दर स्त्री)! तुम कुछ गाकर मुझे सुनाओ।

कलावलि ने पूछा- हे वृन्दावनेश्वरि ! किस राग में गान करूँ ?

श्रीराधा- प्रदोष का समय है, अतः मालव राग का गान करो।

कलावलि ने पुनः पूछा - हे सुमुखि ! किस स्वर से गाऊँ ?

श्रीराधा – षड़ज में।

कलावलि - हे राधे ! इसकी चार श्रुतियाँ हैं, उनमें से कौन-सी श्रुति के अनुसार गाऊँ? इसका भी आदेश करो ॥ ११ ॥

कण्ठे श्रुतिर्न तव वात-कफादिदोषा-

शुद्धा भविष्यति कदापि विनैव वीणाम् ।

तद्रागताल गमक - स्वर - जाति-तान-

ग्रामश्रिया मधुरमातनु गीतमेकम् ॥ १२ ॥

भावानुवाद- तब श्रीराधा बोली- हे सुन्दरि । जिस प्रकार कण्ठ में वात, कफ आदि दोष रहने से गान करना कभी सम्भव नहीं होता, ठीक उसी प्रकार वीणा की सहायता के बिना शुद्धा श्रुति का गान करना भी सम्भव नहीं है। अतएव राग, ताल, गमक, स्वर, जाति, तान, ग्राम इत्यादि के साथ एक मधुर गान सुनाओ ॥ १२ ॥

राधे ! विनैव भवतीमिह गानविद्यां

जानन्ति काः कलयताऽमिलिताः श्रुती स्ताः ।

प्रोच्येत्थमातनुत केक्यलिवृन्दनिन्दि-

ताना नना तनन रीति सुरीति - गानम् ॥ १३ ॥

भावानुवाद – कलावलि ने कहा- हे राधे ! तुम्हारे बिना इस जगत में गान- विद्या को कौन जान सकता है? अतएव, अमिश्रित श्रुति में ही गान करती हूँ, श्रवण करो।

यह कहकर कलावलि - "ता ना न ना त न न ऋ" इत्यादि सुर से मयूर अथवा भ्रमर को भी विनिन्दित करनेवाले कण्ठस्वर से अति सुन्दर गान करने लगी ॥ १३ ॥

आदौ प्रियालि - विततेर्नयनाश्रु - नद्यः

सस्रुस्ततः स्थगिततां ययुरेव मध्ये ।

अन्त्यक्षणे तु करकोपलतामवाप्य

पेतुष्ठनट्ठनदिति क्षिति - पृष्ठ एव ॥ १४ ॥

भावानुवाद - इस मधुर गान की रीति के श्रवण से प्रथमतः प्रिय सखियों के नयनों से अश्रु निःसृत होकर नदी के प्रवाह के समान बहने लगे। गान के मध्य- समय में अश्रु का गिरना स्थगित हो गया तथा अन्तिम समय में अश्रु कठोर अथवा शिला होकर आँखों से ठन-ठन शब्द करते हुए धरती पर गिरने लगे ॥ १४ ॥

तस्याः कठोरतर- मानजुषस्तु चित्त-

हीरो पलं द्रवमवाप यदैव सद्यः ।

साश्चर्य माख्यदयि हस्त! कलावले त्वद्-

गानं सुधां सुरपुरस्य तिरस्करोति ॥१५ ॥

भावानुवाद- उस मानवती श्रीराधा का मानयुक्त चित्त रूप अति कठोर हीरे का खण्ड भी द्रवीभूत हो गया। इसीलिए श्रीराधा ने उस समय आश्चर्यचकित होकर कहा- हे देवि ! कलावले! तुम्हारा यह गान देवलोक की सुधा का भी तिरस्कार करनेवाला है ॥ १५ ॥

त्वादृग जनो यदि ममास्तिक एव तिष्ठेद्

भाग्याज्जनुस्तदखिलं सफली करोमि ।

नन्दात्मजो यदि पुनः शृणुयाद् गुणन्ते

कण्ठाद् बहिर्नहि करोति तदा कदापि ॥ १६ ॥

भावानुवाद - यदि तुम्हारे समान गुणवती नारी मेरे भाग्यवशतः मेरे निकट ही रहे, तब मैं अपना सम्पूर्ण जीवन सफल कर सकूँगी । देखो, हे देवि ! नन्दनन्दन यदि तुम्हारे इन गुणों अथवा गान- विद्या को श्रवण करेंगे, तब वे कभी भी तुम्हें कण्ठ से बाहर नहीं करेंगे, अर्थात् कण्ठहार बनाकर सर्वदा तुम्हें धारण करेंगे ॥ १६ ॥

अवृत कुन्दलतिका न वदैतदेतां

साध्वीं त्वमेव निजकण्ठतटीं नयेनाम् ।

नैवान्यथा कुरु ततस्तु परार्द्ध निष्कं

दित्सुः सुखेन परिरब्धू मियेष राधा ॥ १७ ॥

कर्णे ललाग ललिताऽथ विमृश्य सुभ्रू

रूचे ब्रवीषि वरवर्णिनि सत्यमेतत् ।

सन्माननं समुचितं नहि निष्क- दानात्

स्वात्तेन सर्ववसनाभरणानि दास्ये ॥ १८ ॥

भावानुवाद - यह सुनकर कुन्दलता ने कहा- हे राधे ! परम साध्वी कलावलि से ऐसी अनुचित बात मत कहो। तुम स्वयं ही इसे कण्ठ से लगा लो अन्य कोई बात मत करो। अनन्तर श्रीराधा उसे पुरस्कार में अनमोल हार प्रदान करके आलिङ्गन करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ीं, तभी ललिता ने श्रीराधा के कान में एक गोपनीय बात बतलायी - हे राधे ! तुम किसे आलिङ्गन करने जा रही हो? ये तुम्हारे वही धूर्त्त शठ नागर रमणीवेश में आये हैं।

यह सुनकर श्रीराधा ने कहा- हे सखी ललिते! हे उत्तम परामर्श देनेवाली ! तुमने भलीभाँति विचारकर सत्य ही कहा है, केवल पदक देने से ही इनका समुचित सम्मान करना नहीं होगा, इन्हें सभी प्रकार के वस्त्र और अलङ्कार भी प्रदान करूंगी ॥१७- १८ ॥

तद् रूपमञ्जरि ! मदग्रत एव यूयं

चित्राम्बराणि परिधापयत प्रयत्नैः ।

उद्घाट्य सम्प्रति पुरातन - कञ्चुकं

द्राङ्नव्यं समर्पयत तुङ्ग - कुचद्वयेऽस्याः ॥ १९ ॥

भावानुवाद- तत्पश्चात् श्रीराधा रूपमञ्जरी से बोली- हे रूपमञ्जरि ! मेरे सम्मुख ही तुम इसे यत्नपूर्वक चित्र-विचित्र वस्त्रादि पहना दो तथा पुरानी कञ्चुलिका को खोलकर इसके तुङ्ग कुच- युगल पर शीघ्र ही नवीन कञ्चुलिका पहना दो ॥ १९ ॥

कौन्द्यब्रवीत् सुमुखि ! नोद्घटयाङ्गमस्याः

सङ्कोचमाप्स्यति परं भवदग्र एषा ।

तहि यद् यदयि दित्ससि सर्वमेतद्

गत्वा स्वधाम परिधास्यति न त्विहैव ॥ २० ॥

भावानुवाद- कुन्दलता ने कहा हे सुमुखि राधे ! इसके अङ्गों से वस्त्रों को मत उतरवाओ, इससे यह नवीन सुन्दरी तुम्हारे सामने अत्यधिक लज्जित हो जायेगी। अतएव तुम इसे जो कुछ प्रदान करने की इच्छा करती हो, इसे प्रदान कर दो। यह अपने घर में जाकर पहन लेगी, किन्तु इस स्थान पर नहीं पहनेगी ॥ २० ॥

न स्त्रीसदस्यपि भियं कुरुते हियञ्च

स्त्रीति प्रसिद्धिरधिका सखि ! सर्वदेशे।

आनन्द - वर्त्मनि कथं न वियाससि त्वं

सङ्कोच - कण्टकमिहार्पयसि स्वयं किम् ॥ २१ ॥

भावानुवाद- श्रीराधा ने कहा- सखि कलावले! स्त्री सभा में स्त्री जाति कभी भी भय अथवा लज्जा नहीं करती- यह बात तो सर्वत्र बहुत ही प्रसिद्ध है। बोलो तो, क्या तुम आनन्द के इस विषय में स्वयं ही संकोचरूप कण्टक अर्पण नहीं कर रही हो? ॥ २१ ॥

राधे ! न माल्य- वसनाभरणादि किञ्चि-

दङ्गीकरोमि किमु गायक कन्यकाहम् ?

त्वञ्चेत् प्रसीदसि सकृत् परिरम्भमेकं

देह्येहि मां न धनगृध्नु मवेहि मुग्धे ॥ २२ ॥

भावानुवाद - कलावलि बोली - हे राधे ! मैं माला, वस्त्र तथा आभूषण कुछ भी नहीं लूँगी। हे मुग्धे ! क्या मैं कोई गायक - कन्या हूँ? तुम यदि मेरे प्रति प्रसन्न हो तो एकबार मात्र मुझे एक आलिङ्गन दान करो -आओ, मेरे समीप आओ, मुझे धन-सम्पत्ति का लोभी मत समझो ॥ २२ ॥

वाम्यं किमत्र कुरुषे परिधेहि साधु

नोचेद् बलादपि वयं परिधापयामः ।

एका त्वमत्र शतशो वयमित्यतस्ते

स्वातन्त्र्यमस्तु कथमित्यवधेहि मुग्धे ॥ २३ ॥

भावानुवाद – श्रीराधिका ने कहा- हे सखि ! क्यों वाम्यता दिखा रही हो अर्थात् मेरी बात का क्यों निषेध कर रही हो, अच्छी प्रकार से वस्त्रभूषण पहनो । यदि तुम इससे असहमत होओगी, तो मैं बलपूर्वक तुम्हें पहनाऊँगी। देखो, तुम अकेली हो और मेरे साथ सैंकड़ों सखियाँ हैं, अतएव हे मुग्धे ! मेरे सामने तुम्हारी स्वतन्त्रता नहीं चलेगी। मैं कहती हूँ - अब भी सावधान हो जाओ ॥ २३॥

द्वे स्कन्धयोर्दधतुरञ्चल मग्रतोऽस्याः

पृष्ठे व्यमोचयत कञ्चुकबन्धमेका ।

वक्षःस्थलादपततां सुबृहत् कदम्ब-

पुष्पे तदा सपदि कर्त्तितकिञ्चिदंशे ॥ २४ ॥

भावानुवाद – कलावलि को यह बात कहते ही श्रीराधा ने सखियों से कलावलि को कञ्चुलिका पहनाने की आज्ञा दी। तब दो सखियों ने उसके सम्मुख खड़ी होकर उसके कन्धे के दोनों ओर से अञ्चल पकड़ लिया तथा एक सखी ने पीछे के भाग से कञ्चुलिका के बन्धन को खोल दिया तभी वक्षःस्थल से बड़े-बड़े दो कदम्ब के फूल भूमि पर गिर पड़े। ये दोनों पुष्प एक तरफ से कुछ-कुछ कटे हुए थे ॥ २४ ॥

किं हन्त किं पतितमेतदयीति पृष्टा

दास्योऽखिला जहसुरेव सहस्त- तालम् ।

लब्धावगुण्ठनपटी यदि जिहति स्म

पृष्ठीचकार तमथो वृषभानुपुत्री ॥ २५ ॥

भावानुवाद – श्रीराधाजी ने पूछा- हाय ! हाय ! यह क्या गिरा ? यह प्रश्न सुनकर रूपमञ्जरी आदि समस्त दासियों ने हाथ से ताली बजाकर हँसते हुए लज्जा से अञ्चल के द्वारा अपने-अपने मुखचन्द्र को ढक लिया। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा भी विमुखी होकर अर्थात् श्रीकृष्ण की तरफ पीठ करके बैठ गयीं ॥ २५ ॥

आलीकुलस्य सुदुरावर एव वक्त्रे

वस्त्रावृतोऽप्यजनि सस्वन एव हासः ।

राधाप्यधान्निभृतमस्वनमेव हास्य

कृष्णश्च कुन्दलतिका च जहास पश्चात्॥२६॥

भावानुवाद- तदनन्तर श्रीकृष्ण की ऐसी क्रिया को देखकर सखियाँ हास्य को रोकने के लिए अपने-अपने मुख को वस्त्र द्वारा ढक लेने पर भी जोर से हँसने लगीं। श्रीराधा भी अकेली बिना कोई शब्द किये हँसने लगी, तत्पश्चात् श्रीकृष्ण तथा कुन्दलता भी हँसने लगे ॥ २६ ॥

मूर्तो हास्यरसो मूहूर्त्तमभवत् स्वाद्यस्ततः प्रोचिरे

सख्यो हन्त ! बृहत् कदम्बकुसुमे धन्ये युवां भूतले ।

धूर्त्त प्रापित-कैतवे अपि पुनर्निष्कैतवे अन्ततो

भूत्वा हास्यरसामृताब्धिमनु ये सर्वा निधत्तः स्म नः ॥ २७ ॥

भावानुवाद- तब उस स्थान पर मुहूर्त्त काल के लिए हास्यरस मानो मूर्तिमान होकर परम आस्वादनीय हो गया। अनन्तर सखियों ने दोनों कदम्ब- पुष्पों को सम्बोधित करके कहा- हे बृहत् (बड़े) कदम्ब कुसुम युगल ! इस भूमण्डल पर तुम्हीं धन्य हो। तुम स्वभावतः कपटता शून्य होकर भी उस धूर्त्त के द्वारा कपटता युक्त हो गये थे, अर्थात् वृक्ष के कुसुम होने के कारण तुम तो धूर्त्तता नहीं जानते थे, किन्तु इस धूर्त्त के हाथ में पड़कर तुमने भी रमणी के कुच-युगल के रूप में दिखलायी पड़कर पहले तो अपनी धृष्टता ही प्रकाशित की थी, किन्तु अन्त में धूर्ततारहित होकर तुमने हम सबको हास्य- रसामृत समुद्र में निमग्न कर दिया ॥ २७ ॥

भो भोः कुन्दलते ! क्व ते सहचरी लज्जा न सा दृश्यते

पातालस्य तले ममज्ज सलिले सा कुन्दवल्या सह ।

तुच्छायैव भवामि हन्त विगतच्छायात्र वः किं ब्रुवे

तद् युष्मद् - वदनेषु नृत्यतु गिरां देवी यथेष्टं मुहुः ॥ २८ ॥

भावानुवाद - तत्पश्चात् सखियों ने कुन्दलता से कहा- हे कुन्दलते ! तुम्हारी सहचरी लज्जा कहाँ चली गयी ?

कुन्दलता ने कहा – पाताल के तल में जल के बीच वह कुन्दलता के साथ डूब गयी है। तुमलोग अब उसे देख नहीं सकोगी। सखियों ने पूछा- यदि कुन्दलता अपनी सखी लज्जा के साथ डूबकर मर गयी है, तब तुम कौन हो ?

कुन्दलता ने कहा - अरी! मैं तो उसकी छायामात्र हूँ।

सखियों ने कहा - तब तुम विगत छाया या कान्तिहीन क्यों दीख रही है?

कुन्दलता - और क्या कहूँ? तुम लोगों के मुख में वाग्देवी पुनः पुनः यथेष्ट नृत्य करें ॥ २८ ॥

प्रेमा गीष्पति- शिष्यया सह सदा सत्सङ्ग आजन्मतो

मिथ्या वाङ् नहि च जिहया परिचिता साध्वीः स्वधर्मं मुहुः ।

अध्याप्यातनु कर्म कारयसि ते ख्यातिर्व्रजे भूयसी

नाद्याऽभूत्तव वाञ्छितं यदियती कापि व्यथा सह्यताम् ॥२९॥

भावानुवाद – ललिता ने कहा- हे कुन्दलते! बृहस्पति की शिष्या के साथ तुम्हारा प्रेम और सत्सङ्ग बचपन से ही सर्वदा बढ़ रहा है। मिथ्या वाक्यों के साथ तो तुम्हारी जिह्वा का परिचय ही नहीं है। तुम साध्वी स्त्रियों को स्वधर्म अध्ययन कराकर अतनुकर्म अथवा सुमहान कार्य, पक्षान्तर में उनमें मदन-विकार कराती हो तुम्हारी ऐसी प्रशंसा तो सारे व्रज में बार-बार सुनी जाती है। आज तो तुम्हारी वाञ्छित अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई, अतएव तुम्हें कठोर पीड़ा ही सहनी पड़ी ॥ २९ ॥

आनीता विविधप्रयत्न - रचिता विद्याऽतिदूराद् गुरो-

विक्रेतुं सुधिया त्वयाऽद्य रभसादालीसदस्यापणे ।

विक्रीता नहि साभवत् पुनरहो हास्यास्पदीभूततां

प्राप्ता द्रागशुभक्षणः स हि यदायातं भवदट्ट्यामिह ॥ ३० ॥

भावानुवाद - सखि कुन्दलते ! तुम परम बुद्धिमती हो । आज तुम हमारी सखीसभारूप इस बाजार में बड़ी दूर से श्रीगुरु (अर्थात् श्रीकृष्ण) से प्राप्त और विविध प्रयत्न से रचित विद्या को बेचने के लिए बड़े दर्प के साथ आयी थी। परन्तु, हाय! हाय! तुम्हारी वह विद्या तो बिकी ही नहीं, अपितु तुम शीघ्र ही हास्यास्पद ही हुई हो। अहो! आज तुम क्या किसी अशुभ समय में यहाँ आयीं थीं? ॥ ३० ॥

अत्रापणे द्रुतमिमां ललितेऽद्य विद्यां

विक्रीय वाञ्छितमहं यदि साधयिष्ये ।

तत् कञ्चुकीं वितरसीह न चेद्ददामि

तुभ्यं स्वकञ्चुकमहं क्रियतां पणोऽयम् ॥३१ ॥

भावानुवाद – श्रीकृष्ण ने कहा- हे ललिते! मैं इस सखीसभारूप बाजार में शीघ्र ही इस विद्या का विक्रय करके अपनी वाञ्छा को पूर्ण कर सकता हूँ। अतः इस कञ्चुलिका को मुझे दे दो, यदि नहीं दोगी, तो मैं इस कञ्चुलिका को तुम्हें ही पहनाऊँगा ॥३१ ॥

शुष्कं प्रसूनमयि कोरकतां न गच्छेत्

प्राणे गते न खलु चेष्टत एव देहः ।

दम्भी कथं विदित-तत्त्व उपैति पूजां

स्वामिन्! मृषा प्रतिभया न मलं प्रयाहि ॥ ३२ ॥

भावानुवाद - यह सुनकर ललिता बोली- अरे! शठेन्द्र ! शुष्क कुसुम क्या कभी कली हो सकता है? प्राण त्याग देने पर देह क्या कभी कोई कार्य कर सकती है? दाम्भिक व्यक्ति की दाम्भिकता अवगत होने पर क्या कोई उसकी पूजा करता है? हे स्वामिन्! मिथ्या प्रतिभा के द्वारा कलङ्क की भागी मत होना ॥ ३२ ॥

कृष्णः स्ववक्षसि पुन कुसुमद्वयं तद्

धृत्वा जगाम जटिला-गृहमेव सद्यः ।

सोच्चैः स्वरं भुवि निपत्य तथा रुरोद

येनाकुलैव जटिला मुहुराप खेदम् ॥३३॥

भावानुवाद - तदनन्तर श्रीकृष्ण गिरे हुए दोनों फूलों को उठाकर अपनी छाती पर पुनः धारण करके उसी समय जटिला के घर पहुँचे । वहाँ जाकर भूमि पर गिरकर इस प्रकार उच्च स्वर से रोदन करने लगे कि जटिला बड़ी व्याकुल हो गयी और बार-बार दुःख प्रकट करती हुई पूछने लगी- ॥३३॥

का त्वं, रोदिषि किं कुतोऽसि किमभूत्ते विप्रियं पुत्रि तत्

सर्वं ब्रूहि विमृज्य लोचन जल- क्लिन्नं मुखाम्भोरुहम् ।

हा हा हन्त भवामि भाग्यरहिता धिङ् मे जनुर्धिक् तनुं

मां धि धिगिति प्रबृद्ध-दवथु प्रचेऽर्द्धमर्द्ध वचः ॥ ३४ ॥

भावानुवाद- हे पुत्री ! तुम कौन हो? तुम किसलिए रो रही हो? कहाँ से आ रही हो? क्या किसी ने तुम्हारा अहित किया है? आँखों के जल से अभिषिक्त अपने मुख कमल का मार्जन करके मुझे सारी बातें बतलाओ। तब कलावलि बोली हे आर्ये! हाय! हाय! मैं बड़ी दुर्भागी हूँ ! मेरे जन्म को धिक्कार है! मेरी देह को धिक्कार है! मुझे शत-शत धिक्कार है- यह बात वह टूटी-फूटी अस्पष्ट बोली से अत्यन्त काँपती हुई बोली ॥ ३४ ॥

वासो मे वृषभानु - भूपनगरे श्रीकीर्त्तिदायाः स्वसुः

कन्याहं सह राधया सम सदा संप्रीतिराबाल्यतः ।

आयाताऽस्मि चिरादहं निजगृहात्तां द्रष्टुमुत्कण्ठया

सा मां नैव विलोकते न वदति प्रेम्ना न चालिङ्गति ॥ ३५ ॥

भावानुवाद- हे आर्ये मेरा निवास महाराज वृषभानु के नगर में है तथा मैं कीर्तिदा की बहन की बेटी हूँ। राधा के साथ बाल्य काल से ही मेरी अत्यन्त प्रीति है। मैं बहुत दिनों के बाद अपने घर से बड़ी उत्कण्ठित होकर उससे मिलने के लिए आयी थी। किन्तु, राधा ने मेरे प्रति दृष्टिपात भी नहीं किया अथवा प्रेमसहित एक बार भी आलिङ्गन नहीं किया ॥ ३५ ॥

मां दृष्ट्वा स्मयते न नैव कुशल प्रश्नं करोत्यादरात्

तत् प्राणैर्मम किं प्रयोजनमिमांस्तक्ष्याम्यतं त्वत्पुरः ।

आर्ये! त्वं विमृशावधारय कदा को मेऽपराधोऽभवत्

तां त्वं पृच्छ मुहुः प्रदाय शपथं सा मे कथं कुप्यति ॥ ३६ ॥

भावानुवाद- मुझे देखकर एकबार मृदु हास्य भी नहीं किया, अथवा आदरपूर्वक एकबार भी मेरा कुशल नहीं पूछा। इसलिए मुझे इन प्राणों को धारण करने की क्या आवश्यकता है? मैं तुम्हारे सम्मुख ही इस शरीर का त्याग करती हूँ। हे आर्ये! तुम विचार करके देखो, क्या श्रीराधा के प्रति मेरा कभी भी कोई अपराध हुआ है? बार-बार शपथ देकर उससे पूछकर देखो वह क्यों मेरे प्रति क्रोधित है ? ॥ ३६ ॥

वत्से ! समाश्वसिहि कोऽपि न तेऽपराधो

गच्छामि सर्वमधुनैव समादधामि ।

तं स्नेहयामि भवतीं परिरम्भयामि

संलापयामि रजनीं सह शाययामि ॥ ३७ ॥

भावानुवाद - जटिला कलावलि की ऐसी करुण आर्त्त (दुःखपूर्ण) वाणी को सुनकर बोली- हे पुत्री ! तुम निर्भय और शान्त हो जाओ, तुम्हारा कोई भी अपराध नहीं है। मैं अभी चलती हूँ और सब समाधान करती हूँ, मैं ऐसी व्यवस्था करूँगी जिससे राधा तुमसे स्नेह करे। तुम्हें राधा द्वारा आलिङ्गन करवाऊँगी, तुम्हारे साथ उसकी बातचीत करवाऊँगी और आज रात में दोनों को एक ही साथ शयन करवाऊँगी ॥ ३७ ॥

इत्युक्त्वा सहसा स्नुषालयमगाद् दृष्ट्वालिपालीः पुरः

प्रावोचल्ललिते! किमीदृगभवद् वध्वाः स्वभावोऽधुना ।

तस्यास्तातपुरादियं स्वभगिनीं तां द्रष्टुमुत्कण्ठयै

वागात् सा कथमत्र सप्रणयमाश्वेनां न सम्भाषते ॥ ३८ ॥

भावानुवाद - यह कहकर जटिला ने सहसा अपनी पुत्रवधू के कक्ष में प्रवेश किया। सखियों को वहीं देखकर उसने ललिता से कहा- ललिते ! आज पुत्रवधू का यह कैसा विषम (विपरीत) स्वभाव हो गया? उसके पिता के नगर से उसकी अपनी बहन अत्यन्त उत्कण्ठित होकर आयी है, किन्तु पुत्रवधू उसके साथ प्रीतिपूर्वक वार्त्तालाप क्यों नहीं करती ? ॥ ३८ ॥

पश्यैषा नयनाश्रुसिक्तसिचया खिन्नाऽस्मदन्त मर्हा

कारुण्यं जनयत्यतः सुचरिते साद्गुण्यपूर्णे स्नुषे ।

एनां साधु परिष्वजस्व कुशलं पृच्छ प्रियं किञ्चन

बुह्यस्या हृदयव्यथापसरतु प्रीणीहि मां प्रीणय ॥ ३९ ॥

भावानुवाद- जटिला ने अब श्रीराधा से कहा हे सुचरिते! हे सद्गुण पूर्णे! हे पुत्रवधो! देखो तो, आँसुओं से इसके कपड़े भीग रहे हैं, इसको दुःखी होते देखकर मेरे अन्तःकरण में महा करुणा उदित हुई है। इसका अच्छी प्रकार से आलिङ्गन करो, कुशल समाचार पूछो, कुछ प्रियवचन बोलो - जिससे इसके हृदय की पीड़ा दूर हो। इसे पहले के समान ही आनन्द प्रदान करो और मुझे भी सन्तुष्ट करो ॥ ३९ ॥

आर्ये! याहि गृहं यथाऽऽदिशसि तत् कुर्वे सुखेनाधुना

शेष्वै तावति बालिका - जन - वृथा - वादे स्वयंमापत ।

बालाल्यः सदृशोऽल्पबुद्धिवयसोऽभीक्षप्रसाक्रुध - स्तासु

त्वादृगपारबुद्धिरतुला प्रमाणि किं पतेत् ॥ ४० ॥

भावानुवाद – श्रीराधा ने कहा- हे आर्ये! आप घर जाइये। आपके आदेश के अनुसार मैं कार्य कर रही हूँ। इस समय आप सुखपूर्वक शयन करें – बालिकाओं के वृथा वाद-विवाद में पड़ना आपको शोभा नहीं देता। बाल सखियाँ सभी समान हैं- इनकी आयु जितनी अल्प है, बुद्धि भी उतनी ही अल्प है। क्षण-क्षण में ये परस्पर वाद-विवाद करतीं हैं और फिर परस्पर प्रीति भी करती हैं। इसलिए इनके बीच में आप जैसी अपार बुद्धिशील प्रमाणिकी (न्याय करनेवाली) का आगमन क्या युक्तियुक्त है ? ॥४०॥

उत्तिष्ठ मा वद परं मम मूधर्न एव

दत्तो मया शपथ श्माशु गले गृहाण ।

आत्मस्वसारमनया सह भुङ्क्ष्व शेष्व

मा भिन्धि मे गुरुजनस्य निदेशमेतत् ॥ ४१ ॥

भावानुवाद – जटिला ने कहा- हे पुत्रवधो ! उठो और अब अधिक कोई बात मत कहना - मैं तुम्हें अपने सिर की शपथ देती हूँ। शीघ्र ही अपनी बहन को गले से लगा लो, एकसाथ भोजन करो और शयन करो। मैं तो तुम्हारी गुरुजन हूँ, मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन मत करना ॥ ४१ ॥

आर्ये! सप्रौढ़ि मामादिशासि यदिततो वच्मि सत्यंयदेषा

प्रावोचत् कुन्दवल्लीं कटुतरमधिकं दुःसहं तेन कोपात् ।

नास्याः वक्त्रं विलोके यदि पुनरधुना सेयमस्यां प्रसीदेत्

तवाहं प्रसन्ना दिशसि यदखिलं तत् करोम्येव बाढ़म् ॥ ४२ ॥

भावानुवाद- यह सुनकर श्रीराधा ने कहा- हे आर्ये (सास) ! आप यदि मुझे गम्भीरतापूर्वक अथवा हठता (आग्रह) के साथ आदेश देती हो, तो मैं भी एक सत्य बात बतलाती हूँ। इस नारी ने कुन्दलता को अत्यन्त कटु वचन कहे थे, इसीलिए रोषवश मैं इसका मुख भी नहीं देखूँगी। किन्तु अब यदि यह कुन्दलता को प्रसन्न कर ले, तो मैं भी प्रसन्न हो जाऊँगी तथा आप जैसा आदेश करेंगी, उसका अवश्य ही पालन करूँगी ॥ ४२ ॥

आर्ये! वक्ति मृषा स्नुषा तव मामेषा कटु व्याहरन्

नाप्यस्यै कुपिताऽस्मि तां प्रति ततः प्रोवाच राधा स्फुटम् ।

किं मिथ्या वदसीह कुप्यसि न चेदस्यै प्रसीदस्यलं

कण्ठग्राहमिय त्वयाद्य रभसादालिङ्ग्यतामग्रतः ॥ ४३ ॥

भावानुवाद - कुन्दलता बोली- हे आर्ये! तुम्हारी पुत्रवधू झूठ बोल रही है। इसने मुझे कभी भी कटु वचन नहीं कहे हैं, मुझे इसके प्रति कोई रोष नहीं है।

तब श्रीराधा कुन्दलता से स्पष्ट रूप से बोली- तुम आर्या के सामने झूठ क्यों बोल रही हो? यदि इसके प्रति तुम्हारा कोई कोप नहीं है और तुम इसके प्रति अत्यन्त प्रसन्न हो, तो हम सबके सामने इसे आलिङ्गन करके दिखाओ ॥ ४३ ॥

तूष्णीं स्थितां सपदि कुन्दलतां विलोक्य

प्राह स्म सप्रतिभमेव तदा मृगाक्षी ।

आर्ये! परामृश चिरं कतराब्रवीन्नौ

मिथ्येति तां परिभवस्य विधेहि पात्रीम् ॥ ४४ ॥

भावानुवाद – श्रीराधा की यह बात सुनकर कुन्दलता चुप हो गयी। ऐसा देखकर मृग के समान नयनवाली श्रीराधा ने उसी समय जटिला से प्रतिभा के साथ कहा- हे आर्ये! आप ही विचार करें कि हम दोनों में से कौन झूठ बोल रही है। जो झूठ बोल रही है, उसका तिरस्कार करें ॥ ४४ ॥

एतां यदत्र न परिष्वजते सहर्ष

तत् कोपलिङ्गमिह कः खलु संशयः स्यात् ।

वृद्धाऽवदन्मम वधुरिह वक्ति सत्य-

मन्तः प्रसीदति न कुन्दलता यदस्याम्! ॥ ४५ ॥

भावानुवाद - जब कुन्दलता ने इस रमणी का सहर्ष आलिङ्गन नहीं किया, तो यह उसके विशेष क्रोध का ही चिह्न है- अब इसमें क्या कोई और संशय है? तब वृद्धा ने कहा- मेरी बहू सत्य ही कह रही है । हे कुन्दलते ! इसका दोष क्षमा करके इसे प्रसन्न क्यों नहीं करती हो ? ॥४५ ॥

येन प्रसीदसि तदेव करोमि कौन्दि

मान्याऽस्मि तेऽद्य रचिताऽञ्जलि रस्मि तुभ्यम् ।

वीक्ष्यैव मन्मुखमिमां परिरद्धुमेसि

नातः परं वद ह हा शपथो ममात्र ॥ ४६ ॥

भावानुवाद- हे कुन्दलते! तुम जिससे प्रसन्न होओ मैं वही करती हूँ। देखो, मैं तुम्हारी पूजनीय हूँ, आज तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूँ, मेरे मुख के प्रति दृष्टिपात करके इसका आलिङ्गन करो। तुम और कोई बात मत कहना। हाय! हाय! तुम्हें मेरे सिर की शपथ है ॥ ४६ ॥

आर्या ददाति शपथं न विभेष्यतोऽपि

का धीरियं तव तदेहि परिष्वजस्व ।

इत्यालयश्च जटिला - कुटिले च धृत्वै-

वालिङ्गयन् बत मिथो हरिकुन्दवल्या ॥ ४७ ॥

भावानुवाद - इसके बाद भी जब कुन्दलता ने कोई चेष्टा नहीं की, तब सखियाँ बोलीं- हे कुन्दलते ! क्या तुम्हें आर्या की शपथ का भय नहीं है? अहो ! तुम्हारी कैसी बुद्धि है? अब इसे गले लगाकर आलिङ्गन करो। यह कहकर सारी सखियों ने तथा जटिला और कुटिला ने मिलकर उसे पकड़कर श्रीहरि के साथ उसका आलिङ्गन करवाया ॥ ४७ ॥

वृद्धा तदा किल न भेदभविष्यदारा-

दालीततेर्हसरसो न विराममैष्यत् ।

ताश्चेलरुद्धवदनास्तदपि प्रहासं

निःशब्दमेव विदधुश्च दधुश्च मोदम् ॥ ४८ ॥

भावानुवाद- उस समय वृद्धा जटिला यदि निकट न होती, तो सखियों के हास्यरस का कभी भी विराम नहीं होता। तथापि अपने-अपने अञ्चलों से मुख को ढककर बिना किसी आवाज के वे हँसते-हँसते महानन्द में डूब गयीं ॥ ४८ ॥

वृद्धा वधूमथ जगाद निज स्वसारं

ब्रूहि प्रियं परिरभस्व च निर्विवादम् ।

इत्यात्मपाणिविधृतौ द्रुतमेव राधा-

कृष्णौ मिथोऽतिपरिरम्भमवापयत्तौ ॥ ४९ ॥

भावानुवाद- तदनन्तर वृद्धा ने अपनी पुत्रवधू से कहा- हे पुत्री ! अब अपनी बहन के साथ प्रीतिपूर्वक वार्त्तालाप तथा आलिङ्गन करो - यह कहकर जटिला ने शीघ्र ही एक हाथ से श्रीकृष्ण को और दूसरे हाथ से श्रीराधा को पकड़कर उन दोनों को महा-आलिङ्गन पाश में आबद्ध करवा दिया ॥ ४९ ॥

हर्षाश्रुबिन्दु निकरं नुदतं प्रतिस्व-

चेलेन भोः सुखयतञ्च मिथो भगिन्यौ ।

सम्भुज्य किञ्चन सुखेन कृतैकतल्प-

स्वापे दृढ़प्रणयतो नयतं त्रियामाम् ॥ ५० ॥

भावानुवाद- तदनन्तर वृद्धा ने उन दोनों से कहा-हे दोनों बहनो! इस समय परस्पर आलिङ्गन के आनन्द से जो अश्रुरूप बिन्दु-राशि का वर्षण हो रहा है, उसे तुम दोनों एक-दूसरे के वस्त्राञ्चल द्वारा पोंछकर परस्पर सुखानुभव करो । तत्पश्चात् सुख के साथ किञ्चित् भोजन करके एक ही शय्या पर शयन कर दृढ़ प्रीति के साथ रात्रि व्यतीत करो ॥५०॥

वृद्धा जगाम शयितुं निजगेहमारात्

कृष्णः प्रगल्भतरतां दधदाख्यदालीः।

विद्यां विगीततमतां गमितामपि द्राग

विक्रीय वाञ्छितमविन्दमतो जिताः स्थ ॥ ५१ ॥

भावानुवाद - यह कहकर वृद्धा कुछ दूर अपने घर में शयन करने के लिए चली गयी। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण और अधिक प्रगल्भता ( प्रत्युत्पन्न मति या निर्लज्जता ) के साथ सखियों से बोले-देखो, हे सखियो ! मेरी जो विद्या अत्यन्त निन्दनीय हो गयी थी, उसे शीघ्र विक्रय कर मैंने मनोवाञ्छित फल लाभ किया है। अतएव तुमलोग मुझसे पराजित हो गयी हो ॥ ५१ ॥

भ्रातर्वधूर्यदिह भोः समभोजि तस्माद-

द्यैव वाञ्छितमलम्भि जयश्च भूयान् ।

सेतुर्यदि त्रुटित एव तदार्द्धभुक्ता

नैवास्त्वियं भवतु पूर्णमनोरथैव ॥ ५२ ॥

भावानुवाद – ललिता ने कहा- हे नागरराज ! भ्रातृ-वधू (भाभी) का उपभोग करके आज तुमने अभिलषित फल प्राप्त किया है और प्रचुर जय को भी प्राप्त किया है। जब मर्यादा भङ्ग हो ही गयी है, तब इन्हें और अर्द्ध-भुक्ता न रखकर पूर्णमनोरथवाली ही करो ॥५२॥

भ्रात्रापि शुद्धमनसा भगिनी सुतापि

पित्राऽत्र किं न परिरभ्यत एव लोके ।

युष्माकमानखशिखं स्मरभाव एव

तीव्रस्तदात्मसममेव जगच्च वेत्थ ॥ ५३ ॥

भावानुवाद – कुन्दलता ने कहा- हे ललिते ! क्या शुद्ध चित्त से भाई अपनी बहन का तथा शुद्ध हृदय से पिता अपनी पुत्री का आलिङ्गन नहीं करता? तुम्हारे तो पैर से मस्तक तक सभी अङ्ग तीव्र अनङ्ग भाव से ही जर्जरित हो रहे हैं, इसलिए सारे संसार को अपने ही समान देखती हो ॥ ५३ ॥

इत्युक्तवत्यतिरुषेव निवेद्य कुन्द-

वल्ली बहिर्भवनमेव यदाध्यतिष्ठत् ।

तस्याः प्रसादन कृते निरगुश्च सख्य-

स्तत्रैक एव कुसुमेसुरपाद् युवानौ ॥५४॥

भावानुवाद - यह कहकर मानो अति क्रोध में भरकर कुन्दलता कक्ष से बाहर चली गयी। तत्पश्चात् उसे प्रसन्न करने के लिए सखियाँ भी बाहर चली गयीं। उस स्थान पर केवल कुसुम-धनु कामदेव ही श्री श्रीराधाकृष्ण युगल के रक्षा कार्य में प्रवृत्त हुए ॥ ५४ ॥

सुभ्रूविभङ्ग कुटिलास्य सरोजसीधु

माद्यन्मधुव्रतविलास सुसौरभानि ।

सम्प्राप्य जालविवरेषु जुघूनुरेव

प्रेष्ठालयः प्रतिपदं प्रमदोमिपुजे ॥ ५५ ॥

भावानुवाद- उस समय बाहर स्थित प्रिय सखियाँ श्रीराधा के भ्रू – भङ्गि से युक्त कुटिल मुखकमल के मधुपान में प्रमत्त मधुसूदन श्रीकृष्ण के विलासादि की सुन्दर सौरभ राशि को प्राप्त करके खिड़कियों के जाल - रन्ध्रों (छेदों) में नयन लगाकर प्रतिपद पर परमानन्द के समुद्र की तरङ्गों में डूबने लगीं ॥५५ ॥

इति:श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिका चतुर्थ कौतूहल ॥

इति श्रीलविश्वनाथचक्रवर्ति विरचितः श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिकाः सम्पूर्णः ।

इति श्रीलभक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित श्रीश्रीचमत्कारचन्द्रिकाका भावानुवाद समाप्त ।

श्रीचमत्कारचन्द्रिका सम्पूर्ण अंक पढ़ें-

प्रथम कौतूहल

द्वितीय कौतूहल

तृतीय कौतूहल

चतुर्थ कौतूहल

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