माहेश्वरतन्त्र पटल १२
माहेश्वरतन्त्र के पटल १२ में श्रीराधा कृष्ण की प्रणय लीला और विरह लीला आदि का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १२
Maheshvar tantra Patal 12
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १२
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र द्वादश पटल
अथ द्वादशं पटलम्
शिव उवाच-
कृष्णस्तामागतां दृष्ट्वा
हर्षाकुलितचेतसाम् ।
कार्यसिद्धिमिमां ज्ञात्वा
हर्षादुल्लसितेक्षणः ॥ १॥
पप्रच्छतां सखीं प्रेम्णा किमुक्तं
राधया सखि ।
तदिदानीं ममाचक्ष्व श्रुत्वा
सन्तोषमाप्नुयाम् ॥ २ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- [ कार्य
सिद्धि के कारण ] हर्षातिरेक में चित्त की आकुलता वाली उस सखि को अत्यन्त प्रसन्नता
से उल्लसित नेत्रों वाले कृष्ण ने देखकर यह तो कार्यसिद्धि ही है'
ऐसा जानकर उस सखि से पूछा- हे सखि ! श्रीराधिका के द्वारा प्रेम से
क्या कहा गया ? उसे हमसे कहो, जिसे
सुनकर में संतोष पाऊँ ।। १-२ ।।
त्वयि गतायां यावन्तः कालस्यावयवा
ययुः ।
तावन्त्येव युगान्यासन्
विरहाकुलितस्य मे ॥ ३ ॥
हे सखि ! तुम जब से गई हो तब से काल
के जितने अवयव व्यतीत हुए हैं, विरह से
व्यथित मेरे उतने ही युग मानों बीत गए ॥ ३ ॥
सख्युवाच-
त्वत्सङ्गविरहात् कृष्ण राधापि
क्लिश्यतेतराम् ।
न निवृत्तिमवाप्नोति विना ते दर्शनं
क्वचित् ॥ ४ ॥
सखि ने कहा- हे कृष्ण ! आपके संगम
के विरह से राधा भी अत्यन्त कष्ट पा रही हैं। आपके कहीं भी दर्शन के बिना वह उस
विरह से निवृत्त नहीं हो पा रही हैं ॥ ४ ॥
कृष्ण कृष्णेत्यमु मन्त्रं
विरहाकुलया तया ।
जप्यतेऽहनिश मन्यमानया निकटे मृतिम्
॥ ५ ॥
उन विरह से व्यथित राधिका के द्वारा
रात-दिन 'श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण' इस मन्त्र-का जप यह मान कर
किया जा रहा है कि अब मृत्यु सन्निकट ही है ॥ ५ ॥
विरहानल निर्दग्धा शोभते न वपुर्लता
।
हिमक्लिष्टेव हेमन्ते मृदुला
पद्मिनी यथा ॥ ६ ॥
उनकी शरीर रूपी लता विरह रूप अग्नि
से झुलस जाने से शोभा को नहीं प्राप्त कर रही है । वह उसी प्रकार लग रही हैं जैसे
हेमन्त ऋतु में मृदु कमलिनी हिमपात से क्लेश प्राप्त कर रही हो ॥ ६ ॥
दिवारात्री तु रहसि कृत्वा
चित्रमयीं प्रभो ।
मूर्ति निधाय हृदये शेते विरहकषिता
॥ ७ ॥
वह दिन-रात एकान्त स्थान में प्रभु
की चित्रात्मक मूर्ति को हृदय में रखकर विरह से दुबले शरीर वाली होकर सोयी रहती
हैं ॥ ७ ॥
शुष्कौ बिम्बाधरी तस्यास्तन्द्रा
लोचनयोः स्थिता ।
अन्यथा भाषणं वक्त्रात्
किमन्यत्कथयामि ते ॥ ८ ॥
उनके [ बिम्ब फल के समान ] दोनों
लाल ओष्ठ सूख गए हैं। उनकी आखों पर सदैव तन्द्रा लगी रहती है और मुख से इधर-उधर की
बड़बड़ाहट सी निकलती रहती है और इसके अतिरिक्त आप से क्या क्या कहूँ ?
॥ ८ ॥
नानुसन्धानमाधत्ते मनोवृत्तिर्मनागपि
।
अन्यथासिद्ध एवासौ कामस्ते
नन्दनन्दन ।। ९ ।।
मनोवृत्ति 'जरा भी सोंच विचार करने में असमर्थ सी है । हे नन्द के नन्दन ! यह आपका
काम ही अन्यथा सिद्ध है ॥ ९ ॥
तस्मात्तन्निकटं याहि सङ्कते
कृतनिश्चयः ।
इति सख्यदितं श्रुत्वा उल्ललास हृदि
प्रभुः ।। १० ।।
इसलिए 'पहले से निश्चित संकेत स्थल पर आ आप उनके निकट जावें - इस प्रकार सखि के
वचनों को सुनकर प्रभु मन ही मन अत्यन्त हर्षित हुए । १० ॥
श्रीकृष्ण उवाच -
अहं तत्रागमिष्यामि सङ्कते
कृतनिश्चयात् ।
तत्र तामानय क्षिप्रं वेषगुप्ति
विधाय च ॥ ११ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- मैं उस
पहले निश्चित संकेत स्थल पर आ जाऊँगा । वहाँ पर तुम उन्हें शीघ्र ही गुप्त वेष
पहनाकर लाओ ॥ ११ ॥
कस्यापि न भयं भीरु त्वया
कर्तव्यमण्वपि ।
वञ्चयिष्ये जनान् सर्वान्
इन्द्रजालकलादिभिः ।। १२ ।।
हे भीरु ! तुम्हें किसी का भी कुछ
भी भय नहीं होना चाहिए। क्योंकि मैं सभी मनुष्यों को इन्द्रजाल आदि कलाओं से छल
लूँगा ॥ १२ ॥
राधिकार्य प्रणाम मे तत्र गत्वा
निवेदय ।
त्वं मे प्रियासि नितरां
प्राणादप्यधिका मम ।। १३ ।।
श्री राधिका के लिए वहाँ जाकर मेरा 'प्रणाम' निवेदन करो और कहो कि 'तुम्हारा सदैव प्राणों से भी अधिक मैं प्रिय हूँ ।। १३ ॥
नावयोरन्तरं किञ्चित्
प्राणरूपात्मनामपि ।
त्वन्नामस्मरणाच्चाह यथा तुष्यामि
सुन्दरि ।
मत्सेवया मम ध्यानात्तथा तुष्टिनं
मे क्वचित् ।। १४ ।।
इत्यादि मम वाक्यानि राधिकायं
निवेदय ।
पुनर्याता सखी राधामुवाच सकलं हि
तत् ।। १५ ।।
हम दोनों के बीच प्राणरूपात्मक भी
अन्तर नहीं हे सुन्दरि मैं तुम्हारा नाम लेते हुए जैसे-तैसे सन्तुष्ट करुगा। मेरी
सेवा से और मेरे ध्यान से भी उस प्रकार की सन्तुष्टि कहीं भी नहीं होगी'
इस प्रकार के मेरे वचनों को राधा के प्रति निवेदन करो। अतः सखि
राधिका के पास पुनः गई और वह सब कुछ उनसे कहा ।। १४-१५ ।।
सुधामाधुर्यधिक्कारक्षम कृष्णवचोमृतम्
।
पीत्वोल्ललास हृदय ग्रीष्मतप्तेव
भूर्यथा ।। १६ ।।
सुधारूपी माधुरी को धिक्कृत करने
में समर्थ श्रीकृष्ण के वचनामृत को पीकर राधिका भी उसी प्रकार हर्षित हुई जैसे
ग्रीष्मकाल में तप्त पृथ्वी वर्षा से प्रसन्न होती है ।। १६ ।।
अथ सङ्केतसदने शय्या पुष्पमयोचिता ।
नानागन्धमहामोदपुष्पराजिविराजिते ।।
१७ ।।
निर्दग्धाग रुसद्घ मधूपिते च
समन्ततः ।
पानयोग्य र से दिव्यंस्ताम्बूलं
रङ्गलेपनैः ।। १८ ।।
इसके बाद संकेत गृह में पुष्पमयी
शय्या बनाई गई। यह शव्या नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों और अत्यन्त मोद प्रदान
करने वाले पुष्पों की पक्ति से सुशोभित थी और यह चारों ओर जलाए गए अगरु के धूम से
सुगन्धित व धूपित की गई थी। यह शवंत आदि पान योग्य दिव्य रसों से परिपूरित:
ताम्बूल एवं अंगराग से युक्त थी ।। १७-१८ ॥
सत्कृते सदने रम्ये राधा संख्यावृता
ययौ ।
तत्रासनगता राधा काङ्क्षन्ती
प्रियसङ्गमम् ॥ १९ ॥
अचञ्चलतडित्कोटिप्रभापिञ्जरिताम्बरा
।
समावृत्त सुवृत्तोरुजघनस्तन मण्डला ॥
२० ॥
इस प्रकार अच्छी तरह से सजाए गए
रमणीय उस संकेत गृह में श्रीराधिका सखियों से आवृत्त होकर गई। वहीं आसन पर बैठ
जाने पर राधा प्रिय के संगम सुशोभित की आङ्काक्षा से निश्चल विद्युत को कोटि-कोटि
प्रभा से पिञ्जरित वस्त्रों से हो रही थीं। वह सुन्दर उरु जघन और वृत्ताकार
स्तनमण्डलों से समावृत थीं ।। १९.२०
कटाक्ष सरणी निर्य द्रसमोहितमन्यथा
।
शुकाकारसमाकारनासाभरणभासुरा ।। २१
।।
वह कटाक्ष रूपी सरणी से निकले हुए
रस से मोहित मन्मथ से युक्त थीं । उनकी नासिका शुक की नासिका के समान आकार वाली थी
जो नथ आदि आभूषण से दीप्तिमान थी ॥ २१ ॥
दाडिमबीजसन्देहकारिदशनहीरका ।
वीणारवघूणादायिनिजवाणीगुणोदया ।
कर्पूरबी टिकामोदसुगन्धितदिगन्तरा ॥
२२ ॥
अनार के बीज के सदृश निर्मित उनकी
दन्तपक्ति हीरों से मानों युक्त थीं । वीणा के निःस्वन के सदृश आनन्ददायक उनकी
वाणी थी । वहाँ पर चतुर्दिक कपूर एवं धूप के सुगन्ध से सुगन्धित वातावरण था ।। २२
।।
मणिदर्पणदर्पनकपोलफलकप्रभा ।
मणिमङ्गलसूत्रेण विलसत्कम्बुकन्धरा
॥ २३ ॥
उनके कपोलरूपी फलक की कान्ति
मणिरूपी दर्पण के अभिमान को भी नष्ट करने वाली थी। उनका गला और कन्धा मणियुक्त
मंगलसूत्र से सुशोभित था ।। २३ ।।
रत्नाङ्गुलीयनिवहोल्लस
दङ्गुलिपल्लवा ।
कुचभारलसन्मध्यविलीललितोदरा ।। २४
।।
उनका अंगुली रूपी पल्लव रत्नजटित
अॅगूठी से शोभित था । कुचों के भार से सुशोभित उनका उदर पेट के मध्य त्रिवली (तीन
रेखाओं से युक्त) अत्यन्त ललित लग रहा था ॥ २४ ॥
चन्दनागरुकस्तूरीकर्पूरादिसुगन्धिनी
निःश्वासहारिकुर्पासनिबद्धस्तन
मण्डला ॥ २५ ॥
चन्दन,
अगरु, कस्तूरी, और कपूर
आदि से सुगन्धित निःश्वास वाली वे अत्यन्त मनोहारी चोली से निबद्ध स्तन मण्डलों से
युक्त थी ।। २५ ।।
कुचोपरिलसन् मुक्ताहारता रसुशोभिता
।
माणिक्यमञ्जीरप्रभाभिर्बद्धमण्डला ॥
२६ ॥
उनके कुचों के ऊपर मुक्तामणि के हार
की पक्ति से वक्षस्थल सुशोभित था । मणिमाणिक्य युक्त बजते हुए घुंघुरुओं से युक्त
करधनी की प्रभा से उनका मण्डल आवद्ध था ॥ २६ ॥
रेजे राधासनगता कथंचके प्रियश्रया ।
कथं नाद्यावधि प्रेयान् नागतः सखि
तर्कय ॥ २७ ॥
रुद्धः कयाचित्प्रियया किं वा त्वं
तेन वञ्चिता ।
तद्वचः किमतथ्यं वा तथ्यं वा
ज्ञायते कथम् ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्री राधा आसन पर बैठी
हुई अत्यन्त सुशोभित हो रही थी । इसी विचार में मग्न थीं कि कैसे प्रिय का आश्रय
प्राप्त होवे ?
उन्होंने अपनी सखी से कहा- 'हे सखि ! विचार करो कि क्यों अभी तक मेरे प्रिय नहीं आए ? क्या वे किसी अन्य प्रिया के द्वारा तो नहीं रोक लिए गए ? अथवा क्या तुम्हीं उनके द्वारा छली गई हो ? उनका वचन
विश्वस्त है या अविश्वस्त यह हमें कैसे ज्ञात होगा ॥ २८ ॥
नागमिष्यति चेत्कान्तः
प्राणांस्त्यक्ष्याम्यसंशयम् ।
वयस्यामेतदाश्राव्य कृत्वा करतले
मुखम् ॥ २९ ॥
विरहाग्निशिखात्युष्णं निशश्वास
प्रियंवदा ।
ताम्बूलगन्धपुष्पादिरतिसाधनमाहितम् ।
निनिन्द मनसा सर्व
वियोगज्वरविप्लुता ॥ ३० ॥
यदि मेरे कान्त नहीं आएंगे तो मैं
निश्चित ही प्राणों का त्याग कर दूंगी। वह अपने हाथों पर मुँह को रखकर बोला कि 'हे सखि तुम इसे सुनाओ। इस प्रिय- वादिनी ने विरह रूप अग्नि की लपटों से
गर्म हुआ अत्यन्त ऊष्ण निश्वास लिया और ताम्बूल, सुगन्धित
द्रव्य एवं पुष्पादि रति के संसाधनों आदि सभी को वियोग रूपी बुखार से विलुप्त होकर
मन में ही निन्दा की ॥ ३० ॥
तद्वक्रं हसितेन्दुमण्डलमतिस्फारं
तदालोकितं
सा वाणीजित कामका करवा सोन्दर्यमेतस्य
तत् ।
इत्थं सन्ततमालि वल्लभत
मध्यानप्रसक्तात्मन-
श्वेतश्चुम्बितकालकूटमिव मे
कस्मादिदं मुह्यति ॥ ३१ ॥
उन [भगवान् कृष्ण] का मुख हँसते हुए
पूर्ण चन्द्र मण्डल के समान है और उनका आलोक चारों ओर फैल रहा है। उनकी वाणी जीते
जा सकने वाले काम के धनुष के टंकार के समान है । इस प्रकार इन भगवान् का वह
सौन्दर्य है-
ऐसा निरन्तर सोंचते हुए उत्तम बल्लभ
के ध्यान में प्रसक्त मन वाली सखी ने सोचा कि विष के चुम्बन के समान यह मेरा चित्त
किससे भ्रमित हो रहा है ॥ ३१ ॥
तदैव कृष्णः सङ्केतं प्राप्तः प्राण
इव स्वयम् ।
स्वासनात्तूर्णमुत्तस्थो राधा
कमललोचना ॥ ३२ ॥
तभी प्राण के समान स्वयं कृष्ण ने
संकेत प्राप्त करके आगमन किया । कमल के समान आँखों वाली राधा अपने आसन से उन्हें
देखते ही अत्यन्त शीघ्रता से उठ खड़ी हुई ।। ३२ ।।
समानासनसमासीनो परस्पररतिप्रियो ।
भावपूरितान्त
निक्षेपान्योऽन्यमोहितौ ॥ ३३ ॥
दोनों ही समान आसन पर अच्छी तरह से
बैठे हुए,
एक दूसरे में परस्पर रति एवं प्रीति युक्त थे । वे दोनों अपने भावों
से परिपूर्ण भाव भंगिमा वाले नेत्रों के प्रान्त भाग से निक्षेप द्वारा एक दूसरे
में मोहित हुए अत्यन्त सुशोभित हुए ॥ ३३ ॥
श्रीकृष्ण उवाच-
प्रिये त्वद्विरहज्वालावलीढवपुरुषो
हि मे ।
न शान्तये सुधाम्भोधिकोटिपीयूषसेचन
॥ ३४ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे प्रिये !
तुम्हारे विरह की ज्वाला ने मेरा शरीर झुलसा दिया है । अमृत रूपी कोटि समुद्र के
जल से भी सींचा जाकर वह शान्ति को नहीं प्राप्त कर रहा हे ॥ ३४ ॥
त्वदीयविरहे राधे प्रियमप्यास
विप्रियम् ।
अमृतांशोरपिकराइचण्डांशोरिव दारुणाः
॥ ३५ ॥
ग्लपयन्ति वपुर्वल्लीं विरहे तव
सुन्दरि ।
शय्या पीयूषचित्ता वह्नयङ्गारचितेव
सा ।। ३६ ।।
मलयालेपनं देहे व्यथते
विस्फुलिङ्गवत् ।
कोटिकल्पायने रात्रिः पुष्पं
सूचीफलायते ।
दावाग्निज्वालेव मरुत् शीतलो
व्यथयेत्तनुम् ॥ ३७ ॥
हे राधे ! तुम्हारे विरह में प्रिय
भी अप्रिय या लग रहा है । चन्द्रमा की शीतल किरणें भी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य की
किरणों के समान दारुण लग रही है । हे सुन्दरि ! तुम्हारे विरह में शरीर रूपी लता
को वह सुखा रही हैं। अमृत के समान भी शीतल बनाई गई शय्या आग के अङ्गारों से बनी चिता
के समान लग रही है, शरीर में चन्दन का
लेप चिन्गारी के समान व्यथा पहुँचा रहा है। रात्रि करोड़ों कल्प के समान लग रही है
और फूल सूई के समान चुभ से रहे हैं। शीतल-मन्द-समीर भी दाबानल के ज्वाला के समान
शरीर को अत्यन्त व्यथित कर रहा है ।। ३५-३७ ।।
ध्यायामि त्वां दिवारात्री
त्वत्प्राणस्त्वन्मनाः प्रिये ।
राधिके राधिके वेति महामन्त्रजपेन च
॥ ३८ ॥
विरहाहिविषं प्राणहारि
प्रशमयाम्यहम् ।
अद्य लब्धासि भी कान्ते निधानमिव
निर्धनः ॥ ३९ ॥
दिन और रात तुम्हारा ही ध्यान करता
हूँ । हे प्रिये ! तुम्हारे प्राणों का एवं तुम्हारे मन का ही ध्यान 'राधिके राधिके' महामन्त्र के जप द्वारा प्राणों का
हरण करने वाले विरह रूपी विषधर सूर्य का मैं शमन करता हूँ। हे कान्ते, निर्धन को खजाना मिलने के समान आज मैं तुम्हें पा गया हूँ ।। ३८-३९ ।।
विवेक विद्याविनयप्रसाद-
महेन्धने चाशुविदीप्यमाने ।
वियोग वातद्विगुणीकृतेन्तः
स्मरानले गोपि जुहोमि देहम् ॥ ४० ॥
अतः विवेक,
विद्या, विनय एवं प्रसाद रूपी इन महान् इन्धन
में विशिष्ट रूप से शीघ्र ही दीप्तिमान तथा वियोगरूपी वायु के द्वारा दुगुने किए
गए अन्तः स्मररूपी अग्नि में, हे गोपि !, मैं अपने देह की आहुति देता हूँ ॥ ४० ॥
इतः क्षणं वा च ततः क्षणं वा
गृहे क्षणं वा शयने क्षणं वा ।
बहिस्तथान्तः क्षणमात्मनस्वद्-
ग्रहगृहीतस्य निवृत्तिरता ॥ ४१ ॥
कभी यहाँ क्षण भर और कभी वहाँ क्षण
भर अथवा क्षणभर गृह में या शयन में क्षणभर या कभी बाहर और कभी अन्तरात्मा में
तुम्हारे स्मरण रूपी ग्रह द्वारा गृहीत मुझको कहीं भी चैन नहीं है ।। ४१ ।।
कियन्त्य एवात्र न सन्ति राधे
सुलोचना मां तु न हर्षयन्ति ।
पयोदबिन्दुप्रतिरुद्धबुद्धे-
विहङ्गमस्येव जलोपकण्ठम् ।। ४२ ।।
हे राधे ! कितनी भी चारु नेत्रों
वाली कामनियाँ यहाँ मेरे हृदय को हर्ष नहीं प्रदान करती है। हमारी दशा तो उसी
प्रकार हो रही है जैसे जल के समीप भी बैठे पक्षी (चातक) को मेघ की विन्दु की ही
आवश्यकता होती है ।। ४२ ।।
दिशां मुखेषु प्रमदे त्वदीयां
मोपनीतामपि वीक्ष्य मूत्तिम् !
गतावधिव्याप्तिमुपैति चित्त
हर्षस्य वैयथ्यं मुदीक्ष्य शोकम् ॥
४३ ॥
हे प्रमदे ! दिशाओं के कोनों पर
तुम्हारी मूर्ति भ्रम से मुझे दिखाई पड़ जाती है । पुनः जब यह पता लगता है कि वह
तो भ्रमात्मक मूर्ति थी तो चित्त में आया हुआ हर्षं पुनः शोक में परिणत हो जाता है
॥ ४३ ॥
समुद्ररुद्रो प्रथितो जगत्या
मौर्बेण हालाहलधारणेन ।
अहं तु कल्पान्तहुताशकल्प-
वियोगदग्धोऽपि न चित्रमेतत् ।। ४४
।।
संसार में समुद्र का रौद्रत्व [
ज्वारभाटे के समय ] हालाहल रूप विष के धारण से वडवानल के कारण प्रसिद्ध है। किन्तु
मैं तो कल्पान्त की वह्नि के समान वियोगरूप वह्नि से जल गया हूँ तो इसमें क्या
विचित्रता है ॥ ४४ ॥
अपि प्रिये त्वद्विरहानलोत्थ
त्वमेव मे जन्मनि जन्मनि स्याः
ज्वालाहुतीभूतशरीरयष्टेः ।
प्रिया सखी चेति विधिर्व्यधत्ताम् ॥
४५ ॥
अतः हे प्रिये ! तुम्हारे विरह रूपी
अग्नि से उसी ज्वाला में मैं अपनी शरीर रूपी समिधा की आहुति दे रहा हूँ और विधाता
से यही प्रार्थना है कि तुम्हीं जन्म-जन्मान्तर में मेरी प्रिया और सखी होओ ।। ४५
।।
अपि प्रिये केतककुङ्मलौघाः
स्फुटन्ति मे हृदयेन साकम् ।
विलोचनाभ्यां तु समं पयोदाः
किरन्ति वारिप्रकरानमन्दान् ॥ ४६ ॥
हे प्रिये ! केतकी पुष्प की कलियाँ
एक साथ मेरे हृदय द्वारा प्रस्फुटित होती हैं और दोनों नेत्रों से नित्यप्रति मेघ
वर्षा करते रहते हैं ।। ४६ ।।
वियोगदावानल एष एव
क्षणात क्षिणोत्येव तनुं मदीयाम् ।
यदा सुधारस्मिसहोदरास्य-
मसकुचध्यानपथादर्पैति ॥ ४७ ॥
वियोग रूपी दावानल से ही यह मेरा
शरीर क्षण भर में कृश हो गया है। जब चांदनी की रश्मि के समान मधुर तुम्हारा
मुखमण्डल मेरे ध्यानपथ से हट जाता है तो मैं विवर्णभाव ( उदासी) को प्राप्त हो
जाता हूँ ॥ ४७ ॥
धुन्वन् पयोदावलिविस्फुरन्तस्.
तडित्प्रकाशाः शिखिनर्त्तनानि ।
सुकेतकामोदमुचश्च वाताः
सहस्रधा मे हृदयं दलन्ति ॥ ४८ ॥
वर्षाकालीन मेघमालाएं और विद्युत की
तड़कती हुई चमक तथा मयूरों का नृत्य एवं सुन्दर केतक पुष्प की सुगन्धी से पूरित
वायु मेरे हृदय के हजारों टुकड़े कर डाल रहा है ।। ४८ ।।
स्मराशु गीभूतविलोचनेद्वे
श्रभ्यां धनुर्मावमुपागताभ्याम् ।
स्फुटं वहन्ती जनमोहविद्या
विद्या किमेषा मम मोक्षकर्त्री ।।
४९ ।।
कामदेव के बाण रूप तुम्हारे नेत्रों
की ये दोनों भौंहें, जो धनुषाकार रूप
में है, मनुष्यों को मोहजाल में डाल देने वाली विद्या है।
क्या यह विद्या मेरी मोक्षकत्र नही है ? ।। ४९ ।।
स्मितोदयादर्शितदन्तपङ्क्ति-
प्रभावलीढाननपङ्कजेन ।
परिस्फुरल्लोचन षट्पदेन
विमोहयन्ती हृदयं मदीयम् ॥ ५० ॥
मुस्कुराने से प्रकट हुई दन्त
पङ्क्ति की प्रभा से खिले हुए मुख कमल के द्वारा और उस कमल पर मंडराने वाले
काले-काले भौरे रूप दोनों नेत्र मेरे हृदय को विमोहित कर लेते हैं ।। ५० ।।
ध्येयं ममेतत्तवपादपङ्कजं
गेयं ममैतत्तव रूपसौभगम् ।
त्वत्तो न किञ्चित्प्रतिभाति
तत्त्वं
त्वया विनान्ध्यं जगतो विभाति ।। ५१
।
मेरे लिए ध्यान के योग्य यह
तुम्हारा चरण कमल है और मेरे लिए तुम्हारी यह रूप माधुर गाने के योग्य है। इस
चराचर जगत् में तुमसे भिन्न कोई और तत्व मुझे नहीं प्रतिभासित हो रहा है अर्थात् 'राधातत्व' से अलग कोई और भासमान तत्त्व नहीं है।
इतना ही नहीं अपितु तुम्हारे बिना यह संसार मुझे अन्धकारमय भासित होता है ।। ५१ ।।
इत्यं प्रियामनुनयन् वचोभिः
प्रेमभितः ।
रेमे कृष्णः
कुचतटीपरिरम्भादिभिस्तथा ॥ ५२ ॥
इस प्रकार प्रेमरस से परिपूर्ण
वचनों से अपनी प्रिया राधा का अनुनय विनय करते हुए कृष्ण ने कुचमण्डल के परिरम्भण
[ मन्द मन्द मर्दन ] आदि से रमण किया ।। ५२ ।।
इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे द्वादशं पटलम् ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञान खण्ड) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के बारहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई॥१२॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 13

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