माहेश्वरतन्त्र पटल १३
माहेश्वरतन्त्र के पटल १३ में कात्यायनी
व्रत की कथा और चीरहरण की लीला, गोवर्धन लीला, रासलीला का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १३
Maheshvar tantra Patal 13
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १३
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र त्रयोदश पटल
अथ त्रयोदशं पटलम
शिव उवाच-
एकदा तु कुमार्यंस्ता व्रतं चेरुः
समाहिताः ।
कात्यायनी मर्चयन्त्यः कृष्णो
भर्त्ता भवेदिति ॥ १ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- एक बार उन
राजकुमारी गोपियों ने समाहित चित्त होकर व्रत किया । 'कात्यायनी' देवी की अर्चना करते हुए यह कामना की कि 'मेरे पति कृष्ण होवें ॥ १ ॥
मासान्ते फलदानाय गतः कृष्णः
सरित्तटम् ।
तीरस्थितानि वासांसि हृत्वा
नीपमथारुह्त् ॥ २ ॥
उस मास के अन्त में भगवान् श्री
कृष्ण सरिता के तट पर फलदान के लिए गए। तट पर स्थित जितने गोपियों के वस्त्र थे
उन्हें चुराकर (नीप) कदम्ब वृक्ष पर चढ़ गए । २ ॥
कुमार्यः कृष्णचरितं दृष्ट्वा
प्रमपरिलप्ताः ।
लज्जितस्मेरवदनाः कृष्णमूचः
कदम्बकम् ॥ ३ ॥
कृष्ण,
वासांसि नो देहि खिन्नाः स्म सलिले वयम् ।
त्वं वृद्धसम्मतो भूत्वा
नैतत्कर्तुं त्वमर्हसि ॥ ४ ॥
कुमारी गोपियाँ इस प्रकार कृष्ण के
चरित्र को देखकर अत्यन्त प्रेम से परिप्लुत हुई । कदम्ब स्थित कृष्ण उन लज्जित एवं
मुस्कुराती हुई कुमारियों ने कहा- हे कृष्ण ! हमारे वस्त्रों को दो क्योंकि हम लोग
यहाँ पानी में अत्यन्त दुःखित हो रही हैं । तुम वृद्धसम्मत भाव वाले होकर इस
प्रकार करने के योग्य तो नहीं हो । ३-४ ॥
यदि जानाति वै कश्वित्तदायं दुर्नयो
महान् ।
जानिष्यति यदा राजा कंसः
क्रूरमतिर्मनाक् ॥ ५ ॥
तदा ह्यनर्थ एवायमस्माकं भवतोऽपि च
।
यदि किसी को यह मालूम हो जाय तो 'यह महान् दुर्नय होगा' और यदि मान लो कि कहीं
अत्यन्त क्रूर बुद्धि वाले राजा कंस को यह पता लगेगा तब तो हमारा भी और तुम्हारा
भी दोनों का ही महान् अनर्थ होगा ।। ४-५ ।।
श्रीकृष्ण उवाच-
इहागत्य प्रतीच्छध्वं स्वं स्वं
वासः सुलोचना ॥ ६ ॥
श्री कृष्ण ने कहा- हे सुन्दर
नेत्रों वाली ! यहाँ आकर आप अपना अपना वस्त्र पहचान लो ॥ ६ ॥
अन्यथा न ददाम्येव कंपभीत्या
विभीषितः ।
निशम्य वचनं तस्य गोप्यो
लज्जास्मितेक्षणाः ।
जलादुत्तीर्यं वासांसि कृष्ण देहीति
चाब्रुवन् ॥ ७ ॥
नहीं तो कंस के भय से भयभीत होकर भी
मैं इन्हें नहीं दूंगा। उनके वचन को सुनकर लज्जा से स्मित नेत्रों वाली गोपियों ने
जल से निकलकर कहा - 'हे कृष्ण मेरे
वस्त्र दो' ॥ ७ ॥
कृष्णः प्रीतमनास्ताभ्यो वासांसि
पृथगाददो ॥ ८ ॥
कृष्ण ने भी प्रसन्न होकर उन्हें
पृथक पृथक रूप से उनके वस्त्रों को दिया ॥ ८ ॥
तद्भश्च ताः सर्वाः स्वान्तःस्थः
सन्नियुज्य च ।
चक्रे पूर्णतराः कृष्णो रसयोग्या
रसप्रियः ॥ ९ ॥
कुमारियों के लिए अपने उन उन अंशस्वरूप
के दान के लिए ही भगवान् कृष्ण चीरहरण लीला की । अतः उन उन गोपियों के द्वारा वे
सभी लीलाएं अपने अन्तःकरण में रखकर और सुनियोजित करके कृष्ण ने उन लीलाओं को रख
योग्य रसप्रिय एवं पूर्णतर बनाया ।। ९ ।।
ततः प्रसन्नो भगवान् कुमारीभ्यो वरं
ददौ ।
तब भगवान् ने प्रसन्न होकर
कुमारियों को वर प्रदान किया ।
श्रीकृष्ण उवाच-
रात्रयो ह्याधिदैविक्यो मयि
तिष्ठन्ति ताः प्रियाः ॥ १० ॥
पश्यतं रमयिष्यामि तासु वः
पद्मलोचनाः ।
प्रतियात गृहं तस्मात्कामः कालेन
सेत्स्यति ॥ ११ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा-आधिदैविको
रात्रियों में वे प्रिया मेरे में स्थित होंगी। उनमें तुम पद्म के समान नयनों वाली
गोपियों के साथ देखो में रमण करूंगा। उनके घर से पुनः लौटने पर कालानुसार काम का
सेवन करूँगा ।। १०-११ ॥
ततो लब्धवराः सर्वा गोप्यः
पूर्णमनोरथाः ।
गृहं जग्मुः प्रगायन्त्यः
कृष्णलीलां मुदान्विताः ॥ १२ ॥
तब वर प्राप्त करके सभी गोपियाँ
पूर्ण मनोरथ होकर प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण लीला का प्रकृष्ट रूप से गान करते हुए
अपने अपने घर चली गई ॥ १२ ॥
जनयन् मन्युमिन्द्रस्य कृत्वा
गोर्वधमोत्सवम् ।
इन्द्रोत्सृष्ट जलैरन्नैः
सङ्कर्षणमहीश्वरम् ॥ १३ ॥
इन्द्र के क्रोध को पैदा करके एवं
गोवर्धन उत्सव करके इन्द्र के उत्कृष्ट जल एव अन्न से कृष्ण ने सङ्कर्षण एवं
ब्राह्मणों को प्रसन्न किया ॥ १३ ॥
वर्षद्वादशकं योऽसी
त्यक्ताम्बुफलमूलकः ।
तर्पयामास त कृष्णः पुरुहूतमदं
नुदन् ॥ १४ ॥
१२ वर्ष तक जिन्होंने इस जल,
फल और मूल को छोड़कर इन्द्र के मद का मर्दन करते हुए उन कृष्ण ने
उनको तर्पित किया ।। १४ ।।
एकदा कृष्ण एवैको गतो वृन्दावनं
शुभम् ।
रमणाय मतिं चक्रे सखीभिः सह केवलम्
।। १५ ।।
दृष्ट्वा वृन्दावनं रम्यं
नमत्कुसुमपादपम् ।
कजत्पक्षिमरालालिप्रतिध्वनिमनोहरम्
॥ १६ ॥
प्रफुल्ल मल्लिकाम्भोज
मन्दमारुतकम्पितम् ।
योगमायामयो कृष्णः
कालमायाविनाशिनीम् ॥ १७ ॥
जाग्रदन्ते सुषुप्त्यादौ
स्फुरणायोपलभ्यते ।
तादृशीमकरोद् देवि लीलार्थं
पुरुषोत्तमः ।। १८ ।।
एक बार कृष्ण अकेले ही शुभ वृन्दावन
में गए। सखियों के साथ उन्होंने एकान्त में रमण करना चाहा । तब रमणीय एवं फूलों से
झुके हुए वृक्षों वाले वृन्दावन को उन्होंने देखा । पक्षियों से कूजित,
हंस और भ्रमर से प्रतिध्वनित एवं मनोहर उस वन में प्रफुल्लित
मल्लिका तथा कमल के पुष्प मन्द मन्द समीर से कम्पित होते थे। तब वहीं काल माया का
विनाश करने वाली योगमाया को कृष्ण ने जाग्रत अवस्था के अन्त में और सुषुप्ति के
आदि में स्फुरण के लिए उपालम्भन किया । उन पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने लीला के लिए
उस प्रकार की देवी को प्रकट किया ।। १५-१८ ॥
प्रकाशा चाप्रकाशा च द्विधा सेयं
व्यवस्थिता ।
दर्शनांशे प्रकाशा च
दूषट्टत्वाच्छादने तथा । १९ ।।
बहिः प्रकाशं विच्छिद्य अन्तराकाशते
यथा ।
योगमायेति विख्याता
जाग्रत्स्वप्नमयोशितुः ॥ २० ॥
कालमाया हृता तूर्णं तया
तच्चित्स्वरूपया ।
तत्कार्य मात्रमखिलं लीन
स्थावरजङ्गमम् ।। २१ ।।
प्रकाश और अप्रकाश- इन दो रूपों में
वही व्यवस्थित हुई । दर्शनांश में वह दृष्टत्व और आच्छादन में तो वे प्रकाश रूप
में हैं। बाहर के प्रकाश का विच्छेदन करके जैसे वह अन्तःकरण में प्रकाश करती हैं।
ईश की जाग्रत और स्वप्नावस्थामय यही योगमाया नाम से प्रसिद्ध हैं। इस के द्वारा
शीघ्र ही दर्शनीय कालमाया उस चित्स्वरूप के द्वारा हृत होती है । उसका कार्य मात्र
इतना ही है कि वह समस्त स्थावर एवं जङ्गम जगत् को लीन कर लेता है ।। १९-२१ ।।
योगमायोद्भवं स्वप्न मक्षरः संददर्श
ह ।
अन्यूनाधिकमीशानि
भूतेन्द्रियगुणात्मकम् ॥ २२ ॥
दिव्यमाणिक्यमुकुटं
स्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
दिव्यमुक्तामणिभ्राजन्नानाभूषणभूषितम्
॥ २३ ॥
कृष्णरूपमभूत्तत्र योगमायोपब हितम्
।
अलौकिक लतादिव्यकुसुमामोदवायुना ।।
२४ ।।
सेवितं सर्वतः श्रीमद्
वृन्दावनमहाद्भुतम् ।
खगा मृगा लता वृक्षा
वायवश्चन्द्रतारकाः ॥
ऋतुः पुष्पाणि रात्रिश्च
सर्वमासीन्नवं प्रिये ।। २५ ।।
उस अक्षर ने योगमाया से उद्भुत
स्वप्न को देखा । वह स्वप्न न कम था न अधिक था । हे ईशान ! वह भूतेन्द्रिय
गुणात्मक था। योगमाया से उप वहीं कृष्णरूप में प्रकट हो गया। यह कृष्ण दिव्य
माणिक्य का मुकुट पहने थे। मकर के आकृति का कुण्डल उनके कानों में शोभा पा रहा था
। वह दिव्य मुक्तामणि से देदीप्यमान और नाना प्रकार के आभूषणों से भूषित थे ।
अलौकिक लता, दिव्य कुसुम और आन्ददायिनी वायु
से चारों ओर से सेवित वह महान् एवं अभूत वृन्दावन था । हे प्रिये ! पक्षी, पशु, लता, वृक्ष, वायु, चन्द्र और तारे, ऋतुएँ,
पुष्प और रात्रि सभी कुछ नवीन थी ।। २२-२५ ।।
प्रससात्सृजन्ती सा ग्रसन्ती
विश्वमोजसा ।
उत्सारयन्ती तिमिरं यथा
दीपशिखाम्बरे ।। २६ ।।
आनन्द का सृजन करती हुई वह माया
प्रकृष्ट रूप से फैल गयी तथा अपने ओज से विश्व को ही निगलती हुई,
जैसे- दीप की शिखा अन्धकार को हटाती है उसी प्रकार विश्व के अन्धकार
को हटाती हुई जान पड़ी ॥ २६ ॥
योगमाया प्रपन्चोऽपि सदेवासुरमानवः
।
तासु सङ्कल्पमकरोन्मनसा पुरुषोत्तमः
॥ २७ ॥
देवताओं के सहित असुर और मानक और उन
योगमाया का प्रंपच भी मन से ही उनमें पुरुषोत्तम ने संकल्प करके बना दिया ॥ २७ ॥
अबोधयत्पूर्व कामं कामरूपतया हृदि ।
यावदङ्कुरितो भूयात् हृदि कामस्तु
सुवास ।। २८ ।
तावत्तदृर्धनार्थाय वेणुनादमथाकरोत्
।
योगमायोभवाकाशे वेणुनादः
प्रतिष्ठितः ।
तं नादमेव गोप्यस्ताः शुश्रुवः
प्रथमं प्रिये ॥ २९ ॥
हृदय में कामरूप से उन्होंने
पूर्वकाम का उद्बोधन किया । ज्योंही उन सुन्दर -भौहों वाली गोपियों के हृदय में
काम अङकुरित हुआ त्योंहि उसके बर्धन के लिए उन्होंने वंशी के ध्वनि बजाई। योगमाया
से उद्भुत आकाश में वह वशी ध्वनि प्रतिष्ठित हो गयी । हे प्रिये ! उसी वंशी की
ध्वनि को उन गोपियों ने प्रथमतः सुना ।। २८-२९ ।।
अधरामृत संसक्तवेणुनाद: सहानिलः ।
प्रविश्य कर्णरन्ध्रेण हृच्छयं
समतेजयत् ॥ ३० ॥
अधर रूपी अमृत से सक्ति वेणु के नाद
ने बायु के सहित उनके कर्ण रन्ध्रों में प्रविष्ट होकर हृदय में सोये हुए काम को
दीप्ति युक्त किया ॥ ३० ॥
ततस्ताः सहसा हित्वा शयनासनभोजनम् ।
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति
विश्रुताः ॥ ३१ ॥
श्रुतिरूपा कुमार्यश्व
आजग्मुर्नादमोहिताः ।
निषिद्धा अपि यत्नेन
बन्धुवर्गेरनेकधा ॥ ३२ ॥
उसके बाद वे सभी सहसा शयन,
आसन एवं भोजन छोड़कर सात्विकी राजसी और तामसी नाम से ये श्रुति रूप
कुमारियाँ उसी वंशी नाद से मोहित होकर, यद्यपि बन्धुबान्धवों
ने बहुत प्रयत्न करके रोका, फिर भी वे वहाँ आ गयीं ।। ३१-३२
।।
न निवृत्ता यथा वेगः सरितामर्णवं
प्रति ।। ३३ ।।
वे उसी प्रकार न रुक सकी जैसे
समुद्र की ओर जाने वाली नदी के वेग को नहीं रोका जा सकता ॥ ३३ ॥
बलात् रुद्धा अपि जहुः प्राणान्
विरह कविताः ।
काचिद्गोप्य क्षणादेव दिव्यदेहाः
समाययुः । ३४ ।।
यदि बलपूर्वक वे रोक भी दी गयीं तो
विरह से कर्षित होकर उन्होंने अपने प्राण छोड़ दिए और कुछ गोपियों ने क्षण में ही दिव्य
शरीर प्राप्त कर लिया ॥ ३४ ॥
पुरः प्रकाशः पश्चात् शून्यमासीत्
व्रजस्त्रियः ।
प्रविष्टा मण्डलं सर्वा
योगमायिकमुत्तमम् ।। ३५ ।।
उन व्रजस्त्रियों के सामने प्रकाश
था और पीछे शुन्य था । उन सभी ने योग--माया के उत्तम मण्डल में प्रवेश किया॥३५॥
कुमार्यो द्वादश प्रोक्ताः सहस्राणि
तथा पराः ।
तावन्त्यः किल विज्ञेयाः श्रुत्वा
वेणरव निशि ।। ३६ ।।
वे सभी कुमारियाँ बारह हजार कही
गयीं हैं। उतना ही हमें जाननी चाहिए जो रात में बेणु के स्वर को सुनकर वहाँ आयीं
।। ३६ ।।
चत्वारिंशत्तु यूथानि तासा
प्रोक्तानि योषिताम् ।
तासां द्वादशसाहस्री संख्या
संयोगभावतः ॥ ३७ ॥
उन युवतियों का चालीस चालीस का एक
समूह कहा गया जिनकी संख्या संयुक्त होने से बारह हजार कही गयी है ।। ३७ ।।
प्रियसङ्गार्हमेतासां माया
वेषमरीरचत् ।
भूषा मालाम्बराण्यासान्
लोकसिद्धेतराणि च ॥ ३८ ॥
माया से इनकी वेष रचना प्रिय के
सङ्गम के योग्य बतायी गयी थी। उनके आभूषण, मालाए
और वस्त्र तथा अन्य सभी कुछ दिव्य लोक के योग्य थी ।। ३८ ।।
समान वेषाभरणाः सर्वाः सवयसः प्रिये
।
समचित्ता: समरसाः कृष्णस्य निकटं
ययुः ॥ ३९ ॥
हे प्रिये ! सभी गोपियाँ समान वेष
और आभूषण पहने हुए सभी एक ही उम्र की थीं। वे सभी समान चित्त वाली और एक ही समान
रस में सराबोर कृष्ण के निकट गयी ।। ३९ ।।
वेदस्थित्यर्थमेवासी क्रीडन्नपि
समाहितः ।
मर्यादामुक्तवान् वाचा
वागासीत्कारणोदया ॥ ४० ॥
समाहित चित्त क्रीडा करते हुए भी ये
वेद स्थित अर्थं ही थीं। वाणी ही उदय का कारण है । अतः वाणी से ही उन्होंने
मर्यादा को कहा ।। ४० ।।
न निषिद्धाः स्वरूपेण स्वरूपं
वागगोचरम् ।
रसभोक्तरसात्मत्वं विरुद्धेदान्यथा
प्रिये ॥ ४१ ॥
वह स्वरूप से निषिद्ध नहीं थीं।
क्योंकि स्वरूप की प्रतीति वाक् से होती है । वस्तुतः हे प्रिये ! रस का भोक्ता और
रसात्मत्व दोनों ही विरुद्ध और अलग धर्म हैं ॥ ४१ ॥
श्रीकृष्ण उवाच-
किमर्थमागताः सर्वाः मिलिताश्च
परस्परम् ।
राज्यामघटमानं तु वनेष्वागमनं
स्त्रियः ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा-आप सभी परस्पर एक
दूसरे के साथ मिलकर यहाँ क्यों आयी हैं ? क्योंकि
रात्रि में बन में स्त्रियों का आना अप्रत्याशित घटना है ।। ४२ ।।
स्त्रीधर्मं सहसा हित्वा भर्तृ
सेवामयं शुभम् ।
ऐहिकं पारलौकिक्यं स्त्रियो नाशयति
ध्रुवम् ॥ ४३ ॥
शोभनीय पति की सेवा रूप स्त्री के
धर्म को सहसा छोड़कर आप लोगों ने इस-लोक और परलोक को निश्चय हो नष्ट किया है ।। ४३
।
येन संतुष्यते भर्त्ता स धर्म उचितः
स्त्रियः ।
तं विहाय ध्रुवं नारी पतत्येव न
संशयः ॥ ४४ ॥
स्त्रियों के लिए वही उचित धर्म है
जिससे पति सन्तुष्ट हों । उसे छोड़कर निश्चित ही नारी (पातिव्रत धर्म से) पतित
होती हो हैं- इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ४४ ॥
तस्माद्वजं स्त्रियो यात मदुक्त्या
यन्त्रिताशयाः ।
गोप्यस्तद्वाक्यमाकर्ण्य तीक्ष्णं
हालाहलोपमम् ।। ४५ ।।
किं वज्रनिर्घातहता इव पेतुः
क्षितेस्तले ॥। ४६ ।।
इसलिए मेरी उक्ति से यन्त्रित आशय
को समझकर सभी स्त्रियों को व्रज चला जाना चाहिए। किन्तु गोपियों ने उनके विष सदृश
तीखे वाक्यों को सुनकर वज्र की चोट से आहत होने के समान पृथ्वी तल पर गिर पड़ी ।।
४५-४६ ॥
॥ इति श्रीपञ्चरात्र माहेश्वरतन्त्र
उत्तरखण्डे गुप्तसारे शिवोमासंवादे त्रयोदश पटलम् ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के तेरहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण
हुई।।१३।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 14

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