माहेश्वरतन्त्र पटल १४
माहेश्वरतन्त्र के पटल १४ में गोपी गीत एवं रास क्रीडा महोत्सव का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १४
Maheshvar tantra Patal 14
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १४
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र चतुर्दश पटल
अथ चतुर्दशं पटलम्
पार्वत्युवाच -
देवेश परमेशान धूर्जटे नीललोहित ।
ततः किमभवत्तत्र तन्मे ब्रूहि
सदाशिव ।। १ ।।
पार्वती ने कहा-हे देवताओं के ईश,
परम ईशान, धूर्जटि, नीललोहित,
हे सदाशिव उसके बाद फिर क्या हुआ ? उसे मुझे
बताइए ॥ १ ॥
शिव उवाच-
रूक्षं वचनमाश्रुत्य सहसा
जातसम्भ्रमाः ।
गतप्राणा इवासंस्ताः प्राणरूपी
प्रियोऽभवत् ॥ २ ॥
शिव ने कहा-इस प्रकार के एकाएक रूखे
वचनों को सुनकर वे अत्यन्त सन्भ्रमित हुई । वे उस समय प्राण के निकल जाने के समान
सी हो गई। उस समय मात्र प्रिय ही प्राण के आधार हुए ॥ २ ॥
दुःखाकुला रुद्धवाचो निरुछ्वासा
व्रजस्त्रियः ।
अश्रूण्यमुञ्चन्ने
त्रेभ्यस्तापेनोष्णतराणि च ॥ ३ ॥
दुःख से व्याकुल और निरुद्ध कण्ठ
होकर सांस प्रश्वास से लेते हुए व्रज का स्त्रियाँ (विरह से ) अत्यन्त तप्त होकर
अपनी आँखों से गरम-गरम आसू बहाने लगी ॥ ३ ॥
अब्रुवन् धेयंमालम्ब्य तामस्यो
विरहातुराः ।
किमेवं भाषसे कृष्णविचाररहितं वचः ॥
४ ॥
उन विरह से आतुर गोपियों ने धैर्य
धारण कर इनसे इस प्रकार कहा- हे कृष्ण ! इस प्रकार विचाररहित वाणी आप क्यों बोलते
हैं ?
।। ४ ।।
अविचारितवक्तारो लोके मूर्खा इति
स्थिताः ।
तस्माद्विचार्य वक्तव्यं
सर्वज्ञोऽसि यतः स्वयम् ।। ५ ।।
बिना विचार के बोलने वाले लोक में 'मूर्ख' कहे जाते हैं। इसलिए, क्योंकि-
आप सर्वश हैं, अतः विचार कर बोलना चाहिए ।। ५ ।।
वयं गोप्यो
भवद्दास्यस्त्वच्चित्तास्त्वत्परायणाः ।
त्वत्प्राणास्त्वन्मयाः कृष्ण नान्यत्पश्यामि
किञ्चन ॥ ६ ॥
हम गोपियां आपकी दासी हैं,
तुम्हारा चित्त हैं और हम तुम में ही परायण हैं । हम तुम्हारे प्राण
है, यहाँ तक कि हम गोपियाँ तुम मय ही हैं। अतः हे कृष्ण! तुमसे
अलग करके हम और कुछ भी नहीं देख रहीं हैं ॥ ६ ॥
नास्माकं पतयः पुत्रा भ्रातरो न च
बान्धवाः ।
वयं त्वदेकशरणाः
त्वन्न्यस्तात्मकलेवराः ॥ ७ ॥
हमारे न पति हैं,
न पुत्र, न भाई, और न तो
बन्धु ही हैं। हम सब के लिए तो तुम्ही एकमात्र शरण हो, हम
लोगों का शरीर तुम्हारा ही है ॥ ७ ॥
अहं स्त्री मत्पतिश्वायमिति यासां
मतिः स्थिता ।
तासामयं परो धर्मो यस्त्वया
चोपदिश्यते ॥ ८ ॥
'मैं स्त्री हूँ' 'आप मेरे पति हैं' यही जिस बुद्धि में स्थित हैं वही
यह मेरा श्रेष्ठ धर्म है और जो आप से उपदिष्ट है॥८॥
यस्याधिकारो यद्धमें त्यजेत्त न
कदाचन ।
नोचेत्सन्न्यासिनः कुर्युः कथं न
गृहिवादिनाम् ।। ९ ।।
जिसका अधिकार जिस धर्म में है उसे
कभी भी नहीं छोडना चाहिए। गृहस्थी करने वालों को क्या सन्यासिनी बनाना ठीक है ।। ९
।।
देहातीता गृहातीता लोकातीता वयं
प्रभो ।
त्वामेव शरणं प्राप्ताः कथमर्हन्ति
लौकिकम् ॥ १० ॥
फिर भी हमलोग देह से परे और गृह से
परे और यहां तक कि लोक से भी परे हैं, क्योंकि
हमलोगों ने तो तुम सर्वेश्वर भगवान् की शरण प्राप्त कर ली है। अतः क्या लौकिक
लोगों के यह योग्य है ॥ १० ॥
विकारेऽहमिति भ्रान्तिः
पुत्रदारधनादिषु ।
तदध्यासवशात्तेषां देहधर्माधिकारिता
। ११॥
वस्तुतः विकार आने पर 'हम' का भान भ्रान्ति वशात् पुत्र, स्त्री और धन में प्राप्त हो जाता है । उसी के अध्यास के कारण उनमें देह
धर्म का मान होता है ।। ११ ।।
प्रवृत्ते ह्यधिकारे तु धर्मं
लुम्पति यः खलः ।
पतत्येव न सन्देहो यतः स वासनान्तरे
॥ १२ ॥
उस अधिकार में प्रवृत्त होकर भी जो
खल धर्म को भुला देता है वह निःसन्देह रूप से अन्य तुच्छ वासना (के गर्त) में गिर
जाता है ॥ १२ ॥
अह ममायमित्येषः पतिपुत्रादिषु
स्थितः ।
समूलमाग्रहो नष्टः कथं तत्र
नियुञ्जसि ।। १३ ।।
पति और पुत्रों में 'मैं हूँ' और 'यह मेरा है'
– ऐसी बुद्धि स्थित करने से उसका समूल नाश हो जाता है वहाँ नियोग
कैसे ? ॥ १३ ॥
न प्रेम्णि बाधकं
किञ्चित्प्रेमस्थितिरलौकिकी ।
वयं प्रेमसमाकृष्टा निशि प्राप्ता
वनान्तरे ॥ १४ ॥
प्रेम में कोई भी वस्तुतः बाधक नहीं
होता । प्रेम की स्थिति तो अलौकिक ही है । इसलिए रात्रि होने पर भी हमलोग प्रेम के
कारण इस वनान्तर में प्राप्त हुई हैं ॥ १४ ॥
अविद्वानिव तद्विद्वानपि त्वं किं
प्रजल्पसि ।
लोकवेदपथांस्त्यक्त्वा समूलान्विपिनान्तरे
।। १५ ।।
निशि स्त्रियो वयं प्राप्तास्ता अपि
त्यजता त्वया ।
विनाशिता प्रेमरीतिः
कृतघ्नत्वमुपार्जितम् ।। १६ ।।
मैं अनजान हूँ। फिर विद्वान होकर भी
आप यह क्या कह रहे हैं ? लौकिक वेद के पथ को
मूल सहित छोड़कर विपिनान्तर में और मध्य रात्रि में हम लोग यहाँ आई हैं और उन्हें
भी आप परित्यक्त कर रहे हैं। प्रेम की रीति का तुमने तो विनाश कर दिया और तुमने
कृतघ्नत्व को प्राप्त कर लिया है ।। १५-१६ ।।
वयं तु न
गमिष्यामस्त्यक्तसर्वपरिग्रहाः ।
विरहाग्नो तनहुँवा त्वामेष्यामो न
संशयः ॥ १७ ॥
हम लोग सभी घर-बार आदि परिग्रहों को
छोड़कर आई हैं अतः अब लौटकर नहीं जाऊँगी। इतना ही नहीं बल्कि विरह की अग्नि में
अपने शरीर को जलाकर निसन्देह हम लोग आपको ही प्राप्त कर लूँगी ।। १७ ।।
तस्माद्भजस्व गोविन्द नोपेक्ष्या
गोपिका बयम् ।
त्याग्रहमिमं कृष्ण प्रेमरीति
समाश्रय ॥ १८ ॥
इसलिए हे गोविन्द ! हम लोगों को
स्वीकार करो! हम गोपिकाएं उपेक्षा के योग्य नहीं हैं । हे कृष्ण ! इस प्रेम की
रीति के संक्षिप्त आग्रह का त्याग न करो ।। १८ ।।
इत्यावेदितमाकर्ण्य गोपिकानां
यथार्थतः ।
वचः पीयूषधाराभिस्तासामाह्लादयन्मनः
।। १९ ।।
उवाच वचनं कृष्णो मधुरस्मितवीक्षणः
।
धन्यातिधन्या भो गोप्यो यूयं
मत्प्राणवल्लभाः ॥ २० ॥
इस प्रकार गोपियों का यथार्थ निवेदन
सुनकर उनके मन को अपने वाणी रूपी अमृत की धाराओं से आह्लादित करते हुए भगवान्
कृष्ण ने मधुर मुस्कान और आवेक्षण से युक्त वचन कहा- हे गोपियों ! तुम धन्यों में
भी अत्यन्त धन्य हो जो मेरी प्राणवल्लभा हो ।। २० ।।
न निवार्याः कदाचिद्वा
भवत्प्राणमयेन मे ।
निषेधो वाग्विलासोत्थो मयि युज्यो न
कर्हिचित् ।। २१ ।
तुम मेरी प्राणमय होने के कारण कभी
भी निवारित करने योग्य नहीं हो। 'मेरे में कभी
भी तुम युक्त न होवो' - यह निषेध तो मेरा वाणी का विलास है
।। २१ ।।
जानेऽहं भवतीः प्रमबद्धा एवं मयि स्फुटम्
।
त्वद्वचः श्रोतुकामत्वान्निषेधोऽयं
न वास्तवः ।। २२ ।।
मैं यह जानता हूँ कि आप सब 'मुझसे प्रेम से आबद्ध हैं।' यह निषेध वास्तविक नहीं
है। यह तो आप लोगों को वाणी को सुनने की इच्छामात्र से ही किया गया था ॥ २२ ॥
जिज्ञासूनामसन्दिग्धो रूपितो
धर्मनिर्णयः ।
पतिसेवापरं शास्त्रं मामेव
पतिरूपिणम् ।। २३ ।।
जिज्ञासुओं के लिए धर्म का निर्णय
असंदिग्ध रूप से निरूपित किया गया है । शास्त्रों के वचन स्त्रियों के लिए पति
सेवापरक ही हैं और में ही पति रूप हूँ ॥ २३ ॥
निरूपयत्य लब्धत्वाद्
भावनामात्रमन्यतः ।
भवतीनां पतिस्तस्मादहमेव सनातनः ॥
२४ ॥
वस्तुत: मेरे अलभ्य होने के कारण ही
दूसरे में मुझ पति की भावना मात्र को निरूपित करता है। इसलिए आप सब का मैं ही
सनातन पति हूँ ॥ २४ ॥
इत्युक्त्वा मध्यगस्तासां रेमे
रामाभिरन्वितः ।
पृथगालिंग्य ताः सर्वा बिम्बाधरसुधां
पपौ ।। २५ ।।
ऐसा कहकर युवतियों से घिरे हुए उनके
बीच में उन्होंने रमण किया । पृथक् पृथक उन सभी का आलिंगन करके बिम्ब के समान
अधरामृत का पान किया ।। २५ ।।
हासयन् प्रहसन् कृष्णो
नानाक्रीडाकुतूहलै: ।
नीवीराकर्षयन्कासां कासामास्यं
पिबन्नपि ।। २६ ।।
हंसाते हुए और हँसते हुए कृष्ण ने
नाना प्रकार के क्रीडा-कुतूहलों से किन्हीं की नीवी को खींचते हुए और किन्हीं का
अधरामृत भी पीते हुए रमण किया ।। २६ ।।
आलिङ्गती विहायान्या अभ्यां
आलिङ्गयन्नपि ।
पिबन्नधरपीयूषं कासाचिदमिरादशत् ॥
२७ ॥
एक के द्वारा आलिङ्गन किए जाकर उसे
छोड़कर दूसरे दूसरों का भी आलिङ्गन करते हुए, अधरामृत
का पान करते हुए उन्होंने पुनः किसी गोपिका को दन्त क्षत किया ॥ २७ ॥
सीत्कृतान्यसृजन् गोप्यः
अर्द्धमीलितलोचनाः ।
एवं रसवशः कृष्णो रेमे तन्मण्डले
प्रभः ॥ २८ ॥
उस समय अर्धनिमीलित नेत्रों वाली उन
गोपियों ने सीत्कार किया। इस प्रकार रस के वशीभूत प्रभु भगवान् कृष्ण ने उनके
मण्डल में रमण किया ॥ २८ ॥
अत्यातमिति ज्ञात्वा कृष्णं
स्ववशमागतम् ।
मेनिरे गोपिकाः सर्वाः स भावोऽपि
रातात्मकः ।। २९ ।।
कृष्ण को अत्यन्त आतुर और अपने वश
में आया जानकर सभी गोपियों ने उस रसात्मक भाव को भी मान प्रदान किया ।। २९ ।।
रसः परिणतः सोऽयं मानरूपेण
निश्चितम्
एषा शृङ्गारमर्थ्यादा
रसशास्त्रनिरूपिता ॥ ३० ॥
वही यह निश्चित रूप से मानरूप में
परिणत हो गया। यही शृङ्गार की मर्यादा है जो रसशास्त्र के आचार्यों द्वारा बतलाई
गई है ।। ३० ।।
कारण शृणु तत्रापि यन्न वाच्यं कथ
अक्षरस्य दिदक्षाय या
पुरणार्थमपेक्षिता ॥ ३१ ॥
उसमें भी,
हे देवि ! तुम उसका कारण सुनो, जो किसी भी
प्रकार दूसरों से कहने योग्य नहीं है । अक्षर के देखने की इच्छा के लिए तथा
सम्पूर्णता के लिए यह अपेक्षित है ॥ ३१ ॥
अन्तर्द्धानं च तत्रापि मानो
हेतुतयोद्गतः ।
अथ मानवतीर्वीक्ष्य तासामेव हृदि
प्रभुः ।
रसरूपो विलीनोभून्मानमुत्पादयन्निव
॥ ३२ ॥
वहाँ भी उनका अन्तर्द्धान हो जाना
मान के हेतु से उद्गत है । इसलिए उन गोपियों को मानवती देखकर उन्हीं के हृदय में
रसरूप प्रभु श्री कृष्ण मानो मान को हटाते हुए विलीन हो गए । ३२ ।।
अक्षरस्थ मनोवृत्तिरावेशरहिता पुनः
।
स्थानं प्राप्ता रासलीलावासनावासिता
सती ॥ ३३ ॥
तया विहितविज्ञानो
मण्डलस्थामतर्कयत् ।
एवं ददर्श भगवान् रासक्रीडामहोदयम् ॥
३४ ॥
इस प्रकार उस अक्षर रूप परब्रह्म
परमात्मा श्री कृष्ण की मनोवृत्ति पुनः आवेश से रहित हो गई और रास लीला को वासना
से सुवासित होती हुई स्थान प्राप्त किया। उन गोपियों के द्वारा विशिष्ट प्रकार के
ज्ञान से अपने मण्डल में विचार विमर्श किया गया । इस प्रकार भगवान् ने रासक्रीडा
के महान उत्सव को देखा ।। ३३-३४ ॥
इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे चतुर्दशं पटलम् ॥ १४॥
इस प्रकार श्रीनारदपाञ्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के चौदहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई
॥ १४ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 15

Post a Comment