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माहेश्वरतन्त्र पटल १५

माहेश्वरतन्त्र पटल १५        

माहेश्वरतन्त्र के पटल १५ में श्रुतिरूपा गोपियों की ब्रह्ममयी लीला एवं व्रज लीला आदि का तात्त्विक वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल १५

माहेश्वरतन्त्र पटल १५           

Maheshvar tantra Patal 15

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १५            

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र पञ्चदश पटल  

अथ पञ्चदशं पटलम्

शिव उवाच -

अन्तर्भूते परमानन्दे द्विधा च हृदि मण्डले ।

अदृष्ट्वा निजनाथं तमतप्यन्विरहातुराः ॥ १ ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा- उन दो प्रकार के हृदयावस्थित और मण्डलावस्थित सर्वोत्कृष्ट आनन्द के अन्तभूत हो जाने पर और अपने उन स्वामी को न देखकर उनके विरह में वे अत्यन्त आतुर हो संतप्त होने लगीं ॥ १ ॥

मनस्यानन्दसम्पूर्णे लतावृक्षादिषु स्फुटम् ।

चैतन्यस्फूतिरभवत्ततोऽपृच्छंस्तरूल्लताः ॥ २ ॥

लता और वृक्ष आदि में स्फुट रूप से आनन्द की पूर्णता होने से उनमें भी चैतन्य का स्फुरण हो गया। मन के आनन्द से पूर्ण होने के कारण ही उन गोपियों ने उन वृक्षों और लताओं से 'श्री कृष्ण को देखा है' - ऐसा पूछा॥२॥

यो नादादुत्तरं तं तं निनिन्दु तनिश्चयाः ।

कृष्णा वेशात् कृष्णभावं गताः कृष्णोऽहमूचिरे ॥ ३ ॥

जो नाद ब्रह्म से पर हैं उन ब्रह्म की भी निश्चय धारण करके निन्दा की। भगवान कृष्ण का वेश धारण करने से कृष्ण के भाव को प्राप्त उन गोपियों ने 'मैं कृष्ण हूँ' 'मैं कृष्ण हूँ इस प्रकार कहा ॥ ३ ॥

एवं नानाविधा लीलाः कुर्वन्त्यो विरहातुराः ।

तामसी शिक्षया सर्वा एकीभूत्वाथ यूयशः ॥ ४ ॥

इस प्रकार अनेक प्रकार की लीलाओं को करती हुई वे कृष्ण के विरह में आतुर हो गई । तामसी शिक्षा से अभिभूत होकर वे सभी एकीकृत होकर एक एक झुण्ड में आ गई ॥ ४ ॥

व्रजस्य लीलानुकृति चक्रस्तत्प्राप्तिसाधनम् ।

पूतनावधमारभ्य यावद्दाम्ना निबन्धनम् ॥ ५ ॥

वहीं उन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए लीला रूप साधन को व्रज की लीलाओं की अनुकृति में करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने वहाँ पर पूतना के वध से लेकर दामा के निबन्धन तक की कृष्ण लीला की ।। ५ ।।

व्रजलीला विधेर्भावश्वित्तो भूत्परात्मनः ।

नित्याखण्डा व्रजस्येयं लीला वेदेनुर्वाणता । ६ ॥

[इस स्थल पर नवरङ्ग स्वामी का मत है कि रासलीला के अवसान में जल क्रीडा के अनन्तर जब भगवान् यमुना जी के तट पर मण्डप में सखियों के मध्य विराजमान थे तब सखियों के समूह ने यह कहा कि 'आप के अन्तहित होने पर हम लोगों ने विरह के समय सभी व्रज लीला कर डाली' - तब भगवान् ने भी सम्पूर्ण नीज लीला का स्मरण किया। उस श्रेष्ठ व्रज लीला के स्मरण से वह भाव विभोर हो गए। क्योंकि वेद में वर्णित व्रज की यह लीला नित्य और अखण्ड हैं ॥ ६ ॥

पुनरक्षरचित्तवृत्तिराविष्टाविबभौ ततः ।

सखीनां मण्डलादेव विस्मितोदारमुखाम्बुजः ॥ ७ ॥

तब सखियों के मण्डल के मध्य में ही विस्मित और उदार मुख कमल वाले उन कृष्ण की अक्षर रूप चित्तवृत्ति पुनः आविर्भूत हुई ।। ७ ।।

तडित्प्रकाशवसनस्तारहारविराजिताः ।

स्फुरत्कटाक्षमालाभिः सुधाभिरिव शीलयन् ॥ ८ ॥

उन भगवान् का स्वरूप विद्युत के प्रकाश से जाज्वल्यमान था । वस्त्रों और हार से युक्त वे शोभित थे तथा कटाक्षों की शृङ्खलाओं से अमृत की मानों वर्षा कर रहे थे ।। ८ ।।

तं दृष्ट्वा विरहाक्रान्ता दुःखमात्यन्तिकं गताः ।

पुनरानन्दसन्दोहमग्ना एव हि केवलम् ।। ९ ।।

उन सखियों को विरह में पड़ी हुई और अत्यन्त दुःख में पड़ी हुई देखकर और पुनः आनन्द के समुद्र में ही निमग्न देखा ॥ ९ ॥

रुदन्तीनां मुखान्यश्रुप्रवाह कलशान्यपि ।

स्ववस्त्राञ्चलमादाय करेणामृजदच्युतः ॥ १० ॥

क्योंकि उन भगवान् अच्युत ने स्वयं ही अपने पीताम्बर के अञ्चल से पोती हुई तथा मुख पर अश्रु की बहती धारा को पोंछकर मलिन मुख को भी साफ कर दिया ॥ १० ॥

आलिङ्गनानि चुम्बानि नानाभावनिदर्शनम् ।

चकार भगवांस्ताभी रसलीलामहोदयम् ॥ ११ ॥

बार-बार आलिङ्गन और चुम्बन तथा नाना प्रकार के भावों को दिखाते हुए भगवान् ने उनके साथ महान् रस लीला की ॥ ११ ॥

सखीभिरिहे दुःखमनुभूतमभूच्च यत् ।

तच्चानन्दसुधाम्भोधो विलापितमभूदहो । १२ ॥

सखियों द्वारा विरह में जो जो अनुभव हुआ था उसका आनन्द के सुधा समुद्र में उन्होंने विलाप किया ।। १२ ।।

जलक्रीडां ततश्चक्रे यमुनाया जले शुचौ ।

तीरे स्थित्वा पुनर्गोप्यो विवादांश्चक्रिरे ततः ॥ १३ ॥

उसके बाद यमुना के शुद्ध जल में जलक्रीडा की। उस यमुना के तीर पर पुनः बैठकर उन गोपियों में पुनः विवाद हुआ ।। १३ ।।

समाहिता भगवता परमानन्द समप्लुताः ।

इत्येषा रासलीलायाः स्थितिः प्रोक्ता तवानघे । १४ ॥

परम आनन्द में विभोर होकर समाहित चित्त उन भगवान् ने हे निष्पाप ! इस रासलीला की स्थिति को तुम्हारे लिए कहा ॥ १४ ॥

शिव उवाच

अवशिष्टस्य कामस्य सखीनां पूरणाय च ।

आविवकार कालमायां पुनस्तां पुरुषोत्तमः ॥ १५ ॥

शिव ने कहा- उन पुरुषोत्तम ने शेष बचे हुए सखियों के काम की पूर्ति के लिए कुछ काल के लिए पुनः माया का आवरण डाल दिया ।। १५ ।।

अपश्यदक्षरः स्वप्नं कालमायाविचितम् ।

प्रातन्दहे सुप्तः प्रबद्धोऽस्मीति निश्चितम् ॥ १६ ॥

कालमाया के विजृम्भण से अक्षर ने स्वप्न देखा । नन्द के घर पर सोए हुए वे प्रातःकाल उठे हैं ऐसा उन्हें जान पड़ा ।। १६ ।।

सखी ददृशे सर्वा गोपगेहेभ्य उत्थिताः ।

न मूलावेशतः किञ्चित् कूटस्थस्यैव वासनाः ।। १७ ।।

उज्जृम्भिता बहुविधा तदद्भुतमिवाभवत् ।

कुर्माः श्रुतश्वापि कालमाया प्रपञ्चगाः ॥ १८ ॥

सखियों ने भी स्वप्न देखा कि वे भी गोपों के घर में सवेरे उठी हैं । किन्तु कूटस्थ की वासना कुछ भी विचलित नहीं हुई। बहुत प्रकार से भी जम्भाइ जाने पर बड़ा अद्भुत सा हुआ कि गोप कुमारी श्रुतियाँ भी कालमाया के प्रपंच में आ गई ।। १८ ॥

अत्युग्रवि रहावेशादुद्धवस्यापि शिक्षया ।

कूटस्थान्तर्हृदि स्फूर्जवजलीलारसोदधो ॥ १९ ॥

उद्धव की शिक्षा से और अत्यन्त विरह के आवेश से कूटस्थ के अन्तःकरण में में व्रजलीला का रस समुद्र निकल पड़ा ।। १९ ।।

निम्नगा इव तिष्ठन्ति तच्चित्तस्य रसस्पृशः ।

अथ कंससमदिष्टो ह्यक्रूरो गोकुलं गतः ॥ २० ॥

नदी किनारे बैठी हुई उनके चित्त के रस का स्पर्श करती वे स्थित थी। इसके बाद कंस के आदेश से अक्रूर गोकुल गए ॥ २० ॥

तेन साकं गते कृष्णे गोपिका विरहातुराः ।

दुःखेन निन्युदिवसान् तत्कथा ख्यापनादिभिः ॥ २१ ॥

उनके साथ कृष्ण के चले जाने पर गोपियाँ विरह से व्याकुल हो गई। उन्होंने उन विरह के दिनों में उन भगवान् कृष्ण की लीलाओं का परस्पर कथन करते हुए अत्यन्त दुःख से दिनों को बिताया ।। २१ ।।

हत्वा कंसं मल्लयुद्धे चाणूरं मुष्टिक तथा ।

बद्धकच्छोल्लसद्ध लिधूसरश्चासृगांकित: ।। २२ ।।

कंस चाणूर और मुष्टिक नामक दैत्यों को मल्लयुद्ध में मारकर वे लंगोट पहने धूलि धूसरित होकर शोभित हुए ॥ २२ ॥

पश्यतां सर्वलोकानां प्राप्तः कारागृहं गृहम् ।

देवकी वसुदेवश्च यत्रैवासत दत्सुको ।। २३ ।।

वे सभी लोकों के देखते-देखते उस कारागार में पहुँच गए जहाँ देवकी और वसुदेव बड़ी ही उत्सुकता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।। २३ ।।

ववन्दे चरणौ मातुः पितुः प्रणयविह्वलः ।

बद्धाञ्जलि गादेदं क्षम्यतामिति मां प्रति ॥ २४ ॥

अत्यन्त प्रेम से विह्वल होकर माता और पिता के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर फिर कहा कि - 'आप मुझे क्षमा कर दें ।। २४ ।।

प्रसाद्य पितरं कृष्णो मातरं च विशेषतः ।

यमुनायां ततः स्नात्वा शुचिदिव्याम्बरं दधौ । २५ ।।

पिता को और विशेषतः माता को कृष्ण ने प्रसन्न करके यमुना में तब स्नान करके शुद्ध-दिव्य वस्त्रों को पहना ।। २५ ।।

जरासन्धादिकान् हत्वा समुद्वाह्य सुलोचनाः ।

षोडशव सहस्राणि शतमष्टोत्तरं तथा ।। २६ ।।

जरासन्ध आदि राक्षसों को मारकर और सुलोचनों वाली सोलह हजार एक सो आठ कन्याओं से विवाह किया ।। २६ ।

हत्वा सुरभरं पृथ्व्याः यादवैरुपबृंहितम् ।

भारं जिहीर्षु भगवान् कुले शापमपातयत् ॥ २७ ॥

असुरों को मारकर पृथ्वी का भार भगवान् ने उतार दिया। जब यादवों से सम्पूर्ण पृथ्वी उपहृत हो गई, तब उन्हीं को शाप में डाल दिया ।। २७ ।।

शापदग्धधियः सर्वे यादवाश्च परस्परम् ।

विनेशुर्भगवांस्तत्र प्रभासे रहसि स्थितः ॥ २८ ॥

शाप से दग्ध बुद्धि वाले उन यादवों ने परस्पर ही लड़कर एक दूसरे का विनाश कर डाला। तब भगवान गुप्त रूप से प्रभास क्षेत्र में चले गये थे ।। २८ ।

चतुर्भुजः कञ्जपलाशलोचनः

पीताम्बरः कौस्तुभशोभिताकृतिः ।

स्वपाञ्चजन्याम्बजचक्रसद्गटः

प्रगल्भसङ्गीतगुणो बभों हरिः ।। २९ ।।

भगवान् की चार भुजाएं और कमल के पत्तों के समान लोचन थे। शरीर पर पीताम्बर और कौस्तुभमणि शोभित हो रहे थे। उनके हाथों में उनका अपना पाञ्चजन्य नामक शङ्ख, कमल, चक्र और सुन्दर गदा थी। इस प्रकार उदात्त गुणों से युक्त भगवान् विष्णु शोभित थे ।। २९ ।।

व्याधेन शरसंस्पृष्टः पादे मृगविशङ्कितः ।

वैकुण्ठमगमत्साक्षद्धारिः कमललोचनः ॥ ३० ॥

कमल के समान लाल वर्ण के पैर को दूर से देखकर एक व्याध ने मृग समझकर बाण चला दिए। इस प्रकार साक्षात् रूप से कमललोचन भगवान् हरि बैकुण्ठ को चले गए ॥ ३० ॥

कालामायागृहीताङ्गा मूलसख्यस्तुयाः स्थिताः ।

ता अपि स्वप्नलीलायां विचित्राकृतयोऽभवन् ॥ ३१ ॥

कालमाया से गृहीत अङ्गों वाली मूल रूप से जो सखियाँ स्थित थी वे भी स्वप्न लीला विचित्र आकृति बाली हो गई ।। ३४ ।।

तद्वासनास्तासु लीना भविष्यन्ति यदा प्रिये ।

बोधमास्यति कूटस्थः प्रलयोऽयं महान् शिवे ॥ ३२ ॥

हे प्रिये ! उनकी वासना जब उनमें लीन होंगी तब कूटस्थ [ ब्रह्म ] प्रबुद्ध होगा । हे शिवे ! यही महान् प्रलय है ।। ३२ ।

मोहनाशे भविष्यन्ति सर्वं ब्रह्ममया इमे ।

इत्येतत् समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वया शिवे ॥ ३३ ॥

उनका मोह नाश होगा तब ये सभी [ श्रुति रूपा ] गोपियाँ ब्रह्ममय हो जायँगी । हे शिवे ! यह रहस्य तुम्हारे लिए मैंने उद्घाटित किया है जो तुमने पूछा है ॥ ३३ ॥

गुह्याद्गुह्यतर शास्त्रमिदमुक्त मयाऽनघे ।

गोषितव्य प्रयत्नेन जननीजारगर्भवत् ॥ ३४ ॥

हे अनघे! मैंने गुह्य से भी गुह्य इस शास्त्र को तुमसे कहा है । इसलिए इसे व्यभिचरित सन्तान के समान छिपाना चाहिए ।। ३४ ।।

॥ इति माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्डे शिवोमासंवादे पञ्चदशं पटलम् ॥ १५ ॥

।। इस प्रकार श्रीनारदपाञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के पन्द्रहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। १५ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 16

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