पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

माहेश्वरतन्त्र पटल १६

माहेश्वरतन्त्र पटल १६        

माहेश्वरतन्त्र के पटल १६ में रास लीला की अलौकिकता पर पार्वती का प्रश्न, सनातन धर्म वर्णन, भक्त का पातिव्रत्य धर्म, कृष्ण वल्लभा – भक्त, निष्काम कर्म के विषय में पार्वती का प्रश्न तथा आत्मबोध का रहस्य कथन का वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल १६

माहेश्वरतन्त्र पटल १६           

Maheshvar tantra Patal 16

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १६            

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र षोडश पटल  

अथ षोडश पटलम्

देवेश भगवन् शम्भो यत्त्वयोक्तमलौकिकम् ।

तच्छ्रुत्वा हृदय मेद्य मज्जते विस्मयोदधौ ॥ १ ॥

देवी पार्वती ने कहा- हे देवों के ईशा, भगवन् शम्भु (जगत् का कल्याण करने वाले) जो आपने यह अलोकिक (कृष्ण की रास लीला की बात कही है, उसे सुनकर आज मेरा हृदय विस्मय के सागर में स्नान कर रहा है अर्थात् मैं इस रास को सुनकर बहुत अश्चर्यान्वित हुई हूँ ॥ १ ॥

तत्रोक्तं यत्त्वया देव प्रिया भगवतस्तु याः ।

कामशेषानुभूत्यर्थमिहासन्निति शङ्कर ॥ २ ॥

अवशिष्टः कथं कामोऽनुभूतस्ताभिरीश्वर ।

कथं वा लक्षयेयुस्ता लक्षणैरिति तद्वद ॥ ३ ॥

वहां, हे देव ! 'जो भगवान् की प्रिया काम की शेष अनुभूति के लिए थी' जो आपने हे देव ! यह कहा, तो हे शङ्कर (कल्याण करने वाले) ! वे अवशिष्ट प्रियाए कैसी थीं और उनके द्वारा काम की अनुभूति कैसे की गई ! लक्षणों से लक्षित थीं ? उसे कहिए ।। २-३ ॥

मत्र्यलोक गतानां च कृष्णस्त्रीणां महेश्वर ।

गुरुभावं गतोऽसि त्वं प्रोक्तवानसि यदुहः ॥ ४ ॥

योगिनो ज्ञानिनो भक्ताः कर्मनिष्ठास्तपोधनाः ।

तषां गुरुस्त्वमाचो हि तत्तत्तत्वोपदेशकः । ५ ॥

हे महेश्वर ! मर्त्यलोक में गई कृष्ण की स्त्रियों गुरुभाव को प्राप्त हुई थीं, यह जो आपने रहस्य की बात कही, वह कुछ ठीक नहीं लग रही है क्योंकि उन योगियों, ज्ञानियों, भक्तों, कर्मयोगियों और तपोधनों से भी बड़े आप ही हैं और उन उन लोगों को तत्त्व का उपदेश करने वाले भी आप ही हैं ।। ४-५ ।।

वामनादृत्य ये पापा: प्रवर्तन्ते स्वकर्मसु ।

न तेषां जायते सिद्धिः कोटिकल्पशतैरपि ॥ ६ ॥

तुम्हें छोड़कर जो पापी अपने कर्म में प्रवृत्त होते हैं उन्हें सौ करोड़ कल्प में भी सिद्धि नहीं प्राप्त होती है ॥ ६ ॥

त्वमेव सर्वधर्माणां कर्ता वक्ताभिरक्षिता ।

त्वद्भक्त्यैव हि संसिद्धिर्नृणां भवति कर्मजा ॥ ७ ॥

आप ही सभी धर्मों के कर्त्ता हैं, उनके वक्ता एवं रक्षक भी आप ही हैं । तुम्हारी भक्ति से ही, कर्म से उत्पन्न मनुष्यों को सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ७ ॥

त्वदुक्त्या बोधमाप्स्यन्ति भूतले भगवत्प्रियाः ।

मत्त्यंदेहगतानां तु गुरुभूतोऽसि शङ्कर ॥ ८ ॥

भूतल में भगवान् की उन प्रियाओं को आपकी ही भक्ति से बोध की प्राप्ति होगी। हे शङ्कर ! मर्त्यं शरीर वालों के लिए आप ही गुरु हैं ॥ ८ ॥

तस्मादवश्यमेवैतदुपदेष्टव्यमीश्वर ।

मय्यपि कृपया नूनं रहस्यमिदमद्भुतम् ॥ ९ ॥

इसलिए, हे ईश्वर ! उन्हें अवश्य ही आप द्वारा उपदेश देना चाहिए। मेरे ऊपर भी कृपा करके इस अद्भुत रहस्य को कहें ॥ ९ ॥

शिव उवाच-

धन्यासि देवदेवेशि ललित ते परं वचः ।

श्रुत्वा प्रसन्नहृदयः कथयिष्ये कथां शुभाम ॥ १० ॥

अहं लोकगुरुः साक्षात् धर्मवक्ता जगत्त्रये ।

तं मां निन्दन्ति ये मूढास्तेषां सिद्धिः कथं भवेत् ॥ ११ ॥

शिव ने कहा- हे देव देवेशि ! तुम धन्य हो । तुम्हारी वाणी श्रेष्ठ और ललित है जिसे सुनकर हृदय अत्यन्त प्रसन्न हुआ है । अतः मैं शुभ कथा को कहूँगा । मैं सम्पूर्ण लोक का गुरु हूँ और तीनों लोको में साक्षात् रूप से धर्म का वक्ता भी मैं ही हूँ । इसलिए जो मूर्ख मेरी निन्दा करते हैं तो उनको कैसे सिद्धि प्राप्त होगी ।। १०-११ ॥

नानादैवतसद्भक्त्या नानाधर्मेर्व्यवस्थिताः ।

तत्र तत्रोपदेष्टाऽहं तं मां निन्दन्ति पामराः ।। १२ ।।

किं न कुर्वन्ति ते मूढाः यतो माया महेशितुः ।

बलीयसी विमोहार्हान् विमोहयति नापरान् ।। १३ ।।

नाना देवताओं की भक्ति करने वाले जो हैं और नाना धर्मों में व्यवस्थित जो हैं उन उनका मैं ही उपदेष्ठा हूँ । अतः पामरजन ही मेरी निन्दा करते हैं । वे मूर्ख क्या नहीं करते हैं क्योंकि वे माया से संचालित होते हैं । वह बलवान् माया, मोह से विमुख रहने वाले उनको मोहित करती है। किन्तु अन्य ( मेरे परायण) को मोहित नहीं करती ॥ १३ ॥

भविता फलरूपश्च येषां धर्मः सनातनः ।

ते न निन्दन्ति देवांश्च धर्मान्वेदान्मतानि च ।। १४ ।।

जिनका सनातन धर्म हैं, वे देवों की, धर्मों की, वेदों को और अन्य मतों की निन्दा थोड़े ही करते हैं। इसीलिए उनकी तपस्या फलरूप में परिणत हो जाती है ॥ १४ ॥

पाखण्डवादनिरता वेदधर्मविनिन्दकाः ।

नरकं प्रतिपद्यन्ते न निवर्त्तन्ति कर्हिचित् ।। १५ ।।

किन्तु जो पाखण्ड में रत हैं और जो वेद एवं धर्म की निन्दा करने वाले हैं, वे नरकगामी होते हैं तथा कभी भी वहाँ से नहीं लौटते हैं ।। १५ ।।

इदमेव लक्षणं देवि मर्त्यलोकगतासु तत् ।

अक्षरः परमात्मा च स्वभिन्नौ पुरुषावुभो ।। १६॥

हे देवि ! मर्त्यलोक में जाने वाले उन मनुष्यों का यही [ धर्म की निन्दा करने वाले और धर्म की निन्दा न करने वाले का ] लक्षण है वस्तुतः वह अक्षर ब्रह्म परमात्मा इन दोनों प्रकार के पुरुषों से भिन्न है ।। १६ ।।

शब्दब्रह्म परब्रह्म ह्येतदप्यद्वयं प्रिये ।

शब्दब्रह्मोदिता धर्माः कर्मज्ञानादयः प्रिये ।। १७ ।।

हे प्रिये ! क्योंकि शब्द ब्रह्म और परब्रह्म दोनों एक ही है । हे प्रिये ! कर्म एवं ज्ञान आदि का तथा धर्मों का उदय शब्द ब्रह्म से ही होता है ॥ १७ ॥

ते सर्वे स्वात्मबोधाय यदि कामविवर्जिताः ।

धर्मानुष्ठातृनिन्दाभिर्धर्मा एव विनिन्दिताः ॥ १८ ॥

वे सभी अपना स्व का बोध करने के लिए होते हैं यदि काम से रहित हों तो । धर्मानुष्ठान की निन्दा के द्वारा धर्म ही विनिन्दित होता है ॥ १८ ॥

तत्र धर्मस्य निन्दाभिः शब्दब्रह्म व निन्दितम् ।

तन्निन्दया परब्रह्म अक्षरः स्याद्विगर्हितम् ।। १९ ।।

वहाँ धर्म की निन्दा से शब्द ब्रह्म की निन्दा होती है और उनकी निन्दा से परब्रह्म अक्षर का भी अपमान होता है।।१९॥

गर्हिते ह्यक्षरे देवि गर्हितः पुरुषोतमः ।

स्वभ निन्दया देवि तत्प्रियाणां कुतो गतिः ॥ २० ॥

अतः इस प्रकार अक्षर के गर्हित होने से, हे देवि ! वह पुरुषोत्तम भी गर्हित हो जाते हैं। इसलिए हे देवि ! यदि अपने पति की निन्दा की जाय तो उसके प्रिय की फिर क्या गति होगी ॥ २० ॥

न निन्देन्मनसा वाचा धर्मान्वेदपथांन शिवान् ।

ब्राह्मणान्कर्मनिष्ठांश्च हविः कामदुघाश्च गाः ॥ २१ ॥

इसलिए, मन एवं वाणी से धर्मों की, वेदनिरत लोगों की, शिव परायण भक्तों -की, ब्राह्मणों की एवं कर्मनिष्ठ लोगों की, हवि की और कामनाओं की प्रदाता गायों की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।। २१ ।।

तस्मादित्यादिकं सर्वं मनसा वैद्य तत्वतः ।

निन्दाद्वेषादिरहितो भजते पुरुषोत्तमम् ॥ २२ ॥

इसलिए इन सभी को तत्त्वतः मन से जानकर निन्दा-द्वेष से रहित होकर पुरुषोत्तम को भजना चाहिए ॥ २२ ॥

प्रतिविद्याद् देवदेवेशि कृष्णस्यैव प्रियेति ताम् ।

सर्वमक्षरसम्भूतं विदित्वानन्यभावतः ॥ २३ ॥

हे देवों के देव ईश की अर्वाङ्गिनी ! उन्हें कृष्ण की ही प्रिया जानना चाहिए । सभी चराचर जगत् अक्षर से ही सम्भूत है यह जानकर अनन्यभाव से उन्हीं - पुरुषोत्तम की आराधना करना चाहिए ।। २३ ।।

प्रणमेन्मनसा वाचा तमाहुः कृष्णवल्लभा ।

पातिव्रत्यमिदं देवि तदनन्यविभावनम् ।। २४ ।।

वाणी और मन से उन्हें प्रणाम करना चाहिए। उन्हें विद्वत् जन कृष्ण की - बल्लभा कहते हैं । हे देवि ! अनन्यभाव से उन्हीं का भजन करना पातिव्रत्य धर्म है ।। २४ ।।

स एवेदं बभूवाग्रे पश्चादप्येवमेव सः ।

क एवान्योऽस्ति देवेशि तत्त्वदष्टयावलोकने ।। २५ ।।

वह पति ( बालक श्री कृष्ण ) ही पहले विद्यमान थे और बाद में वही स्वामी रहेंगे। वस्तुतः हे देवेशि ! तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर उन कृष्ण के अतिरिक्त भला अन्य कौन पति (पालन कर्ता ) हो सकते हैं ।। २५ ।।

तस्मादिदं पातिव्रत्यं कृष्णस्त्रीणां मयोदितम् ।

पातिव्रत्यपरिज्ञानं यो न जानाति केवलम् ।। २६ ।।

न तस्मिन्वासनालेशो निश्चितं सुरवन्दिते ।

पतिव्रताधर्ममिमं सद्गुरोः शास्त्रतोऽपि वा ॥ २७ ॥

इसलिए मेरे द्वारा यह कृष्ण परायण स्त्रियों (भक्तों) के लिए पातिव्रत्य धर्म कहा गया। जो भक्त मात्र पातिव्रत्य का परिज्ञान नही करते हैं, हे सुरवन्दिते ! निश्चित ही उन साधक में ( कृष्ण परक) भावना का लेशमात्र भी नहीं रहता है । यह पातिव्रत्य धर्म सद्गुरु अथवा शास्त्र से प्राप्त होना चाहिए ।। २६-२७ ।।

निशम्याप्नोति तनिष्ठां तमाहुः कृष्णवल्लभा ।

केचिद्वदन्ति वै मूढाः पातिव्रत्यमितोऽन्यथा ॥ २८ ॥

गुरुमुख से सुनकर जो भक्त उन भगवान् कृष्ण में निष्ठा रखता है उसे ही विद्वान् कृष्णबल्लभा' कहते हैं । कुछ मूर्ख बुद्धि के जन इस पातिव्रत्य धर्म को अन्यथा करके कहते हैं (यह ठीक नहीं हैं) । २८ ॥

एक एव पतिः सेव्यो नान्यो मान्यः कदाचन ।

अन्यस्य सेवया लोके योषित्सा पतिता भवेत् ॥ २९ ॥

एक ही पति की सेवा करना चाहिए। कभी भी अन्य को पति नहीं मानना चाहिए। लोक में अन्य व्यक्ति की सेवा से नारी पतिता हो जाती है ।। २९ ।।

पातिव्रत्यमिदं देवि लौकिकं न त्वलौकिकम् ।

अनीश्वरः परिच्छिन्नः सदोषो लौकिकः पतिः ॥ ३० ॥

योषित्सापि तथा लोके पातिव्रत्यमतस्तथा ।

ईश्वरस्तु विभुः साक्षाद्विश्वात्मा विश्वविग्रहः ॥ ३१ ॥

हे देवि ! यह लौकिक पातिव्रत्य धर्म है । यह अलौकिक पातिव्रत्य नहीं है । लौकिक पति चारो ओर से दोष से युक्त है तथा सर्व सामर्थ्यं युक्त नहीं है । अतः वैसा ही लोक में युवती का पातिव्रत्य धर्म है। किन्तु ईश्वर तो सर्वव्यापी है और विश्व शरीर में तथा साक्षात् विश्व की आत्मा रूप से विद्यमान है ।। ३०-३१ ।।

स एव सर्वरूपैश्च नामभिः ख्यातिमागतः ।

सर्वनामस्वरूपं च ज्ञात्वा ब्रह्म सनातनम् ॥ ३२ ॥

दृष्ट्याऽविषमया देवि सर्वत्र परिपश्यति ।

पातिव्रत्यमिदं भद्रे मयेतत्कथितं शुभम् ।। ३३ ।।

वह परमात्मा ही सभी रूपों और नाना प्रकार के नामों से विख्यात होते हैं । सर्वनामस्वरूप को जानकर हम सनातन ब्रह्म को ही, हे देवि ! अभेद दृष्टि से सर्वत्र देखते हैं। यह शुभ पातिव्रत्य धर्मं हमारे द्वारा, हे कल्याण करने वाली देवि ! कहा गया ।। ३२-३३ ।।

इत्येतन्निर्णयाज्ञानाद्विभ्रमन्ति विमोहिताः ।

षट् दर्शनानि मेऽङ्गानि पादौ कुक्षी करो शिरः ।। ३४ ।।

इस प्रकार के ज्ञान के निर्णीत न होने से व्यक्ति अज्ञान के कारण विशेष रूप से मोहित होकर जन्म मरण के चक्कर में घूमते रहते हैं । साधक को सदैव अभेद दृष्टि ही रखनी चाहिए। वस्तुतः छः दर्शन मेरे दोनों पैर एवं दोनों हाथ तथा दोनों कुक्षि और शिव के तुल्य मेरे अङ्ग हैं ।। ३४ ।।

तेषु भेद तु यः कुर्यान् मदङ्गच्छेदको हि सः ।

एव पतिव्रताधर्मं सम्यक् ज्ञात्वा गुरोर्मुखात् ।। ३५ ।।

उन षड्दर्शनों में जो साधक भेद करता है तो वह मानों मेरे अङगों का ही विच्छेद करता है । इस प्रकार के पतिव्रत्य धर्म को गुरुमुख से भली प्रकार से जानकर जो साधक पति (पालक श्रीकृष्ण) की परिचर्या करता है उसे ही 'कृष्ण- 'बल्लभा' कहा जाता है ।। ३५ ।।

पति परिचरेद्यस्तु तमाहुः कृष्णवल्लभा ।

श्रुत्वा कृष्णकथालापं यद्वपुः पुलकाङ्कितम् ।

आनन्दाश्रुजलं नेत्रे तमाहुः कृष्णवल्लभा ।। ३६ ।।

वस्तुतः उसी साधक को 'कृष्णवल्लभा' कहा जाता है जिसका शरीर कृष्ण की कथा-लीला को सुनकर रोमान्चित हो जाय और आनन्द विभोर होकर नेत्रों में अजल डब डबा जायें ।। ३६ ।।

श्री पार्वत्युवाच -

कामसङ्कल्परहितं कर्म वर्णाश्रमोचितम् ।

कस्मात्करोति यस्येच्छा कामसङ्कल्पवजिता ॥ ३७ ॥

अनुद्दिश्य फलं देव न बालोऽपि प्रवर्तते ।

ब्रह्मसृष्टि गतो जीवः कस्माद् व्यर्थं प्रवर्तते ॥ ३८ ॥

पार्वती ने कहा- इस वर्णाश्रम में उचित तो यह है कि निष्काम कर्म किया जाय । तो जिस साधक की कामना रहित इच्छा है तो वह कैसे कर्म करता हैं। निष्प्रयोजन कर्म तो एक अबोध बालक भी नहीं करता है तो फिर ब्रह्म सृष्टि-गत जीव आखिर क्यों व्यर्थ ही इसमें प्रवृत्त होते हैं ।। ३७-३८ ।।

मोहसृष्टिसमुद्भूताः स्वर्गादिफलमोहिताः।

ते कर्मणि प्रवर्त्तन्ते न तच्चित्र महेश्वर ।। ३९ ।।

स्वर्गादि फल की कामना मोह सृष्टि से उत्पन्न हुई है। उन यज्ञ यागादि कर्मों में जो जन प्रवृत्त होते हैं तो, हे महेश्वर ! उसमें क्या आश्चर्य है ? ।। ३९ ॥

कृष्णप्रियाः कृष्णरूपा' वासनाभिः समागताः ।

कथं ताः कर्मणि व्यर्थे नियोजयसि शङ्कर ।। ४० ।।

अतः शङ्कर ! कृष्ण रूप वासना द्वारा आई हुई वे कृष्ण की प्रियाएं उन-उन कर्मों में अपने को व्यर्थ ही कैसे नियोजित करती हैं ? आखिर उनका कुछ तो प्रयोजन होगा ? ॥ ४० ॥

शिव उवाच-

अप्रबुद्धः प्रबुद्धो वा कर्म कुर्यात्सदाहितम् ।

सकामं निन्दितं कर्म मुमुक्षं प्रति मानिनी ॥ ४१ ॥

शिव ने कहा- हे मानिनि ! चाहे व्यक्ति जागता हो या सोया हो, वह सदैव कर्म करता ही रहता है। किन्तु मोक्ष की आकाङक्षा वाले साधक के लिए सकाम कर्म करना निन्दित है ॥ ४१ ॥

क्रियावान् पुरुषः श्रेष्ठो भवाब्धि तरते सुखम् ।

क्रियाविरहिता लोके धर्मभ्रष्टा विभान्ति मे ।। ४२ ।।

अश्रद्दधानात् धर्मेषु विद्वांसः कृपया विभो ।

नोपदेश्यन्ति शास्त्रार्थमुषरे बीजवत्प्रिये ॥ ४३ ॥

वस्तुतः सदैव कर्म करते रहने वाला पुरुष इस संसार सागर को सुख से प्राप्त कर जाता है । मेरे अनुसार क्रियारहित व्यक्ति धर्म भ्रष्ट हुआ-सा लोक में कान्तिहीन रहता है । विद्वान् लोग परमात्मा की कृपा से धर्मों में श्रद्धा न करने वाले को कभी भी शास्त्र का उपदेश नहीं करते हैं क्योंकि हे प्रिये ! वह तो उषर भूमि में बीज बोने के समान ही निष्फल है ।। ४२-४३ ॥

न च तत्वस्य निर्धारः शास्त्रहीनस्य जायते ।

तदर्थं निर्णय शास्त्र त्यक्त्वाऽन्यत् साधनं मुधा ॥ ४४ ॥

शास्त्रहीन व्यक्ति तत्व के निर्धारण में अक्षम ही होता है । इसलिए उसके निर्णायक शास्त्र को छोड़कर अन्य साधक तो ईश्वर प्राप्ति के लिए झूठे हैं ॥ ४४ ॥

वपुच्छालम्बनं यद्वत्तितीर्षोः सागरं यथा ।

विना तत्वस्य निर्धारं शङ्कापि न निवर्त्तते ॥ ४५ ॥

अन्य साधक को अपनाना तो कुत्ते की पूछ पकड़कर सागर को पार करने की इच्छा के समान है । विना तत्व के निश्चय हुए तो ( मन में आने वाली अन्यान्य ) शङ्काए भी नहीं मिटाई जा सकती ।। ४५ ।

शङ्कापङ्काङ्कमलिने हृदये नैव सुन्दरि ।

प्रेमार्क प्रतिबिम्बः स्याद्येन कृष्णः प्रभासते ।। ४६ ।

हे सुन्दरि ! शङ्का रूप कीचड़ से मलिन हृदय कमल में प्रेम के सूर्य का प्रतिविम्ब भी नहीं पड़ता है जिसमें कृष्ण प्रतिभासित होवें ।। ४६ ।।

तस्माद्वर्णाश्रमाचार भ्रष्टे नरचतुष्पदे ।

नैव ज्ञानं तथा भक्तिर्यथार्थोदेति निश्चयः ।। ४७ ।।

इसलिए वर्णाश्रम के आचार से भ्रष्ठ व्यक्ति चौपाए जानवर के समान है । यह निश्चित है कि उस आचार भ्रष्ट साधक में न तो कर्म ही होता है और न ही भक्ति यथार्थ रूप से उदित होती है ॥ ४७ ॥

नित्यं नैमित्तिकं तस्मात्कर्तव्यं तदशङ्कया ।

काम्यं निषिद्ध यत्कर्म तत्तदूरात्परित्यजेत् ।। ४४ ।

इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि निःसन्देह रूप से नित्य और नैमित्तिक (श्राद्ध-व्रत आदि ) कर्म जरूर करे । किन्तु काम्य कर्म जो निषिद्ध हैं, उन्हें दूर से ही त्याग दे ॥ ४८ ॥

नित्यं नैमित्तिकं कर्म फलं बध्नाति न क्वचित् ।

अननुष्ठानमात्रेण प्रत्यवायस्तु जायते ।। ४९ ।।

नित्य और नैमित्तिक कर्म कहीं भी फल को नहीं बाँधते हैं। उनके तो अनुष्ठान मात्र से ही प्रत्यवाय ( बाधाएँ ) हट जाती हैं ॥ ४९ ॥

अनुष्ठाने फलं नास्ति चित्तशुद्धि विनेतरत् ।

काम्यादिकर्मकर्त्तारो देहभाजः पुनः पुनः ॥ ५० ॥

नित्य और नैमित्तिक कर्मों को करने से, यद्यपि कोई फल नहीं होता है, किन्तु विना उसके किए चित्त शुद्धि भी नहीं होती। जबकि काम्यादि कर्मों के कर्त्ता को ( पुण्य की समाप्ति होने पर) बार-बार जन्म लेना पड़ता है॥५०॥

तस्मात्काम्यं परित्यज्य नित्यं विद्वान् समाचरेत् ।

अप्रबुद्धदशायां च  प्रबुद्धायामपि प्रिये ॥। ५१ ।।

कर्त्तव्यं सहजं कर्म न तान्विघ्नः प्रभूयते ।

प्रबुद्धस्थापि यत्कर्म तत्र मे निर्णयं शृणु ।। ५२ ।।

इसलिए विद्वान् व्यक्ति को चाहिए कि काम्य कर्मों का परित्याग करके नित्य कर्मों को करे । हे प्रिये ! अप्रबुद्ध दशा में अथवा प्रबुद्ध दशा में सहज ( नित्य ) कर्म करना चाहिए। उन कर्मों से विघ्न बाधाए नहीं आती हैं। अब प्रबुद्ध दशा में भी जो कर्म करना चाहिए, उसका निर्णय हमसे सुनिए ।। ५१-५२ ।।

वार्त्तामात्रेण विज्ञानं प्रबोधो नैव वास्तव: ।

साक्षात्प्रबोधे देवेशि देहः सद्यो विलीयते ॥ ५३ ॥

वार्ता मात्र से ही वास्तविक ज्ञान रूप विशेष प्रबोध नहीं होता है। वस्तुतः, हे देवेशि ! साक्षात् प्रबोध (विज्ञान) होने पर तो सद्यः देह विलीन हो जाता है (अर्थात् वह ज्ञानाग्नि से नष्ट हो जाता है) ।। ५३ ॥

तस्माच्छाब्द प्रबोधोऽयं परमार्थो न विद्यते ।

संसारमोहनाशाय शाब्दबोधो न हि क्षमः ॥ ५४ ॥

इसलिए मात्र शाब्द प्रबोध ( वात ही बात करने से ) परमार्थ प्राप्ति नहीं होती है । वस्तुत संसार में मोह के नाश के लिए 'शाब्द प्रबोध' समर्थ नहीं है ॥ ५४ ॥

न निवर्त्तेत तिमिरं कदाचिद्दीपवासया ।

ज्वलितः पतितो देही यदा विरहवह्निना ॥ ५५ ॥

तदा विद्यादात्मबोधमन्यथा शाब्द एव सः ।

शाब्दबोधमात्रेण नित्यं नैमित्तिकं त्यजेत् ॥ ५६ ॥

कभी भी मात्र दीपक की बत्ती से अन्धकार नहीं हटता है । वस्तुतः ( श्रीकृष्ण के) विरह की अग्नि में जब गिरकर शरीय जल जाता है तभी साधक को आत्म- बोध ( आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त होता है, नहीं तो वह मात्र शाब्द प्रबोध ही रहता है। हाँ शाब्द प्रबोध मात्र से नित्य एवं नैमित्तिक कर्म का त्याग करना चाहिए ।। ५५-५६ ।।

प्रत्यवायी स विज्ञेयो नासो बोधमवाप्नुयात् ।

यावद्देहाभिमानः स्यान्ममता तावदेव हि ।। ५७ ॥

यदि ऐसा नहीं करता है तो उसे साधना में स्वयं को 'बाधक' समझना चाहिए और ऐसे व्यक्ति को कभी भी बोध नहीं होता है। वस्तुतः जब तक देहाभिमान रहता है, तभी तक ममता बनी रहती हैं ॥ ५७ ॥

तावद्देहानुबन्धित्वात्कर्म कर्तव्यमेव हि ।

शास्त्रोक्तं कर्म कर्त्तव्यं विकर्म विनिवृत्तये ॥ ५८ ॥

तभी तक देहाभिमान के कारण कर्म और कर्तव्य के प्रति ममता होती है । वस्तुतः निवृत्ति के लिए शास्त्रोक्त कर्म ही कर्तव्य हैं । तदतिरिक्त अन्य कर्म तो 'विकर्म' कहे जाते हैं ॥५८॥

विकर्मणि प्रवृत्तिस्तु नृणां स्वाभाविकी यतः ।

विकर्मणः प्रभावेन देहभाजः पुनः पुनः ।। ५९ ।।

मानवों की 'विकर्म' में प्रवृत्ति तो स्वभाविक होती है। अतः विकर्मों के प्रभाव से मनुष्य को पुनः पुनः देह धारण करना होता है ।। ५९ ।।

नित्यं नैमित्तिकं देवि फलं सङ्कल्पवज्जितम् ।

चित्त शोधयते साहिव ! न तु देहाय जायते ।। ६० ।।

हे देवि ! नित्य एवं नैमित्तिक कर्म के फल तो संकल्परहित होते हैं । हे साध्वि ! वे कर्म तो चित्त का शोधन करते हैं । वे शरीर के लिए नहीं होते हैं ।। ६० ।।

का हानिस्तत्र देवेशि निष्कामाचरणे नृणाम् ।

इत्येवं निर्णयाज्ञानान्मूढाः पण्डितमानिनः । ६१ ।।

त्यजन्तः शोधनं कर्म पापचित्ता भ्रमन्ति वै ।

सांसारिक सुखासक्तं ब्रह्मज्ञोऽस्मीति वादिनम् ।। ६२ ।।

हे देवेशि ! अतः मनुष्य को निष्काम कर्म करने में फिर हानि क्या है ? मात्र इतने का ही निर्णय न कर पाने के कारण अज्ञानवश मूर्ख और पण्डित मानी जन अपने चित्त के शोधक कर्म को छोड़ते हुए पापचित्त होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं और 'मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ' यह कहते हुए सांसारिक सुखों में आसक्त रहा करते हैं ।। ६१-६२ ॥

कर्म ब्रह्मभयभ्रष्टं तं त्यजेदन्त्यजं यथा ।

देहेन्द्रियसुखासक्तो' ब्रह्मज्ञोऽस्मीति यो वदेत् ॥ ६३ ॥

इस प्रकार देह एवं इन्द्रिय में आसक्त जन, जो अपने को ब्रह्मज्ञानी बताते हैं उन 'कर्म एवं ब्रह्म' दोनों से भ्रष्ट हुए मूर्ख पण्डितों का उसी प्रकार परित्याग कर देना चाहिए जैसे चाण्डाल का त्याग कर दिया जाता है ।। ६३ ।।

न तं वैज्ञानिनं मन्ये मणिभूषितगर्दभम् ।

ब्रह्मवादं पुरस्कृत्य वर्णाश्रमनिबन्धनाः ।। ६४ ।

उन भ्रष्ट जनों को उसी प्रकार ज्ञानी नहीं समझना चाहिए जैसे मणि से अलङ्कृत गदहे को कोई ज्ञानी नहीं समझता है । ब्रह्म के विचार को आगे आगे लेकर वे वर्णाश्रम में फंसे जन ही हैं ॥ ६४ ॥

विलपन्तः क्रियाः सर्वाः लोकनाशकरा हि ते ।

ब्रह्मवादः कलियुगे गेहे गेहे जने जने ॥। ६५ ।।

उनकी ज्ञान सम्बन्धी क्रिया का लोप हो गया है। वे तो समस्त संसार को नष्ट करने वाले हैं । वस्तुत' कलियुग में 'ब्रह्म विचार तो घर-घर में और जन जन में व्याप्त रहता है ॥ ६५ ॥

भविष्यति ततः काले धर्म कर्म विलोपनम् ।

धर्मकर्मविहीनानां पापमेवानुसेवताम् ।। ६६ ।।

इस कारण से काल क्रम से धर्म-कर्म का लोप हो जायेगा और धर्म-कर्म से विहीन व्यक्ति मात्र पाप कर्मों का ही सेवन करते हैं ॥ ६६ ॥

तेषामासुरजीवानां नरकं न निवर्तते ।

तस्मादेवं सुनिर्णीय धर्मकर्मपरायणाः ॥ ६७ ॥

उन आसुरी जीवन जीने वालों के लिए उस नरक से निकल पाना मुश्किल है। इसलिए इस प्रकार का (निष्काम कर्म रूप) सुन्दर निर्णय करके साधक को धर्म-कर्म में परायण होना चाहिए ॥ ६७ ॥

कृष्णमेवानु सेवन्तस्तान्मन्ये कृष्णवल्लभाः ।

इति ते कथितं देवि वासनालक्षणं मया ॥ ६८ ॥

यज्ज्ञात्वा ह्यचिरादेव स्वात्मबोधः प्रजायते ।। ६९ ।।

मात्र कृष्ण की सेवा करने वाले उन साधकों को ही 'कृष्णवल्लभा' जानना चाहिए। हे देवि ! इस प्रकार मैंने आपसे वासना का लक्षण बताया है जिसे जानकर साधक भक्त को शीघ्र ही आत्मबोध हो जाता है ।। ६८-६९ ।।

॥ इति श्रीपञ्चरात्र श्री माहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती संवादे षोडशं पटलम् ।। १६ ।।

इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर संवाद के सोलहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई॥१६॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 17

Post a Comment

Previous Post Next Post