माहेश्वरतन्त्र पटल १७
माहेश्वरतन्त्र के पटल १७ में सदाचार
निरूपण,
कलियुग में पाखण्ड एवं ब्रह्मवाद के विषय में पार्वती का प्रश्न,
गौतम ऋषि एवं क्षुधार्त ब्राह्मणों की कथा का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १७
Maheshvar tantra Patal 17
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १७
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र सप्तदश पटल
अथ सप्तदशं पटलम
पार्वत्युवाच-
भगवन् देवदेवेश निर्णय साधुसंमतः ।
कथितोऽयं सदाचारलक्षणः पावनो नृणाम्
॥ १ ॥
पार्वती ने कहा- हे भगवन्,
हे देवदेवेश, आपने साधुसम्मत निर्णय किया है।
आपने मनुष्यों को [ अनाचार रूप पाप से मुक्त करके] पवित्र करने वाला यह सदाचार का
लक्षण कहा है ॥ १ ॥
धर्मकर्मविहीनानां सदाचारं
विमुञ्चताम् ।
मलीमसानां दुष्टानां ब्रह्मसिद्धिनं
जायते ॥ २ ॥
धर्म [ = श्रुति में आस्तिकता रूप
से ] और कर्म [ नित्य एवं नैमित्तिक ] से विहीन और सदाचार छोड़कर जीवन पथ पर चलने
वाले दुष्टात्मा एवं निकृष्ट बुद्धि वाले मनुष्य को 'ब्रह्मसिद्धि' नहीं होती है ॥ २ ॥
यथा जघात् शनैरम्भः सोपानानि
क्रमात् क्रमात् ।
तथा देहानुसम्बन्धान् शनैहयात् स
पण्डितः ॥ ३ ॥
सोपान के क्रम से क्रमश: जैसे बादल
धीरे-धीरे जल छोड़ते हैं वैसे ही धीरे-धीरे जो देह से सम्बन्ध [अर्थात् देह में
आसक्ति] त्याग दे वही विद्वान् व्यक्ति है ॥ ३ ॥
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते
स्वात्मनि स्वयम् ।
अश्मकाञ्चनयोस्तुल्यं भावप्राप्ती
समस्थिती ॥ ४ ॥
इस प्रकार देहाभिमान के नष्ट हो
जाने पर स्वयं अपनी आत्मा में अपने को जान लेने पर पत्थर और सुवर्ण में उसे समान
भाव की प्राप्ति हो जाने पर समधिष्ठित उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है ॥ ४ ॥
उदासीनारिमित्रषु स्वानन्दानुभवोदये
।
न कर्मभिस्तदा कार्यं सम्राजो
भिक्षया यथा ॥ ५ ॥
शत्रु और मित्र दोनों में ही उदासीन
भाव रखने वाले को और अपने में आनन्द के अनुभव होने पर भी उदासीन होकर उसे कर्मों
के द्वारा आसक्ति से कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि भिक्षा के द्वारा कार्य चलाने
वाले को साम्राज्य से क्या ? ।। ५ ।।
यथामृतेन तृप्तस्य नाहारेण प्रयोजनम्
।
स्वात्मानन्दोदये तद्वत्कर्माभिनं
प्रयोजनम् ॥ ६ ॥
क्योंकि जैसे अमृत से तृप्ति
प्राप्त हो जाने पर आहार करे या न करे उससे क्षुधा का प्रयोजन ही क्या है ?
उसी प्रकार जब अपने में आनन्द का उदय हो गया हो तो कर्मों में कोई
प्रयोजन नहीं होता ।। ६ ।।
तालवृन्तेन किं कार्यं लब्धे
मलयमारुते ।
स्वात्मानन्दोदये जाते कर्मणा कि
प्रयोजनम् ॥ ७ ॥
यदि मलयाचल की वायु ही प्राप्त हो
जाय तो पंखे का क्या प्रयोजन है ? उसी प्रकार
अपने में ही आनन्द का उदय यदि हो जाय तो आसक्ति से कार्य करने का क्या प्रयोजन है ?
॥ ७ ॥
पार्वती उवाच-
साध्वेतद्व्याहृतं देव त्वया भागवता
प्रभो ।
परं वेदितुमिच्छामि सन्देहाकुलमानसा
॥ ८ ॥
ब्रह्मवादः कलियुगे गेहे गेहे जने
जने ।
धर्म कर्म विलोपार्थं भविष्यति न
संशयः ॥ ९ ॥
पार्वती ने कहा- हे देव ! आप भगवान्
प्रभु के द्वारा इस प्रकार ठीक ही कहा गया है। परन्तु सन्देह से आकुल मन वाली मैं
यह जानना चाहती हूँ कि कलियुग में ब्रह्मवाद [ ब्रह्मज्ञान ] घर-घर में और जन-जन
में धर्म कर्म के लोप के लिए ही होगा- इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८-९ ॥
इति यद्भवता प्रोक्तं तत्र मे संशयो
महान् ।
ब्रह्मवादेन सदृशं पवित्र नहि
किञ्चन ॥ १० ॥
इस प्रकार जो आपने कहा उसमें हमें
महान् संशय यह है कि 'ब्रह्मवाद' के सदृश तो और कुछ भी पवित्र नहीं है ।। १० ।।
तपो दान क्रिया योगः स्वाध्यायनियमा
यमाः ।
समाप्यन्ते महेशान ब्रह्मज्ञानोदयादनु
॥। ११ ॥
हे महेश,
हे ईशान! ब्रह्मज्ञान के उदय हो जाने के बाद तप, दान, क्रिया और योग, स्वाध्याय
आदि नियम और यम [ निरोध ] समाप्त हो जाते हैं ॥। ११ ॥
ब्रह्मज्ञान कनिष्ठानां महादेव
महात्मनाम्
सर्व सम्पूर्णतां याति नित्यं
नैमित्तिकं च यत् ॥ १२ ॥
ब्रह्मज्ञान में एकनिष्ठ महात्मा
जनों के लिए, हे महादेव! नित्य नैमित्तिक आदि
जो भी कर्म हैं वह सभी सम्पूर्णता को प्राप्त करते हैं ।। १२ ।।
ब्रह्मज्ञानेन मुच्येत यदि
चेद्विश्वघातकः ।
न तस्य कर्मलोपोऽस्ति
पद्मस्येवाम्भसा यथा ॥ १३ ॥
यदि विश्व का घातक ब्रह्मज्ञान से
छुटकारा पा जाता है तो उसके कर्म का लोप भी उसी प्रकार नहीं होता जैसे पद्म में जल
का लोप नहीं होता है ॥ १३ ॥
कलिस्तु सुमहान् पापस्तामसात्मा
मलीमसः ।
अध में रमते नित्यं येन स्पृष्टा
प्रजा भुवि ॥ १४ ॥
कलियुग महान् पापों वाला है। इसमें
तामस हृदय के और मलिन बुद्धि के जन नित्यप्रति अधर्म में ही रमण करते हैं,
जिससे प्रजा इस भूमि पर स्पृष्ट होगी ।। १४ ।।
यत्रोष्यन्ति पाषण्डा
धर्मनिर्नाशहेतवः ।
वर्णानां सङ्करो यत्र
स्वस्वकर्मविलम्पताम् ॥ १५ ॥
धर्म के निःशेष रूप से नाश के
हेतुभूत पाखण्ड बहुत होंगे। वहाँ कलियुग में वर्णसंकर होगा । [ ब्राह्मण क्षत्रिय,
वैश्य एवं शुद्र के ] अपने कर्मों का लोप हो जायगा ।। १५ ।।
कन्या विक्रयिणश्चैव वेदविक्रयिणो
द्विजाः ।
म्लेच्छाचाररता लोके
म्लेच्छभाषाविशारदाः ।। १६ ।।
लोग कन्या को बेच देने वाले होंगे
और ब्राह्मण वेद का विक्रय करेंगे । लोक में जन म्लेच्छों के आचार में रत रहेंगे
और वे म्लेच्छभाषा के पण्डित होंगे ।। १६ ।।
म्लेच्छान्नपानपुष्टाङ्गा
धर्मकर्मविनिन्दकाः ।
स्वाहास्वधाविरहिताः
शिश्नोदरपरायणाः ॥ १७ ॥
म्लेच्छों के अन्त से और उनके (
मदिरा आदि ] पेय द्रव्यों से पुष्ट अंगों वाले वे धर्म कर्म के विशेष रूप से
निन्दक ही होंगे। वे नित्य अग्निहोत्र और श्राद्ध आदि पितृ कृत्यों से भी विहीन
होंगे। वे एकमात्र उदर के पोषण एवं मैथुन में लिप्त रहेंगे ।। १७ ।।
परस्त्रीपरधनलोभाय हेतुवादपरायणाः ।
कलौ सर्वे भविष्यन्ति
सर्वधर्मविवर्जिताः ॥ १८ ॥
पराई स्त्री एवं पराए धन के लोभ के
लिए 'हेतुवाद' [तर्क द्वारा अवसरवादिता] में रत रहेंगे ।
इस प्रकार कलियुग में सभी लोग सभी धर्मों से विहीन होंगे ।। १८ ।।
ब्रह्मवादः कलियुगे गेहे गेहे जने
जने ।
असम्भाव्यमिवाभाति ममैतत्सुरपूजित ॥
१९ ॥
इस प्रकार कलियुग में ब्रह्मवाद
घर-घर एवं जन-जन में होगा। हे देवताओं से पूजित ! हमें तो यह असम्भावित ही सा लगता
हैं ।। १९ ।।
कलावपि महापापे प्रवृत्तं
ब्रह्मकीर्तनम् ।
तत्कथं धर्मलोपाय लोकानां मेऽत्र
विस्मयः ॥ २० ॥
विचार्य ब्रूहि मे देव कृपया
करुणानिधे ।
महान् पापात्मक कलि में भी जब
ब्रह्म के प्रतिपादन में लोग प्रवृत्त होंगे तो फिर धर्म का लोप कैसे सम्भव होगा-
मुझे यही सन्देह हो रहा है। हे देव हे करुणानिधान ! आप सोच विचार कर मेरे सन्देह
की निवृत्ति करें।२०-२१।।
शिव उवाच -
साधु पृष्टं त्वया भद्रे
सर्वलोकैकहेतवे ।। २१ ।।
तदहं ते प्रवक्ष्यामि
शृणुष्वैकाग्रमानसा ।
यस्य श्रवणमात्रेण धर्मश्रद्धा
प्रजायते ॥ २२ ॥
शिव ने कहा- हे भद्रे ! तुमने सभी
लौकिक जनों के कल्याण लिए अच्छा प्रश्न किया है। तुमको मैं वह कहता हूँ जिसके श्रवणमात्र से धर्म में श्रद्धा उत्पन्न
हो जाती है । उसे तुम एकाग्र मन से सुनो ।। २१-२२ ।।
पुरा
द्वादशवार्षिक्यामनावष्टयामनम्भसि ।
दवाग्न्यर्क विनिर्दग्धवन
कन्दादिसम्पदि ॥ २३ ॥
प्राचीनकाल में एक बार बारह वर्षों
का अकाल पड़ा। जल की वर्षा हुई ही नहीं। दवाग्नि और सूर्य से वन की कन्द-मूल आदि
सम्पदा भी दग्ध हो गई ।। २३ ।।
क्षत्तृटपरीता वे काचित्प्रजा
गिरिगुहाश्रिताः ।
परस्परं भक्ष्यमाणा मम्रिरे व्याधिकविताः
।। २४ ।।
भूख और प्यास से सन्तप्त कुछ
प्रजाजन गिरि की गुफा में चले गए, और परस्पर एक
दूसरे की खाते हुए व्याधि से दुःखित होकर मर गए ।। २४ ।।
गौतमस्याश्रमे रम्ये
तपतीतीरसंस्थिते ।
क्षुधार्ता ब्राह्मणाः प्राप्ता
देहनिर्वाहकाम्यया ।। २५ ।।
तपती नदी के तीर पर अवस्थित होकर
गौतम के आश्रम पर क्षुधा से आर्त ब्राह्मणगण शरीर निर्वाह की कामना से आए ॥ २५ ॥
अलक्षन् गौतममुनि शिष्यराशिपरिवृतम्
।
ब्रह्मतेजः प्रभावेन ज्वलन्तमिव
पावकम् ।। २६ ।।
अन्नान्युत्पाद्य तपसा पुष्णन्तं
शिष्यसंहृतिम् ।
प्रणेमुर्ब्राह्मणाः सर्वे निवद्धकरसम्पुटाः
॥ २७ ॥
शिष्यों आदि से घिरे हुए गौतम मुनि
को देखकर प्रज्ज्वलित अग्नि के समान ब्रह्म तेज के प्रभाव से शिष्यों की सहायता से
अन्नों का उत्पादन करने वाले तप से पुष्ट मुनि को सभी ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर
प्रणाम किया ।। २६-२७ ॥
ब्राह्मणा ऊचुः-
त्राहि त्राहि मुने प्राप्तान्
शरण्यान् शरणप्रद ।
जाठरेणाग्निना तप्ता वयं सर्वे
द्विजातयः ॥ २८ ॥
ब्राह्मणों ने कहा- हे मुनि ! आपकी शरण में आए हुए हम लोगों को शरण दीजिए। हम सभी ब्राह्मणजन जठराग्नि [भूख] से संतप्त हैं ।। २८ ।
अलभ्य कन्दमूलादि निर्जले
क्षितिमण्डले ।
न प्रवर्त्तन्त एवेह क्रिया
निगमचोदिताः ॥ २९ ॥
इस जलविहीन भूमितल पर कन्दमूल आदि
भी नहीं प्राप्त हैं। अत: वेद से विहित क्रियाओं को भी हम नहीं संपादित कर पा रहे
हैं ॥ २९ ॥
अन्नं वे प्राणिनां प्राणाः
प्राणदोन्न ददाति यः ।
तस्मादन्नप्रदानेन प्राणदो नः पिता
भवान् ॥ ३० ॥
अन्न ही प्राणियों का प्राण है अतः
प्राणदायक अन्न को जो देता है उस अन्न प्रदान से प्राण देने वाले आप हमारे पिता ही
हैं ॥ ३० ॥
एकतः सकला धर्मा यज्ञाः
सर्वस्वदक्षिणाः ।
तपांस्युग्राणि दानानि व्रतानि
सुबहून्यपि ।। ३१ ।।
न तुलामधिगच्छन्ति ह्यन्नदानस्य वं
मुने ।
क्षत्पिपासे प्राणधमों क्षुधया
कृष्यते वपुः ।। ३२ ।।
सभी धर्म और यज्ञों की सभी दक्षिणा
एक ओर ही रह जाती है। उग्र तप, बहुत से दानों
और बहुत से व्रत भी, हे मुने ! अन्नदान से अधिक नहीं ही होते
। भूख और प्यास तो प्राण के धर्म हैं। क्षुधा से शरीर दुर्बल हो जाता है ।। ३१-३२
।।
वपुः कार्ये चेन्द्रियाणि कवितानि
भवन्ति वै ।
म्लानेन्द्रियमनोवृत्तेः विवशित्वं
प्रपद्यते ।। ३३ ।।
शरीर के दुर्बल पड़ जाने पर
इन्द्रियाँ भी कमजोर हो जाती हैं और पुरुष म्लान इन्द्रियों से मन की वृत्तियों के
वश में पड़ जाता है ।। ३३ ॥
मनोम्लानो बुद्धिलयस्ततो ध्यानं
निवर्तते ।
अध्यायतः कुतः स्वात्मानुभूतिर्भवति
प्रभो ॥ ३४ ॥
वस्तुतः मन के म्लान होने से बुद्धि
ही भ्रष्ट हो जाती है । अतः बुद्धि के लय के कारण ध्यान नहीं होता है । अतः हे
प्रभो ! विना ध्यान के स्वात्मानुभूति कैसे सम्भव है ?
॥ ३४ ॥
तस्मादन्नेन सदृश दानं नास्ति
जगत्त्रये ।
म्लानेन्द्रियमनोवृत्तेः क्षुधया
पीडितस्य च । ३५ ।।
अन्नाभिकाङ्क्षिणो येन प्राणतृप्तिः
कृता मुने ।
तेन दत्तं हुतं जप्तं तपस्तप्तं शुभ
कृतम् । ३६ ।।
इसलिए तीनों लोकों में अन्न दान सह
कोई भी दान नहीं है । म्लान इन्द्रिय रूप मनोवृत्ति से और क्षुधा से सन्तप्त अन्न
की आकांक्षा वाले पुरुष को, हे मुने ! जिससे
प्राण की तृप्ति हो और दिया हुआ, हुत, जप,
तप, शुभ हो वैसा कीजिए।।३६।।
पृथ्वी रत्नेन सम्पूर्णा तेन दत्ता
द्विजातये ।
तस्यैव ज्ञानससिद्धिर्भवतीति श्रुतं
हि नः ॥ ३७ ॥
यह सम्पूर्ण पृथ्वी रत्न से भरी है
अतः उसे द्विजाति को देना चाहिए। उसी से ज्ञान की सम्पक रूप से सिद्धि होती है ऐसा
हमने सुना है ॥ ३७ ॥
किमन्यज् ज्ञाप्यते तुभ्यं
सर्वज्ञाय मुनीश्वर ।
तथाविधेद्यांग तूर्णं यथा नः प्राणधारणा
।। ३८ ।।
हे मुनियों में ईश्वर,
आप सर्वंश के लिए क्या कुछ ज्ञान कराने योग्य हैं ? इसलिए आप शीघ्रातिशीघ्र वैसा ही करें, जिससे प्राण
को धारणमात्र हो जाये ।। ३८ ।।
शरीरमूलमन्नं हि धर्ममूलमिदं वपुः ।
चित्तशुद्धी विशेषेण धर्म एव हि
कारणम् ।। ३९ ।।
वस्तुतः शरीर का मूल अन्न ही है और
धर्म का मूल शरीर ही है और विशेष रूप से चित्त को शुद्धि में धर्म ही एकमात्र कारण
है ।। ३९ ।।
भक्तिर्ज्ञानं च वैराग्य शुद्धचित्तस्य
जायते ।
सर्वार्थसाधनं
तस्माच्छरीरमिदमुच्यते ॥ ४० ॥
शुद्ध हुए चित्त वाले व्यक्ति से ही
भक्ति,
ज्ञान और वैराग्य संपादित होता है । इसलिए हे मुने ! यह शरीर ही सभी
[अलौकिक या लौकिक अर्थ की सिद्धि का एकमेव साधन कहा गया है ॥ ४० ॥
पुनर्ग्रामं पुनवत्तं पुनः क्षेत्रं
पुनर्गृहम् ।
पुनः शुभाशुभं कर्म न शरीरं पुनः
पुनः ॥। ४१ ।।
इस लोक में फिर से ग्राम हो सकते
हैं,
पुनः धन की प्राप्ति सम्भव है, पुनः खेत बनाए
जा सकते हैं और घर भी फिर से बन सकता है। पुनः शुभ अथवा अशुभ- कर्म तो कर सकते है
किन्तु शरीर पुनः पुनः नहीं बनाया जा सकता है । ४१ ।।
शरीररक्षणायासः कर्त्तव्यः सर्वथा
बुधः ।
नहोच्छन्ति तनुत्यागमपि
कुष्टादिरोगिण: ।। ४२ ।।
इसलिए इस शरीर की रक्षा का प्रयत्न
विद्वान् व्यक्ति को अवश्यमेव करना चाहिए। क्योंकि इस शरीर को तो कोई कुष्ठ आदि
रोग से पीड़ित कुरूप व्यक्ति भी छोड़ना नहीं चाहता ॥ ४२ ॥
तद्गोपितं स्याद्धर्मार्थं धर्मो
ज्ञानार्थमेव च ।
ज्ञानं तु ध्यानयोगार्थमचिरात्तेन
मुच्यते ॥ ४३ ॥
इसलिए धर्म के लिए इस शरीर की
सुरक्षा करनी चाहिए और धर्म ( दिखावे के लिए नहीं अपितु ) मात्र ज्ञान के लिए करना
चाहिए। ध्यानयोग के लिए ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए। उसी ध्यान योग को चिरकाल तक
करने से ही मुक्ति प्राप्त होती है ॥ ४३ ॥
तपः प्रभावमास्थाय पाहयस्मान्
कृपणानिह ।
इत्येवं वचनं तेषां ब्राह्मणानां
तपोधनः ।। ४४ ।।
मुने! तप के प्रभाव से आप हम कृपणों
एवं दीनजनों की रक्षा कीजिए । इस प्रकार के उन तपोधन ब्राह्मणों के क्षुधा से आर्त
हुए दीन वचनों को सुनकर गौतम मुनि अत्यन्त करुणा से आद्र हो गये ।। ४४ ।
दीनानां क्षुधार्त्तानां निशम्य
करुणोऽभवत् ।
गौतम उवाच -
साधु साधु महाप्राज्ञा
म्याय्यमेतद्वचो हि वः ।। ४५ ।।
गौतम मुनि ने कहा- साधु,
साधु, हे महान् प्रज्ञावान् ब्राह्मणों आपके
ये वचन निश्चित ही न्यायोचित एवं युक्तियुक्त हैं ।। ४५ ।।
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं देह
उच्यते ।
रक्षितव्यः प्रयत्नेन तस्माद्देहो
मुनीश्वराः ।। ४६ ।।
वस्तुतः यह शरीर ही धर्म,
अर्थ, काम एवं मोक्ष का साधन कहा गया है। इसलिये,
हे मुनीश्वरों ! इसकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये ॥ ४६ ॥
देहत्यागं न चेच्छन्ति ये भक्ता ये
च साधकाः ।
महापापादिभिलिप्तः सर्वकर्म
विनिर्गतः ॥ ४७ ॥
वस्तुतः जो साधक हैं और जो भक्त जन
हैं,
वे कभी भी इस अलभ्य शरीर के त्याग की इच्छा भी नहीं करते हैं। शरीर
त्याग के लिये तो [प्रायश्चित स्वरूप में ] उसे सोचना चाहिये जो महान् पापादिकों
में लिप्त हैं अथवा जो सभी कर्मों से विशेष रूप से विहीन है ॥ ४७ ॥
पृथिवीभारभूतो यो देहस्त्याज्यः स
एव हि ।
पितृदेवातिथीनां च कर्मणि यः
सुपुण्यकृत् ॥ ४८ ॥
ये पृथ्वी के लिये भार ही हैं और वे
ही देह त्याग करने के योग्य हैं। जो श्राद्धादिकपितृ कार्य और अतिथियों के सत्कार
में रत हैं वे सुन्दर पुण्य करने वाले हैं ।। ४८ ।।
ईश्वर ध्यानयोग्यश्च स कथं
त्यागमर्हति ।
कर्मणापि निषिद्धेन देहः पोष्य इहा
यदि ।। ४९ ।।
इसलिए ईश्वर के ध्यान के योग्य वे
पुण्यवान् जन कैसे शरीर त्याग के योग्य हो सकते हैं ?
निषिद्ध कर्मों के द्वारा भी यदि हो सके तो यह शरीर पोषण के योग्य ही
है ।। ४९ ।।
दग्ध्वा तानि पुनः सोऽयं नयते हि
गति पराम् ।
यावद्देहस्थितिर्लोके तावत्कुशलमाचरेत्
।। ५० ॥
वह पुनः उन्हें जलाकर इस श्रेष्ठ
गति को ही प्राप्त करते हैं। अतः इस लोक में जब तक शरीर की स्थिति रहे तब तक कुशल
पूर्वक ही जीना चाहिये ।। ५० ।
जलबुद्बुदतुल्योऽयं यस्मादेषो
विनश्वरः ।
अस्थिरेण शरीरेण स्थिरधर्मं
समाचरेत् ॥ ५१ ॥
यद्यपि यह शरीर जल के बुलबुले के समान
विशेष रूप से नश्वर ही है इसलिये तो उसे इस अस्थिर शरीर से स्थिर धर्म का आचरण
करना चाहिये ॥ ५१ ॥
सर्वं ब्रह्ममयं पश्यन् मुच्यते
मोहसङ्कटात् ।
स चाहं तपसा तस्मात्करिष्ये वः
समीहितम् ।। ५२ ।।
सभी चराचर जगत् को ब्रह्ममय देखते
हुये वह धर्मात्मा व्यक्ति मोह जाल रूप महान् सङ्कट से छूट जाता है। अतः जो कुछ हो
सके वह तपस्या से मैं आप- लोगों के लिये उपलब्ध कराऊँगा ।। ५२ ।
विज्वराः सन्तु भो विप्राः
स्वस्वकर्मण्यतन्द्रिताः ।
धन्यस्य कृतपुण्यस्य
द्वार्यांयान्त्यथिनो जनाः ।। ५३ ।।
अतः हे विप्र ! अपने-अपने कर्मों
में अतीन्द्रिय आप सब विगत ज्वर होवें । क्योंकि पुण्यवान् और धन्य लोगों के ही
द्वार पर अत्यन्त क्षुधार्तजन आते हैं ॥ ५३ ॥
तेन सम्भावनीयास्ते प्राणैरपि
धनैरपि ।
पञ्चभूतात्मको देहस्वनित्यः
क्षणभङ्गुरः ।। ५४ ॥
इसलिये प्राणों और धनों से भी अधिक
वे सम्भावनीय हैं। वस्तुतः यह पश्च-भूतात्मक शरीर तो अनित्य और क्षणभर में ही नष्ट
हो जाने वाला है ॥ ५४ ॥
अवश्यं नाशमायाति कीर्तिधमों न
सर्वथा ।
भूतद्रोहं परित्यज्य दया भूतेषु नो
धृता ।। ५५ ।।
किन्तु अवश्य ही,
कीर्ति और धर्म सर्वथा नष्ट नहीं होते । इसलिये प्राणियों से द्रोह
का त्याग करके हमें प्राणियों पर दया करनी चाहिये ।। ५५ ।।
नोपाजितोऽपि सद्धर्मः स्फारितं न
यशो भुवि ।
नात्मा विमर्शितः शुद्धो
वेदविद्भिश्च साधुभिः ।। ५६ ।।
इस पृथ्वी पर उपार्जित सद्धर्मं भी
यश का विस्तार नहीं करता । वेद वेत्ता और सज्जनों के द्वारा भी आत्मा शुद्ध और
निर्मल नहीं की जा सकती ।। ५६ ।।
भूमिभराय तज्जन्म जीवन्नेव मृतो हि
सः ।
तस्मात्तपोष्ययेनाहमथिनां वो
मुनीश्वराः ॥ ५७ ॥
परिचर्या करिष्ये यथा
स्याद्देहधारणा ।
इत्युक्त्वा गौतमस्तान् वै दानमानार्हणादिभिः
॥ ५८ ॥
सम्भावयामास तदातिथ्यागमनहर्षितः ॥ ५९
॥
उसका जन्म तो पृथ्वी के लिये मात्र
भारस्वरूप ही है और वह तो जीते हुये भी मृत के समान है। इसलिये न खर्च होने वाले
तप से,
हे मुनीश्वरों, क्षुधा से अति दीन आप के शरीर
का जैसे धारण हो सके वैसी में परिचर्या करूंगा। ऐसा कहकर गौतम ऋषि ने अतिथ्य
प्राप्त करने आये हुए उन ब्राह्मणों से हर्षित होकर उनकी दान, सम्मान एवं जरुरत की वस्तुओं के द्वारा रक्षा की । ५७-५९ ।।
॥ इति श्रीपञ्चरात्र श्री
माहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे शिवोपासंवादे सप्तदशं पटलम् ॥ १७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के सत्रहवें पल को डॉ० सुधाकर मालवीयकृत
'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १७
॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 18

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