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माहेश्वरतन्त्र पटल १८

माहेश्वरतन्त्र पटल १८         

माहेश्वरतन्त्र के पटल १८ में गौतम मुनि द्वारा विप्रों का सम्मान एवं अन्नदान से आश्रम में ही रोक रखने की कथा, माया निर्मित गाय और गौतम द्वारा विप्रों को शाप की कथा, पाखण्डी एवं कृतघ्न ब्राह्मणों का निरूपण का वर्णन है।  

माहेश्वरतन्त्र पटल १८

माहेश्वरतन्त्र पटल १८            

Maheshvar tantra Patal 18

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १८             

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र अष्टादश पटल

अथ अष्टदश पटलम्

शिव उवाच-

एवं सम्भावितास्तेन मुनिना मुनयस्तदा ।

असम्बाधे शिवे तस्मिन्नाश्रमे न्यवसन्सुखम् ॥ १ ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा- इस प्रकार उन गौतममुनि के द्वारा उन मुनियों को अपनी क्षत्र छाया में ले लेने के बाद तब उन गौतम मुनि के उस विघ्नरहित एवं शुभ आश्रम में उन ब्राह्मणों ने सुख से निवास किया ।। १ ।।

प्रातरुप्तानि मध्याह्न परिणामं गतानि च ।

अन्यान्यपरभागे तु तंमुंळे निस्तानजीवयत् ॥ २ ॥

उन गौतम मुनि ने प्रातः उठकर मध्याह्न में और दिन ढलने तक तथा अन्य और भी अपर भाग में उन ब्राह्मणों को जिलाया ॥ २ ॥

हन्यदेवान् पितृन्कव्यैस्तर्पयन्तो मुनीश्वराः ।

ततः शेषामृतभुजो निन्युस्तेऽहर्गणान् बहून् ।। ३ ।

उन मुनियों ने भी हव्यों से देवों को और पितरों को कव्यों से तृप्त किया। फिर शेष बचे अमृत रूप भोजन से अपने को तृप्त करते हुए बहुत दिनों तक सुख से समय बिताया ॥ ३ ॥

ततो द्वादशवर्षान्ते वृष्टिरासीत्सुशोभना ।

साकुरा सजला पृथ्वी पुनरासीद्यथा पुरा ॥ ४ ॥

इसके बाद बारहवें वर्ष के अन्त में खूब वृष्टि हुई। पृथिवी जैसे पहले थी वैसे ही जल युक्त तथा अन्न के अंकुरों से युक्त हो गई ।। ४ ॥

प्रजाः स्थानानानि भेजुस्ताः पूर्वं गिरिगुहाशयाः ।

अन्नादिविरहान्नष्टो धर्मः प्रावर्तत प्रिये ॥ ५ ॥

पहले जो प्रजा गिरि के गुफाओं में चली गई थी वह भी अपने स्थानों पर आ गई। हे प्रिये ! अन्न आदि के अभाव में बन्द हुए धर्म कार्य पुनः होने लगे गए । ५ ।।

क्षितिरन्नादिसम्पूर्णा विश्वमासीत्सुमङ्गलम् ।

ततः कतिपये काले गन्तुकामाः मुनीश्वराः ॥ ६ ॥

सम्पूर्ण पृथ्वी अन्नादि से पूर्ण हो गई समस्त विश्व में सुन्दर मङ्गल हो गया । तब कुछ काल के बाद उन मुनि गणों ने जाने की इच्छा व्यक्त की ।। ६ ।।

प्रेमबद्धोऽन्वहं विप्रान्न्येषधद्विरहाक्षमः ।

निषिद्धाः कतिचिन्मासान् न्यवसंस्ते मुनीश्वराः ॥ ७ ॥

प्रेम से आबद्ध एवं विरह सहने में असमर्थ मुनि ने उन विप्रों को नित्य जाने से रोका । उनके इस आग्रह को वे टाल न सके। इस प्रकार उनसे रोके गए वे मुनि गण कुछ और महीनों तक वहाँ रहे ॥ ७ ॥

पुनः पप्रच्छुरौत्सुक्यात्स्वस्वाश्रमगति प्रति ।

नेत्याह गौतमो विप्रान् विरहव्यथितो भृशम् ॥ ८ ॥

बारम्बार मुनियों ने बड़ी उत्सुकता से अपने-अपने आश्रमों को जाने के लिए गौतम मुनि से पूछा । किन्तु विरह से व्यथित होने की आशंका से गौतम मुनि ने पुनः पुन उन विप्रों को नहीं ही कहा ॥ ८ ॥

ततस्ते कृतसङ्केताः केचित्तेष्वपि वाडवाः ।

ऊचुः परस्परं येन मुनित्यागः कथं भवेत् ॥ ९ ॥

इसके बाद उनमें से कुछ ब्राह्मणों के दल ने एक सूझ का संकेत दिया। परस्पर एक दूसरे से वे कहने लगे कि आखिर मुनि का आश्रम से हम लोगों का जाना कैसे हो ? ।। ९ ।।

निःस्नेहवशाद्बद्धः स्वयमस्मान्न सन्त्यजेत् ।

अस्माभिस्त्यज्यते सोऽयं तथा कुर्वध्वमादृताः ॥ १० ॥

मुनि तो स्नेहवश हमलोगों से आबद्ध है । अतः वे स्वयं हमें नहीं जाने देंगे । इसलिए हम लोग ही उन्हें छोड़ देवें ऐसा कार्य हमें करना चाहिए ॥१० ॥

विमर्षतस्तथान्योऽन्यमुपायं मनसागमन् ।

अभिषापं मुनी धृत्वा गमिष्यामो यथारुचि ॥ ११ ॥

एक दूसरे से इस प्रकार विचार विमर्श करने पर उनके मन में एक उपाय सुझा कि मुनि का अभिशाप धारण करके ही हमें यथारुचि यहाँ से चले जाना चाहिये ॥ ११ ॥

ते देवनिहताः सर्वे परस्परममन्त्रयन् ।

कदाचिदथ मध्याह्न कर्तुं मध्याह्नकी क्रियाम् ॥ १२ ॥

ऋषिसङ्घैः परिवृतो जगाम तपतीं प्रति ।

निर्मितां मुनिभिर्धेनुं जरठामतिवेपतीम् ।। १३ ।।

वे देव के मारे सभी ब्राह्मण परस्पर एक दूसरे से मन्त्रणा करने लगे। फिर किसी समय मध्याह्न की क्रिया करने के लिए ऋषियों के सङ्घों से घिरे हुए गौतम ऋषि तपती नदी के तट की ओर गए । वहाँ पर उन्होंने मुनियों के द्वारा मायानिर्मित अत्यन्त कृशकाय एवं वृद्ध गौ को काँपते हुए देखा ।। १२-१३ ।

सीदन्ती कलिले वीक्ष्य गौतमः करुणोऽभवत् ।

आसाद्य सुरभेः पाश्वं यावत्तामस्पृशन्मुनिः ॥ १४ ॥

तावत्पपात सहसा मायाधेनुमृति गता ।

तद्दृष्ट्वा मुनयः प्रोचुधिग्धिक गौतम ते कृतिम् ।। १५ ।

कीचड़ में फँसा हुई गौ को देखकर गौतम ऋषि अत्यन्त करुणा से आद्र हो गए। उस गाय के पास आकर ज्योंहि उन मुनि ने उसका स्पर्श किया कि वह मायानिर्मित गौ सहसा गिर पड़ी और मर गई ।। १४-१५ ।।

हिसिता घेतुरबला किमतो निन्दितं भवेत् ।

अद्य प्रभृति ते द्वारि जलमात्रार्थिभिर्नरैः ॥ १६ ॥

उस गौ को मरा देखकर मुनियों ने कहा- हे गौतम! धिक्कार हैं, धिक्कार है, यह आपका कृत्य उचित नहीं है । अरे आपने इस अवला गो को मार डाला। यह तो बड़ा ही निन्दित कर्म है। आज से आपके द्वार पर पुरुष जल भी ग्रहण नहीं करेंगे ।। १६ ।।

न स्थातुमर्हाः किं कुर्मो गमिष्यामो वयं ततः ।

एवमुक्तो मुनिर्ध्यात्वा तत्कृतानर्थमाप सः ।। १७ ।।

अब हम लोग भी यहाँ ठहरने के योग्य नहीं रहे। अतः हमलोग क्या करें ? अब हम लोग अपने-अपने आश्रमों पर चले जायेंगे। इस प्रकार उनके कहने पर गौतम मुनि ने ध्यान करके उनके अनर्थ कृत्य को जान लिया ।। १७ ।।

उवाच वचनं क्रुद्धो ज्वलन्निव हुताशनः ।

वेदवह्या भविष्यध्वं कृतघ्नाः स्वेन कर्मणा ॥। १८ ।।

उन्होंने अग्नि की ज्वाला के समान उन पर क्रोधित होकर इस प्रकार वचन कहें- अपने ही कर्म से कृतघ्न आप सब वेद से तिरस्कृत हो जायेंगे ।। १८ ।।

वेदब्राह्मण गोमन्त्रनिन्दावादपरायणाः ।

कलौ भविष्यथो मूढाः ब्रह्मवादपरायणाः ।। १९ ।।

आप सभी कलियुग में वेद, ब्राह्मण, गो एवं मन्त्र की निन्दा में परायण रहेंगे । आपकी आस्था इनसे हट जायगी। आप सब मूर्ख होकर ब्रह्मवाद ( अहं ब्रह्मास्मि आदि वेदान्त वाक्यों) में परायण रहेंगे ॥ १९ ॥

अन्तर्दुष्टा बहिः स्वच्छा हेतुवादपरायणाः ।

ब्रह्मज्ञत्वाभिमानेन धर्मकर्म बहिर्मुखाः ॥ २० ॥

आप कृतघ्न ब्राह्मण अन्दर से दुष्ट प्रकृति के और बाहर से स्वच्छ दिखने वाले तर्कशास्त्र में परायण होंगे । ब्रह्मज्ञानी होने के अभिमान में आप सब धर्म एवं कर्म से बर्हिमुख होंगे ॥ २० ॥

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्यनुवादविचक्षणाः ।

मिथ्यात्वाज्जगतः किं स्यात्कर्मभिश्च शुभाशुभैः ।। २१ ।।

'ब्रह्मसत्य' है और जगत् मिथ्या है'- इस वेदान्त वाक्य का मात्र अनुवाद करने में वें परायण रहेंगे । जगत् के मिथ्या होने से शुभ या अशुभ कर्मों से क्या लेना देना ? इस प्रकार उनकी बुद्धि मूढ़ हो जायेगी ॥ २१ ॥

इत्येवं नास्तिका मूढा दुहुँदा वेदनिन्दकाः ।

ब्रह्मवादविलासोत्थेर्वचनं भवगवितेः ।। २२ ॥

इस प्रकार से नास्तिक, मूर्ख, दुष्ट हृदय और वेदनिन्दक ब्राह्मण हो जायेंगे । ब्रह्मवाद में सराबोर एवं भावगर्वित वचनों से वे अभिमानी बने रहेंगे ।। २२ ।।

साधुवेषेण शिक्षाभिः प्रियवाक्यामृतादिभिः ।

एतेर्जवनिकाकारैः पापमावृत्य केवलः ॥ २३ ॥

सांघु के वेष में शिक्षाओं द्वारा तथा अमृत सदृश प्रिय वाक्यों द्वारा लोगों को एक नट की तरह पाप से आवृत होकर वे ठगेंगे ॥ २३ ॥

ज्ञानित्त्वमात्मनो लोके ख्यापयन्तो दुराशयाः ।

यूयं वैडालिनो लोके भवन्तु चरमे युगे ॥ २४ ॥

ये दुराचारी लोक में अपने ज्ञानी होने की प्रसिद्धि करने के फेर फार में ही व्यस्त होंगे । इस प्रकार आप सभी कृतघ्न ब्राह्मण लोक में कलियुग में वैडाल वृत्ति( == बिल्ली की तरह घोखा देकर छोना-झपटी करने ) वाले होंगे ॥ २४ ॥

न तु वो वास्तवं ज्ञानमुदेष्यति कदाचन ।

इति गौतमशप्तानां धर्मच्छेदोद्यमे ततः ॥ २५ ॥

वासना समभूत्तेषां गौतम प्रतिकुर्वताम् ।

अथ तद्वासनायुक्ताः कलौ पापयुगे शठाः ॥ २६ ॥

आप कृतघ्नों में कभी भी वास्तविक ज्ञान का उदय नहीं होगा। इस प्रकार गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त हुए वे उसके ही बाद से धर्म के ही उच्छेद में बुद्धि लगाने वाले हो गए । गौतम के प्रति जैसी कृतघ्नता उन्होंने की थी वैसी शठ बुद्धि वाले के ब्राह्मण इस पाप युक्त कलियुग में उनके शाप से उत्पन्न हुए ।। २५-२६ ।

अवतीर्यं क्षितितले' ब्रह्मसृष्टिमुपाश्रिताः।

वेदशास्त्रविरुद्धानि ह्याचरन्तीह पामराः ॥ २७ ॥

ये पामर ब्राह्मण पृथ्वी पर आकर ब्रह्मसृष्टि के आश्रित होकर भी वेदशास्त्र के विरुद्ध कर्मों का आचरण करने लग गए ॥ २७ ॥

द्विषन्त्याचारमास्तिक्यं यज्ञव्रततपांसि च ।

दुहन्त्यन्योऽन्यमासाद्य नष्टज्ञाना विचेतसः ॥ २८ ॥

ये आचारवान, आस्तिक एवं यज्ञ, तप तथा व्रतों के करने वाले लोगों से द्वेष करने लग गए। ज्ञान के नष्ट हो जाने से और बुद्धि के विपरीत होने से ये एक दूसरे के पास आकर द्रोह करते हैं ॥ २८ ॥

परद्रव्यपरद्रोहपरस्त्रीगमनोत्सुकाः ।

तत्सम्बन्धात् ब्रह्मसृष्टिर्मालिन्यमुपयास्यति ।। २९ ।।

ये कृतघ्न परद्रव्य, परद्रोही तथा परस्त्रीगमन में उत्सुक रहते हैं । इनके सम्बन्ध से ब्रह्मसृष्टि में मालिन्य आ जायगा।।२९।।

यथा कालिमसम्बन्धात् स्फटिकोऽपि मलीमसः ।

आभाति तद्वदेवेयं ब्रह्मसृष्टिस्तदाश्रयात् ।। ३० ।।

जैसे कालिख के सम्बन्ध से स्फटिक भी मैला हो जाता है वैसे ही इन कृतघ्नों के सम्बन्ध से ब्रह्मसृष्टि भी मलिनता को प्राप्त करेगी ॥ ३० ॥

तस्माद् बुभुत्सुभिः साध्वि त्याज्यो वैडालिकाश्रयः ।

समधर्मक्रियाछद्मधारिणस्ते तु कीर्तिता ।। ३१ ।।

इसलिए, हे साध्वि ! कृष्ण भक्त-साधक को इन विडाल वृत्ति वाले कृतघ्नों से दूर रहना चाहिए। वे धर्म कर्मों में छद्य वेष धारण करने वाले कहे गए हैं ॥ ३१ ॥

अन्येऽपि सन्ति पाषण्डा आसुरं भावमाश्रिताः ।

तेऽपि निन्दन्ति पापिष्ठा वेदधर्मं पुरातनम् ।। ३२ ।।

अन्य भी पाखण्डी और आसुरी (मांस-मदिरा आदि तामसी) प्रकृति के ब्राह्मण हैं। वे पापिष्ठ भी पुरातन वेद धर्म की निन्दा करते हैं। उन्हें छोड़ देना चाहिए ।। ३२ ।।

तांस्ते ब्रवीमि सङ्क्षेपात् शृणुष्वेकाग्रमानसा ।

यत् शृण्वतां न पाखण्डो बुद्धि मोहयति क्वचित् ॥ ३३ ॥

पाखण्डी कृतघ्न ब्राह्मण कौन से हैं उन्हें में संक्षेप से कहता हूँ । हे देवि ! आप एकाग्रमन से सुने। जिसके सुनने से कभी भी पाखण्ड में बुद्धि मोहित नहीं होती है ॥ ३३ ॥

पूरा देवासुरयुद्धे निर्जितेष्वसुरेष्वथ ।

पाखण्डाधिकृताः सर्वे ह्येते सृष्टाः स्वयम्भुवा ।। ३४ ।।

प्राचीन काल की बात है कि देवों और असुरों के युद्ध में जब असुर लोग देवों के द्वारा जीत लिए गए तो वे असुर पाखण्डियों के रूप में ब्रह्मा द्वारा सृष्ट हुए ॥ ३४ ॥

तपश्चरत्सु सर्वेषु असुरेषु जयार्थिषु ।

विष्णुः सुदुस्तरां मायामास्याय सुरनोदितः ॥ ३५ ॥  

मोहयामास योगात्मा तपोविघ्नाय तान्प्रभुः ।

स मूढान् बुद्धरूपेण तानुवाच महामनाः ॥ ३६ ॥

उन सभी विजय की आकाङ्क्षा वाले असुरों के तप करने से विष्णु ने सुन्दर किन्तु दुस्तर माया के द्वारा उन्हें मोहित कर लिया और उनके तप में विघ्न डालने के लिए बुद्ध रूप से उन महामना प्रभु ने उन मूर्खों से कहा ।। ३५-३६ ।।

शक्या जेतुं सुराः सर्वे युष्माभिरितिदर्शनैः ।

बौद्धधमं समास्थाय शक्यास्ते बभूविरे ॥ ३७ ॥

दर्शनों के द्वारा सभी देवता आप लोगों के द्वारा जीते जा सकते हैं। अतः आप सब बोद्ध धर्म में आस्थावान् होकर उन्हें जीत सकते हैं । बुद्ध भगवान् के ऐसा कहने पर वे बौद्ध धर्मावलम्बी हो गए ।। ३७ ।।

तानुवाचार्हतो मम यूयं भवत मद्विधाः ।

ज्ञानेन सहितं धर्मं ते चाहन्त इति स्मृताः ॥ ३८ ॥

अर्हत हुए उन्होंने उन (असुरों) से कहा- जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम सब हो जाओ । ज्ञान के सहित धर्म वाले वे 'अर्हत' कहलाए ॥ ३८ ॥

बौद्धश्रावक निर्ग्रन्थाः सिद्धपुत्रास्तथैव च ।

ऐते सर्वपि चान्तो विज्ञेया दुष्टचारिणः ।। ३९ ।।

बौद्धश्रावक, निर्ग्रन्थी (जैन सन्यासी), सिद्धपुत्र (जैनी) आदि दुष्ट बुद्धि बाले वे सभी 'अर्हन्त' के नाम से जाने गए ॥३९॥

त्रयीक्लेशं समुत्सृज्य जीवतेत्यब्रवीत्त् यान् ।

जीवकानाम ते जाताः सर्वधर्मबहिष्कृताः ॥ ४० ॥

जो असुर वेदनिन्दक होकर वेद छोड़ कर जीवित थे वे 'जीवत' सभी धर्मों से बहिष्कृत होकर 'जीवक' नाम अभिहित हुए ॥ ४० ॥

यान्त्वादित्यद्व्योम्ति धर्मान्वं प्रतिपादयत् ।

कापिलास्तेपि सम्प्रोक्ताः कपिलो हि दिवाकरः ।। ४१ ।

आदित्य के समान जो आकाश में धर्मों का प्रतिपादन करते थे वे 'कापिल' ( भूरे रंग के ) कहे गए क्योंकि दिवाकर कपिल हैं ॥ ४१ ॥

चरध्वं तानुवाचेदं मच्छासनमतिद्युति ।

चरकास्तेपि विज्ञेया अधर्मावारणाः शठाः ॥ ४२ ॥

हमारे शासन में बुद्धि रखकर 'चरध्वम्' (शासन मानों ) ऐसा उनसे विष्णु ने कहा । वे अधर्माचारी और शठ असुर 'चरक' नाम से अभिहित हुए ॥ ४२ ॥

दीर्घचरमिति प्रोक्त सूक्ष्म वा धर्मरूपकम् ।

धर्मचरध्वमित्युक्ता यस्मात्ते दीर्घचक्षुषः ॥ ४३ ॥

'दीर्घ आचरण करो' ऐसा धर्म का लक्षण सूक्ष्म रूप से कहा। धर्म का आचरण करो' ऐसा कहने से वे 'दीर्घचक्षु' कहलाए ? ( अर्थं अस्पष्ठ है ) ।। ४३ ।

चीराणि चैव नीलानि बिभ्राणाश्चीरकास्ततः ।

एषश्वोक्षोतिसंशुद्धो धर्मस्तं श्रयतेति यान् ॥ ४४ ॥

उवाच मायया विष्णुस्ते हि चौक्षाः प्रकीर्त्तिताः ।

विभक्षाश्चैव ये केचित् कपालकृतभूषणाः ।। ४५ ।

तथेतरे दुरात्मानः सर्वेप्यासुरदेवताः ।

बौद्धश्रावक निर्ग्रन्थाः सिद्धपुत्रास्तथैव च ॥ ४६ ॥

वे नील वस्त्रों को पहने थे । अतः वे चीरक' कहलाए। ये शुद्ध 'उक्ष' थे । जिनमें धर्म आश्रित था । अतः विष्णु की माया ने इस उक्ष असुरों को 'ओक्ष' रूप से प्रसिद्ध कर दिया। मांस आदि विष्ठाभोजी और कपालों को अपना आभूषण बनाने वाले पाखण्डी तथा अन्य दुरात्मा एवं आसुरी वृत्ति वाले वे सभी देवता बोद्ध सन्यासी और जैनो तथा जैन सन्यासी, आत्मा को न मानने वाले तथा कुत्सित ज्ञान वाले चार्वाक आदि कलियुग में रहेंगे और वे अधर्म में सदैव रत रहकर पुनः पुनः पैदा होते रहेंगे ।। ४४-४६ ।।

नैरात्म्यवादिनः सर्वे अपज्ञानास्तिवादिनः ।

वर्तमानास्त्वधर्मेषु जायन्ते तु पुनः पुनः ॥ ४७ ॥

निरय प्राप्य तैरेव कर्मभिर्भावितः पुनः ।

वृथा जटी वृथा मुण्डी वृथा नग्नाश्च ये नराः ॥ ४८ ॥

एतेऽन्ये च त्रयीबाहघाः पाखण्डाः पापचारिण: ।

पाशब्देन श्रयीधर्मः पालनाज्जगतः स्मृतः ।। ४९ ।।

तं खण्डयन्ति यस्मात्ते पाखण्डास्तेन हेतुना ।

यदि ह्यनादरेणैषां न कथ्येता प्रमाणता ॥ ५० ॥

अशक्येवेति मत्वान्ये भवेयुः समदृष्टयः ।

श्री मार्गस्य सिद्धस्य ये हयत्यन्तविरोधिनः ।। ५१ ।।

अनिराकृत्य तान् सर्वान् धर्मशुद्धिर्न लभ्यते ।

पाखण्डिनो विकर्मस्थान बंडालान् हेतुकांस्तथा ।। ५२ ।।

बकवृत्तांश्च यान् तान्वं वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ।

या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्व काश्च कुदृष्टयः ॥ ५३ ॥

सर्वास्त निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ते स्मृताः ।

वे नरक को प्राप्त कर अपने कर्मानुसार पुनः उत्पन्न होंगे। वे वृथा ही जटाधारी होंगे तथा वृथा ही सर मुड़वा लेंगे। ये वृथा ही नग्न रहने वाले और वेदत्रयी को न वाले अन्य पाखण्डी तथा पापाचरण करने वाले लोग पुन पुनः जन्म लेंगे । वस्तुतः 'पा' शब्द से वेदत्रयी के धर्मानुसार जगत् का पालन करना कहा गया है । वे उसका खण्डन करते हैं अतः वे पाखण्डी कहलाए। यदि अनादरपूर्वक वेद का प्रामाण्य न स्वीकार करे तो उन्हें अशक्य के समान समझकर अन्य में समदृष्टि रखनी चाहिए। त्रयी मार्ग के अत्यन्त विरोधी जो सिद्ध हैं उन सभी बौद्धों (और जैनों आदि) का बिना त्याग किए धर्म शुद्धि प्राप्त नहीं होती है। अतः उन पाखण्डी सन्यासियों को जो विकर्म में लिप्त हैं तथा विडाल ( नोंच खसोट कर खाने की) वृत्ति वाले हैं तथा जो कुतर्क करने वाले और जो बगुले के समान झपट कर खा जाने वाले हैं, व्यक्ति को कभी भी उनसे बात भी नहीं करना चाहिए। जो वेद से बाह्य स्मृति या कुदृष्टि वाले जो भी साहित्य हैं वे सभी निष्फल होकर अन्धकारमय जगत् की ही सृष्टि करते हैं। (अत: उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए ) ॥। ४७-५४ ।।

पुराणानि तथा सांख्यं योगः पाशुपतं तथा ॥ ५४ ॥

देशजातिकुलानां च धर्माश्चान्ये महत्तराः ।

सर्वे वेदाविरोधेन प्रमाणं नान्यथा भवेत् ॥ ५५ ॥

पुराण तथा सांख्य योग एवं पाशुपत ( शैव ) शास्त्र, देश, जाति एवं कुल तथा अन्य भी महान् धर्म सभी वेद से विरोध न रखने के कारण साधक के लिए प्रमाण हैं। वे अन्यथा नहीं होते ।। ५४-५५ ।।

या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः ।

सर्वास्ता निष्फलाः किश्व प्रत्यवायस्य हेतवः ।। ५६ ।।

जो वेद से विरोध रखने वाली स्मृतियाँ अथवा कुदृष्टि वाले चतुर चालाक व्यक्ति हैं, वे सभी निष्फल होते हैं और साधक के कार्य में बाधक होते हैं । (अतः उन्हें छोड़कर मात्र वेद सम्मत साहित्य एवं व्यक्ति से प्रयोजन रक्खे ) ।। ५६ ।।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन देवि देवेन्द्रवन्दिते ।

त्यक्त्वा वेदविरुद्धानि वेदमेकं समाश्रयेत् ॥ ५७ ॥

इसलिए, हे देवेन्द्रवन्दित देवि ! सभी प्रयत्न करके इन वेद विरुद्ध साहित्य को त्याग कर मात्र एक वेद की ही शरण लेनी चाहिए ॥ ५७ ॥

पुराणन्याय मीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः ।

वेदाः स्थानानि विद्यानां घर्मस्येति चतुर्दश ॥ ५८ ॥

पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र और उनके अन्य अंगों वाली चौदह विद्याएँ वेद सम्मत होने से साधक के लिए धर्म ही हैं । ( अतः उनका ही पठन पाठन करे ) ।। ५८ ।।

यथा वेदास्तथा तन्त्रं धर्मनिर्द्धारहेतवे ।

तदुक्तमाचरन् देवि ! भवपाशाद्विमुच्यते ।। ५९ ।।

जैसे वेद हैं वैसे ही तन्त्र शास्त्र भी धर्म निर्धारित करने में हेतु हैं । अतः हे देवि ! उनके आचरण से साधक भव-पाश ( माया मोह ) से मुक्त हो जाता है ।। ५९ ।।

अतोऽन्यथा प्रवर्तन्ते ये मूढाः पापबुद्धयः ।

असुरास्तान्विजानीहि विष्णुना मोहिताः पुरा ।। ६० ।।

अतः जो मूर्ख एवं पाप बुद्धि वाले जन बौद्ध-जैन आदि अन्यथा धर्म में प्रवर्तित हैं, उन्हें असुर ही जानना चाहिए, क्योंकि वे पहले विष्णु भगवान् द्वारा मोहित किए जा चुके हैं ॥ ६० ॥

ब्रह्मवादेषु वाचाला धर्मोच्छेदकतत्पराः ।

तेषां मुखावलोकेन कुर्यात्सूर्यावलोकनम् ॥ ६१ ॥

ब्रह्मचिन्तन में वाचाल और धर्म का उच्छेद करने वाले उन बौद्ध एवं जैनों का यदि दर्शन हो जाय तो सूर्य का अवलोकन करके ही साधक को शुद्ध होना चाहिए ।। ६१ ।।

तस्य संस्पर्शमात्रेण सवासा जलमाविशेत् ।

कलौ ते घोषयिष्यन्ति ब्रह्मवादं जने जने ।। ६२ ।।

यदि उनका स्पर्श हो जाय तो साधक वस्त्र सहित ( सचैल स्नान करे। क्योंकि ये ही जन कलिकाल में जन-जन में ब्रह्म चिन्तन की उद्घोषणा करेंगे ।

विमर्श - पहले प्रश्न किया गया था कि जब घर घर में ब्रह्मवाद होगा तो कैसे धर्म नष्ट हो जायगा ? उत्तर है कि बौद्ध-जैन आदि वेद विरुद्ध धर्मों से सनातन धर्म का लोप हो जायगा ।। ६२ ।।

इति मे कथितं देवि यत्त्वया पृष्टमुत्तमम् ।

समासेन महादेवि कि भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। ६३ ।।

हे देवि ! इस प्रकार जो आपने पूछा था उसे हमने आपसे संक्षेप में कहा है । हे महादेवि ! अब आप पुनः क्या सुनना चाहती हैं ? ।। ६३ ।।

इति श्री माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे अष्टादशं पटलम् ॥ १८ ॥

इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के अट्ठारहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १८ ॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 19

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