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अच्युत स्तुति

अच्युत स्तुति

अच्युत स्तुति भगवान् विष्णु को समर्पित ध्रुव रचित स्तुति हैं। यह श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश के अध्याय १२ श्लोक ५१-७३ में वर्णित है। इसके नियमित पाठ से रोगों से मुक्ति मिलती है, लंबी उम्र मिलती है और सभी पापों से मुक्ति मिलती है तथा अटलशान्ति की प्राप्ति होती है।

अच्युत स्तुति

अच्युत स्तुति:

Achyut stuti

ध्रुवकृत श्रीअच्युत स्तुति

ध्रुव उवाच

भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादि प्रकृतिर्यस्य रूपं नतोस्मि तम् ॥१,१२.५१ ॥

ध्रुव बोले - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन बुद्धि अहंकार और मुल प्रकृति - यें सब जिनके रूप हैं उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥५१॥

शुद्धः सूक्ष्मोखिलव्यापी प्रधानात्परतः पुमान् ।

यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणात्मने ॥ १,१२.५२ ॥

जो अति शुद्ध, सुक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधान से भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण भोक्ता परमपुरुष को मैं नमस्कार करता हूँ ॥५२॥

भूतादीनां समस्तानां गन्धादीनां च शाश्वतः ।

बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥ १,१२.५३ ॥

तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम् ।

प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वद्रूपं परमेश्वर ॥ १,१२.५४ ॥

हे परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तः करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष ( जीव ) से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिलब्रह्माण्डनायक के ब्रह्मभुत शुद्धस्वरूप आत्मा की मैं शरण हूँ ॥५३-५४॥

बृहत्त्वाद्बृंहणत्वाच्च यद्रूपं ब्रह्मसंज्ञितम् ।

तस्मै नमस्ते सर्वात्मन्योगिचिन्त्याविकारिणे ॥ १,१२.५५ ॥

हे सर्वात्मन ! हे योगियो के चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होने के कारण आपका जो ब्रह्मा नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूप को मैं नमस्कार करता हूँ ॥५५॥

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १,१२.५६ ॥

हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोवाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और ( पृथिवी आदि आवरणो के सहित ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाण से स्थित हैं ॥५६॥

यद्भूतं यच्च वै भव्यं पुरूषोत्तम तद्भवान् ।

त्वत्तौ विराट्स्वराट्सम्राट्त्वत्तश्चप्यधिपूरुषः ॥ १,१२.५७ ॥

हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत जो कुछ पदार्थ है वे सब आप ही हैं तथ विराट, स्वराट सम्राट और अधिपुरुष (ब्रह्म ) आदि भी सब आप ही से उत्पन्न हुए हैं ॥५७॥

अत्यरिच्यत सोधश्च तिर्यगूर्ध्वं च वै भुवः ।

त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तौ भूतं भविष्यति ॥ १,१२.५८ ॥

वे ही आप इस पृथिवी के नीचे ऊपर और इधर उधर सब और बढे़ हुए हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आप ही से उत्पन्न हुआ है तथा आप ही से भूत और भविष्यत हुए है ॥५८॥

त्वद्रूपधारिणश्चान्तः सर्वभूतमिदं जगत् ।

त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशुर्द्विधा ॥ १,१२.५९ ॥

यह सम्पर्ण जगत आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत है ( फिर आपके अन्तर्गत होने की तो बात ही क्या है ) जिससे सभी पुरोडाशों का हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य ( दधि और घृत ) तथा ( ग्राम और वन्य ) दो प्रकार के पशु, आप ही से उत्पन्न हुए हैं ॥५९॥

त्वत्तो ऋचोथ सामानि त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे ।

त्वत्तो यजूंष्यजायन्त त्वत्तोश्वाश्चैकतो दतः ॥ १,१२.६० ॥

आप ही से ऋक् साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आप ही से यजुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ है और आप ही से अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि जीव उत्पन्न हुए हैं ॥६०॥

गावस्त्वत्तः समुद्भूतास्त्व त्तोजा अवयो मृगाः ।

त्वमन्मुखाद्ब्राह्मणा बाह्वोस्त्वत्तो क्षत्रमजायत ॥ १,१२.६१ ॥

वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः ।

आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२ ॥

प्राणोन्तः मुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत ।

नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्तत ॥ १,१२.६३ ॥

दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदिम् ॥ १,१२.६४ ॥

आप ही से गौओं बकरियों भेड़ों और मृगों की उत्पत्ति हुई है; आप ही के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शुद्र प्रकट हुए हैं तथा आप ही के नेत्रों से सूर्य, प्राण से वायु, मन से चन्द्रमा, भीतरी छिद्र ( नासारन्ध्र ) से प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से आकाश, सिर से स्वर्ग, श्रोत्र से दिशाएँ और चरणों से पृथिवी आदि उत्पन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभु ! यह सम्पूर्ण जगत् आप ही से प्रकट हुआ है ॥६१-६४॥

न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः ।

संयमे विस्वमखिलं बीजभूते तथात्वायि ॥ १,१२.६५ ॥

जिस प्रकार नन्हें से बीज में बड़ा भारी वट वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय काल में यह सम्पूर्ण जगत बीज स्वरूप आप ही में लीन रहता है ॥६५॥

बीजादङ्कुरसम्भूते न्यग्रोधस्तु समुत्थितः ।

विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत् ॥ १,१२.६६ ॥

जिस प्रकर बीज से अंकुर रूप में प्रकट हुआ वट वृक्ष बढ़कर अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकाल में यह जगत् आप ही से प्रकट होकर फैल जाता है ॥६६॥

यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रादपि दृस्यते ।

एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वस्थयीश्वर दृश्येत ॥ १,१२.६७ ॥

हे ईश्वर ! जिस प्रकार केले का पौधा छिलके और पत्तो से अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगत् से आप पृथक नही हैं, वह आप ही में स्थित देखा जाता है ॥६७॥

ह्लादिनी संधिनी संवित्त्वय्येका सर्वसंस्थितौ ।

ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ १,१२.६८ ॥

सबके आधारभूत आपके ह्लादिनी (निरन्तर आह्लदित करनेवाली) और सन्धिनी (विच्छेदरहित) संवित (विद्याशक्त) अभिन्नरूप से रहती हैं । आप में ( विषयजन्य ) आह्लाद या ताप देनेवाली ( सात्त्विकी या तामसी ) अथवा उभयमिश्रा ( राजसी ) कोई भी संवित नहीं हैं, क्योकि आप निर्गुण हैं ॥६८॥

पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः ।

प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥ १,१२.६९ ॥

आप (कार्यदृष्टि से) पृथक रूप और (कारणदृष्टि से) एकरूप हैं । आप ही भूतसूक्ष्म है और आप ही नाना जीवरूप हैं । हे भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६९॥

व्यक्तं प्रधानपुरुषौ विराट्सम्राट्स्वराट्तथा ।

विभाव्यतेन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो भवान् ॥ १,१२.७० ॥

(योगियों के द्वारा) अन्तःकरण में आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष विराट्, सम्राट और स्वराट् आदि रूपों से भावना किये जाते हैं, और (क्षयशील) पुरुषों में आप नित्य अक्षय हैं ॥७०॥

सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् ।

सर्वं त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्मनेऽस्तु ते ॥ १,१२.७१ ॥

आकाशादि सर्वभूतों में सार अर्थात् उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपों को धारण करनेवाले होने से सब कुछ आप ही है; सब कुछ आप ही से हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे है इसलिये आप सर्वात्मा को नमस्कार है ॥७१॥

सर्वात्मकोसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो यतः ।

कथयामि ततः किं ते सर्वं वेत्सि हृति स्थितम् ॥ १,१२.७२ ॥

हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त है; अतः मैं आपसे क्या कहूँ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातों की आप से क्या कहूँ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातों को जानते हैं ॥७२॥

सर्वात्मन्सर्वभूतेश सर्वसत्त्वसमुद्भव ।

सर्वभूतो भवान्वेत्ति सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ १,१२.७३ ॥

हे सर्वात्मन ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतों के आदि स्थान ! आप सर्वभूतरूप से सभी प्राणियों के मनोरथों को जानते हैं ॥७३॥

यो मे मनोरथो नाथ सफलः स त्वया कृतः ।

तपश्च तप्तं सफलं यद्दृष्टोऽसि जगत्पते ॥ १,१२.७४ ॥

हे नाथ ! मेरा जो कुछ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकि मुझे आपका साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ ॥७४॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे द्वादशोऽध्यायः अच्युत स्तुति:॥

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