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श्रीहरि गोविन्द स्तुति

श्रीहरि गोविन्द स्तुति

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश के अध्याय १४ श्लोक २३-४३ में वर्णित श्रीहरि गोविन्द स्तुति प्रचेताओं द्वारा रचित भगवान विष्णु की अति पवित्र स्तुति हैं। इसके नियमित पाठ करने से ही मनुष्य को नि:संदेह इष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है । धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रीहरि की एकाग्र-चित्त से स्तुति करनेवालों की सभी कामनाएँ सफल तथा सन्तान प्राप्ति होती है ।

श्रीहरि गोविन्द स्तुति

श्रीहरि गोविन्द स्तुति

shri Hari Govinda stuti

श्रीहरि गोविन्द स्तुति:

प्रचेतसकृतं विष्णुस्तोत्रम्

प्रचेतसकृतं श्रीहरि गोविन्द स्तुति

प्रचेतस ऊचुः ।

नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती ।

तमाद्यन्तमशेषस्य जगतः परमं प्रभुम् ॥ २३॥

प्रचेताओं ने कहा ;– जिनमें सम्पूर्ण वाक्यों की नित्य-प्रतिष्ठा है [अर्थात् जो सम्पूर्ण वाक्यों के एकमात्र प्रतिपाद्य है] तथा जो जगत् की उत्पत्ति और प्रलय के कारण है उन निखिल-जगन्नायक परमप्रभु को हम नमस्कार करते हैं।

ज्योतिराद्यमनौपम्यमण्वनन्तमपारवत् ।

योनिभूतमश्षस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ २४॥

यस्याहः प्रथमं रूपमरूपस्य तथा निशा ।

सन्ध्या च परमेशस्य तस्मै कालात्मने नमः ॥ २५॥

जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनंत, अपार और समस्त चराचर के कारण है, तथा जिन रूपहीन परमेश्वर के दिन, रात्रि और संध्या ही प्रथम रूप है, उन कालस्वरूप भगवान् को नमस्कार है ।

भुज्यतेऽनुदिनं देवैः पितृभिश्च सुधात्मकः ।

बीजभूतं समस्तस्य तस्मै सोमात्मनेन मः ॥ २६॥

समस्त प्राणियों के जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूप को देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते है उन सोमस्वरूप प्रभु को नमस्कार है ।

यस्तमास्यत्ति तीव्रात्मा प्रभाभिर्भासयन्नभः ।

घर्मशीताम्भसां योनिस्तस्मै सूर्यात्मने नमः ॥ २७॥

जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेज से आकाशमंडल को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जल के उद्गमस्थान है उन सूर्यस्वरूप [नारायण] को नमस्कार है ।

काठिन्यवान् यो बिभर्त्ति जगदेतदशेषतः ।

शब्दादिसंश्रयो व्यापी तस्मै भूम्यात्मने नमः ॥ २८॥

जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसार को धारण करते है और शब्द आदि पाँचो विषयों के आधार तथा व्यापक है, उन भूमिरूप भगवान को नमस्कार है ।

यद्योनिभूतं जगतो बीजं यत्सर्वदेहिनाम् ।

तत्तोयरूपमीशस्य नमामो हरिमेधसः ॥ २९॥

जो संसार का योनिरूप है और समस्त देहधारियों का बीज है, भगवान हरि के उस जलस्वरूप को हम नमस्कार करते हैं।

यो मुखं सर्वदेवानां हव्यभुक्कव्यभुक्तथा ।

पितॄणां च नमस्तस्मै विष्णवे पावकात्मने ॥ ३०॥

जो समस्त देवताओं का हव्यभूक और पितृगण का कव्यभूक मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णु भगवान को नमस्कार है ।

पञ्चधावस्थितो देहे यश्चेष्टां कुरुतेऽनिशम् ।

आकाशयोनिर्भगवांस्तस्मै वाय्वात्मने नमः ॥ ३१॥

जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकार से देह में स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान को नमस्कार है ।

अवकाशमशेषाणां भूतानां यः प्रयच्छति ।

अनन्तमूर्तिमाञ्छुद्धस्तस्मै व्योमात्मने नमः ॥ ३२॥

जो समस्त भूतों को अवकाश देता है उस अनंतमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभु को नमस्कार है ।

समस्तेन्द्रियसर्गस्य यः सदा स्थानमुत्तमम् ।

तस्मै शब्दादिरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ॥ ३३॥

समस्त इन्द्रिय-सृष्टि के जो उत्तम स्थान है उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है ।

गृह्णाति विषयान्नित्यमिन्द्रियात्माक्षराक्षरः ।

यस्तस्मै ज्ञानमूलाय नताः स्म हरिमेधसे ॥ ३४॥

जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूप से नित्य विषयों को ग्रहण करते है उन ज्ञानमूल हरि को नमस्कार है ।

गृहीतानिन्द्रियैरर्थानात्मने यः प्रयच्छति ।

अन्तःकरणरूपाय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥ ३५॥

इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये विषयों को जो आत्मा के सम्मुख उपस्थित करता है उस अंत:करणरूप विश्वात्मा को नमस्कार है ।

यस्मिन्ननन्ते सकलं विश्वं यस्मात्तथोद्गतम् ।

लयस्थानं च यस्तस्मै नमः प्रकृतिधर्मिणे ॥ ३६॥

जिस अनंत में सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो उसके लय का भी स्थान है उस प्रकृतिस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ।

शुद्धः संल्लक्ष्यते भ्रान्त्या गुणवानिव योऽगुणः ।

तमात्मरूपिणं देवं नताः स्म पुरुषोत्तमम् ॥ ३७॥

जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त से दिखायी देते है उन आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेव को हम नमस्कार करते हैं ।

अविकारमजं शुद्धं निर्गुणं यन्निरञ्जनम् ।

नतास्स्म तत्परं ब्रह्म विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ३८॥

जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णु का परमपद है उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते है ।

अदीर्घह्रस्वमस्थूलण्वनमश्यामलोहितम् ।

अस्नेहच्छायमतनुमसक्तमशरीरिणम् ॥ ३९॥

जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्नेह (द्रव), कान्ति तथा शरीर से रहित एवं अनासक्त और अशरीरी (जीव से भिन्न) है ।

अनाकाशमसंस्पर्शमगन्धमरसं च यत् ।

अचक्षुश्रोत्रमचलमवाक्पाणिममानिसम् ॥ ४०॥

जो अवकाश स्पर्श, गंध और रस से रहित तथा आँख कान विहीन, अचल एवं जिह्वा, हाथ और मन से रहित है ।

अनामगोमत्रसुखमतेजस्कमहेतुकम् ।

अभयं भ्रान्तिरहितमनिद्रमजरामरम् ॥ ४१॥

जो नाम, गोत्र, सुख और तेज से शून्य तथा कारणहीन है, जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण इन अवस्थाओं का अभाव है ।

अरजोशब्दममृतमप्लुतं यदसंवृतम् ।

पूर्वापरेण वै यस्मिंस्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ४२॥

जो अरज (रजोगुणरहित), अशब्द, अमृत, अप्लुत (गतिशुन्य) और असंवृत (अनाच्छादित) है एवं जिसमें पुर्वापर व्यवहार की गति नहीं है वही भगवान विष्णु का परमपद है ।

परमेशत्वगुणवत्सर्वभूतमसंशयम् ।

नताः स्म तत्पदं विष्णोर्जिह्वादृग्गोचरं न यत् ॥ ४३॥

जिसका ईशन (शासन) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिह्वा और दृष्टि का अविषय है, भगवान विष्णु के उस परमपद को हम नमस्कार करते है ।

इति विष्णुपुराणे चतुर्दशाध्यायान्तर्गतं प्रचेतसकृतं श्रीहरि गोविन्द स्तुति: विष्णुस्तोत्रं समाप्तम् ।

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