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ब्रह्मपार स्तोत्र

ब्रह्मपार स्तोत्र

जो कोई भी ब्रह्मपुराण अध्याय १७८ श्लोक ११४-११७ तथा श्रीविष्णुपुराण प्रथमांश अध्याय १५ श्लोक ५५-५८ के इन चार श्लोकों में वर्णित भगवान् श्रीविष्णु के इस ब्रह्मपार स्तोत्र को नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषों से मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है।

ब्रह्मपार स्तोत्र

ब्रह्मपारस्तोत्रम्

Brahma Paar stotram

ब्रह्म पार स्तोत्र

श्रीविष्णुपुराणांतर्गत ब्रह्मपार स्तोत्र

सोम उवाच

पारं परं विष्णुरपारपारः

परः परेभ्यः परमार्थरूपी ।

स ब्रह्मपारः परपारभूतः

परः पराणामपि पारपारः ॥ ५५ ॥

सोम ने कहा ;– [हे राजकुमारों ! वह मन्त्र इस प्रकार है ] – ‘श्रीविष्णु भगवान् संसार-मार्ग की अंतिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशादि) से भी पर अर्थात् अनंत है, अत: सत्यस्वरूप है । तपोनिष्ठ महात्माओं को ही वे प्राप्त हो सकते है, क्योंकि वे पर (अनात्म-प्रपंच) से परे है तथा पर (इन्द्रियों) के अगोचर परमात्मा है और (भक्तों के) पालक एवं [उनके अभीष्ट को] पूर्ण करनेवाले है ।

स कारणं कारणतस्ततोऽपि

तस्यापि हेतुः परहेतुहेतुः ।

कार्येषु चैवं सह कर्मकर्तृ-

रूपैरशेषैरवतीह सर्वम् ॥ ५६ ॥

वे कारण (पंचभूत) के कारण (पंचतन्मात्रा) के हेतु (तामस-अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्तत्त्व) के हेतु (प्रधान) के भी परम हेतु है और इस प्रकार समस्त कर्म और कर्त्ता आदि के सहित कार्यरूप से स्थित सकल प्रपंच का पालन करते है।

ब्रह्म प्रभुर्ब्रह्म स सर्वभूतो

ब्रह्म प्रजानां पतिरच्युतोऽसौ ।

ब्रह्माव्ययं नित्यमजं स विष्णु-

रपक्षयाद्यैरखिलैरसङ्गि ॥ ५७ ॥

ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजा का पति (रक्षक) तथा अविनाशी है। वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारों से शून्य विष्णु है ।

ब्रह्माक्षरमजं नित्यं यथाऽसौ पुरुषोत्तमः ।

तथा रागादयो दोषः प्रयान्तु प्रशमं मम् ॥ ५८ ॥

क्योंकि वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान विष्णु है, इसलिये मेरे राग आदि दोष शांत हो ।

ब्रह्मपार स्तोत्र महात्म्य

एतद्ब्रह्म पराख्यं वै संस्तवं परमं जपन् ।

अवाप परमां सिद्धिं स तमाराध्य केशवम् ॥ ५९ ॥

इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्र का जप करते हुए श्रीकेशव की आराधना करने से उन मुनीश्वर ने परमसिद्धि प्राप्त की ।

इमं स्तवं यः पठति शृणुयाद्वापि नित्यशः ।

स कामदोषैरखिलैर्मुक्तः प्राप्नोति वाञ्छितम् ॥ ५९।१ ॥

जो पुरुष इस स्तव को नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषों से मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है।

इतिश्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥

ब्रह्मपुराणांतर्गत ब्रह्मपार स्तोत्र

मुनय ऊचुः -

ब्रह्मपारं मुने श्रोतुमिच्छामः परमं शुभम् ।

जपता कण्डुना देवो येनाराध्यत केशवः ॥ १॥

मुनि बोले- व्यासजी ! हम परम कल्याणमय ब्रह्मपारस्तोत्र को श्रवण करना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए कण्डुमुनि ने भगवान् विष्णु की आराधना की थी।

ब्रह्मपारस्तोत्रम्

व्यास उवाच -

पारं परं विष्णुरपारपारः

      परः परेभ्यः परमात्मरूपः ।

स ब्रह्मपारः परपारभूतः

      परः पराणामपि पारपारः ॥ २॥

व्यासजी ने कहा- भगवान् विष्णु सबके परम पार (अन्तिम प्राप्य) हैं; वे अपार भवसागर से पार उतारनेवाले, पर-शब्द-वाच्य, आकाश आदि पञ्च महाभूतों से परे और परमात्मस्वरूप हैं। वेदों की भी पहुँच से परे होने के कारण उन्हें ब्रह्मपार कहते हैं। वे दूसरों के लिये पारस्वरूप हैं- उन्हें पाकर सब प्राणी सदा के लिये पार हो जाते हैं। वे पर के भी पर - इन्द्रिय, मन आदि के भी अगोचर हैं। सबके पालक और सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं।

स कारणं कारणसंश्रितोऽपि

      तस्यापि हेतुः परहेतुहेतुः ।

कार्योऽपि चैष सह कर्मकर्तृ-

      रूपैरनेकैरवतीह सर्वम् ॥ ३॥

वे कारण में स्थित होते हुए भी स्वयं ही कारणरूप हैं । कारण के भी कारण हैं। परम कारणभूत प्रकृति के कारण भी वे ही हैं। कार्यों में भी उन्हींकी स्थिति है। इस प्रकार कर्म और कर्ता आदि अनेक रूप धारण करके वे सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं।

ब्रह्म प्रभुर्ब्रह्म स सर्वभूतो

      ब्रह्म प्रजानां पतिरच्युतोऽसौ ।

ब्रह्माव्ययं नित्यमजं स विष्णु-

      रपक्षयाद्यैरखिलैरसङ्गः ॥ ४॥

ब्रह्म ही प्रभु हैं, ब्रह्म ही सर्वस्वरूप है, ब्रह्म ही प्रजापति तथा अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाला है। वह ब्रह्म अविनाशी, नित्य और अजन्मा है। वही क्षय आदि सम्पूर्ण विकारों के सम्पर्क से रहित भगवान् विष्णु है।

ब्रह्माक्षरमजं नित्यं यथासौ पुरुषोत्तमः ।

तथा रागादयो दोषाः प्रयान्तु प्रशमं मम ॥ ५॥

वे भगवान् पुरुषोत्तम ही अविनाशी, अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं। उनके प्रभाव से मेरे राग आदि समस्त दोष नष्ट हो जायँ।

इति ब्रह्मपुराणान्तर्गतं ब्रह्मपारस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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