विष्णु स्तुति
ब्रह्मपुराण अध्याय १७८ में वर्णित कण्डु
मुनि कृत इस विष्णु स्तुति का जो मनुष्य नित्य सुनता अथवा पढ़ता है उनके समस्त
दोषों व दुःखों का नाश होता है और दुर्लभ मोक्ष प्राप्त होता है।
विष्णु स्तुति:
Vishnu stuti
कण्डुकृत विष्णु स्तुति
श्रीविष्णुस्तुती कण्डुमुनिप्रोक्त
ब्रह्मपुराणे
कण्डुकृत विष्णु स्तोत्र
कण्डुरुवाच
नारायण हरे कृष्ण श्रीवत्साङ्क
जगत्पते ।
जगद्बीज जगद्धाम
जगत्साक्षिन्नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१२८॥
कण्डु बोले- नारायण ! हरे !
श्रीकृष्ण ! श्रीवत्साङ्क ! जगत्पते! जगद्बीज ! जगद्धाम ! जगत्साक्षिन् ! आपको
नमस्कार है।
अव्यक्त जिष्णो प्रभव
प्रधानपुरुषोत्तम ।
पुण्डरीकाक्ष गोविन्द लोकनाथ
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१२९॥
अव्यक्त विष्णो! आप ही सबकी
उत्पत्ति के कारण हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों से उत्तम होने के कारण आपको
पुरुषोत्तम कहते हैं। कमलनयन गोविन्द ! जगन्नाथ ! आपको नमस्कार है।
हिरण्यगर्भ श्रीनाथ पद्मनाथ सनातन ।
भूगर्भ ध्रुव ईशान हृषीकेश नमोऽस्तु
ते ॥ १७८.१३०॥
आप हिरण्यगर्भ,
लक्ष्मीपति, पद्मनाभ और सनातन पुरुष हैं। यह पृथ्वी
आपके गर्भ में है। आप ध्रुव और ईश्वर हैं। हृषीकेश ! आपको नमस्कार है।
अनाद्यन्तामृताजेय जय त्वं जयतां वर
।
अजिताखण्ड श्रीकृष्ण श्रीनिवास
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१३१॥
आप अनादि,
अनन्त और अजेय हैं। विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ ! आपकी जय हो।
श्रीकृष्ण ! आप अजित और अखण्ड हैं। श्रीनिवास! आपको नमस्कार है।
पर्जन्यधर्मकर्ता च दुष्पार
दुरधिष्ठित ।
दुःखार्तिनाशन हरे जलशायिन्नमोऽस्तु
ते ॥ १७८.१३२॥
आप ही बादल और धूम-वर्षा और गर्मी
करनेवाले हैं। आपका पार पाना कठिन है। आप बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं। दुःख
और पीड़ाओं का नाश करनेवाले हरे! जल में शयन करनेवाले नारायण! आपको नमस्कार है।
भूतपाव्यक्त भूतेश भूततत्त्वैरनाकुल
।
भूताधिवास भूतात्मन् भूतगर्भ
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१३३॥
अव्यक्त परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण
भूतों के पालक और ईश्वर हैं। भौतिक तत्त्वों से आप कभी क्षुब्ध होनेवाले नहीं हैं।
सम्पूर्ण प्राणी आपमें ही निवास करते हैं। आप सब भूतों के आत्मा हैं। सम्पूर्ण भूत
आपके गर्भ में स्थित हैं। आपको नमस्कार है।
यज्ञयज्वन् यज्ञधर यज्ञधाताभयप्रद ।
यज्ञगर्भ हिरण्याङ्ग पृश्निगर्भ
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१३४॥
आप यज्ञ,
यज्वा यज्ञधर, यज्ञधाता और अभय देनेवाले हैं।
यज्ञ आपके गर्भ में स्थित है। आपका श्रीअङ्ग सुवर्ण के समान कान्तिमान् है ।
पृश्निगर्भ ! आपको नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रभृत्क्षेत्री
क्षेत्रहा क्षेत्रकृद्वशी ।
क्षेत्रात्मन् क्षेत्ररहित क्षेत्रस्रष्ट्रे
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१३५॥
आप क्षेत्रज्ञ,
क्षेत्रपालक, क्षेत्री, क्षेत्रहन्ता,
क्षेत्रकर्ता, जितेन्द्रिय, क्षेत्रात्मा, क्षेत्ररहित और क्षेत्र के स्रष्टा
हैं। आपको नमस्कार है।
गुणालय गुणावास गुणाश्रय गुणावह ।
गुणभोक्तृ गुणाराम गुणत्यागिन्नमोऽस्तु
ते ॥ १७८.१३६॥
गुणालय,
गुणावास, गुणाश्रय, गुणावह,
गुणभोक्ता, गुणाराम और गुणत्यागी - ये सब आपके
ही नाम हैं। आपको नमस्कार है।
त्वं विष्णुस्त्वं हरिश्चक्री त्वं
जिष्णुस्त्वं जनार्दनः।
त्वं भूतस्त्वं वषट्कारस्त्वं
भव्यस्त्वं भवत्प्रभुः॥ १७८.१३७॥
आप ही श्रीविष्णु हैं। आप ही
श्रीहरि और चक्री कहलाते हैं। आप ही श्रीविष्णु और आप ही जनार्दन हैं। आप ही
वषट्कार कहे गये हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के
प्रभु भी आप ही हैं।
त्वं भूतकृत्त्वमव्यक्तस्त्वं भवो
भूतभृद्भवान् ।
त्वं भूतभावनो देवस्त्वामाहुरजमीश्वरम्
॥ १७८.१३८॥
आप भूतों के उत्पादक और अव्यक्त
हैं। सबकी उत्पत्ति के कारण होने से आप 'भव'
कहलाते हैं। आप सम्पूर्ण प्राणियों के भरण- पोषण करनेवाले हैं। आप
ही भूतभावन देवता हैं। आपको अजन्मा और ईश्वर कहते हैं।
त्वमनन्तः कृतज्ञस्त्वं
प्रकृतिस्त्वं वृषाकपिः।
त्वं रुद्रस्त्वं
दुराधर्षस्त्वममोघस्त्वमीश्वरः॥ १७८.१३९॥
आप अनन्त, कृतज्ञ,
प्रकृति, वृष व कपि हैं। आप रुद्र हो, अजेय हो; आप अमोघ हो, आप ही ईश्वर
हो।
त्वं विश्वकर्मा जिष्णुस्त्वं त्वं
शंभुस्त्वं वृषाकृतिः।
त्वं शंकरस्त्वमुशना त्वं सत्यं
त्वं तपो जनः॥ १७८.१४०॥
आप विश्वकर्मा हैं,
श्रीविष्णु हैं, शम्भु हैं और वृषभ की आकृति
धारण करनेवाले हैं। आप ही शंकर, आप ही शुक्राचार्य, आप ही सत्य, आप ही तप और आप ही जनलोक हैं।
त्वं विश्वजेता त्वं शर्म त्वं
शरण्यस्त्वमक्षरम् ।
त्वं शंभुस्त्वं स्वयंभूश्च त्वं ज्येष्ठस्त्वं
परायणः॥ १७८.१४१॥
आप विश्वविजेता,
कल्याणमय, शरणागतपालक, अविनाशी,
शम्भु, स्वयम्भू, ज्येष्ठ
और परायण (परम आश्रय) हैं।
त्वमादित्यस्त्वमोंकारस्त्वं
प्राणस्त्वं तमिस्रहा ।
त्वं पर्जन्यस्त्वं प्रथितस्त्वं
वेधास्त्वं सुरेश्वरः॥ १७८.१४२॥
आदित्य,
ओंकार, प्राण, अन्धकारनाशक
सूर्य, मेघ, सर्वत्र विख्यात तथा
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा भी आप ही हैं।
त्वमृग्यजुः साम चैव त्वमात्मा
संमतो भवान् ।
त्वमग्निस्त्वं च पवनस्त्वमापो
वसुधा भवान् ॥ १७८.१४३॥
ऋक्, यजुः और साम भी आप ही हैं। आप ही सबके आत्मा माने गये हैं। आप ही अग्नि,
आप ही वायु, आप ही जल और आप ही पृथ्वी हैं ।
त्वं स्रष्टा त्वं तथा भोक्ता होता
त्वं च हविः क्रतुः।
त्वं प्रभुस्त्वं विभुः
श्रेष्ठस्त्वं लोकपतिरच्युतः॥ १७८.१४४॥
स्रष्टा,
भोक्ता, होता, हविष्य,
यज्ञ, प्रभु, विभु, श्रेष्ठ, लोकपति और अच्युत भी आप ही हैं।
त्वं सर्वदर्शनः श्रीमांस्त्वं
सर्वदमनोऽरिहा ।
त्वमहस्त्वं तथा
रात्रिस्त्वामाहुर्वत्सरं बुधाः॥ १७८.१४५॥
आप सबके द्रष्टा और लक्ष्मीवान्
हैं। आप ही सबका दमन करनेवाले और शत्रुओं के नाशक हैं। आप ही दिन और आप ही रात्रि
हैं,
विद्वान् पुरुष आपको ही वर्ष कहते हैं।
त्वं कालस्त्वं कला काष्ठा त्वं
मुहूर्तः क्षणा लवाः।
त्वं बालस्त्वं तथा वृद्धस्त्वं
पुमान् स्त्री नपुंसकः॥ १७८.१४६॥
आप ही काल हैं। कला,
काष्ठा, मुहूर्त्त, क्षण
और लव - सब आपके ही स्वरूप हैं। आप ही बालक, आप ही वृद्ध तथा
आप ही पुरुष, स्त्री और नपुंसक हैं।
त्वं विश्वयोनिस्त्वं चक्षुस्त्वं
स्थाणुस्त्वं शुचिश्रवाः।
त्वं
शाश्वतस्त्वमजितस्त्वमुपेन्द्रस्त्वमुत्तमः॥ १७८.१४७॥
आप विश्व की उत्पत्ति के स्थान हैं।
आप ही सबके नेत्र हैं। आप ही स्थाणु (स्थिर रहनेवाले) और आप ही शुचिश्रवा ( पवित्र
यशवाले) हैं। आप सनातन पुरुष हैं। आपको कोई जीत नहीं सकता। आप इन्द्र के छोटे भाई
उपेन्द्र और सबसे उत्तम हैं।
त्वं सर्वविश्वसुखदस्त्वं वेदाङ्गं
त्वमव्ययः।
त्वं वेदवेदस्त्वं धाता विधाता त्वं
समाहितः॥ १७८.१४८॥
आप सम्पूर्ण विश्व को सुख देनेवाले
हैं। वेदों के अङ्ग भी आप ही हैं। आप अविनाशी, वेदों
के भी वेद (ज्ञेय तत्त्व), धाता, विधाता
और समाहित रहनेवाले हैं।
त्वं जलनिधिरामूलं त्वं धाता त्वं
पुनर्वसुः।
त्वं वैद्यस्त्वं धृतात्मा च
त्वमतीन्द्रियगोचरः॥ १७८.१४९॥
आप जलराशि समुद्र हैं। आप ही उसके
मूल हैं। आप ही धाता और आप ही वसु हैं। आप वैद्य, आप धृतात्मा और आप इन्द्रियातीत हैं।
त्वमग्रणीर्ग्रामणीस्त्वं त्वं
सुपर्णस्त्वमादिमान् ।
त्वं संग्रहस्त्वं सुमहत्त्वं
धृतात्मा त्वमच्युतः॥ १७८.१५०॥
आप सबसे आगे चलनेवाले और गाँव के
नेता हैं। आप ही गरुड़ और आप ही आदिमान् हैं। आप ही संग्रह (लघु) और आप ही परम
महान् हैं। अपने मन को वश में रखनेवाले और अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले भी
आप ही हैं।
त्वं यमस्त्वं च नियमस्त्वं
प्रांशुस्त्वं चतुर्भुजः।
त्वमेवान्नान्तरात्मा त्वं परमात्मा
त्वमुच्यते॥ १७८.१५१॥
आप यम और नियम हैं। आप प्रांशु
(उन्नत शरीरवाले) और चतुर्भुज हैं। अन्न, अन्तरात्मा
और परमात्मा भी आप ही कहलाते हैं।
त्वं गुरुस्त्वं गुरुतमस्त्वं
वामस्त्वं प्रदक्षिणः।
त्वं पिप्पलस्त्वमगमस्त्वं
व्यक्तस्त्वं प्रजापतिः॥ १७८.१५२॥
आप गुरु और गुरुतम हैं,
वाम और दक्षिण हैं। आप ही पीपल एवं अन्य वृक्ष हैं। व्यक्त जगत् और
प्रजापति भी आप ही हैं।
हिरण्यनाभस्त्वं देवस्त्वं शशी त्वं
प्रजापतिः।
अनिर्देश्यवपुस्त्वं वै त्वं
यमस्त्वं सुरारिहा ॥ १७८.१५३॥
आपकी नाभि से सुवर्णमय कमल प्रकट
हुआ है। आप दिव्य शक्ति से सम्पन्न हैं। आप ही चन्द्रमा और आप ही प्रजापति हैं।
आपके स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। आप ही यम और आप ही दैत्यों के नाशक
श्रीविष्णु हैं।
त्वं च संकर्षणो देवस्त्वं कर्ता
त्वं सनातनः।
त्वं वासुदेवोऽमेयात्मा त्वमेव
गुणवर्जितः॥ १७८.१५४॥
आप ही संकर्षण देव हैं। आप ही कर्ता
और आप ही सनातन पुरुष हैं। आप ही वासुदेव हैं, आप
ही आत्मा हैं; आप तीनों गुणों से रहित हैं।
त्वं ज्येष्ठस्त्वं वरिष्ठस्त्वं
त्वं सहिष्णुश्च माधवः।
सहस्रशीर्षा त्वं देवस्त्वमव्यक्तः
सहस्रदृक्॥ १७८.१५५॥
सहस्रपादस्त्वं देवस्त्वं
विराट्त्वं सुरप्रभुः।
त्वमेव तिष्ठसे भूयो देवदेव
दशाङ्गुलः॥ १७८.१५६॥
आप ज्येष्ठ,
वरिष्ठ और सहिष्णु हैं। लक्ष्मी के पति हैं। आपके सहस्रों मस्तक
हैं। आप अव्यक्त देवता हैं। आपके सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। आप विराट् और
देवताओं के स्वामी हैं। देवदेव! तथापि आप दस अंगुल के होकर रहते हैं ।
यद्भूतं तत्त्वमेवोक्तः पुरुषः शक्र
उत्तमः।
यद्भाव्यं
तत्त्वमीशानस्त्वमृतस्त्वं तथामृतः॥ १७८.१५७॥
जो भूत है,
वह आपका ही स्वरूप बताया गया है । आप ही अन्तर्यामी पुरुष, इन्द्र और उत्तम देवता हैं। जो भविष्य है, वह भी आप
ही हैं। आप ही ईशान, आप ही अमृत और आप ही मर्त्य हैं।
त्वत्तो रोहत्ययं लोको
महीयांस्त्वमनुत्तमः।
त्वं ज्यायान् पुरुषस्त्वं च त्वं
देव दशधा स्थितः॥ १७८.१५८॥
यह सम्पूर्ण संसार आपसे ही अङ्कुरित
होता है,
अतः आप परम महान् और सबसे उत्तम हैं। देव! आप सबसे ज्येष्ठ हैं,
पुरुष हैं और आप ही दस प्राणवायुओं के रूप में स्थित हैं।
विश्वभूतश्चतुर्भागो नवभागोऽमृतो
दिवि ।
नवभागोऽन्तरिक्षस्थः पौरुषेयः
सनातनः॥ १७८.१५९॥
आप विश्वरूप होकर चार भागों में
स्थित हैं। अमृतस्वरूप होकर नौ भागों के साथ द्युलोक में रहते हैं और नौ भागों सहित
सनातन पौरुषेय रूप धारण करके अन्तरिक्ष में निवास करते हैं।
भागद्वयं च भूसंस्थं
चतुर्भागोऽप्यभूदिह ।
त्वत्तो यज्ञाः संभवन्ति जगतो
वृष्टिकारणम् ॥ १७८.१६०॥
आपके दो भाग पृथ्वी में स्थित हैं
और चार भाग भी यहाँ हैं। आपसे यज्ञों की उत्पत्ति होती है,
जो जगत्में वृष्टि करनेवाले हैं।
त्वत्तो विराट्समुत्पन्नो जगतो हृदि
यः पुमान् ।
सोऽतिरिच्यत भूतेभ्यस्तेजसा यशसा
श्रिया ॥ १७८.१६१॥
आपसे ही विराट् की उत्पत्ति हुई,
जो सम्पूर्ण जगत्के हृदय में अन्तर्यामी पुरुषरूप से विराजमान हैं।
वह विराट् पुरुष अपने तेज, यश और ऐश्वर्य के कारण सम्पूर्ण
भूतों से विशिष्ट है।
त्वत्तः सुराणामाहारः पृषदाज्यमजायत
।
ग्राम्यारण्याश्चौषधयस्त्वत्तः
पशुमृगादयः॥ १७८.१६२॥
आप से ही देवताओं का आहारभूत हवनीय
घृत उत्पन्न हुआ। ग्राम्य और जंगली ओषधियाँ तथा पशु एवं मृग आदि भी आप से ही प्रकट
हुए हैं।
ध्येयध्यानपरस्त्वं च कृतवानसि
चौषधीः।
त्वं देवदेव सप्तास्य कालाख्यो
दीप्तविग्रहः॥ १७८.१६३॥
देवदेव! आप ध्येय और ध्यान से परे
हैं। आपने ही ओषधियों को उत्पन्न किया है। आप ही सात मुखोंवाले देदीप्यमान विग्रह से
युक्त काल हैं।
जङ्गमाजङ्गमं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ।
त्वत्तः सर्वमिदं जातं त्वयि सर्वं
प्रतिष्ठितम् ॥ १७८.१६४॥
यह स्थावर और जङ्गम तथा चर और अचर
सम्पूर्ण जगत् आप से ही प्रकट हुआ है और आप में ही स्थित है।
अनिरुद्धस्त्वं माधवस्त्वं
प्रद्युम्नः सुरारिहा ।
देव सर्वसुरश्रेष्ठ सर्वलोकपरायण ॥ १७८.१६५॥
आप अनिरुद्ध,
वासुदेव, प्रद्युम्र तथा दैत्यनाशक संकर्षण
हैं। देव! आप सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ और समस्त विश्व के परम आश्रय हैं।
त्राहि मामरविन्दाक्ष नारायण
नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते भगवन् विष्णो नमस्ते
पुरुषोत्तम ॥ १७८.१६६॥
कमलनयन ! मेरी रक्षा कीजिये।
नारायण! आपको नमस्कार है। भगवन्! विष्णो! आपको नमस्कार है। पुरुषोत्तम! आपको
नमस्कार है।
नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते कमलालय ।
गुणालय नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु
गुणाकर ॥ १७८.१६७॥
सर्वलोकेश्वर! आपको नमस्कार है।
कमलालय! आपको नमस्कार है। गुणालय ! आपको नमस्कार है। गुणाकर! आपको नमस्कार है।
वासुदेव नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु
सुरोत्तम ।
जनार्दन नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु
सनातन ॥ १७८.१६८॥
वासुदेव! आपको नमस्कार है।
सुरोत्तम! आपको नमस्कार है। जनार्दन ! आपको नमस्कार है। सनातन! आपको नमस्कार है।
नमस्ते योगिनां गम्य योगावास
नमोऽस्तु ते ।
गोपते श्रीपते विष्णो नमस्तेऽस्तु
मरुत्पते ॥ १७८.१६९॥
योगिगम्य परमेश्वर ! आपको नमस्कार
है। योग के आश्रयस्थान ! आपको नमस्कार है। गोपते ! श्रीपते! मरुत्पते !
श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है।
जगत्पते जगत्सूते नमस्ते ज्ञानिनां
पते ।
दिवस्पते नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु
महीपते ॥ १७८.१७०॥
जगत्पते ! आप जगत्को उत्पन्न
करनेवाले और ज्ञानियों के स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। दिवस्पते ! आपको नमस्कार
है। महीपते ! आपको नमस्कार है।
नमस्ते मधुहन्त्रे च नमस्ते
पुष्करेक्षण ।
कैटभघ्न नमस्तेऽस्तु सुब्रह्मण्य
नमोऽस्तु ते ॥ १७८.१७१॥
पुण्डरीकाक्ष ! आप मधु दैत्य का वध करनेवाले
हैं। आपको नमस्कार है, नमस्कार है। कैटभ को
मारनेवाले नारायण! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य! आपको नमस्कार है।
नमोऽस्तु ते महामीन
श्रुतिपृष्ठधराच्युत ।
समुद्रसलिलक्षोभ पद्मजाह्लादकारिणे ॥
१७८.१७२॥
पीठ पर वेदों को धारण करनेवाले
महामत्स्यरूप अच्युत ! आपको नमस्कार है। आप समुद्र के जल को मथ डालनेवाले और
लक्ष्मी को आनन्द देनेवाले हैं। आपको नमस्कार है।
अश्वशीर्ष महाघोण महापुरुषविग्रह ।
मधुकैटभहन्त्रे च नमस्ते तुरगानन ॥
१७८.१७३॥
विशाल नासिकावाले अश्वमुख भगवान्
हयग्रीव! महापुरुषविग्रह ! आप मधु और कैटभ का नाश करनेवाले हैं,
आपको नमस्कार है।
महाकमठभोगाय पृथिव्युद्धरणाय च ।
विधृताद्रिस्वरूपाय महाकूर्माय ते
नमः॥ १७८.१७४॥
प्रभो! आप पृथ्वी को ऊपर उठाने के
लिये विशाल कच्छप का शरीर धारण करनेवाले हैं, आपने
अपनी पीठ पर मन्दराचल को धारण किया था। महाकूर्मस्वरूप आप भगवान् को नमस्कार है।
नमो महावराहाय पृथिव्युद्धारकारिणे ।
नमश्चादिवराहाय विश्वरूपाय वेधसे ॥
१७८.१७५॥
पृथ्वी का उद्धार करनेवाले महावराह को
नमस्कार है। भगवन्! आपने ही पहले-पहल वराहरूप धारण किया था,
अतः आप आदिवराह कहलाते हैं। आप विश्वरूप और विधाता हैं, आपको नमस्कार है।
नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय मुख्याय च
वराय च ।
परमाणुस्वरूपाय योगिगम्याय ते नमः॥
१७८.१७६॥
आप अनन्त,
सूक्ष्म, मुख्य, श्रेष्ठ,
परमाणुस्वरूप तथा योगिगम्य हैं। आपको नमस्कार है ।
तस्मै नमः कारणकारणाय
योगीन्द्रवृत्तनिलयाय सुदुर्विदाय ।
क्षीरार्णवाश्रितमहाहिसुतल्पगाय
तुभ्यं नमः कनकरत्नसुकुण्डलाय
॥१७८.१७७॥
जो परम कारण (प्रकृति) के भी कारण
हैं,
योगीश्वर- मण्डल के आश्रयस्थान हैं, जिनके
स्वरूप का ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है, जो क्षीरसागर के भीतर
निवास करनेवाले महान् सर्प- शेषनाग की सुन्दर शय्या पर शयन करते हैं तथा जिनके कानों
में सुवर्ण एवं रत्नों के बने हुए दिव्य कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, उन आप भगवान् विष्णु को नमस्कार है।
इतिश्री ब्रह्मपुराणे कण्डुकृत विष्णु स्तुति: ॥ १७८॥

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