भगवत्स्तुति
भगवत्स्तुति -
जब ब्रह्मा जी ने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति
की, तब वे उनके बीच में ही प्रकट हो गये। उनके शरीर की प्रभा
ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों। भगवान् की
उस प्रभा से सभी देवताओं की आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान् को तो क्या-आकाश,
दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके।
भगवत्स्तुति
विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण
तां तनुम् ।
स्वच्छां मरकतश्यामां
कञ्जगर्भारुणेक्षणाम् ॥ ३॥
तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा ।
प्रसन्नचारुसर्वाङ्गीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम्
॥ ४॥
महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च
भूषिताम् ।
कर्णाभरणनिर्भातकपोलश्रीमुखाम्बुजाम्
॥ ५॥
काञ्चीकलापवलयहारनूपुरशोभिताम् ।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं
वनमालिनीम् ॥ ६॥
केवल भगवान् शंकर और ब्रह्मा जी ने
उस छबि का दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ
श्यामल शरीर, कमल के भीतरी भाग के समान
सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंग का रेशमी पीताम्बर।
सर्वांगसुन्दर शरीर के रोम-रोम से प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुष के समान टेढ़ी
भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिर पर महामणिमय किरीट और भुजाओं में बाजूबंद।
कानों के झलकते हुए कुण्डलों की चमक पड़ने से कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे,
जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमर में करधनी की लड़ियाँ, हाथों में कंगन, गले में हार और चरणों में नूपुर
शोभायमान थे। वक्षःस्थल पर लक्ष्मी और गले में कौस्तुभ मणि तथा वनमाला सुशोभित
थीं।
सुदर्शनादिभिः
स्वास्त्रैर्मूर्तिमद्भिरुपासिताम् ।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं
परम् ।
सर्वामरगणैः साकं सर्वाङ्गैरवनिं
गतैः ॥ ७॥
भगवान् के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र
आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओं ने पृथ्वी पर गिरकर
साष्टांग प्रणाम किया। फिर सारे देवताओं को साथ ले शंकर जी तथा ब्रह्मा जी परम
पुरुष भगवान् की स्तुति करने लगे।
ब्रह्माकृत भगवत् स्तुति
ब्रह्मोवाच
अजातजन्मस्थितिसंयमाया-
गुणायनिर्वाणसुखार्णवाय ।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
महानुभावाय नमो नमस्ते ॥ ८॥
ब्रह्मा जी ने कहा ;-
जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं
रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्द के
महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका
स्वरूप अनन्त है- उन पर ऐश्वर्यशाली प्रभु को हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं।
रूपं तवैतत्पुरुषर्षभेज्यं
श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतान्त्रिकेण ।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
पश्याम्यमुष्मिन्नु ह विश्वमूर्तौ ॥
९॥
पुरुषोत्तम! अपना कल्याण चाहने वाले
साधक वेदोक्त एवं पांचरात्रोक्त विधि से आपके इसी स्वरूप की उपासना करते हैं। मुझे
भी रचने वाले प्रभो! आपके इस विश्वमय स्वरूप में मुझे समस्त देवगणों के सहित तीनों
लोक दिखायी दे रहे हैं।
त्वय्यग्र आसीत्त्वयि मध्य आसी-
त्त्वय्यन्त आसीदिदमात्मतन्त्रे ।
त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात् ॥ १०॥
आप में ही पहले यह जगत् लीन था,
मध्य में भी यह आपमें ही स्थित है और अन्त में भी यह पुनः आप में ही
लीन हो जायेगा। आप स्वयं कार्य-कारण से परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत् के
आदि, अन्त और मध्य हैं-वैसे ही जैसे घड़े का आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है।
त्वं माययाऽऽत्माऽऽश्रयया स्वयेदं
निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः ।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः ॥ ११॥
आप अपने ही आश्रय रहने वाली अपनी
माया से इस संसार की रचना करते हैं और इसमें फिर से प्रवेश करके अन्तर्यामी के रूप
में विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानी से अपने
मन को एकाग्र करके इन गुणों की, विषयों की
भीड़ में भी आपके निर्गुण स्वरूप का ही साक्षत्कार करते हैं।
यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम् ।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
गुणेषु बुद्ध्या कवयो वदन्ति ॥ १२॥
जैसे मनुष्य युक्ति के द्वारा लकड़ी
से आग,
गौ से अमृत के समान दूध, पृथ्वी से अन्न तथा
जल और व्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं-वैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी
शुद्ध बुद्धि से भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि के द्वारा आपको इन
विषयों में ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूति के अनुसार आपका वर्णन भी करते
हैं।
तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम् ।
दृष्ट्वा गता निर्वृतमद्य सर्वे
गजा दवार्ता इव गाङ्गमम्भः ॥ १३॥
कमलनाभ! जिस प्रकार दावाग्नि से
झुलसता हुआ हाथी गंगाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है,
वैसे ही आपके आविर्भाव से हम लोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं।
स्वामी! हम लोग बहुत दिनों से आपके दर्शनों के लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे।
स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
वयं यदर्थास्तव पादमूलम् ।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः ॥
१४॥
आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा
हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरण में आये हैं,
उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अतः इस विषय में हम लोग आपसे और क्या निवेदन करें।
अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते ।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
विधत्स्व शं नो द्विजदेवमन्त्रम् ॥
१५॥
प्रभो! मैं,
शंकर जी, अन्य देवता, ऋषि
और दक्ष आदि प्रजापति-सब-के-सब अग्नि से अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं
और अपने को आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थिति में प्रभो! हम लोग समझ ही क्या सकते
हैं। ब्राह्मण और देवताओं के कल्याण के लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे भगवत्स्तुति नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
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