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ब्रह्माकृत भगवत् स्तुति - देवासुर
संग्राम में असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। तब इन्द्र,
वरुण आदि देवताओं ने ब्रह्माजी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने
बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित
किया। ब्रह्मा जी ने देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘देवताओं!
मैं, शंकर जी, तुम लोग तथा असुर,
दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी,
वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूप के एक अत्यन्त
स्वल्पातिस्वल्प अंश से रचे गये हैं-हम लोग उन अविनाशी प्रभु की ही शरण ग्रहण
करें। वे देवताओं के प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनों का वे
अवश्य ही कल्याण करेंगे। देवताओं से यह कहकर ब्रह्मा जी एकाग्र मन से वेदवाणी के
द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे।
ब्रह्माकृत श्रीभगवत्स्तुतिः
ब्रह्माकृत
भगवान् की स्तुति
ब्रह्मोवाच
अविक्रियं
सत्यमनन्तमाद्यं
गुहाशयं
निष्कलमप्रतर्क्यम् ।
मनोऽग्रयानं
वचसानिरुक्तं
नमामहे
देववरं वरेण्यम् ॥ २६॥
ब्रह्मा जी
बोले ;-
भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदय
में अन्तर्यामीरूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ
जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका
निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयं प्रकाश हैं। हम सब
आपके चरणों में नमस्कार करते हैं।
विपश्चितं
प्राणमनोधियात्मना-
मर्थेन्द्रियाभासमनिद्रमव्रणम्
।
छायातपौ
यत्र न गृध्रपक्षौ
तमक्षरं
खं त्रियुगं व्रजामहे ॥ २७॥
आप प्राण,
मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं।
इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका
स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीने वाले शरीर से भी आप रहित हैं।
जीव के दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और
सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में तो आप प्रकट
रूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं।
अजस्य
चक्रं त्वजयेर्यमाणं
मनोमयं
पञ्चदशारमाशु ।
त्रिनाभि
विद्युच्चलमष्टनेमि
यदक्षमाहुस्तमृतं
प्रपद्ये ॥ २८॥
यह शरीर
जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण-ये पंद्रह इसके
अरे हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन
गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज,
वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका
संचालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीग्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं
परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं।
य
एकवर्णं तमसः परं त-
दलोकमव्यक्तमनन्तपारम्
।
आसां
चकारोपसुपर्णमेन-
मुपासते
योगरथेन धीराः ॥ २९॥
जो एकमात्र
ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं;
जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता-वही प्रभु इस जीव के हृदय
में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं
की आराधना करते हैं।
न
यस्य कश्चातितितर्ति मायां
यया
जनो मुह्यति वेद नार्थम् ।
तं
निर्जितात्माऽऽत्मगुणं परेशं
नमाम
भूतेषु समं चरन्तम् ॥ ३०॥
जिस माया
से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूप को भूल गया है,
वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परन्तु
सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणों को अपने वश में करके समस्त
प्राणियों के हृदय में समभाव से विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं,
उनकी कृपा से ही–उन्हें प्राप्त कर सकता है।
हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं।
इमे
वयं यत्प्रिययैव तन्वा
सत्त्वेन
सृष्टा बहिरन्तराविः ।
गतिं
न सूक्ष्मामृषयश्च विद्महे
कुतोऽसुराद्या
इतरप्रधानाः ॥ ३१॥
यों तो हम
देवता और ऋषिगण भी उनके परमप्रिय सत्त्वमय शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं,
फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते।
तब रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं? उन्हीं प्रभु के चरणों में हम नमस्कार करते हैं।
पादौ
महीयं स्वकृतैव यस्य
चतुर्विधो
यत्र हि भूतसर्गः ।
स
वै महापूरुष आत्मतन्त्रः
प्रसीदतां
ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३२॥
उन्हीं की
बनायीं हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वी पर जरायुज,
अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-ये चार प्रकार के
प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली
पुरुषोत्तम परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों।
अम्भस्तु
यद्रेत उदारवीर्यं
सिध्यन्ति
जीवन्त्युत वर्धमानाः ।
लोकास्त्रयोऽथाखिललोकपालाः
प्रसीदतां
ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३३॥
यह परम
शक्तिशाली जल उन्हीं का वीर्य है। इसी से तीनों लोक और समस्त लोकों के लोकपाल
उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे
परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों।
सोमं
मनो यस्य समामनन्ति
दिवौकसां
वै बलमन्ध आयुः ।
ईशो
नगानां प्रजनः प्रजानां
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३४॥
श्रुतियाँ
कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभु का मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओं का अन्न,
बल एवं आयु है। वही वृक्षों का सम्राट् एवं प्रजा की वृद्धि करने
वाला है। ऐसे मन को स्वीकार करने वाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हम पर प्रसन्न हों।
अग्निर्मुखं
यस्य तु जातवेदा
जातः
क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा ।
अन्तःसमुद्रेऽनुपचन्
स्वधातून्
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३५॥
अग्नि
प्रभु का मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेद के यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड
पूर्ण रूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीर के भीतर जठराग्नि रूप से और
समुद्र के भीतर बड़वानल के रूप से रहकर उनमें रहने वाले अन्न,
जल आदि धातुओं का पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्यों की उत्पत्ति
भी उसी से हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
यच्चक्षुरासीत्तरणिर्देवयानं
त्रयीमयो
ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् ।
द्वारं
च मुक्तेरमृतं च मृत्युः
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३६॥
जिनके
द्वारा जीव देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है,
जो वेदों की साक्षात् मूर्ति और भगवान् के ध्यान करने योग्य धाम हैं,
जो पुण्यलोकस्वरूप होने के कारण मुक्ति के द्वार एवं अमृतमय हैं और
कालरूप होने के कारण मृत्यु भी हैं-ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐशवर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
प्राणादभूद्यस्य
चराचराणां
प्राणः
सहो बलमोजश्च वायुः ।
अन्वास्म
सम्राजमिवानुगा वयं
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३७॥
प्रभु के
प्राण ही चराचर का प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक
और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देने वाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है,
तो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम
ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्रोत्राद्दिशो
यस्य हृदश्च खानि
प्रजज्ञिरे
खं पुरुषस्य नाभ्याः ।
प्राणेन्द्रियात्मासुशरीरकेतं
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३८॥
जिनके
कानों से दिशाएँ, हृदय से
इन्द्रियगोलक और नाभि से वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों
प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म,
कृकल, देवदत्त और धनंजय) एवं शरीर का आश्रय
है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
बलान्महेन्द्रस्त्रिदशाः
प्रसादा-
न्मन्योर्गिरीशो
धिषणाद्विरिञ्चः ।
खेभ्यश्च
छन्दांस्यृषयो मेढ्रतः कः
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ३९॥
जिनके बल
से इन्द्र, प्रसन्नता से समस्त देवगण,
क्रोध से शंकर, बुद्धि से ब्रह्मा, इन्द्रियों से वेद और ऋषि तथा लिंग से प्रजापति उत्पन्न हुए हैं-वे परम
ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्रीर्वक्षसः
पितरश्छाययाऽऽसन्
धर्मः
स्तनादितरः पृष्ठतोऽभूत् ।
द्यौर्यस्य
शीर्ष्णोऽप्सरसो विहारा-
त्प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ४०॥
जिनके
वक्षःस्थल से लक्ष्मी, छाया से पितृगण,
स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, सिर से आकाश और विहार से अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे
परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
विप्रो
मुखं ब्रह्म च यस्य गुह्यं
राजन्य
आसीद्भुजयोर्बलं च ।
ऊर्वोर्विडोऽजोऽङ्घ्रिरवेदशूद्रौ
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ४१॥
जिनके मुख
से ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओं
से क्षत्रिय और बल, जंघाओं से वैश्य और उनकी वृत्ति-व्यापार
कुशलता तथा चरणों से वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई-वे परम
ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
लोभोऽधरात्प्रीतिरुपर्यभूद्द्युति-
र्नस्तः
पशव्यः स्पर्शेन कामः ।
भ्रुवोर्यमः
पक्ष्मभवस्तु कालः
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ४२॥
जिनके अधर
से लोभ और ओष्ठ से प्रीति, नासिका से कान्ति,
स्पर्श से पशुओं का प्रिय काम, भौंहों से यम
और नेत्र के रोमों से काल की उत्पत्ति हुई है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर
प्रसन्न हों।
द्रव्यं
वयः कर्म गुणान् विशेषं
यद्योगमायाविहितान्
वदन्ति ।
यद्दुर्विभाव्यं
प्रबुधापबाधं
प्रसीदतां
नः स महाविभूतिः ॥ ४३॥
पंचभूत,
काल, कर्म, सत्त्वादि
गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषों के द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या
अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान् की योगमाया
से ही बने हैं-ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
नमोऽस्तु
तस्मा उपशान्तशक्तये
स्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने
।
गुणेषु
मायारचितेषु वृत्तिभि-
र्नसज्जमानाय
नभस्वदूतये ॥ ४४॥
जो
मायानिर्मित गुणों में दर्शनादि वृत्तियों के द्वारा आसक्त नहीं होते,
जो वायु के समान सदा-सर्वदा असंग रहते हैं, जिनमें
समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं-उन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्मस्वरूप
भगवान् को हमारे नमस्कार हैं।
स
त्वं नो दर्शयात्मानमस्मत्करणगोचरम् ।
प्रपन्नानां
दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥ ४५॥
प्रभो! हम
आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त आपका मुखकमल अपने
इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये।
तैस्तैः
स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो ।
कर्म
दुर्विषहं यन्नो भगवांस्तत्करोति हि ॥ ४६॥
प्रभो! आप
समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये
अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहज में कर
देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी
कठिनाई है।
क्लेशभूर्यल्पसाराणि
कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां
विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ॥ ४७॥
विषयों के
लोभ में पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें
कर्म करने में परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परन्तु
फल बहुत कम निकलता है। अधिकांश में तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म
आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करने के समय ही परम सुख
मिलता है। वे स्वयं फल रूप ही हैं।
नावमः
कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।
कल्पते
पुरुषस्यैष स ह्यात्मा दयितो हितः ॥ ४८॥
भगवान् को
समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान्
जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और
आत्मा ही हैं।
यथा
हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् ।
एवमाराधनं
विष्णोः सर्वेषामात्मनश्च हि ॥ ४९॥
जैसे वृक्ष
की जड़ को पानी से सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी
सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान् की
आरधना प्राणियों की और अपनी भी आराधना है।
नमस्तुभ्यमनन्ताय
दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।
निर्गुणाय
गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५०॥
जो तीनों
काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी
लीलाओं का रहस्य तर्क-वितर्क के परे हैं, जो स्वयं गुणों से
परे रहकर भी सब गुणों के स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुण में स्थित हैं-ऐसे आपको
हम बार-बार नमस्कार करते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे ब्रह्माकृतं भगवत्स्तुति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
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