शंकर स्तुति
देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना
पूर्ण करने वाले हैं। इस स्तुति का पाठ करने से बड़े से बड़ा दुःख या कष्ट को तीक्ष्ण
हलाहल विष के समान शिवजी हर लेते हैं।
समुद्र मन्थन से हलाहल नाम का
अत्यन्त उग्र विष निकला। वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशा में,
ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विष से बचने का कोई
उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसी के द्वारा त्राण न
मिलने पर भगवान् सदाशिव की शरण में गये। प्रजापतियों ने उनका दर्शन करके उनकी
स्तुति की-
शंकर स्तुति
Shankar stuti
प्रजापतय ऊचुः
देवदेव महादेव भूतात्मन् भूतभावन ।
त्राहि नः
शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद्विषात् ॥ २१॥
प्रजापतियों ने कहा : हे देवश्रेष्ठ
महादेव! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हम लोग आपकी शरण में
आये हैं। त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिये।
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो
बन्धमोक्षयोः ।
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः
प्रपन्नार्तिहरं गुरुम् ॥ २२॥
सारे जगत् को बाँधने और मुक्त करने
में एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं।
क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगद्गुरु हैं।
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य
सर्गस्थित्यप्ययान् विभो ।
धत्से यदा स्वदृग्भूमन्
ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ॥ २३॥
प्रभो! अपनी गुणमयी शक्ति से इस
जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने के लिये
आप अनन्त, एकरस होने पर भी ब्रह्मा, विष्णु,
शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं।
त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं
सदसद्भावभावनः ।
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा
जगदीश्वरः ॥ २४॥
आप स्वयं प्रकाश हैं। इसका कारण यह
है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता,
मनुष्य, पशु, पक्षी आदि
सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं-उनको जीवनदान देने वाले आप ही हैं। क्योंकि आप
आत्मा हैं। अनेक शक्तियों के द्वारा आप ही जगत् रूप में भी प्रतीत हो रहे हैं।
क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं।
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रियद्रव्यगुणस्वभावः ।
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति ॥
२५॥
समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं।
इसलिये आप समस्त ज्ञानों के मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत् के
आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण,
इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयों के
भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियों की वृद्धि और
ह्रास करने वाले काल हैं, उनका कल्याण करने वाले यज्ञ हैं
एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्,’ इन तीनों अक्षरों से युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिक प्रकृति हैं-ऐसा
वेदवादी महात्मा कहते हैं।
अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवताऽऽत्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्
।
कालं गतिं तेऽखिलदेवताऽऽत्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम् ॥ २६॥
सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है।
तीनों लोकों के अभ्युदय करने वाले शंकर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल
देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ
कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है।
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः ।
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवन् शिरस्ते ॥ २७॥
आकाश नाभि है,
वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य
है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवों का आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो!
स्वर्ग आपका सिर है।
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते ।
छन्दांसि साक्षात्तव सप्तधातव-
स्त्रयीमयात्मन् हृदयं सर्वधर्मः ॥
२८॥
वेदस्वरूप भगवन्! समुद्र आपकी कोख
हैं। पर्वत हड्डियों हैं। सब प्रकार की ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि
छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकार के धर्म आपके हृदय हैं।
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः ।
यत्तच्छिवाख्यं परमार्थतत्त्वं
देव स्वयञ्ज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ २९॥
स्वामिन्! सद्योजातादि पाँच उपनिषद्
ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हीं
के पदच्छेद से अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपंच से उपरत होकर
अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थिति का नाम
होता है ‘शिव’। वास्तव में वही
स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है।
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि ।
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ॥ ३०॥
अधर्म की दम्भ-लोग आदि तरंगों में
आपकी छाया है, जिनसे विविध प्रकार की सृष्टि
होती है, वे सत्त्व, रज और तम-आपके तीन
नेत्र हैं। प्रभो! गायत्री आदि छन्द रूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप
ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रों के रूप में स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं।
न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्रगम्यम् ।
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद्ब्रह्म निरस्तभेदम् ॥
३१॥
भगवन्! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप
स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण
एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकार का भेदभाव ही। आपके उस स्वरूप को सारे
लोकपाल-यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं
जान सकते।
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक-
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत्ते
।
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र-
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद ॥
३२॥
आपने कामदेव,
दक्ष के यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष
(जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायेंगे) और अनेक जीवद्रोही असुरों को नष्ट कर दिया
है। परन्तु यह कहने से आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलय के समय आपका
बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्र से निकली हुई आग की चिनगारी एवं लपट से जलकर
भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं
चलता।
ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि
चिन्तिताङ्घ्रि-
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्
।
कत्थन्त उग्रपुरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः ॥
३३॥
जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने
हृदय में आपके युगल चरणों का ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान
और तपस्या में ही लीन रहते हैं। फिर भी सती के साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं
श्मशानवासी होने के कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं-वे मूर्ख आपकी लीलाओं का
रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जता से भरा है।
तत्तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जः स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः
।
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम्
॥ ३४॥
इस कार्य और कारण रूप जगत् से परे
माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूप का
साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते,
फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्था में उनके पुत्रों के
पुत्र हम लोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार हमने आपका कुछ
गुणगान किया है।
एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते
महेश्वर ।
मृडनाय हि लोकस्य
व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः ॥ ३५॥
हम लोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी
रूप को देख रहे हैं। आपके परम स्वरूप को हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी
लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसार का
कल्याण करने के लिये आप व्यक्त रूप से भी रहते हैं।
इति श्रीमद्भागवत महापुराणे शंकर स्तुतिनाम अष्टमस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥
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