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अग्निपुराणम् अध्यायः ३४- होमादिविधिः
अग्निरुवाच
विशेदनेन मन्त्रेण यागस्थानञ्च
भूषयेत्।
अग्निदेव कहते हैं- मुनीश्वर !
निम्नाङ्कित मन्त्र का उच्चारण करते हुए साधक यागमण्डप में प्रवेश करे और सजावट से
यज्ञ के स्थान की शोभा बढ़ावे (तथा निम्नाङ्कित श्लोक पढ़कर भगवान् को नमस्कार
करे ) –
नमो ब्रह्मण्यदेवाय
श्रीधरायाव्ययात्मने ।। १ ।।
ऋग्यजुः सामरूपाय शब्ददेहाय
विष्णवे।
'वेदों तथा ब्राह्मणों के हितकारी
देवता अव्ययात्मा भगवान् श्रीधर को नमस्कार है।' ऋग्वेद,
यजुर्वेद तथा सामवेद आपके स्वरूप हैं; शब्दमात्र
आपके शरीर हैं; आप भगवान् विष्णु को नमस्कार है।
विलिख्य मण्डलं सायं यागद्रव्यादि
चाहरेत् ।। २ ।।
प्रक्षालितकराङ्घ्रिः सन्
विन्यस्यार्घ्यकरो नरः।
अर्घ्याद्भिस्तु शिरः प्रोक्ष्च
द्वारदेशादिकं तथा ।। ३ ।।
आरभेद् द्वारयागञ्च तोरणेशान्
प्रपूजयेत्।
अश्वत्थोदुम्बरवटप्लक्षाः पूर्वादिगा
नगाः ।। ४ ।।
ऋगिन्द्रशोभनं प्राच्यां
यजुर्यमसुभद्रकम्।
सामापश्च सुधन्वाख्यं
सोमाथर्वसुहोत्रकम् ।। ५ ।।
सायंकाल सर्वतोभद्रादि- मण्डल की
रचना करके यजन-पूजन सम्बन्धी द्रव्योंका संग्रह करे। हाथ-पैर धो ले। सब सामग्री को
यथास्थान जँचाकर हाथ में अर्घ्य लेकर मनुष्य उसके जल से अपने मस्तक को सींचे। फिर
द्वारदेश आदि में भी जल छिड़के। तदनन्तर द्वारयाग (द्वारस्थ देवताओं का पूजन)
आरम्भ करे। पहले तोरणेश्वरों की भलीभाँति पूजा करे। पूर्वादि दिशाओं के क्रम से
अश्वत्थ,
उदुम्बर, वट तथा पाकर - ये वृक्ष पूजनीय हैं।
इनके सिवा पूर्व दिशा में ऋग्वेद, इन्द्र तथा शोभन की,
दक्षिण में यजुर्वेद, यम तथा सुभद्र की,
पश्चिम में सामवेद, वरुण तथा सुधन्वा की और
उत्तर में अथर्ववेद, सोम एवं सुहोत्र की अर्चना करे ॥ १-५ ॥
तोरणान्ताः पताकाश्च कुमुदाद्या
घटद्वयम्।
द्वारि द्वारि स्वनाम्नार्च्याः
पूर्वे पूर्णश्च पुष्करः ।। ६ ।।
आनन्दनन्दनौ दक्षो वीरसेनः सुषेणकः।
सम्भवप्रभवौ सौम्ये द्वारपांश्चैव
पूजयेत् ।। ७ ।।
अस्त्रजप्तपुष्पक्षेपाद्विघ्नानुत्सार्य
संविशेत्।
भूतशुद्धिं विधायाथ विन्यस्य
कृतमुद्रकः ।। ८ ।।
फट्कारान्तां शिखां जप्त्वा सर्षपान्
दिक्षु निक्षिपेत्।
वासुदेवेन गोमूत्रं सङ्कर्षणेन
गोमयम् ।। ९ ।।
प्रद्युम्नेन पयस्तज्जाद् दधि
नारायणाद् घृतम्।
एकद्वित्र्यादिवाराणि घृताद्वै
भागतोधिकम् ।। १० ।।
घृतपात्रे तदेकत्र
पञ्चगव्यमुदाहृतम्।
मण्डपष्रोक्षणायैकञ्चापरम्प्राशनाय
च ।। ११ ।।
स्नानाय दशकुम्भेषु इन्द्राद्यान्
लोकपान् यजेत्।
पूज्याज्ञां श्रावयेत्तांश्च
स्थातव्यं चाज्ञया हरेः ।। १२ ।।
तोरण (फाटक) के भीतर पताकाएँ फहरायी
जायँ,
दो-दो कलश स्थापित हों और कुमुद आदि दिग्गजों का पूजन हो। प्रत्येक
दरवाजे पर दो-दो द्वारपालों की उनके नाम मन्त्र से ही पूजा की जाय। पूर्व दिशा में
पूर्ण और पुष्कर का, दक्षिण दिशा में आनन्द और नन्दन का,
पश्चिम में वीरसेन और सुषेण का तथा उत्तर दिशा में सम्भव और प्रभव
नामक द्वारपालों का पूजन करना चाहिये । अस्त्र-मन्त्र (फट्) - के उच्चारणपूर्वक
फूल बिखेरकर विघ्नों का अपसारण करने के पश्चात् मण्डप के भीतर प्रवेश करे।
भूतशुद्धि, न्यास और मुद्रा करके शिखा (वषट्) के अन्त में 'फट्' जोड़कर उसका जप करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में
सरसों छींटे। इसके बाद वासुदेव-मन्त्र से गोमूत्र, संकर्षण-मन्त्र
से गोमय, प्रद्युम्न मन्त्र से गोदुग्ध, अनिरुद्ध- मन्त्र से दही और नारायण-मन्त्र से घृत लेकर सबको घृतपात्र में
एकत्र करे; अन्य वस्तुओं का भाग घी से अधिक होना चाहिये। इन
सबके मिलने से जो वस्तु तैयार होती है, उसे 'पञ्चगव्य' कहा गया है। पञ्चगव्य एक, दो या तीन बार अलग-अलग बनावे। इनमें से एक तो मण्डप (तथा वहाँ की वस्तुओं)
का प्रोक्षण करने के लिये है, दूसरा प्राशन के लिये और तीसरा
स्नान के उपयोग में आता है। दस कलशों की स्थापना करके उनमें इन्द्रादि लोकपालों की
पूजा करे। पूजन करके उन्हें श्रीहरि की आज्ञा सुनावे- 'लोकपालगण!
आपको इस यज्ञ की रक्षा के लिये श्रीहरि की आज्ञा से यहाँ सदा स्थित रहना चाहिये '
॥ ६-१२ ॥
यागद्रव्यादि संरक्षय विकिरान्
विकिरेत्ततः।
मूलाष्टशतसञ्जप्तान् कुशकूर्चान्
हरेच्च तान् ।। १३ ।।
ऐशान्यां दिशि तत्रस्थं स्थाप्य
कुम्भञ्च वर्द्धनीम्।
कुम्भे साङ्गं हरिं प्रार्च्य वर्द्धन्यामस्त्रमर्चयेत्
।। १४ ।।
प्रदक्षिणं यागगृहं
वर्द्धन्याच्छिन्नदारया।
सिञ्चन्नयेत्ततः कुम्भं पूजयेच्च
स्थिरासने ।। १५ ।।
सपञ्चरत्नवस्त्राढ्यकुम्भे
गन्धादिभिर्हरिम्।
वर्द्धन्यां हेमगर्भायां
यजेजस्त्रञ्च वामतः ।। १६ ।।
तत्समीपे वास्तुलक्ष्मीं भूविनायकमर्च्चयेत्।
स्तपनं कल्पयेद्विष्णोः
सङ्क्रान्त्यादौ तथैव च ।। १७ ।।
पूर्णकुम्भान् नव स्थाप्य नवकोणेषु
निर्व्रणान्।
पाद्यमर्घ्यमाचमनीयं पञ्चगव्यञ्च
निः क्षिपेत् ।। १८ ।।
पूर्वादिकलसेग्न्यादौ
पञ्चामृतजलादिकम्।
दधि क्षीरं मधूष्णोदं पाद्यं
स्याच्चतुरङ्गकम् ।। १९ ।।
याग-द्रव्य आदि की रक्षा की
व्यवस्था करके विकिर* (विघ्न निवारण के
लिये सब ओर छींटे जानेवाले सर्षप आदि) द्रव्यों को बिखेरे। सात* बार अस्त्र सम्बन्धी मूल मन्त्र (अस्त्राय फट् )-
का जप करते हुए ही उक्त वस्तुओं को सब ओर बिखेरना चाहिये। फिर उसी तरह अस्त्र-मन्त्र
का जप करके कुश*- कूर्च ले आवे। उन्हें
ईशान कोण में रखकर उन्हीं के ऊपर कलश और वर्धनी को स्थापित करे। कलश में श्रीहरि का
साङ्ग पूजन करके वर्धनी में अस्त्र की अर्चना करे। वर्धनी की छिन्न धारा से
यागमण्डप को प्रदक्षिणाक्रम से सींचते हुए कलश को उसके उपयुक्त स्थान पर ले जाय और
स्थिर आसन पर स्थापित करके उसकी पूजा करे। कलश के भीतर पञ्चरत्न डाले। उसके ऊपर
वस्त्र लपेटे। फिर उस पर गन्ध आदि उपचारों द्वारा श्रीहरि का पूजन करे। वर्धनी में
भी सोने का टुकड़ा डाले। उसके बाद उस पर अस्त्र की पूजा करके,
उसके वामभाग में पास ही, वास्तु-लक्ष्मी तथा 'भूविनायक' की अर्चना करे। संक्रान्ति आदि के समय इसी
प्रकार श्रीविष्णु के स्नान- अभिषेक की व्यवस्था करे। मण्डप के कोणों और दिशाओं में
कुल मिलाकर आठ और मध्य में एक इस प्रकार नौ पूर्ण कलशों को, जिनमें
छिद्र न हों, स्थापित करके उनमें पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा पञ्चगव्य डाले। पूर्व आदि के
कलशों में उक्त वस्तुएँ डालनी चाहिये। अग्निकोण आदि के कलशों में उक्त वस्तुओं के
अतिरिक्त पश्चामृतयुक्त जल अधिक डालने का विधान है। पाद्य की अङ्गभूता चार वस्तुएँ
हैं-दही, दूध, मधु और गरम जल ॥ १३-१९ ॥
*१. शारदातिलक (पटल ४ श्लोक १४-१५) में लाजा, चन्दन, सरसों, भस्म, दुर्वाङ्कुर तथा अक्षत को 'विकिर' कहा है ये समस्त विघ्नसमूह का नाश करनेवाले
हैं-
लाजाश्चन्दनसिद्धार्थभस्मदूर्वाङ्कुराक्षताः।
विकिरा इति संदिष्टाः
सर्वविघ्नौघनाशनाः ॥
२. शारदातिलक में भी सात
बार अस्त्र-मन्त्र जपपूर्वक विकिर-विकिरण का विधान है। यथा-
विकिरान् विकिरेतत्र सप्तजप्ताञ्छराणुना
॥
३. पचीस कुशों से बंधा
हुआ कूर्च 'ज्ञानखङ्ग' कहा गया है। दो दर्भे का सामान्य कूर्च तथा पाँच-पाँच कुशों का विशेष
कूर्च होता है। सत्रह कुशों का 'ब्रह्मकूर्च' होता है। कूचों का दण्ड एक बित्ते का, उनकी
ब्रह्मग्रन्थि एक अङ्गुल की और उसके अग्रभाग की लंबाई तीन अङ्गुल की होनी चाहिये।
(ईशानशिव गुरुदेवपद्धति, सप्तम पटल १४-१५)
पद्मश्यामाकदूर्वाश्च विष्णुपत्नी च
पाद्यकम्।
तथाष्टाङ्गार्घ्यमाख्यातं
यवगन्धफलाक्षतम् ।। २० ।।
कुशाः सिद्धार्थपुष्पाणि तिला
द्रव्याणि चार्हणम्
लवङ्गकक्कोलयुतं दद्यादाचमनीयकम् ।।
२१ ।।
स्नापयेन्मूलमन्त्रेण देवं
पञ्चामृतैरपि।
शुद्धोदं मध्यकुम्बेन देवमूद्धर्नि
विनिः क्षिपेत् ।। २२ ।।
कलशान्निः सृतं तोयं कूर्चाग्रं
संस्पृशेन्नरः।
शुद्धोदकेन पाद्यञ्च
अर्घ्यमाचमनन्ददेत् ।। २३ ।।
परिमृज्य पटेनाह्गं सवस्त्रं पण्डलं
नयेत्।
तत्राभ्यर्च्याचरेद्धोमं कुण्डादौ
प्राणसंयमी ।। २४ ।।
प्रक्षाल्य हस्तौ रेखाश्च तिस्त्रः
पूर्वाग्रगामिनीः।
दक्षिणादुत्तरान्ताश्च
तिस्त्रश्चैवोत्तराग्रगाः ।। २५ ।।
किन्हीं के मत में कमल,
श्यामाक (तिन्नी का चावल), दूर्वादल और
विष्णुक्रान्ता ओषधि - इन चार वस्तुओं से युक्त जल 'पाद्य'
कहलाता है*। इसी तरह अर्घ्य के
भी आठ अङ्ग कहे गये हैं। जौ, गन्ध, फल,
अक्षत, कुश, सरसों,
फूल और तिल - इन आठ द्रव्यों का अर्घ्य के लिये संग्रह करना चाहिये*। जाती (जायफल), लवङ्ग और कङ्कोलयुक्त
जल का आचमन* देना चाहिये। इष्टदेव को
मूलमन्त्र से पञ्चामृत द्वारा स्नान करावे । बीचवाले कलश से भगवान् के मस्तक पर
शुद्ध जल का छींटा दे। कलश से निकले हुए जल एवं कूर्चाग्र का स्पर्श करे। फिर
शुद्ध जल से पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय निवेदन करे। तत्पश्चात्
वस्त्र से भगवान् के श्रीविग्रह को पोंछकर वस्त्र धारण करावे और वस्त्र के सहित
उन्हें मण्डल में ले जाय। वहाँ भलीभाँति पूजा करके प्राणायामपूर्वक कुण्ड आदि में
होम करे। (हवन की विधि - ) दोनों हाथ धोकर कुण्ड में या वेदी पर तीन पूर्वाग्र
रेखाएँ खींचे। ये रेखाएँ दक्षिण की ओर से आरम्भ करके क्रमशः उत्तर की ओर खींची
जायें। फिर इन्हीं के ऊपर तीन उत्तराग्र रेखाएँ खींचे। (ये भी दाहिने से आरम्भ
करके क्रमशः बायें खींची जायँ) ॥ २०-२५ ॥
*१. शारदातिलक में भी यही बात कही गयी है-
पाद्यं पादाम्बुजे
दद्याद् देवस्य हृदयाणुना ।
एतच्छ्यामाकदूर्वाब्जविष्णुक्रान्ताभिरीरितम्॥
(पटल ४।९३)
२.
गन्धपुष्पाक्षतयवकुशाग्रतिलसर्षपैः।
सदूर्वै:
सर्वदेवानामेतदर्घ्यमुदीरितम्॥ (शा०ति० ४।९५-९६)
३. सुधामन्त्रेण वदने
दद्यादाचमनीयकम्।
जातीलवङ्गकङ्कोलैस्तदुक्तं
तन्त्रवेदिभिः ॥ ( शा०ति० ४।९४)
अर्घ्योदकेन सम्प्रोक्ष्य
योनिमुद्राम्प्रदर्शयेत्।
द्यात्वाग्निरूपञ्चाग्निन्तु
योन्यां कुण्डे क्षिपेन्नरः ।। २६ ।।
पात्राण्यासादयेत्
पञ्चाद्दर्भस्त्रुक्स्त्रुवकादिभिः।
बाहुमात्राः परिधय इध्मव्रश्चनमेव च
।। २७ ।।
प्रणीता प्रोक्षणीपात्रमाज्यस्थाली
घृतादिकम्।
प्रस्थद्व्यं तण्डुलानां युग्मं
युग्ममदोमुखम् ।। २८ ।।
ग्रणीताप्रोक्षणीपात्रे न्यसेत्
प्रागगग्रं कुशम्।
अद्भिः पूर्य्यप्रणीतान्तु ध्यात्वा
देवं प्रपूज्य च ।। २९ ।।
प्रणीतां स्थापयेदग्रे
द्रव्याणाञ्चैव मध्यतः ।
प्रोक्षणीमद्भिः सम्पूर्य्य
प्रार्च्य दक्षे तु विन्यसेत् ।। ३० ।।
चरुञ्च श्रपयेदग्नौ ब्रह्माणं
दक्षिणे न्यसेत्।
कुशानास्तीर्य्य पूर्वादौ परिधीन्
स्थापयेत्ततः ।। ३१ ।।
वैष्णवीकरणं कुर्य्याद्
गर्भाधानादिना नरः।
गर्भाधानं पुंसवनं
सीमन्तोन्नयनञ्चनिः ।। ३२ ।।
नामादिसमावर्त्तनान्तं जुहुयादष्ट
चाहुतीः।
पूर्णाहुतीः प्रतिकर्म्म स्रुचा
स्रुवसुयुक्तया ।। ३३ ।।
तत्पश्चात् अर्घ्य के जल से इन
रेखाओं का प्रोक्षण करे और योनिमुद्रा*
दिखावे। अग्नि का आत्मरूप से चिन्तन करके मनुष्य योनियुक्त कुण्ड में उसकी स्थापना
करे। इसके बाद दर्भ, स्रुक्, स्रुवा आदि के साथ पात्रासादन करे। बाहुमात्र की परिधियाँ, इध्मव्रश्चन, प्रणीतापात्र, प्रोक्षणीपात्र,
आज्यस्थाली, घी, दो-दो
सेर चावल तथा अधोमुख स्रुक् और स्रुवा की जोड़ी। प्रणीता एवं प्रोक्षणी में
पूर्वाग्र कुश रखे। प्रणीता को जल से भरकर भगवान् का ध्यान- पूजन करके उसको अग्नि
के पश्चिम अपने आगे और आसादित द्रव्यों के मध्यमें रखे। प्रोक्षणी को जल से भरकर
पूजन के पश्चात् दाहिने रखे। आग पर चरु को चढ़ाकर पकावे और अग्नि से दक्षिण दिशा में
ब्रह्माजी की स्थापना करे। कुण्ड या वेदी के चारों ओर पूर्वादि दिशा में कुश
(बर्हिष्) बिछाकर परिधियों को स्थापित करे। तदनन्तर गर्भाधानादि संस्कार के द्वारा
अग्नि का वैष्णवीकरण करे। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म एवं नामकरणादि- समावर्तनान्त
संस्कार करके प्रत्येक कर्म के लिये आठ-आठ आहुतियाँ दे तथा स्रुवायुक्त स्रुक्के
द्वारा पूर्णाहुति प्रदान करे ॥ २६-३३ ॥
* मन्त्र महार्णव योनिमुद्रा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-
मिथः कनिष्ठिके बद्ध्वा
तर्जनीभ्यामनामिके।
अनामिकोर्ध्व संश्लिष्टे
दीर्घमध्यमयोरपि॥ (पू० ख० १ तरं० २)
कुण्डमध्ये ऋतुमतीं लक्ष्मीं
सञ्चिन्त्य होमयेत्।
कुण्डलक्ष्मीः समाख्याता
प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका ।। ३४ ।।
सा योनिः सर्वभूतानां
विद्यामन्त्रगणस्य च।
विमुक्तेः कारणं वह्निः परमात्मा च
मुक्तिदः ।। ३५ ।।
प्राच्यां शिरः समाख्यातं बाहू कोणे
व्यवस्थितौ।
ईशानाग्नेयकोणे तु जङ्घे
वायव्यनैर्ऋते ।। ३६ ।।
उदरं कुण्डमित्युक्तं
योनिर्योनिर्विधीयते।
गुणत्रयं मेखलाः स्युर्ध्यात्वैवं
समिधो दश ।। ३७ ।।
पञ्चाधिकांस्तु जुहुयात्
प्रणवान्मुष्टिमुद्रया ।
पुनराघारौ जुहुयाद्वाय्वग्न्यन्तं
ततः श्रपेत् ।। ३८ ।।
ईशान्तं मूलप्रन्त्रेण आज्यभागौ तु
होमयेत्।
उत्तरे द्वादशान्तेन दक्षिणे तेन
मध्यतः ।। ३९ ।।
व्याहृत्या पद्ममध्यस्थं
ध्यायेद्वह्निन्तु संस्कृतम्।
वैष्णवं सप्तजिह्वं च
सूर्यकोटिसमप्रभम् ।। ४० ।।
चन्द्रवक्त्रञ्च सूर्याक्षं
जुहुयाच्छतमष्ट च।
तदर्द्धञ्चष्ट मूलेन अह्गानाञ्च
दशांशतः ।। ४१ ।।
कुण्ड के भीतर ऋतुस्राता लक्ष्मी का
ध्यान करके हवन करे। कुण्ड के भीतर जो लक्ष्मी हैं, उन्हें 'कुण्डलक्ष्मी' कहा गया
है। वे ही त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं। वे सम्पूर्ण भूतों की तथा विद्या एवं
मन्त्र समुदाय की योनि हैं। परमात्मस्वरूप अग्निदेव मोक्ष के कारण एवं मुक्तिदाता
हैं। पूर्व दिशा की ओर कुण्डलक्ष्मी का सिर है, ईशान और
अग्निकोण की ओर उसकी भुजाएँ हैं, वायव्य तथा नैर्ऋत्यकोण में
जंघाएँ हैं, उदर को 'कुण्ड' कहा है तथा योनि के स्थान में कुण्ड- योनि का विधान है। सत्व, रज और तम- ये तीन गुण ही तीन मेखलाएँ हैं ।' इस
प्रकार ध्यान करके प्रणवमन्त्र से मुष्टिमुद्रा द्वारा पंद्रह समिधाओं का होम करे।
फिर वायु से लेकर अग्निकोण तक 'आधार' नामक
दो आहुतियाँ दे । इसी तरह आग्रेय से ईशानान्त तक 'आज्य भाग'
नामक आहुतियों का हवन करे। आज्यस्थाली में से उत्तर, दक्षिण और मध्यभाग से घृत लेकर द्वादशान्त से, अर्थात्
मूल को बारह बार जप कर अग्नि में भी उन्हीं दिशाओं में उसकी आहुति दे और वहीं उसका
त्याग करे*। इसके बाद 'भूः स्वाहा' इत्यादि रूप से व्याहृति- होम करे। कमल के
मध्यभाग में संस्कार सम्पन्न अग्निदेव का 'विष्णु' रूप में ध्यान करे। 'वे सात जिह्वाओं से युक्त हैं,
करोड़ों सूर्यो के समान उनकी प्रभा है, चन्द्रोपम
मुख है और सूर्य सदृश देदीप्यमान नेत्र हैं।' इस तरह ध्यान
करके उनके लिये एक सौ आठ आहुतियाँ दे । अथवा मूल मन्त्र से उसकी आधी एवं आठ
आहुतियाँ दे । अङ्गों के लिये भी दस-दस आहुतियाँ दे ॥ ३४ - ४१ ॥
* प्रादेशमात्र
ग्रन्थियुक्त दो कुशा लेकर, घी के बीच में डालकर, उसके दो भाग करके, उसे शुक्ल और कृष्ण दो पक्षों के
रूप में स्मरण करे। तदनन्तर वामभाग में इडानाडी, दक्षिणभाग में
पिङ्गलानाडी और मध्यभाग में सुषुम्ना नाडी का ध्यान करके हवन करे। 'ॐ नमः ।'- इस मन्त्र द्वारा स्रुव से दक्षिण भाग
की ओर से घी लेकर दाहिने नेत्र में ॐ अग्नये स्वाहा इदमग्नये ।'
कहकर एक आहुति दे। फिर उत्तर भाग से घी लेकर 'ॐ सोमाय स्वाहा इदं सोमाय' बोलकर एक आहुति अग्नि
के वामनेत्र में दे। इसके बाद बीच से घी लेकर 'अग्रीपोमाभ्यां
नमः।' इस मन्त्र से एक आहुति अग्नि के भालस्थ नेत्र में
दे फिर स्रुव द्वारा दक्षिण भाग से घी लेकर अग्नि के मुख में 'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा' बोलकर एक आहुति दे
इसके बाद व्याहृति- होम करना चाहिये (मन्त्रमहार्णव से)। जिस भाग से आज्याहुति ली
जाय अग्नि के उसी भाग में उसका सम्पात या त्याग करे। जैसा कि कहा है-
'स्वाहान्तहोमं विधाय 'स्वाहा' इत्यस्यान्ते यस्माद् भागादाज्याहुतिगृहीता
तस्मिन्नेव भागे तस्य सम्पातं कुर्यात्।'(शा० ति० ५ पटल,
श्लोक ५८ की टीका)
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
अग्निकार्यकथनं नाम चतुस्त्रिशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'पवित्रारोपण सम्बन्धी पूजा होम-विधि का वर्णन' विषयक
चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 35
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