नारायण स्तुति

नारायण स्तुति

वृत्रासुर के डर से सारे देवताओं ने एकाग्रचित्त हो अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की स्तुति करना प्रारंभ किया।

नारायण स्तुति

श्रीनारायण स्तुति

देवा ऊचुः

वाय्वम्बराग्न्यप्क्षितयस्त्रिलोका

ब्रह्मादयो ये वयमुद्विजन्तः ।

हराम यस्मै बलिमन्तकोऽसौ

बिभेति यस्मादरणं ततो नः ॥ २१॥

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं।

अविस्मितं तं परिपूर्णकामं

स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम् ।

विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः

श्वलाङ्गुलेनातितितर्ति सिन्धुम् ॥ २२॥

प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है।

यस्योरुशृङ्गे जगतीं स्वनावं

मनुर्यथाऽऽबध्य ततार दुर्गम् ।

स एव नस्त्वाष्ट्रभयाद्दुरन्ता-

त्त्राताऽऽश्रितान् वारिचरोऽपि नूनम् ॥ २३॥

वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकट से बच गये, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे।

पुरा स्वयम्भूरपि संयमाम्भ-

स्युदीर्णवातोर्मिरवैः कराले ।

एकोऽरविन्दात्पतितस्ततार

तस्माद्भयाद्येन स नोऽस्तु पारः ॥ २४॥

प्राचीनकाल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रह्मा जी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि उनकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें।

य एक ईशो निजमायया नः

ससर्ज येनानुसृजाम विश्वम् ।

वयं न यस्यापि पुरः समीहतः

पश्याम लिङ्गं पृथगीशमानिनः ॥ २५॥

उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हम लोग सृष्टि कार्य का संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’-अपने इस अभिमान के कारण हम लोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते।

यो नः सपत्नैर्भृशमर्द्यमानान्

देवर्षितिर्यङ्नृषु नित्य एव ।

कृतावतारस्तनुभिः स्वमायया

कृत्वाऽऽत्मसात्पाति युगे युगे च ॥ २६॥

वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं।

तमेव देवं वयमात्मदैवतं

परं प्रधानं पुरुषं विश्वमन्यम् ।

व्रजाम सर्वे शरणं शरण्यं

स्वानां स नो धास्यति शं महात्मा ॥ २७॥

वे ही सबके आत्मा और परमाध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं। वे विश्व से पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं। उदार शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे।

श्रीशुक उवाच

इति तेषां महाराज सुराणामुपतिष्ठताम् ।

प्रतीच्यां दिश्यभूदाविः शङ्खचक्रगदाधरः ॥ २८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए।

आत्मतुल्यैः षोडशभिर्विना श्रीवत्सकौस्तुभौ ।

पर्युपासितमुन्निद्रशरदम्बुरुहेक्षणम् ॥ २९॥

भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नहीं थी।

दृष्ट्वा तमवनौ सर्व ईक्षणाह्लादविक्लवाः ।

दण्डवत्पतिता राजञ्छनैरुत्थाय तुष्टुवुः ॥ ३०॥

परीक्षित! भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये। उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे।

श्रीनारायण स्तुति

देवा ऊचुः

नमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः ।

नमस्ते ह्यस्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये ॥ ३१॥

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करने वाले काल भी आप ही हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

यत्ते गतीनां तिसृणामीशितुः परमं पदम् ।

नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमर्हति ॥ ३२॥

विधातः! सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता।

ओं नमस्तेऽस्तु भगवन् नारायण

वासुदेवाऽऽदिपुरुष महापुरुष महानुभाव

परममङ्गल परमकल्याण परमकारुणिक

केवल जगदाधार लोकैकनाथ सर्वेश्वर

लक्ष्मीनाथ परमहंसपरिव्राजकैः

परमेणात्मयोगसमाधिना परिभावित-

परिस्फुटपारमहंस्यधर्मेणोद्घाटिततमः-

कपाटद्वारे चित्तेऽपावृत आत्मलोके

स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवो भवान् ॥ ३३॥

भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परममंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परमदयालु हैं। आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परमगति हैं। प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परमसमाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है। इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनकी आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

दुरवबोध इव तवायं विहारयोगो

यदशरणोऽशरीर इदमनवेक्षितास्म-

त्समवाय आत्मनैवाविक्रियमाणेन

सगुणमगुणः सृजसि पासि हरसि ॥ ३४॥

भगवन्! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के हम लोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके निगुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं ही इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं।

अथ तत्र भवान् किं देवदत्तवदिह

गुणविसर्गपतितः पारतन्त्र्येण स्वकृत-

कुशलाकुशलं फलमुपाददात्याहोस्वि-

दात्माराम उपशमशीलः समञ्जसदर्शन

उदास्त इति ह वाव न विदामः ॥ ३५॥

भगवन्! हम लोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् में जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं।

न हि विरोध उभयं भगवत्यपरिमित-

गुणगण ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीन-

विकल्पवितर्कविचारप्रमाणाभासकुतर्क-

शास्त्रकलिलान्तःकरणाश्रयदुरवग्रहवादिनां

विवादानवसर उपरतसमस्तमायामये

केवल एवात्ममायामन्तर्धाय को

न्वर्थो दुर्घट इव भवति स्वरूपद्वयाभावात् ॥ ३६॥

हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्क पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे, केवल है। जब आप उसी में अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीन ही। आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं।

समविषममतीनां मतमनुसरसि यथा

रज्जुखण्डः सर्पादिधियाम् ॥ ३७॥

जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुषों को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धि वालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में। आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं।

स एव हि पुनः सर्ववस्तुनि वस्तुस्वरूपः

सर्वेश्वरः सकलजगत्कारणकारणभूतः

सर्वप्रत्यगात्मत्वात्सर्वगुणाभासोपलक्षित

एक एव पर्यवशेषितः ॥ ३८॥

विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध की अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है।

अथ ह वाव तव महिमामृतरससमुद्र-

विप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि

निष्यन्दमानानवरतसुखेन विस्मारित-

दृष्टश्रुतविषयसुखलेशाभासाः

परमभागवता एकान्तिनो भगवति

सर्वभूतप्रियसुहृदि सर्वात्मनि नितरां

निरन्तरं निर्वृतमनसः कथमु ह वा एते

मधुमथन पुनः स्वार्थकुशला ह्यात्मप्रिय-

सुहृदः साधवस्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां

विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्तः ॥ ३९॥

मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमारस का अनन्त समुद्र है। उनके नन्हें-से सीकर का भी, अधिक नहीं-एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है। उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भूला दिया है, समस्त प्राणियों के परमप्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्यनिधि परमेश्वर में जो मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्य प्रेमी परमभक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता है।

त्रिभुवनात्मभवन त्रिविक्रम त्रिनयन

त्रिलोकमनोहरानुभाव तवैव विभूतयो

दितिजदनुजादयश्चापि तेषामनुपक्रम-

समयोऽयमिति स्वात्ममायया

सुरनरमृगमिश्रितजलचराकृतिभि-

र्यथापराधं दण्डं दण्डधर दधर्थ

एवमेनमपि भगवन् जहि त्वाष्ट्रमुत

यदि मन्यसे ॥ ४०॥

प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करने वाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है-यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये।

अस्माकं तावकानां तव नतानां तत

ततामह तव चरणनलिनयुगलध्याना-

नुबद्धहृदयनिगडानां स्वलिङ्गविवरणेना-

त्मसात्कृतानामनुकम्पानुरञ्जितविशद-

रुचिरशिशिरस्मितावलोकेन विगलित-

मधुरमुखरसामृतकलया चान्तस्ताप-

मनघार्हसि शमयितुम् ॥ ४१॥

भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह-सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलों का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेम बन्धन से बँध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुस्कानयुक्त चितवन से तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये।

अथ भगवंस्तवास्माभिरखिलजग-

दुत्पत्तिस्थितिलयनिमित्तायमानदिव्य-

मायाविनोदस्य सकलजीवनिकायाना-

मन्तर्हृदयेषु बहिरपि च ब्रह्मप्रत्यगात्म-

स्वरूपेण प्रधानरूपेण च यथादेशकाल-

देहावस्थानविशेषं तदुपादानो-

पलम्भकतयानुभवतः सर्वप्रत्ययसाक्षिण

आकाशशरीरस्य साक्षात्परब्रह्मणः

परमात्मनः कियानिह वार्थविशेषो

विज्ञापनीयः स्याद्विस्फुलिङ्गादिभिरिव

हिरण्यरेतसः ॥ ४२॥

प्रभो! जिस प्रकार अग्नि की ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है। क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाली दिव्यमाया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप में विराजमान रहते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही विराजमान हैं। जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों के साक्षी हैं। आप प्रकाशक के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं।

अत एव स्वयं तदुपकल्पयास्माकं

भगवतः परमगुरोस्तव चरणशत-

पलाशच्छायां विविधवृजिनसंसार-

परिश्रमोपशमनीमुपसृतानां वयं

यत्कामेनोपसादिताः ॥ ४३॥

अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें-इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हम लोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं। हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटाने वाली है।

अथो ईश जहि त्वाष्ट्रं ग्रसन्तं भुवनत्रयम् ।

ग्रस्तानि येन नः कृष्ण तेजांस्यस्त्रायुधानि च ॥ ४४॥

सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है, आप उसे मार डालिये।

हंसाय दह्रनिलयाय निरीक्षकाय

कृष्णाय मृष्टयशसे निरुपक्रमाय ।

सत्सङ्ग्रहाय भवपान्थनिजाश्रमाप्त-

वन्ते परीष्टगतये हरये नमस्ते ॥ ४५॥

प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्ज्वलकीर्ति सम्पन्न हैं। संत लोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।

श्रीनारायण स्तुति महात्म्य

श्रीशुक उवाच

अथैवमीडितो राजन् सादरं त्रिदशैर्हरिः ।

स्वमुपस्थानमाकर्ण्य प्राह तानभिनन्दितः ॥ ४६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे।

श्रीभगवानुवाच

प्रीतोऽहं वः सुरश्रेष्ठा मदुपस्थानविद्यया ।

आत्मैश्वर्यस्मृतिः पुंसां भक्तिश्चैव यया मयि ॥ ४७॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की है, इससे मैं तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ। इस स्तुति के द्वारा जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है।

किं दुरापं मयि प्रीते तथापि विबुधर्षभाः ।

मय्येकान्तमतिर्नान्यन्मत्तो वाञ्छति तत्त्ववित् ॥ ४८॥

देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते।

न वेद कृपणः श्रेय आत्मनो गुणवस्तुदृक् ।

तस्य तानिच्छतो यच्छेद्यदि सोऽपि तथाविधः ॥ ४९॥

जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जनता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है।

स्वयं निःश्रेयसं विद्वान् न वक्त्यज्ञाय कर्म हि ।

न राति रोगिणोऽपथ्यं वाञ्छतो हि भिषक्तमः ॥ ५०॥

जो पुरुष मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे श्रीनारायणस्तुति: नवमोऽध्यायः ॥ ९॥

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