अग्निपुराण अध्याय ३६

अग्निपुराण अध्याय ३६               

अग्निपुराण अध्याय ३६ भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ३६

अग्निपुराणम् अध्यायः ३६               

Agni puran chapter 36

अग्निपुराण छत्तीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ३६               

अग्निपुराणम् अध्यायः ३६- पवित्रारोपणविधानम्

अग्निरुवाच

प्रातः स्नानं कृत्वा द्वारपालान् प्रपूज्य च ।

प्रविश्य गुप्ते देशे च समाकृष्याथ धारयेत् ॥३६.००१

पूर्वाधिवासितं द्रव्यं वस्त्राभरणगन्धकं ।

निरस्य सर्वनिर्माल्यं देवं संस्थाप्य पूजयेत् ॥३६.००२

पञ्चामृतैः कषायैश्च शुद्धगन्धोदकैस्ततः ।

पूर्वाधिवासितं दद्याद्वस्त्रं गन्धं च पुष्पकं ॥३६.००३

अग्नौ हुत्वा नित्यवच्च देवं सम्प्रार्थयेन्नमेत् ।

समर्प्य कर्म देवाय पूजां नैमित्तिकीं चरेत् ॥३६.००४

द्वारपालविष्णुकुम्भवर्धनीः प्रार्थयेद्धरिं ।

अतो देवेति मन्त्रेण मूलमन्त्रेण कुम्भके ॥३६.००५

कृष्ण कृष्ण नमस्तुभ्यं गृह्णीष्वेदं पवित्रकं ।

पवित्रीकरणार्थाय वर्षपूजाफलप्रदं ॥३६.००६

पवित्रकं कुरुध्वाद्य यन्मया दुष्कृतं कृतं ।

शुद्धो भवाम्यहं देव त्वत्प्रसादात्सुरेश्वर ॥३६.००७

पवित्रञ्च हृदाद्यैस्तु आत्मानमभिषिच्य च ।

विष्णुकुम्भञ्च सम्प्रोक्ष्य व्रजेद्देवसमीपतः ॥३६.००८

पवित्रमात्मने दद्याद्रक्षाबन्धं विसृज्य च ।

गृहाण ब्रह्मसूत्रञ्च यन्मया कल्पितं प्रभो ॥३६.००९

अग्निदेव कहते हैंमुने! प्रात:काल स्नान आदि करके, द्वारपालों का पूजन करने के पश्चात् गुप्त स्थान में प्रवेश करके, पूर्वाधिवासित पवित्रक में से एक लेकर प्रसादरूप से धारण कर ले। शेष द्रव्य- वस्त्र, आभूषण, गन्ध एवं सम्पूर्ण निर्माल्य को हटाकर भगवान्‌ को स्नान कराने के पश्चात् उनकी पूजा करे। पञ्चामृत, कषाय एवं शुद्ध गन्धोदक से नहलाकर भगवान्के निमित्त पहले से रखे हुए वस्त्र, गन्ध और पुष्प को उनकी सेवा में प्रस्तुत करे। अग्नि में नित्यहोम की भाँति हवन करके भगवान्‌ की स्तुति प्रार्थना करने के अनन्तर उनके चरणों में मस्तक नवावे। फिर अपने समस्त कर्म भगवान्‌ को अर्पित करके उनकी नैमित्तिकी पूजा करे द्वारपाल, विष्णु कुम्भ और वर्धनी की प्रार्थना करे । 'अतो देवाः' इत्यादि मन्त्र से, अथवा मूल मन्त्र से कलश पर श्रीहरि की स्तुति प्रार्थना करे - 'हे कृष्ण ! हे कृष्ण! आपको नमस्कार है। इस पवित्रक को ग्रहण कीजिये। यह उपासक को पवित्र करने के लिये है और वर्षभर की हुई पूजा के सम्पूर्ण फल को देनेवाला है। नाथ! पहले मुझसे जो दुष्कृत (पाप) बन गया हो, उसे नष्ट करके आप मुझे परम पवित्र बना दीजिये। देव ! सुरेश्वर! आपकी कृपा से मैं शुद्ध हो जाऊँगा। हृदय, सिर आदि मन्त्रों द्वारा पवित्रक का तथा अपना भी अभिषेक करके विष्णुकलश का भी प्रोक्षण करने के बाद भगवान्‌ के समीप जाय । उनके रक्षाबन्धन को हटाकर उन्हें पवित्रक अर्पण करे और कहे- 'प्रभो! मैंने जो ब्रह्मसूत्र तैयार किया है, इसे आप ग्रहण करें। यह कर्म की पूर्ति का साधक है; अतः इस पवित्रारोपण कर्म को आप इस तरह सम्पन्न करें, जिससे मुझे दोष का भागी न होना पड़े ' ॥ १-९॥

कर्मणां पूरणार्थाय यथा दोषो न मे भवेत् ।

द्वारपालासनगुरुमुख्यानाञ्च पवित्रकम् ॥३६.०१०

कनिष्टादि च देवाय वनमालाञ्च मूलतः ।

हृदादिविश्वक्सेनान्ते पवित्राणि समर्पयेत् ॥३६.०११

वह्नौ हुत्वाग्निवर्तिभ्यो विष्ण्वादिभ्यः पवित्रकम् ।

प्रार्च्य पूर्णाहुतिं दद्यात्प्रायश्चित्ताय मूलतः ॥३६.०१२

अष्टोत्तरशतं वापि पञ्चोपनिषदैस्ततः ।

मणिविद्रुममालाभिर्मन्दारकुसुमादिभिः ॥३६.०१३

इयं सांवत्सरी पूजा तवास्तु गरुडध्वज ।

वनमाला यथा देव कौस्तुभं सततं हृदि ॥३६.०१४

तद्वत्पवित्रतन्तूंश्च पूजां च हृदये वह ।

कामतोऽकामतो वापि यत्कृतं नियमार्चने ॥३६.०१५

द्वारपाल, योगपीठासन तथा मुख्य गुरुओं को पवित्रक चढ़ावे। इनमें कनिष्ठ श्रेणी का (नाभितक का) पवित्रक द्वारपालों को, मध्यम श्रेणी का (जाँघतक लटकनेवाला) पवित्रक योगपीठासन को और उत्तम (घुटनेतक का) पवित्रक गुरुजनों को दे। साक्षात् भगवान्‌ को मूल मन्त्र से वनमाला (पैरोंतक लटकनेवाला पवित्रक) अर्पित करे । 'नमो विष्वक्सेनाय' मन्त्र बोलकर विष्वक्सेन को भी पवित्रक चढ़ावे । अग्नि में होम करके अग्निस्थ विश्वादि देवताओं को पवित्रक अर्पित करे। तदनन्तर पूजन के पश्चात् मूल मन्त्र से प्रायश्चित्त के उद्देश्य से पूर्णाहुति दे । अष्टोत्तरशत अथवा पाँच औपनिषद- मन्त्रों से पूर्णाहुति देनी चाहिये। मणि या मूंगों की मालाओं से अथवा मन्दारपुष्प आदि से अष्टोत्तरशत की गणना करनी चाहिये। अन्त में भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना करे- 'गरुडध्वज ! यह आपकी वार्षिक पूजा सफल हो। देव! जैसे वनमाला आपके वक्षःस्थल में सदा शोभा पाती है, उसी तरह पवित्रक के इन तन्तुओं को और इनके द्वारा की गयी पूजा को भी आप अपने हृदय में धारण करें। मैंने इच्छा से या अनिच्छा से नियमपूर्वक की जानेवाली पूजा में जो त्रुटियाँ की हैं, विघ्नवश विधि के पालन में जो न्यूनता हुई है, अथवा कर्मलोप का प्रसङ्ग आया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो जाय। मेरे द्वारा की हुई आपकी पूजा पूर्णतः सफल हो' ॥ १० १५ ॥

विधिना विघ्नलोपेन परिपूर्णं तदस्तु मे ।

प्रार्थ्य नत्वा क्षमाप्याथ पवित्रं मस्तकेऽर्पयेत् ॥३६.०१६

दत्वा बलिं दक्षिणाभिर्वैष्णवन्तोषयेद्गुरुं ।

विप्रान् भोजनवस्त्राद्यैर्दिवसं पक्षमेव वा ॥३६.०१७

पवित्रं स्नानकाले च अवतार्य समर्पयेत् ।

अनिवारितमन्नाद्यं दद्याद्भुङ्क्तेथ च स्वयं ॥३६.०१८

विसर्जनेऽह्नि सम्पूज्य पवित्राणि विसर्जयेत् ।

सांवत्सरीमिमां पूजां सम्पाद्य विधिवन्मम ॥३६.०१९

व्रज पवित्रकेदानीं विष्णुलोकं विसर्जितः ।

मध्ये सोमेशयोः प्रार्च्य विष्वक्सेनं हि तस्य च ॥३६.०२०

पवित्राणि समभ्यर्च्य ब्राह्मणाय समर्पयेत् ।

यावन्तस्तन्तवस्तस्मिन् पवित्रे परिकल्पिताः ॥३६.०२१

तावद्युगसहस्राणि विष्णुलोके महीयते ।

कुलानां शतमुद्धृत्य दश पूर्वान् दशापरान् ।

विष्णुलोकं तु संस्थाप्य स्वयं मुक्तिमवाप्नुयात् ॥३६.०२२

इस प्रकार प्रार्थना और नमस्कार करके अपराधों के लिये क्षमा माँगकर पवित्रक को मस्तक पर चढ़ावे । फिर यथायोग्य बलि अर्पित करके दक्षिणा द्वारा वैष्णव गुरु को संतुष्ट करे । यथाशक्ति एक दिन या एक पक्षतक ब्राह्मणों को भोजन- वस्त्र आदि से संतोष प्रदान करे। स्नानकाल में पवित्रक को उतारकर पूजा करे। उत्सव के दिन किसी को आने से न रोके और सबको अनिवार्यरूप से अन्न देकर अन्त में स्वयं भी भोजन करे विसर्जन के दिन पूजन करके पवित्रकों का विसर्जन करे और इस प्रकार प्रार्थना करे' हे पवित्रक! मेरी इस वार्षिक पूजा को विधिवत् सम्पादित करके अब तुम मेरे द्वारा विसर्जित हो विष्णुलोक को पधारो।' उत्तर और ईशानकोण के बीच में विष्वक्सेन की पूजा करके उनके भी पवित्रकों की अर्चना करने के पश्चात् उन्हें ब्राह्मण को दे दे। उस पवित्रक में जितने तन्तु कल्पित हुए हैं, उतने सहस्र युगों तक उपासक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। साधक पवित्रारोपण से अपनी सौ पूर्व पीढ़ियों का उद्धार करके दस पहले और दस बाद की पीढ़ियों को विष्णुलोक में स्थापित करता और स्वयं भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ १६-२२ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये विष्णुपवित्रारोहणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'विष्णु-पवित्रारोपणविधि-निरूपण' नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 37 

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