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अग्निपुराण अध्याय ३५
अग्निपुराण अध्याय ३५ पवित्राधिवासन
विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ३५
Agni puran chapter 35
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अग्नि पुराण अध्याय ३५
अग्निपुराणम् अध्यायः ३५- पवित्राधिवासनादिविधिः
अग्निरुवाच
सम्पाताहुतिनासिच्य
पवित्राण्याधिवासयेत्।
तृसिंहमन्त्रजप्तानि
गुप्तान्यस्त्रेण तानि तु ।। १ ।।
वस्त्रसंवेष्टितान्येव
पात्रस्थान्यभिमन्त्रयेत्।
विल्वाद्यद्भिः प्रोक्षितानि
मन्त्रेण चैकधा ।। २ ।।
कुम्भपार्श्वे तु संस्थाप्य रक्षां
विज्ञाप्य देशिकः।
दन्तकाष्ठञ्चामलकं पूर्वे
कङ्कर्षणेन तु ।। ३ ।।
प्रद्युम्नेन भस्मतिलान् दक्षे
गोमयमृत्तिकाम्।
वारुणे चानिरुद्धेन सौम्ये नारायणेन
च ।। ४ ।।
दर्भोदकञ्चाथ हृदा अग्नौ
कुङ्कुमरोचनम्।
ऐशान्यां शिरसा धूपं शिखया
नैर्ऋतेप्यथ ।। ५ ।।
मूलपुष्पाणि दिव्यानि कवचेनाथ
वायवे।
चन्दनाम्ब्वक्षतदधिदूर्वाश्च
पुटिकास्थिताः ।। ६ ।।
अग्निदेव कहते हैं—
मुनीश्वर ! सम्पाताहुति से पवित्राओं का सेचन करके उनका अधिवासन
करना चाहिये। नृसिंह-मन्त्र का जप करके उन्हें अभिमन्त्रित करे और अस्त्रमन्त्र
(अस्त्राय फट्) -से उन्हें सुरक्षित रखे। पवित्राओं में
वस्त्र लपेटे हुए ही उन्हें पात्र में रखकर अभिमन्त्रित करना चाहिये। बिल्व आदि के
सम्पर्क से युक्त जल द्वारा मन्त्रोच्चारणपूर्वक उन सबका एक या दो बार प्रोक्षण
करना चाहिये। गुरु को चाहिये कि कुम्भपात्र में पवित्राओं को रखकर उनकी रक्षा के
उद्देश्य से उस पात्र से पूर्व दिशा में संकर्षण मन्त्र द्वारा दन्तकाष्ठ और आँवला,
दक्षिण दिशा में प्रद्युम्न मन्त्र द्वारा भस्म और तिल, पश्चिम दिशा में अनिरुद्ध मन्त्र द्वारा गोबर और मिट्टी तथा उत्तर दिशा में
नारायण- मन्त्र द्वारा कुशोदक डाले। तदनन्तर अग्निकोण में हृदय-मन्त्र से कुङ्कम
तथा रोचना, ईशानकोण में शिरोमन्त्र द्वारा धूप, नैर्ऋत्यकोण में शिखामन्त्र द्वारा दिव्य मूलपुष्प तथा वायव्यकोण में
कवच-मन्त्र द्वारा चन्दन, जल, अक्षत,
दही और दूर्वा को दोने में रखकर छीटे । मण्डप को त्रिसूत्र से
आवेष्टित करके पुनः सब ओर सरसों बिखेरे ॥ १-६ ॥
गृहं त्रिसूत्रेणावेष्ट्य पुनः
सिद्धार्थकान् क्षिपेत्।
दद्यात्पूजाक्रमेणाथ स्वैः
स्वैर्गन्धपवित्रकम् ।। ७ ।।
मन्त्रैर्वै द्वारपादिभ्यो
विष्णुकुम्भे त्वनेन च।
विष्णुतेजोभवं रम्यं सर्वपातकनाशनम्
।। ८ ।।
सर्वकामप्रदं देवं तवाङ्गे
धारयाम्यहम्।
सम्पूज्य धूपदीपद्यैर्व्रजेद्
द्वारसमीपतः ।। ९ ।।
गन्धपुष्पाक्षतोपेतं
पवित्रञ्चाशिलेर्प्पयेत् ।
पवित्रं वैष्णवं तेजो महापातकनाशनम्
।। १० ।।
धर्म्मकामार्थसिद्ध्यर्थं स्वकेङ्गे
धारयाम्यहम्।
आसने परिवारादौ गुरौ दद्यात्
पवित्रकम् ।। ११ ।।
गन्धादिभिः समभ्यर्च्य
गन्धपुष्पाक्षतादिमत्।
विष्णुतेजोभवेत्यादिमूलेन
हरयेर्पयेत् ।। १२ ।।
देवताओं की जिस क्रम से पूजा की गयी
हो,
उसी क्रम से, उनके लिये उनके अपने-अपने नाम-
मन्त्रों से गन्धपवित्रक* देना चाहिये।
द्वारपाल आदि को नाम मन्त्रों से ही गन्धपवित्रक अर्पित करे। इसी क्रम से कुम्भ में
भगवान् विष्णु को सम्बोधित करके पवित्रक दे-'हे देव! यह आप
भगवान् विष्णु के ही तेज से उत्पन्न रमणीय तथा सर्वपातकनाशन पवित्रक है। यह
सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाला है, इसे मैं आपके अङ्ग में
धारण कराता हूँ।' धूप-दीप आदि के द्वारा सम्यक् पूजन करके
मण्डप के द्वार के समीप जाय तथा गन्ध, पुष्प और अक्षत से
युक्त वह पवित्रक स्वयं को भी अर्पित करे। अपने को अर्पण करते समय इस प्रकार कहे- 'यह पवित्रक भगवान् विष्णु का तेज है और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला
है; मैं धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के
लिये इसे अपने अङ्ग में धारण करता हूँ।' आसन पर भगवान्
श्रीहरि के परिवार आदि को एवं गुरु को पवित्रक दे। गन्ध, पुष्प
और अक्षत आदि से भगवान् श्रीहरि की पूजा करके गन्ध-पुष्पादि से पूजित पवित्रक
श्रीहरि को अर्पित करे। उस समय 'विष्णुतेजोभवम्' इत्यादि मूलमन्त्र का उच्चारण करे ॥ ७-१२ ॥
* सूत्र को केवल
त्रिगुणित करके पवित्रा बनायी जाय तो उसे 'गन्धपवित्रक' कहते हैं। इसमें एक गाँठ होती है और
थोड़े से तन्तु। कोई-कोई इसे 'कनिष्ठसंख्य' भी कहते हैं। जैसा कि वचन है- 'त्रिसूत्री
गन्धसूत्रे स्यात्।'
तत्र गन्धपवित्रं
स्यादेकग्रन्थ्यल्पतन्तुकम्। कनिष्ठसंख्यमित्येके त्रिसूत्रेण विनिर्मितम्॥
(ईशानशिव गुरुदेवपद्धति, क्रियापद २१ पटल १२, ३६ )
वह्निस्थाय ततो दत्वा देवं
सम्प्रार्थयेत्ततः।
क्षीरोदधिमहानागशय्यावस्थितविग्रह
।। १३ ।।
प्रातस्त्वां पूजयिष्यामि सन्निधौभव
केशव।
इन्द्रादिभ्यस्ततो दत्वा
विष्णुपार्षदके बलिम् ।। १४ ।।
ततो देवाग्रतः कुम्भं
वासोयुगसमन्वितम्।
रोचनाचन्द्रकाश्मीरगन्धाद्युदकसंयुतम्
।। १५ ।।
गन्धपुष्पादिनाभूष्य मूलमन्त्रेण
पूजयेत्।
मण्डपाद्वहिरागत्य विलिप्ते
मण्डलत्रये ।। १६ ।।
पञ्चगव्यञ्चरुन्दन्तकाष्ठञ्चैव क्रमाद्भवेत्।
पुराणश्रवणं स्तोत्रं पठन् जागरणं
निशि ।। १७ ।।
परप्रेषकबालानां स्त्रीणं भोगभुजां
तथा।
सद्योधिवासनं कुर्य्याद्विना
गन्धपवित्रकम् ।। १८ ।।
तदनन्तर अग्नि में अधिष्ठातारूप से
स्थित भगवान् विष्णु को पवित्रक अर्पित करके उन परमेश्वर से यों प्रार्थना करे –
'केशव ! आपका श्रीविग्रह क्षीरसागर में महानाग (अनन्त) की शय्या पर
शयन करनेवाला है। मैं प्रातः काल आपकी पूजा करूँगा; आप मेरे
समीप पधारिये।' इसके बाद इन्द्र आदि दिक्पालों को बलि अर्पित
करके श्रीविष्णु- पार्षदों को भी बलि भेंट करे। इसके बाद भगवान्के सम्मुख
युगलवस्त्र भूषित तथा रोचना, कर्पूर, केसर
और गन्ध आदि के जल से पूरित कलश को गन्ध-पुष्प आदि से विभूषित करके मूलमन्त्र से
उसकी पूजा करे। फिर मण्डप से बाहर आकर पूर्व दिशा में लिये हुए मण्डलत्रय में
पञ्चगव्य, चरु और दन्तकाष्ठ का क्रमशः सेवन करे।* रात में पुराण श्रवण तथा स्तोत्रपाठ करते हुए
जागरण करे। पर प्रेषक बालकों, स्त्रियों तथा भोगीजनों के
उपयोग में आनेवाले गन्धपवित्रक को छोड़कर शेष का तत्काल अधिवासन करे । १३ - १८ ॥
* बहिर्निर्गत्य प्राचीनेषु त्रिषु मण्डलेषु दीक्षोक्तमार्गेण पञ्चगव्यं
चरुं दन्तधावनं च भजेत् ।
(ईशानशिव गुरुदेवपद्धति, उत्तरार्ध, क्रियापाद २१वाँ पटल)
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
पवित्राधिवासनं नाम पञ्चत्रिशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'पवित्राधिवासन – विधि का वर्णन' नामक पैंतीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 36
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