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कर्मकाण्ड

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पशुपति अष्टक

पशुपति अष्टक

जो मनुष्य पृथ्वीपति सूरि के बनाये हुए इस अद्भुत पशुपति-अष्टक का सदा पाठ और श्रवण करता है, वह शिवपुरी में निवास करता और आनन्दित होता है ।

श्रीपशुपत्यष्टकम्

श्रीपशुपत्यष्टकम्

                ध्यानम् ।

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं

     रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।

पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं

     विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

चाँदी के पर्वत समान जिनकी श्वेत कान्ति है, जो सुन्दर चन्द्रमा को आभूषणरूप से धारण करते हैं, रत्नमय अलङ्कारों से जिनका शरीर उज्ज्वल है, जिनके हाथों में परशु, मृग, वर और अभय है, जो प्रसन्न हैं, पद्म के आसन पर विराजमान हैं, देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर स्तुति करते हैं, जो बाघ की खाल पहनते हैं, जो विश्व के आदि, जगत्की उत्पत्ति के बीज और समस्त भयों को हरनेवाले हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं, उन महेश्वर का प्रतिदिन ध्यान करे।

अथ श्रीपशुपत्यष्टक स्तोत्रम्

पशुपतीन्दुपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम् ।

प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ १॥

अरे मनुष्यो ! जो समस्त प्राणियों, स्वर्ग, पृथ्वी और नागलोक के पति हैं, दक्ष-कन्या सती के स्वामी हैं, शरणागत प्राणियों और भक्तजनों की पीड़ा दूर करनेवाले हैं, उन परमपुरुष पार्वती-वल्लभ शंकरजी को भजो ॥१॥

न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम् ।

अवति कोऽपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ २॥

ऐ मनुष्यो ! काल के वश में पड़े हुए जीव को पिता, माता, भाई, बेटा, अत्यन्त बल और कुल-इनमें से कोई भी नहीं बचा सकता, इसलिये तुम गिरिजापति को भजो ॥२॥

मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम् ।

प्रमथभूतगणैरपि सेवितं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ३॥

रे मनुष्यो ! जो मृदङ्ग और डमरू बजाने में निपुण हैं, मधुर पञ्चम स्वर के गायन में कुशल हैं, प्रमथ और भूतगण जिनकी सेवा में रहते हैं, उन गिरिजापति को भजो ॥३॥

शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम् ।

अभयदं करुणावरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ४॥

हे मनुष्यो ! 'शिव ! शिव ! शिव !' कहकर मनुष्य जिनको प्रणाम करते हैं, जो शरणागतों को शरण, सुख और अभय देनेवाले हैं, उन दयासागर गिरिजापति का भजन करो॥४॥

नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम् ।

चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ५॥

अरे मनुष्यो ! जो नरमुण्डरूपी मणियों का कुण्डल और साँपों का हार पहनते हैं, जिनका शरीर चिता की धूलि से धूसर है, उन वृषभध्वज गिरिजापति को भजो ॥ ५ ॥

मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम् ।

प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ६॥

अरे मनुष्यो ! जिन्होंने दक्ष-यज्ञ का विध्वंस किया था; जिनके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित हैं, जो यज्ञ करनेवालों को सदा ही फल देनेवाले हैं और जो प्रलय की अग्नि में देवता, दानव और मानवों को दग्ध करनेवाले हैं, उन गिरिजापति को भजो ॥६॥

मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम् ।

जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ७॥

अरे मनुष्यो ! जगत्को जन्म, जरा और मरण के भय से पीड़ित, सामने उपस्थित भय से व्याकुल देखकर बहुत दिनों से हृदय में सञ्चित मद का त्याग कर उन गिरिजापति को भजो ॥ ७ ॥

हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम् ।

त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ ८॥

अरे मनुष्यो ! विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं, यम और कुबेर जिनको प्रणाम करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं तथा जो त्रिभुवन के स्वामी हैं, उन गिरिजापति को भजो ॥ ८॥

पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा ।

पठति संश‍ृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम् ॥ ९॥

जो मनुष्य पृथ्वीपति सूरि के बनाये हुए इस अद्भुत पशुपति-अष्टक का सदा पाठ और श्रवण करता है, वह शिवपुरी में निवास करता और आनन्दित होता है ॥९॥

इति श्रीपृथिवीपतिसूरिविरचितं श्रीपशुपत्यष्टकं सम्पूर्णम्।

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