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- श्रीराम स्तुति
- श्रीरामप्रेमाष्टक
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- इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र
- जटायुकृत श्रीराम स्तोत्र
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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सिद्ध सरस्वती स्तोत्र
स्वयं ब्रह्मा जी के द्वारा कहे गये
इस कल्याणकारी सिद्ध सरस्वती स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से वह मनुष्य समस्त
पापों से मुक्त, सौभाग्यशाली और लोक में विख्यात
हो जाता है, वह इस संसार में अभीष्ट फल प्राप्त करता है।
सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्
ध्यानम्
दोर्भिर्युक्ताश्चतुर्भिः
स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं
पुस्तकं चापरेण ।
या सा कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमणिनिभा
भासमाना समाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने
सर्वदा सुप्रसन्ना ॥१॥
जो चार हाथों से सुशोभित हैं और उन
हाथों में स्फटिक मणि की बनी हुई अक्षमाला, श्वेत
कमल, शुक और पुस्तक धारण किये हुई हैं। जो कुन्द, चन्द्रमा, शंख और स्फटिक मणि के समान देदीप्यमान हैं,
वे ही ये वाग्देवता सरस्वती परम प्रसन्न होकर सर्वदा मेरे मुख में
निवास करें।
आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने
दक्षिणे चाक्षसूत्रं
वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं
पुस्तकं ज्ञानगम्या ।
सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः
शास्त्रविज्ञानशब्दैः
क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती
सुप्रसन्ना ॥२॥
जो श्वेत हंस पर सवार होकर
आकाश में विचरण करती हैं, जिनके दाहिने हाथ में
अक्षमाला और बायें हाथ में दिव्य स्वर्णमय वस्त्र से आवेष्टित पुस्तक शोभित
है,जो ज्ञानगम्या हैं, जो वीणा बजाती
हुई और अपने हाथ की करमाला से शास्त्रोक्त बीजमन्त्रों का जप करती हुई क्रीड़ारत
हैं, जिनका दिव्य रूप है तथा जो हाथ में कमल धारण करती हैं,
वे सरस्वती देवी मुझपर प्रसन्न हों।
श्वेतपद्मासना देवी
श्वेतगन्धानुलेपना ।
अर्चिता मुनिभिः सर्वैर्ऋषिभिः
स्तूयते सदा ॥३॥
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं
लभते नरः ॥४॥
जो भगवती श्वेत कमल पर आसीन हैं,
जिनके शरीर में श्वेत चन्दन का अनुलेप है, मुनिगण
जिनकी अर्चना करते हैं तथा सभी ऋषि सदा जिनका स्तवन करते हैं। इस प्रकार सदा देवी
का ध्यान करके मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।
॥ श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्र ॥
विनियोगः
ॐ अस्य
श्रीसिद्धसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः,
स्रग्धरा अनुष्टुप् छन्दः, मम वाग्विलाससिद्ध्यर्थं
पाठे विनियोगः।
इस श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्र
मन्त्र के मार्कण्डेय ऋषि हैं, स्रग्धरा
अनुष्टुप् छन्द है, अपनी वाक् शक्ति की सिद्धि के लिये पाठ
में विनियोग होता है।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां
जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्
।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं
बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥१॥
जिनका रूप श्वेत है,
जो ब्रह्म विचार की परम तत्व हैं, आदि शक्ति
हैं, सारे संसार में व्याप्त हैं, हाथों
में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, भक्तों को अभय देती
हैं,मूर्खतारूपी अंधकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिक मणि की माला लिये रहती हैं, कमल के
आसन पर विराजमान हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन परमेश्वरी
भगवती सरस्वती की मैं वंदना करता हूँ।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या
शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या
श्वेतपद्मासना ।
या
ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्यापहा ॥२॥
जो कुन्द के फूल,
चन्द्रमा और बर्फ के समान श्वेत हैं।
जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं। जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं। जो श्वेत
कमल के आसन पर बैठती हैं। ब्रह्मा, विष्णु,
महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते
हैं और जो सब प्रकार की जड़ता का हरण कर लेती हैं, वे भगवती
सरस्वती मेरी रक्षा करें।
ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे
शशिरूचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे
भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याङ्घ्रिपद्मे
।
पद्मे पद्मोपविष्टे
प्रणतजनमनोमोदसम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते
देवि संसारसारे ॥३॥
ह्रीं ह्रीं,
इस एकमात्र मनोहर बीजमन्त्र वाली, चन्द्रमा की कान्ति वाले श्वेत कमल के समान विग्रहवाली, प्रत्येक
कल्प में व्यक्त रूप से सुशोभित होनेवाली, भव्य स्वरूपवाली,
प्रिय तथा अनुकूल स्वभाव वाली, कुबुद्धिरूपी
वन को दग्ध करने के लिए दावानल स्वरूपिणी, सम्पूर्ण जगत के
द्वारा वन्दित चरणकमल वाली, कमलारूपा, कमल
के आसन पर विराजमान रहनेवाली, शरणागतों के मन को आह्लादित
करनेवाली, महान ज्ञान की शिखर स्वरूपिणी, भार्यारूप में भगवान विष्णु की आत्मशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित
तथा संसार की तत्वस्वरूपिणी हे देवि! मैं आपकी स्तुति और वन्दना करता हूँ।
ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे
कमलभवमुखाम्भोजभूते स्वरूपे
रुपारुपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे
निर्विकारे ।
न स्थूले नैव
सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापि विज्ञानतत्त्वे
विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते
निष्कले नित्यशुद्धे ॥४॥
ऐं ऐं ऐं,
इस बीजमन्त्र से दृष्टिगत होनेवाली, पद्मयोनि ब्रह्माजी
के मुखकमल से उत्पन्न, अपने ही स्वरुप में स्थित, मूर्त तथा अमूर्तरुप में प्रकाशित होनेवाली, सम्पूर्ण
गुणों से समन्वित, निर्गुण, निर्विकार,
न तो स्थूल रूपवाली और न ही सूक्ष्म रूपवाली, अविदित
ऐश्वर्य वाली, विज्ञान तत्व से भी परे, विश्वरूपिणी, विश्व की अन्तरात्मा स्वरूपा, श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा वन्दित, निष्कल तथा
नित्यशुद्ध स्वरूपिणी ! हे देवि ! मैं आपकी स्तुति और वन्दना करता हूँ।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे
हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि
बुद्धिं प्रशस्ताम् ।
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते
मोक्षदे मुक्तिमार्गे
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे
शुभ्रहारे ॥५॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं,
इस बीजमन्त्र के जप से प्रसन्न होनेवाली, हिम
की कान्ति वाले मुकुट से सुशोभित तथा वीणा के वादन में व्यग्रहस्त वाली हे माता !
आपको नमस्कार है, मेरी मूर्खता को पूर्णरूप से जला दीजिये और
हे जननि ! मुझे उत्तम बुद्धि प्रदान कीजिये। विद्यास्वरूपिणी, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, अधीत विद्या को
दृढ़ता प्रदान करनेवाली, मोक्ष देनेवाली, मोक्ष की साधनभूता, मार्गातीत स्वरूपा तथा धवलहार से
सुशोभित हे शारदे ! आप मेरे लिये वरदायिनी हों।
धीं धीं धीं धारणाख्ये
धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते
नूतने वै पुराणे ।
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते
नित्यशुद्धे सुवर्णे
मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे
माधवप्रीतिमोदे ॥६॥
धीं धीं धीं,
इस बीजमन्त्र की धारणास्वरूपा। धृति, मति,
नति आदि नामों से पुकारी जानेवाली, नित्यानित्य
स्वरूपिणी, जगत की निमित्त कारणभूता, नवीना
एवं सनातनी,पुण्यमयी, पुण्य का विस्तार
करनेवाली, विष्णु तथा शिव से
नमस्कृत, नित्यशुद्ध स्वरूपिणी, सुन्दर
वर्णवाली, अर्धमात्रा तत्वस्वरूपा, विशेष
रूप से सूक्ष्म बुद्धि प्रदान करनेवाली, भगवान विष्णु
के प्रति अनन्य प्रेम रखनेवालों को आनन्द प्रदान करनेवाली हे माता ! मुझे बुद्धि
प्रदान कीजिये।
ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह
दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
संतुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे
जृम्भिणि स्तम्भविद्ये ।
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम
विमतिध्वान्तविध्वंसमीडे
गीर्गौर्वाग्भारति त्वं
कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ॥७॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं,
इस बीजमन्त्र की आत्मस्वरूपिणी, हे सरस्वती !
मेरे पापों को पूर्णरूप से भस्म कर दीजिये। पुस्तक से सुशोभित हाथवाली, प्रसन्नविग्रहा तथा संतुष्टचित्ता,मुस्कानयुक्त
मुखमण्डलवाली, सौभाग्यशालिनी, जृम्भास्वरूपिणी,
स्तम्भन विद्या स्वरूपा, मोहस्वरूपिणी तथा मुग्धप्रवाह वाली हे देवि ! आप मेरे कुबुद्धिरूपी
अन्धकार का नाश कर दीजिये। गीः, गौः, वाक्
तथा भारती – इन नामों से सम्बोधित होनेवाली, श्रेष्ठ कवियों की वाणी को सिद्धि प्रदान करनेवाली तथा सिद्धियों को सफल
बना देनेवाली हे देवि ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु
रसनां नो कदाचित्त्यजेथा
मा मे बुद्धिर्विरूद्धा भवतु न च
मनो देवि मे यातु पापम् ।
मा मे दुःखं कदाचित् क्वचिदपि
विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम
धीर्माऽस्तु कुण्ठा कदापि ॥८॥
हे देवि ! मैं आपकी स्तुति तथा आपकी
वंदना करता हूँ, आप कभी भी मेरी वाणी का त्याग न
करें, मेरी बुद्धि धर्म के विरुद्ध न हो, मेरा मन पाप कर्मों की ओर प्रवृत्त न हो, मुझे कभी
भी कहीं भी दुःख न हो, विषयों में मेरी थोड़ी भी आसक्ति न हो।
शास्त्र में, तत्व निरूपण में और कवित्व में मेरी बुद्धि सदा
विकसित होती रहे और उसमें कभी भी कुण्ठा न आने पाये।
इत्येतैः श्लोकमुख्यैः
प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो
वाक्पटुर्मुक्तकण्ठः ।
स स्यादिष्टार्थलाभैः सुतमिव सततं
पाति तं सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता
विघ्नमस्तं प्रयाति ॥९॥
जो मनुष्य भक्ति के साथ विनम्र होकर
प्रतिदिन उषाकाल में इन उत्तम श्लोकों से सरस्वती की स्तुति करता है,
वह बृहस्पति के भी द्वारा अज्ञात वाग्वैभव से सम्पन्न,
वाक्पटु तथा मुक्तकण्ठ हो जाता है। वे भगवती सरस्वती अभीष्ट
पदार्थों की प्राप्ति के द्वारा पुत्र की भाँति निरन्तर उसकी रक्षा करती हैं,
संसार में उसके सौभाग्य का उदय हो जाता है और उसकी काव्य रचना की
बाधाएँ समाप्त हो जाती हैं।
निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति
सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः
कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने
शारदा तस्य साक्षात् ।
दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः
संततं राजमान्यो
वाग्देव्याः सम्प्रसादात् त्रिजगति
विजयी जायते सत्सभासु ॥१०॥
वाग्देवता शारदा की महती कृपा से उस
मनुष्य की विद्या निर्बाध रूप से निरन्तर बढ़ती रहती है,
उसे अश्रुत ग्रन्थों का भी अवबोध हो जाता है, तीनों
लोकों में उसकी कीर्ति फैल जाती है और साक्षात् सरस्वती उसके मुख में वास करती
हैं। वह दीर्घायु, लोकपूज्य, समस्त
गुणों की खान, राजाओं के लिये सम्माननीय और त्रिलोकी के
अन्दर विद्वानों की सभाओं में सदा विजयी होता है।
ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां
निरामिषः।
सारस्वतो जनः पाठात्
सकृदिष्टार्थलाभवान् ॥११॥
त्रयोदशी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत का
पालन करते हुए निरामिष भोजी होकर, नियमपूर्वक
मौन रहकर सरस्वती का भक्त इस स्तोत्र के एक बार पाठ कर लेने मात्र से अपने अभीष्ट
अर्थ को प्राप्त कर लेता है।
पक्षद्वये
त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया ।
अविच्छिन्नः पठेद्धीमान् ध्यात्वा
देवीं सरस्वतीम् ॥१२॥
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि
महीने के दोनों पक्षों में पड़नेवाली त्रयोदशी तिथि को सरस्वती देवी का ध्यान करके
अनवरत इक्कीस बार इस स्तोत्र का पाठ करे।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो
लोकविश्रुतः ।
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्
नात्र संशयः ॥१३॥
ऐसा व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त,
सौभाग्यशाली और लोक में विख्यात हो जाता है, वह
इस संसार में वांछित फल प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं
है।
ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं
सरस्वत्याः स्तवं शुभम् ।
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय
कल्पते ॥१४॥
स्वयं ब्रह्मा जी के द्वारा कहे गये
इस कल्याणकारी सिद्ध सरस्वती स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये,
ऐसा करने से वह मनुष्य अमृतत्व प्राप्त कर लेता है।
॥ ब्रह्मा रचित श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्र सम्पूर्ण ॥
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