श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्र

श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्र

श्रीमच्छङ्कराचार्यकृत इस स्तोत्र को श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्र अथवा श्रीलक्ष्मीनृसिंहकरुणारस अथवा करावलम्बस्तोत्र भी कहा जाता है । इस स्तोत्र में भगवान् श्रीलक्ष्मीनृसिंह से करावलम्ब अर्थात् करकमल का सहारा देने की प्रार्थना किया है। इस स्तोत्र में पाठांतर से २५ श्लोक मिलता है, अतः यहाँ श्लोक १३ के पश्चात् १४-२५ भी साथ में दिया जा रहा है।

श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रम् अथवा श्रीलक्ष्मीनृसिंहकरुणारस अथवा करावलम्बस्तोत्रम्

श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रम् अथवा श्रीलक्ष्मीनृसिंहकरुणारस अथवा करावलम्बस्तोत्रम्

श्रीमत्पयोनिधिनिकेतनचक्रपाणे

       भोगीन्द्रभोगमणिराजितपुण्यमूर्ते ।

योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपोत

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १॥

हे अति शोभायमान क्षीरसमुद्र में निवास करनेवाले, हाथ में चक्र धारण करनेवाले, नागनाथ (शेषजी) के फणों की मणियों से देदीप्यमान मनोहर मूर्तिवाले ! हे योगीश ! हे सनातन ! हे शरणागतवत्सल ! हे संसारसागर के लिये नौकास्वरूप! श्रीलक्ष्मीनृसिंह ! मुझे अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥१॥

ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटि-

       सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त ।

लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २॥

आपके अमल चरणकमल ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, मरुत् और सूर्य आदि के किरीटों की कोटियों के समूह से अति देदीप्यमान हो रहे हैं। हे श्रीलक्ष्मीजी के कुचकमल के राजहंस श्रीलक्ष्मीनृसिंह! मुझे अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥ २॥

संसारघोरगहने चरतो मुरारे

       मारोग्रभीकरमृगप्रचुरार्दितस्य । 

आर्तस्य मत्सरनिदाघसुदुःखितस्य 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ३॥

हे मुरारे ! संसाररूप गहन वन में विचरते हुए कामदेव रूप अति उग्र और भयानक मृगराज से पीड़ित तथा मत्सररूप घाम से सन्तप्त अति आर्त को हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥३॥

संसारकूपमतिघोरमगाधमूलं

        सम्प्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य ।

दीनस्य देव कृपया पदमागतस्य 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ४॥

संसाररूप अति भयानक और अगाध कूप के मूल में पहुँचकर जो सैकड़ों प्रकार के दुःखरूप सर्पों से व्याकुल और अत्यन्त दीन हो रहा है, उस अति कृपण और आपत्तिग्रस्त मुझको हे लक्ष्मीनृसिंहदेव ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥४॥

संसारसागरविशालकरालकाल-

       नक्रग्रहग्रसितनिग्रहविग्रहस्य । 

व्यग्रस्य रागनिचयोर्मिनिपीडितस्य 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ५॥

संसारसागर विशाल करालकाल संसारसागर में अति कराल और महान् कालरूप नक्रों और ग्राहों के ग्रसने से जिसका शरीर निगृहीत हो रहा है तथा आसक्ति और रसना रूप तरङ्गमाला से जो अति पीड़ित है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥ ५॥

संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म-

        शाखायुतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् ।

आरुह्य दुःखफलितं चकितं दयालो 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ६॥

हे दयालो ! पाप जिसका बीज है, अनन्त कर्म सैकड़ों शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ पत्ते हैं, कामदेव पुष्प है तथा दुःख ही जिसका फल है, ऐसे संसाररूप वृक्ष पर चढ़कर मैं नीचे गिर रहा हूँ, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये॥६॥

संसारसर्पविषदिग्धमहोग्रतीव्र- 

        दंष्ट्राग्रकोटिपरिदष्टविनष्टमूर्तेः । 

नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरे

        लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ७॥

इस संसार सर्प के विकट मुख की भयरूप उग्र दाढ़ों के कराल विष से दग्ध होकर नष्ट हुए मुझको हे गरुडवाहन, क्षीरसागरशायी, शौरि श्रीलक्ष्मीनृसिंह ! आप अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥ ७॥

संसारदावदहनाकरभीकरोग्र- 

       ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य । 

त्वत्पादपद्मसरसीरुहमागतस्य 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ८॥

संसाररूप दावानल के दाह से अति आतुर और उसकी भयंकर तथा विशाल ज्वाला-मालाओं से जिसके रोम-रोम दग्ध हो रहे हैं तथा जिसने आपके चरण-कमलरूप सरोवर की शरण ली है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥ ८॥

संसारजालपतितस्य जगन्निवास

       सर्वेन्द्रियार्थबडिशाग्रझषोपमस्य । 

प्रोत्कम्पितप्रचुरतालुकमस्तकस्य 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ९॥

हे जगन्निवास ! सकल इन्द्रियों के विषयरूप बंसी [उसमें फँसने] के लिये मत्स्य के समान संसारपाश में पड़कर जिसके तालु और मस्तक खण्डित हो गये हैं, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥९॥

संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात-

       निष्पीड्यमानवपुषः सकलार्तिनाश । 

प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १०॥

हे सकलार्तिनाशन ! संसाररूप भयानक गजराज की सूंड के आघात से जिसके मर्म स्थान कुचल गये हैं तथा जो प्राणप्रयाण के सदृश संसार (जन्म-मरण)के भय से अति व्याकुल है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥१०॥

अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य

       चोरैर्महाबलिभिरिन्द्रियनामधेयैः ।

मोहान्धकारकुहरे विनिपातितस्य

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ ११॥

हे प्रभो! इन्द्रिय नामक प्रबल चोरों ने जिसके विवेकरूप परम धन को हर लिया है तथा मोहरूप अन्धकूप के गड्ढे में जो गिरा दिया गया है, ऐसे मुझ अन्ध को हे लक्ष्मीनृसिंह ! आप अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥११॥

लक्ष्मीपते कमलनाभ सुरेश विष्णो

       वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष ।

ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव

       देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम् ॥ १२॥

हे लक्ष्मीपते ! हे कमलनाभ ! हे देवेश्वर ! हे विष्णो ! हे वैकुण्ठ ! हे कृष्ण ! हे मधुसूदन ! हे कमलनयन ! हे ब्रह्मण्य ! हे केशव ! हे जनार्दन ! हे वासुदेव ! हे देवेश! मुझ दीन को आप अपने करकमल का सहारा दीजिये ॥ १२॥

यन्माययार्जितवपुःप्रचुरप्रवाह-

       मग्नार्थमत्र निवहोरुकरावलम्बम् ।

लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन

       स्तोत्रं कृतं सुखकरं भुवि शङ्करेण ॥ १३॥

जिसका स्वरूप माया से ही प्रकट हुआ है उस प्रचुर संसारप्रवाह में डूबे हुए पुरुषों के लिये जो इस लोक में अति बलवान् करावलम्बरूप है ऐसा यह सुखप्रद स्तोत्र इस पृथ्वीतल पर लक्ष्मीनृसिंह के चरणकमल के लिये मधुकररूप शङ्कर (शङ्कराचार्यजी) ने रचा है ॥ १३ ॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

संसारसागरनिमज्जनमुह्यमानं

       दीनं विलोकय विभो करुणानिधे माम् ।

प्रह्लादखेदपरिहारपरावतार

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १४॥

बद्ध्वा गले यमभटा बहु तर्जयन्तः 

       कर्षन्ति यत्र भवपाशशतैर्युतं माम् ।

एकाकिनं परवशं चकितं दयालो

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १५॥

एकेन चक्रमपरेण करेण शङ्ख-

       मन्येन सिन्धुतनयामवलम्ब्य तिष्ठन् ।

वामेतरेण वरदाभयपद्मचिह्नं 

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १६॥

प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-

       व्यासादिभागवतपुङ्गवहृन्निवास ।

 भक्तानुरुक्तपरिपालनपारिजात

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १७॥

संसारयूथ गजसंहतिसिंहदंष्ट्रा

       भीतस्य दुष्टमैदैत्य भयङ्करेण ।

प्राणप्रयाण भवभीति निवारणेन

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १८॥

लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन

       स्तोत्रं कृतं शुभकरं भुवि शङ्करेण ।

ये तत्पठन्ति मनुजा हरिभक्तियुक्ता-

       स्ते यान्ति तत्पदसरोजमखण्डरूपम् ॥ १९॥

आद्यन्तशून्यमजमव्ययमप्रमेय-

       मादित्यरुद्रनिगमादिनुतप्रभावम् ।

त्वाम्भोधिजास्य मधुलोलुपमत्तभृङ्गीं

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २०॥

वाराह-राम-नरसिंह-रमादिकान्ता

       क्रीडाविलोलविधिशूलिसूरप्रवन्द्य! ।

हंसात्मकं परमहंस विहारलीलं

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २१॥

स्वामी नृसिंहः सकलं नृसिंहः

       माता नृसिंहश्च पिता नृसिंहः ।

भ्राता नृसिंहश्च सखा नृसिंहः

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २२॥

प्रह्लादमानससरोजवासभृङ्ग!

       गङ्गातरङ्गधवळाङ्ग रमास्थिताङ्क! ।

श‍ृङ्गार सुन्दरकिरीटलसद्वराङ्ग

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २३॥

श्री शङ्करार्य रचितं सततं मनुष्यः

       स्तोत्रं पठेदिह तु सर्वगुणप्रपन्नम् ।

सद्योविमुक्तकलुषो मुनिवर्यगण्यो

       लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ २४॥

श्रीमन् नृसिंह विभवे गरुडध्वजाय

       तापत्रयोपशमनाय भवौषधाय ।

तृष्णादिवृश्चिक-जलाग्नि-भुजङ्ग-रोग

       क्लेशव्ययाम हरये गुरवे नमस्ते ॥ २५॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ

लक्ष्मीनृसिंहकरुणारसस्तोत्रं अथवा लक्ष्मीनृसिंहकरावलम्बस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

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