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- इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र
- जटायुकृत श्रीराम स्तोत्र
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र
श्रीमदध्यात्मरामायण के युद्धकाण्ड में वर्णित इन्द्रकृत यह श्रीराम स्तोत्र दुःखसमूह का नाश करने वाला और सब प्रकार आनन्द देनेवाले है।
इन्द्रकृतं रामस्तोत्रम्
श्रीरामस्तोत्रम्
इन्द्र उवाच
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं
भवारण्यदावानलाभाभिधानम् ।
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं
भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम् ॥ १॥
इन्द्र बोले-जो
नीलकमल की-सी आभावाले हैं, संसाररूप वन के
लिये जिनका नाम दावानल के समान है, श्रीपार्वतीजी जिनके आनन्दस्वरूप का हृदय में ध्यान करती हैं, जो
(जन्म-मरणरूप) संसार से छुड़ानेवाले हैं और शङ्करादि देवों के आश्रय हैं, उन भगवान् राम को मैं भजता हूँ॥ १॥
सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं नराकारदेहं
निराकारमीड्यम् ।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं हरिं
राममीशं भजे भारनाशम् ॥ २॥
जो देवमण्डल के दुःखसमूह का नाश
करने के एकमात्र कारण हैं तथा जो मनुष्यरूपधारी, आकारहीन और स्तुति किये जाने योग्य हैं, पृथ्वी का भार उतारनेवाले उन परमेश्वर परमानन्दरूप पूजनीय भगवान् राम
को मैं भजता हँ ॥ २ ॥
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं
प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम् ।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं
कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम् ॥ ३॥
जो शरणागतों को सब प्रकार आनन्द
देनेवाले और उनके आश्रय हैं, जिनका नाम
शरणागत भक्तों के सम्पूर्ण दुःखों को दूर करनेवाला है, जिनका
तप और योग एवं बड़े-बड़े योगीश्वरों की भावनाओं द्वारा चिन्तन किया जाता है तथा जो
सुग्रीवादि के मित्र हैं, उन मित्ररूप भगवान् राम को
मैं भजता हूँ॥ ३ ॥
सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं सदा
योगभाजामदूरे विभान्तम् ।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं
विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये ॥ ४॥
जो भोगपरायण लोगों से सदा दूर रहते
हैं और योगनिष्ठ पुरुषों के सदा समीप ही विराजते हैं,
श्रीजानकीजी के लिये आनन्दस्वरूप उन
चिदानन्दघन श्रीरघुनाथजी को मैं सर्वदा भजता हूँ॥ ४ ॥
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो विभासीश
लीलानराकारवृत्तिः ।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः
सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके ॥ ५॥
हे भगवन् ! आप अपनी महा योगमाया के
गुणों से युक्त होकर लीला से ही मनुष्य रूप प्रतीत हो रहे हैं। जिनके कर्ण आपकी इन
आनन्दमयी लीलाओं के कथामृत से पूर्ण होते हैं, वे
संसार में नित्यानन्दरूप हो जाते हैं ॥ ५॥
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो न
वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः ।
इदानीं
भवत्पादपद्मप्रसादात्त्रिलोकाधिपत्याभिमानो विनष्टः ॥ ६॥
प्रभो ! मैं तो सम्मान और सोमपान के उन्माद से मतवाला हो रहा था, सर्वेश्वरता के अभिमान वश मैं अपने आगे किसी को कुछ भी नहीं समझता था। अब आपके चरणकमलों की कृपा से मेरा त्रिलोकाधिपतित्व का अभिमान चूर हो गया ।।
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं
धराभारभूतासुरानीकदावम् ।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं
दुरावारपारं भजे राघवेशम् ॥ ७॥
जो चमचमाते हुए रत्नजटित भुजबंद और
हारों से सुशोभित हैं, वे पृथ्वी के
भाररूप राक्षसों की सेनाके लिये दावानल के समान हैं, जिनका
शरच्चन्द्र के समान मुख और अति मनोहर नेत्रकमल हैं तथा जिनका आदि-अन्त जानना
अत्यन्त कठिन है, उन रघुनाथजी को मैं भजता हूँ॥७॥
सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं
विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम् ।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं भजे
रामचन्द्रं रघूणामधीशम् ॥ ८॥
जिनके शरीर की इन्द्रनीलमणि और मेघ के
समान श्याम कान्ति है, जिन्होंने विराध
आदि राक्षसों को मारकर सम्पूर्ण लोकों में शान्ति स्थापित की है, उन किरीटादि से सुशोभित और श्रीमहादेवजी के परमधन रघुकुलेश्वर श्रीरामचन्द्रजी
को मैं भजता हूँ॥ ८॥
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे
समासीनमङ्के समाधाय सीताम् ।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां
भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम् ॥ ९॥
जो तेजोमय सुवर्ण के-से वर्णवाली और
बिजली के समान कान्तिमयी जानकीजी को गोद में लिये करोड़ों चन्द्रमाओं के
समान देदीप्यमान सिंहासन पर विराजमान हैं, उन
दुःख और आलस्य से हीन भगवान् राम को मैं भजता हूँ॥९॥
॥ इति श्रीमदध्यात्मरामायणे युद्धकाण्डे त्रयोदशसर्गे इन्द्रकृतश्रीरामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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