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- श्रीराम स्तुति
- श्रीरामप्रेमाष्टक
- सपिण्डन श्राद्ध
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- इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र
- जटायुकृत श्रीराम स्तोत्र
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीरामप्रेमाष्टक
जो मनुष्य यामुनाचार्य के द्वारा
रचित इस दिव्य तथा कल्याणदायक श्रीरामप्रेमाष्टक-स्तोत्र का शुद्धभाव से पाठ करता
है,
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी उसके सहायक हो जाते हैं और श्रीरामजी सदा
उनके सनिकट वास करते हैं ।
श्रीरामप्रेमाष्टकम्
श्रीराम प्रेमाष्टक
श्यामाम्बुदाभमरविन्दविशालनेत्रं
बन्धुकपुष्पसदृशाधरपाणिपादम् ।
सीतासहायमुदितं धृतचापबाणं
रामं नमामि शिरसा रमणीयवेषम् ॥ १ ॥
जो नील मेघ के समान श्याम वर्ण हैं,
जिनके कमल के समान विशाल नेत्र हैं, जो बन्धूक
पुष्प के समान अरुण ओष्ठ, हस्त और चरणों से शोभित हैं,
जो सीताजी के साथ विराजमान एवं अभ्युदयशील हैं, जिन्होंने धनुष-बाण को धारण किया है, जिनका वेष बड़ा
ही सुन्दर है, सीताजी के सहित उन श्रीराम को मैं सिर से
नमस्कार करता हूँ॥१॥
पटुजलधरधीरध्वानमादाय चापं
पवनदमनमेकं बाणमाकृष्य तूणात् ।
अभयवचनदायी सानुजः सर्वतो मे
रणहतदनुजेन्द्रो रामचन्द्रः सहायः ॥
२ ॥
जो प्रौढ़ मेघ के समान धीर-गम्भीर,
टंकार-ध्वनि करनेवाले धनुष को धारणकर और अपने वेग से वायु का भी
मान-मर्दन करनेवाले एक बाण को तूणीर (तरकस) से खींचकर 'मत
डरो' ऐसा कहते हए अपने आश्रितों को अभय-वचन देनेवाले हैं तथा
जिन्होंने रण में दानवराज (रावण) को मारा है, लक्ष्मण के
सहित वे श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे सब प्रकार सहायक हैं ॥२॥
दशरथकुलदीपोऽमेयबाहुप्रतापो
दशवदनसकोपः क्षालिताशेषपापः ।
कृतसुररिपुतापो नन्दितानेकभूपो
विगततिमिरपङ्को रामचन्द्रः सहायः ॥
३ ॥
जो राजा दशरथ के कुल के दीपक
(प्रकाशक) हैं, जिनके बाहुबल का प्रताप मापा
नहीं जा सकता, जो रावण के ऊपर कोप करनेवाले, समस्त पाप को दूर करनेवाले, असुरों को ताप देनेवाले और अनेक राजाओं को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं,
अज्ञान और पाप से रहित वे श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे सहायक
हैं॥३॥
कुवलयदलनीलः कामितार्थप्रदो मे
कृतमुनिजनरक्षो रक्षसामेकहन्ता ।
अपहृतदुरितोऽसौ नाममात्रेण पुंसा-
मखिलसुरनृपेन्द्रो रामचन्द्रः सहायः
॥ ४ ॥
जो कमल-पत्र के समान श्यामवर्ण,
मेरी इष्ट वस्तुओं के दाता, मुनिजनों की रक्षा
करनेवाले और राक्षसों को एकमात्र मारनेवाले हैं, जो [अपने] राम-नाम
के उच्चारणमात्र से ही पुरुषों के पाप का नाश करनेवाले हैं, समस्त
देवताओं और राजाओं के स्वामी वे श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे सहायक हैं ॥४॥
असुरकुलकृशानुर्मानसाम्भोजभानुः
सुरनरनिकराणामग्रणीर्मे रघूणाम् ।
अगणितगुणसीमा नीलमेघौघधामा
शमदमितमुनीन्द्रो रामचन्द्रः सहायः
॥ ५ ॥
जो असुरकुल [को भस्म करने के लिये अग्नि
हैं,
देवता और मनुष्य के समूहों के हृदय-कमल को विकसित करने के लिये सूर्य
हैं, असंख्य गुणों की सीमा हैं, नील
मेघ-मण्डली के समान जिनका श्याम शरीर है और जो शम में मुनीश्वरों को भी जीतनेवाले
हैं, वे रघुकुल के अग्रणी श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे
सहायक हैं॥५॥
कुशिकतनययागं रक्षिता लक्ष्मणाढ्यः
पवनशरनिकायक्षिप्तमारीचमायः ।
विदलितहरचापो मेदिनीनन्दनाया
नयनकुमुदचन्द्रो रामचन्द्रः सहायः ॥
६ ॥
जिन्होंने लक्ष्मण को साथ लेकर
विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की है और वायुवेगवाले बाणों के समूह से मारीच निशाचर
की माया का नाश किया है, जो शिवजी
के धनुष का भञ्जन करनेवाले तथा पृथ्वी की पुत्री (सीता) के नयनकुमुद को
विकसित करने के लिये चन्द्रमा के समान हैं, वे श्रीरामचन्द्रजी
ही मेरे सहायक हैं॥६॥
पवनतनयहस्तन्यस्तपादाम्बुजात्मा
कलशभववचोभिः प्राप्तमाहेन्द्रधन्वा
।
अपरिमितशरौघैः पूर्णतूणीरधीरो
लघुनिहतकपीन्द्रो रामचन्द्रः सहायः
॥ ७ ॥
जो हनुमान जी के हाथों पर
अपने चरण-कमलों को रखे हुए हैं, जिन्होंने अगस्त्य ऋषि के कहने से इन्द्रधनुष को ग्रहण किया, जिनका तूणीर
(तरकस) असंख्य बाणों से परिपूर्ण है, जो रणधीर हैं और
जिन्होंने अति शीघ्रता से वानरराज बाली को मार गिराया, वे श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे सहायक हैं॥७॥
कनकविमलकान्त्या सीतयालिङ्गिताङ्गो
मुनिमनुजवरेण्यः सर्ववागीशवन्द्यः ।
स्वजननिकरबन्धुर्लीलया बद्धसेतुः
सुरमनुजकपीन्द्रो रामचन्द्रः सहायः
॥ ८ ॥
जो सुवर्ण के समान निर्मल और गौर
कान्तिवाली सीता के सम्पर्क में रहते हैं, ऋषियों
और मनुष्यों ने भी जिन्हें श्रेष्ठ एवं आदरणीय माना है, जो
सम्पूर्ण वागीश्वरों के वन्दनीय तथा अपने भक्त-समुदाय की बन्धु के समान रक्षा
करनेवाले हैं, जिन्होंने लीला से ही समुद्र पर पुल बाँध दिया
था, वे देवता, मनुष्य तथा वानरों के
स्वामी श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे सहायक हैं॥८॥
यामुनाचार्यकृतं दिव्यं
रामाष्टकमिदं शुभम् ।
यः पठेत् प्रयतो भूत्वा स
श्रीरामान्तिकं व्रजेत् ॥ ९ ॥
जो पुरुष यामुनाचार्य के द्वारा
रचित इस दिव्य तथा कल्याणदायक श्रीरामप्रेमाष्टक-स्तोत्र का शुद्धभाव से पाठ करता
है,
वह श्रीरामचन्द्रजी के सनिकट निवास प्राप्त करता है ॥९॥
इति श्रीयामुनाचार्यकृतं श्रीरामप्रेमाष्टकं सम्पूर्णम् ।
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