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कर्मकाण्ड

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तुलसी उपनिषद्

तुलसी उपनिषद्

तुलसी उपनिषद् -तुलसी के महिमा का वर्णन वेदों तथा पुराणों में भी किया गया है। यह अनेक प्रकार के रस तथा भोग प्रदान करने वाली, दर्शन से पाप विनष्ट करने वाली, स्पर्श करने से पावन बनाने वाली, रोगों को समाप्त करने वाली, सेवन करने से मृत्यु नाशक, भक्षण करने से प्राण शक्ति प्रदान करने वाली है। तुलसी के बिना भगवान विष्णुश्रीकृष्ण की पूजा अधूरी मानी जाती है। अनेक व्रत और धर्म कथाओं में तुलसी का महत्व बताया गया है। तुलसी के पौधे का महत्व पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्त, स्कंद और भविष्य पुराण के साथ गरुड़ पुराण में भी बताया गया है।

गरुड़ पुराण के धर्म काण्ड के प्रेत कल्प में लिखा है कि तुलसी का पौधा लगाने, उसे सींचने तथा ध्यान, स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यों के पूर्व जन्म के पाप खत्म हो जाते हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड में लिखा है कि मृत्यु के समय जो तुलसी पत्ते सहित जल पीता है वह हर तरह के पापों से मुक्त हो जाता है।

स्कन्द पुराण के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा होता है और हर दिन उसकी पूजा होती है तो ऐसे घर में यमदूत प्रवेश नहीं करते।

स्कन्द पुराण के ही अनुसार बासी फूल और बासी जल पूजा के लिए वर्जित हैं परन्तु तुलसीदल और गंगाजल बासी होने पर भी वर्जित नहीं हैं। यानी ये दोनों चीजें अपवित्र नहीं मानी जाती।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में लिखा है कि घर में लगाई हुई तुलसी मनुष्यों के लिए कल्याणकारिणी, धन पुत्र प्रदान करने वाली, पुण्यदायिनी तथा हरिभक्ति देने वाली होती है। सुबह-सुबह तुलसी का दर्शन करने से सवा मासा यानी सवा ग्राम सोने के दान का फल मिलता है।

ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वहां वास्तुदोष नहीं होता है। इस पौधे को घर के पूर्व-उत्तर कोने में लगाना चाहिए। वहीं भविष्य पुराण में भी लिखा है कि तुलसी का पौधा घर के दक्षिणी भाग में नहीं लगाना चाहिए। इससे दोष लगता है।

तुलसी उपनिषद्

तुलस्युपनिषद्

अथ तुलस्युपनिषदं व्याख्यास्यामः। नारद ऋषिः।

अथर्वाङ्गिरश्छन्दः। अमृता तुलसी देवता ।

सुधा बीजम् । वसुधा शक्तिः। नारायणः कीलकम् ।

श्यामां श्याम-वपुर्धरां ऋक्स्वरूपां यजुर्मनां ब्रह्माथर्वप्राणां

कल्पहस्तां पुराण-पठितां अमृतोद्भवां अमृत-रस-मञ्जरी अनन्तां

अनन्त-रस-भोगदां वैष्णवीं विष्णु-वल्लभां मृत्यु-जन्म-निबर्हणी

दर्शनात्पाप-नाशिनी स्पर्शनात्पावनीं अभिवन्दनाद्रोगनाशिनी

सेवनान्मृत्युनाशिनीं वैकुण्ठार्चनाद्विपद्धन्त्री भक्षणात् वयुन-प्रदां

प्रदक्षिण्याद्दारिद्य-नाशिनीं मूल-मृल्लेपनान्महापाप-भञ्जिनीं

घ्राण-तर्पणादन्तर्मल-नाशिनीं य एवं वेद स वैष्णवो भवति ।

वृथा न छिन्द्यात् । दृष्ट्वा प्रदक्षिणं कुर्यात् । रात्र्यां न स्पृशेत् ।

पर्वणि न विचिन्वेत् । यदि विचिन्वति स विष्णुहा भवति ।

श्रीतुलस्यै स्वाहा । विष्णुप्रियायै स्वाहा । अमृतायै स्वाहा ।

श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि । तन्नो अमृता प्रचोदयात् ॥१॥

अब तुलसी उपनिषद् का वर्णन किया जाता है। जिसके नारद ऋषि, अथर्वाङ्गिरस छन्द, अमृतरूपा तुलसी देवता, अमृत बीज, वसुधा (धरती) शक्ति एवं नारायण कीलक हैं। यह कृष्ण रंग (वर्ण) एवं कृष्ण शरीर वाली है। यह ऋग्वेद स्वरूपा, यजुर्वेद मन वाली, ब्रह्माथर्ववेद प्राण वाली, वेदांग एवं पुराणों में सुविख्यात (कल्प आदि वेदांग तथा पुराणों के द्वारा जिनकी महिमा का ज्ञान होता है), अमृत के द्वारा उद्भूत, अमृत रस मंजरी तुल्य, अन्त रहित, अनेक प्रकार के रस तथा भोग प्रदान करने वाली, दर्शन से पाप विनष्ट करने वाली, परम वैष्णव रूप, भगवान विष्णु को प्रिय, आवागमन समाप्त करने वाली, स्पर्श करने से पावन बनाने वाली, अभिनन्दन करने से रोगों को समाप्त करने वाली, सेवन करने से मृत्यु नाशक, पूजन में भगवान् विष्णु को समर्पित करने से संकट निवारण करने वाली, भक्षण करने से प्राण शक्ति प्रदान करने वाली, प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करने से दरिद्रता का नाश करने वाली तथा मूल (जड़) की मिट्टी लगाने से महान पापों का भंजन (विनाश) कर देने वाली है। (तुलसी की) गंध लेने से शरीरस्थ अन्तः के मल का विनाश करने वाली है। जो इस प्रकार से जानता है, वहीं सच्चा वैष्णव हैं। तुलसी को अनावश्यक नहीं तोड़ना चाहिए। जहाँ भी दिखाई पड़े, तुरन्त परिक्रमा करनी चाहिए। रात्रि में इसका (तुलसी का) स्पर्श न करे। पर्वो के दिन (तुलसी को) नहीं तोड़ना चाहिए। (पर्वो पर) यदि कोई तोड़ता है, तो वह विष्णुद्रोही हो जाता है। विष्णु भगवान् को प्रिय अमृतरूपा श्रीतुलसी को नमस्कार है। श्रीतुलसी को हम (गुरु-शास्त्रानुसार) जानते हैं, विष्णु भगवान् को प्रिय श्रीतुलसी का ध्यान करते हैं। (इसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं।) अमृत-स्वरुपा (वह) हमें ( अमृत प्राप्ति के लिए) प्रेरित करे॥१॥

अमृतेऽमृतरूपासि अमृतत्व-प्रदायिनि ।

त्वं मामुद्धर संसारात् क्षीर-सागर-कन्यके ॥२॥

श्रीसखि त्वं सदानन्दे मुकुन्दस्य सदा प्रिये ।

वरदाभय-हस्ताभ्यां मां विलोकय दुर्लभे ॥३॥

हे क्षीरसागर की कन्या! तुम अमृत हो और अमृतरूपा होकर अमृतत्व प्रदान करने वाली हो, इसलिए संसार-सागर से मेरा उद्धार करो। हे लक्ष्मी जी की सखी! तुम आनन्दमय हो एवं सदैव विष्ण को प्रिय हो। इसलिए हे दुष्प्राप्य! तुम अपने हाथों में वर एवं अभय मुद्रा धारण करके ( मेरी ओर कृपा की दृष्टि से) देखो॥२-३॥

अ-वृक्ष-वृक्ष-रूपासि वृक्षत्वं मे विनाशय ।

तुलस्यतुल-रूपासि तुला-कोटिनिभेऽजरे ॥४॥

अतुले त्वतुलायां हि हरिरेकोऽस्ति नान्यथा ।

त्वमेव जगतां धात्री त्वमेव विष्णु-वल्लभा ॥५॥

हे तुलसी! अवृक्ष (चैतन्य रूप) होते हुए भी तुम वृक्ष रुप में दिखाई देती हो, (इसलिए) मेरी जड़ता (वृक्षत्व) का विनाश करो। हे अतुल रूप वाली! तुम्हारी कोई तुलना नहीं है, तुम जरा-विहीन हो, करोड़ों तुलनाओं से तुम्हारी तुलना नहीं की जा सकती। हे अतुले! तुम्हारे समान केवल भगवान् विष्णु ही हैं, दूसरा कोई नहीं। तुम भगवान् विष्णु को प्रिय हो तथा संसार का पालन करने वाली हो॥

त्वमेव सुर-संसेव्या त्वमेव मोक्ष-दायिनी ।

त्वच्छायायां वसेल्लक्ष्मीस्त्वन्मूले विष्णुरव्ययः॥६॥

तुम देवताओं द्वारा सेवित हो तथा मुक्ति प्रदान करने वाली हो। तुम्हारी जड़ में भगवान् विष्णु तथा छाया में लक्ष्मी का निवास होता है॥६॥

समन्ताद्देवताः सर्वाः सिद्ध-चारण-पन्नगाः।

यन्मूले सर्व-तीर्थानि यन्मध्ये ब्रह्म-देवताः॥७॥

यदने वेद-शास्त्राणि तुलसीं तां नमाम्यहम् ।

तुलसि श्रीसखि शुभे पाप-हारिणि 'पुण्यदे ॥८॥

नमस्ते नारद-नुते नारायण-मनः प्रिये ।

ब्रह्मानन्दाश्रु-संजाते वृन्दावन-निवासिनि ॥९॥

जिसके मूल में सभी देवता, सिद्ध, चारण, नाग एवं तीर्थ चारों तरफ से स्थित हैं तथा जिसके मध्य में ब्रह्म देवता निवास करते हैं। जिनके अग्रभाग में वेद शास्त्रों का निवास है। उन तुलसी को मैं नमस्कार करता हूँ। हे तुलसी! तुम लक्ष्मी की सहेली, कल्याणप्रद, पापों का हरण करने वाली तथा पुण्यदात्री हो। ब्रह्म के आनन्द रूपी आँसुओं से उत्पन्न होने वाली तुलसी तुम वृन्दावन में निवास करने वाली हो। नारद के द्वारा स्तुत्य आपको नमस्कार है, नारायण भगवान् के मन को प्रिय लगने वाली आपको नमस्कार है॥७-९॥

सर्वावयव-संपूर्ण अमृतोपनिषद्रसे ।

त्वं मामुद्धर कल्याणि महापापाब्धिदुस्तरात् ॥१०॥

सर्वेषामपि पापानां प्रायश्चित्तं त्वमेव हि ।

देवानां च ऋषीणां च पितृणां त्वं सदा प्रिये ॥११॥

विना श्रीतुलसीं विप्रा येऽपि श्राद्धं प्रकुर्वते ।

वृथा भवति तच्छ्राद्धं पितृणां नोपगच्छति ॥१२॥

तुलसी-पत्रमुत्सृज्य यदि पूजां करोति वै ।

आसुरी सा भवेत् पूजा विष्णु-प्रीतिकरी न च ॥१३॥

यज्ञं दानं जपं तीर्थ श्राद्धं वै देवतार्चनम् ।

तर्पणं मार्जनं चान्यन्न कुर्यात्तुलसीं विना ॥१४॥

तुलसी-दारु-मणिभिः जपः सर्वार्थ-साधकः।

एवं न वेद यः कश्चित् स विप्रः श्वपचाधमः॥१५॥

हे सर्वांगपूर्णे! तुम अमृतरूपी उपनिषद् रस रूप हो, इसलिए हे कल्याण करने वाली! महापाप रूपी दुस्तर समुद्र से हमारा उद्धार करो। हे तुलसी! तुम समस्त पापों को प्रायश्चित्त रूप हो, (इसलिए) देवताओं, ऋषियों और पितरों को सदैव प्रिय हो। जो ब्राह्मण श्राद्ध में तुलसी प्रयोग नहीं करते, वह श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुँचता है, व्यर्थ हो जाता है। यदि कोई तुलसी पत्र के बिना भगवान की पूजा करता है, तो वह पूजा आसुरी हो जाती है, वह (पूजा) विष्णु भगवान् को प्रिय नहीं होती। बिना तुलसी के यज्ञ, दान, जप, तीर्थ, श्राद्ध, तर्पण, मार्जन तथा देवार्चन आदि नहीं करना चाहिए। तुलसी के मनकों को माला समस्त मनोकामनाओं को पूरा करने वाली है। इस प्रकार जो ब्राह्मण नहीं जानता, वह चाण्डाल से भी अधम है॥१०-१५॥

इत्याह भगवान् ब्रह्माणं नारायणः, ब्रह्मा नारद-सनकादिभ्यः

सनकादयो वेद-व्यासाय, वेद-व्यासः शुकाय, शुको वामदेवाय,

वामदेवो मुनिभ्यः, मुनयो मनुभ्यः प्रोचुः।

य एवं वेद स स्त्री-हत्यायाः प्रमुच्यते ।

स वीर-हत्यायाः प्रमुच्यते । स ब्रह्म-हत्यायाः प्रमुच्यते ।

स महा-भयात् प्रमुच्यते । स महा-दुःखात् प्रमुच्यते ।

देहान्ते वैकुण्ठमवाप्नोति वैकुण्ठमवाप्नोति ।

इत्युपनिषत् ॥१६॥

इस प्रकार यह तथ्य भगवान् नारायण ने ब्रह्माजी को बताया, ब्रह्माजी ने नारद और सनकादि ऋषियों को, सनकादि ने वेदव्यास को, वेदव्यास ने शुकदेव को बताया, शुकदेव ने वामदेव से कहा, वामदेव ने मुनियों को बताया तथा मुनियों ने मनुष्यों को बताया। जो इस प्रकार जानता है, वह स्त्री-हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। वह वीर (भाई) हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। वह ब्रह्म हत्या से मुक्ति पा लेता है। वह महाभय से छूट जाता है। वह महादुःख से मुक्त हो जाता है। शरीरान्त होने पर वैकुण्ठ लोक को प्राप्त करता है, (निश्चित रूप से) वैकुण्ठ लोक को प्राप्त करता है। ऐसी यह उपनिषद् है॥१६॥

(वैष्णव-उपनिषदः)

इति तुलस्युपनिषत् समाप्ता ।

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