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कर्मकाण्ड

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श्रीराम स्तुति

श्रीराम स्तुति

यह श्रीराम स्तुति श्रीरामचरितमानस के अरण्यकांड में वर्णित है, इसे अत्रि स्तुति भी कहा जाता है । प्रभु श्रीरघुनाथजी भाई लक्ष्मण और सीताजी सहित जब अत्रि के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए। शरीर पुलकित हो गया, अत्रि उठकर दौड़े। राम की छवि देखकर मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे -

अत्रि स्तुति अथवा श्रीरामचन्द्रस्तुतिः

अत्रि स्तुति अथवा श्रीरामचन्द्रस्तुतिः

अत्रि कृत श्रीरामस्तुतिः

नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥

      भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥१॥        

भक्तों के हितकारी, कृपालु और अतिकोमल स्वभाववाले ! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो निष्काम पुरुषों को अपना धाम देनेवाले हैं ऐसे आपके चरण-कमलों की मैं वन्दना करता हूँ।

निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

      प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥२॥

जो अति सुन्दर श्याम शरीरवाले, संसारसमुद्र के मन्थन के लिये मन्दराचलरूप, खिले हुए कमल के-से नेत्रोंवाले तथा मद आदि दोषों से छुड़ानेवाले हैं ।

प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

      निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥३॥

दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥

      मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥४॥ 

जिनकी भुजाएँ लंबी-लंबी और अति बलिष्ठ हैं, जिनके वैभव का कोई परिमाण नहीं है, जो धनुष, बाण और तरकश धारण किये हैं, त्रिलोकी के नाथ हैं, सूर्यकुल के भूषण हैं, शङ्कर के धनुष को तोड़नेवाले हैं, मुनिजन तथा महात्माओं को आनन्दित करनेवाले हैं, दैत्यों का दलन करनेवाले हैं।

मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥

      विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥५॥        

कामारि श्रीशङ्करजी से वन्दित हैं, ब्रह्मा आदि देवगणों से सेवित हैं, विशुद्ध बोधस्वरूप हैं, समस्त दोषों को दूर करनेवाले हैं।

नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥

      भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥६॥

श्रीलक्ष्मीजी के पति हैं, सुख की खानि हैं, संतों की एकमात्र गति हैं तथा शचीपति इन्द्र के प्यारे अनुज (उपेन्द्र) हैं; हे प्रभो ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ और सीताजी तथा भाई लक्ष्मण के साथ आपको भजता हूँ।

त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा ॥

      पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥७॥

विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥

      निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥८॥

जो लोग मद-मत्सरादि से रहित होकर आपके चरणों को भजते हैं, वे फिर इस नाना वितर्क-तरङ्गावलिपूर्ण संसार-सागर में नहीं पड़ते तथा जो एकान्तसेवी महात्मागण अपनी इन्द्रियों का संयम करके प्रसन्न-चित्त से भवबन्धविमोचन के लिये आपका भजन करते हैं, वे अपने अभीष्ट पद को पाते हैं।

तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥

      जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥९॥

भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

      स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥१०॥

जो अति निरीह, ईश्वर और सर्वव्यापक हैं, जगत्के गुरु, नित्य, जाग्रदादि अवस्थात्रय से विलक्षण और अद्वैत हैं, केवल भाव के भूखे हैं, कुयोगियों को दुर्लभ हैं, अपने भक्तों के लिये कल्पवृक्षरूप हैं तथा समस्त (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करनेयोग्य हैं, ऐसे उन (आप) अद्भुत प्रभु को में भजता हूँ।

अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

      प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥११॥

अनुपम रूपवान् राजराजेश्वर जानकीनाथ को मैं प्रणाम करता हैं। मैं आपकी बार-बार वन्दना करता हूँ; आप मुझ पर प्रसन्न होइये और मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति दीजिये ।

पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥

      व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥१२॥

जो मनुष्य इस स्तोत्र का आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे आपके भक्ति-भाव से भरकर आपके निज पद को प्राप्त होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।

इति श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासकृता श्रीरामचन्द्रस्तुतिः सम्पूर्णा ।

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