श्रीराधा सप्तशती अध्याय २
इससे पूर्व आपने श्रीराधा सप्तशती अध्याय १ बरसाने में प्रवेश को पढ़ा, अब उससे आगे अध्याय २ में श्री राधा के महल की माधुरी
का वर्णन हुआ है।
श्रीराधा सप्तशती द्वितीयोऽध्यायः
अथ द्वितीयोऽध्यायः
मधुकण्ठ उवाच
शृणु कथामग्रे श्रीराधामन्दिरे यथा ।
कृतवान् विप्रो वर्णयामि यथाक्रमम्
॥१॥
श्रीमधुकण्ठजी बोले—आगे
की कथा सुनो-ब्राह्मण (वसन्तदेव) ने श्रीराधा के मन्दिर पर प्रवेश किया,
यह मैं तुमसे क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥१॥
गुरुणा साकं स्नातो भानुसरोवरे ।
पूर्वभावेन भावितात्माभवत् क्षणात्
॥२॥
मैने श्रीगुरुजी के साथ जाकर
श्रीभानुसरोवर (वर्तमान) में स्नान किया। फिर तो जो भाव पहले कभी (कोटि कल्पों में)
ना था,
वह उनके मन में क्षणमात्र में उदित हो गया ।।२।। ।
राधिकादेव्यां तत्प्रिये तत्सखीजने
।
(ऽऽविरभूच्चित्ते
विचित्रानन्ददायिनी ॥३॥
श्रीराधादेवी के प्रति,
उनके प्रियतम (श्रीकृष्ण) के प्रति तथा सखीजन अकस्मात् विचित्र
आनन्द देनेवाली ममता उत्पन्न हो
कृतार्थश्चागतो विप्रो गुरुणा सह
तद्गृहम् ।
गुरुस्तदा समाहूय श्रीदामानं
वचोऽब्रवीत् ॥४॥
और वे ब्राह्मण कृतार्थ होकर
श्रीगुरुजी के साथ उनके घर पर आये। तब श्रीगुरुजी ने श्रीदामा को बुलाकर कहा---
॥४॥
वत्सैनमादराद् विप्रं राधागेहे
प्रवेशय ।
सख्योऽथ द्वारपास्तत्र युक्त्या
बोध्यास्त्वयैव हि ॥५॥
येन सर्वेऽनुकम्पातः स्थापयेयुरिमं
गृहे।
ततस्तं राधिकादेव्याः
श्रीदामाऽऽनीतवान् गृहम् ॥६॥
'बेटा! तुम इस ब्राह्मण को आदर से
श्रीराधा के महल में पहुंचा दो और वहाँ के द्वारपालों तथा सखियों को स्वयं ही
युक्तिपूर्वक समझा देना, जिससे सभी कृपा करके इसे महल में रख
लें।' तब श्रीदामा वसन्तदेव को श्रीराधामन्दिर में ले आये
।।५-६॥
श्रीगुरोरेष सम्बन्धी प्रबोध्यवं
सखीगणान् ।
द्वारपांश्च प्रवेशाय स्वयं
स्वालयमागमत् ॥७॥
(ब्राह्मण का उनके) महल में प्रवेश
कराने के लिये उन्होंने द्वारपालो और सखीजनों को यह समझा दिया कि 'ये श्रीगुरुजी के ही (अन्यतम) सम्बन्धी है।' तत्पश्चात्
वे अपने महल में आ गये ॥७॥
ततस्तत्कृपया शीघ्रं प्रविष्टो
भाग्यवान् द्विजः।
ददर्श प्राङ्गणादेव हर्म्य
गोपालवल्लभाम् ॥८॥
तब उन भाग्यशाली ब्राह्मण ने
श्रीदामा की कृपा से शीघ्र ही लाडिलीजी के महल के आँगन में पहुँचकर वहीं से
श्रीगोपालवल्लभा श्रीराधा का दर्शन किया ॥८॥
कोटिचन्द्रप्रतीकाशां मणिसिंहासने
स्थिताम् ।
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ तत्रैवोपविवेश
ह ॥९ ॥
वे मणिमय सिंहासन पर विराजमान थीं।
उनका कोटि-कोटि चन्द्रमाओं को लज्जित करनेवाला प्रकाश वहाँ छा रहा था। ब्राह्मण ने
बड़े हर्ष से भूमि पर लोटकर उन्हें प्रणाम किया, और कहते हैं वहीं पर वे बैठ गये ।।९।।
सखीगणमथामन्त्र्य पत्रीमादाय वाचने
।
प्रवृत्त सव विस्मयात ॥१०॥
आदरेण समालिङ्गय स्थितं
स्वप्राणवल्लभाम् ।
चकम्पे च द्विजः पत्रीमत्याने वाचये
कथम् ॥११॥
तदनन्तर सखीजनों से पूछकर वे अपनी
लिखी हुई पत्रिका को जब स्वयं ही बाँचने को उद्यत हुए,
उसी समय उन्होंने (बड़े) विस्मय से श्रीगोपाल को भी वहीं उपस्थित
देखा। वे बड़े आदर से अपनी प्राणवल्लभा का आलिङ्गन किये बैठे थे। ब्राह्मण उन्हें
देखते ही काँप उठे और सोचने लगे-'इनके मागे पत्री कैसे बाँचू?
॥१०-११॥
यदस्यामस्य सर्वापि कृतिर्विलिखिता
मया।
श्रुत्वा रोषपरीतात्मा दण्डमेव
करिष्यति ॥१२॥
'क्योंकि इसमें तो मैने इन्हीं की
सारी करतूत लिख रखी है। सुनकर ये मन-ही-मन कुपित हो जायेंगे और मुझे निश्चय ही
दण्ड देंगे ।।१२।।
प्रियासभागतं स्वीयमवमानं सहेत किम्
।
कदाचिदस्य वा देवी प्रियापि कुपिता
भवेत् ॥१३॥
'श्रीप्रियाजी की सभा के बीच अपने
अपमान को भला, ये कैसे सहन करेंगे? कदाचित्
इनकी प्रिया श्रीराधिका देवी भी मुझ पर कुपित हो जायें ॥१३॥
ततो भयार्त्तमालक्ष्य प्रोचुर्विप्रं
सखीगणाः।
मा भैषीर्विप्र गोपालं
दृष्ट्वास्मत्समुपस्थितौ ॥१४॥
तब ब्राह्मण को भयभीत देखकर सखियाँ
बोलीं-'ब्राह्मण ! तू हमलोगों की उपस्थिति में श्रीगोपाल को देखकर डर मत ।।१४॥
स्वामिनीवशगः कृष्णः सा चास्मद्वशर्तिनी।
प्राणप्रिया सदास्माकं समाराध्या
तथा सखी ॥१५॥
'श्रीकृष्ण तो श्रीस्वामिनीजी के
वश में हैं और स्वामिनीजी हमारे वश है, क्योंकि वे सदा हमारी
परम आराध्या प्राणप्यारी सखी है ।।१५।।
अस्मद्दर्शितमार्गेण स्वाभिप्रायं
निवेदय ।
सारल्यादथ भीत्या च
कार्यहानिर्भविष्यति ॥१६॥
'हमारे दिखाये हुए मार्ग से अपने
अभिप्राय को निवेदन कर। सीधेपन से और डरने से कार्य की हानि हो जायगी १६ २४
वामतात्र प्रिया विप्र
श्रीश्यामाश्यामचन्द्रयोः।
रसरीतिं त्वमनयोरज्ञात्वैव
विमुह्यसि ॥१७॥
'यहाँ श्रीश्यामा-श्याम को
टेढ़ापन बहुत अच्छा लगता है (यह इनकी अनोखी रीति है)। ब्राह्मण ! तु इनकी रसरीति को
न जानने से ही घबरा रहा है ॥१७॥
पत्रिकां पठ हर्षेण
प्रियाप्रियतमावुभौ ।
वशगौ सर्वदास्माकं न ते कोपं
करिष्यतः॥१८॥
'तू प्रसन्न होकर पत्रिका पढ़कर
सुना। प्रिया-प्रियतम तुझ पर क्रोध नहीं करेंगे; क्योंकि ये
दोनो हमारे वश में हैं' ॥१८॥
अथापि कम्पमानं तं सख्यो
दृष्ट्वानुकम्पया।
ऊचुर्मा विप्र कम्पिष्ठाः
गोपालस्त्वेष गच्छति ॥१९॥
इतना कहने पर भी उस ब्राह्मण को
काँपते देख सखियाँ कृपापूर्वक बोली-'ब्राह्मण
! तू डर मत, ये गोपालजी तो अब जा रहे हैं' ॥१९॥
गोपालवञ्चने दक्षा
उच्चैर्गोपालमब्रुवन् ।
गाः सम्भालय गोपाल गतास्ता गह्वरे
वने ॥२०॥
(ब्राह्मण से यह कहकर) श्रीगोपाल को
चकमा देने की कला में परम चतुर वे सखियाँ उच्च स्वर से गोपालजी से बोलीं-'अजी गोपालजी! जाकर (अपनी) गौओं को तो संभालिये, वे
सब गहवर वन में चली गयीं ॥२०॥
सखीनामाशु वचनं
स्वामिन्याप्यनुमोदितम् ।
अनिच्छन्नपि गोपालः
सखीचातुर्यतोऽगमत् ॥२१॥
सखियों के इस वचन का स्वामिनी ने भी
शीघ्र अनुमोदन कर दिया। फिर तो इच्छा न रहते हुए भी श्रीगोपालजी सखियों की चतुरता से
(परास्त होकर) वहाँ से उठकर चल दिये ॥२॥
प्रियालिङ्गितकक्षात्तु गच्छतः
स्वेदबिन्दवः ।
पतिता इति संलक्ष्य विप्रः
प्रेमदयान्वितः ॥२२॥
जाते समय उनके प्रियालिङ्गित कक्ष भाग
से पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरने लगीं। यह देख ब्राह्मण दया और प्रेम से भर गये
॥२२॥
वीजनायाब्रवीदस्य सखीं
व्यजनवाहिनीम् ।
भ्रूभङ्गन्या साब्रवीदेतत्करोमि
व्यजनं श्रियै ॥२३॥
तेनैव प्रेयसः स्वेदशान्तिराशु
भविष्यति ।
व्यजनार्थ तन्निरोधः किमर्थ क्रियते
त्वया ॥२४॥
वे पंखा करनेवाली सखीसे कहने लगे,
'अरी! श्रीगोपाल के पंखा तो कर दो'। वह भ्रकुटी-सञ्चालनपूर्वक
कहने लगी-'अजी ! कर तो रही हूँ श्रीजी के पंखा। इसी से
प्यारे का भी पसीना शीघ्र शान्त हो जायगा। पंखा करने के लिये तुम उन्हें—प्रियतम को
क्यो रोक रहे हो? ॥२३-२४।।
उभयोरपृथरिसद्धस्वरूपत्वमदेहि ओः।
राधा कृष्णस्वरूपां वै कृष्णं
राधास्वरूपिणम् ॥२५॥
आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।
आत्माराम इति प्रोक्तो
रसरीतिविचक्षणै: ॥२६॥
'इन दोनों का स्वरूप अपृथकसिद्ध
है। श्रीराधा को श्रीकृष्णस्वरूपा और श्रीकृष्ण को श्रीराधास्वरूप जानो। श्रीराधिका
देवी श्रीकृष्ण की आत्मा हैं, उनके साथ रमण करने से ही रस-रीति
के पण्डितों ने श्रीकृष्ण को आत्माराम कहा है ॥२५-२६॥
रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः
परमुच्यते ।
इत्याकर्ण्य सखीवाक्यं
द्विजस्तत्याज पत्रिकाम् ॥२७॥
'यह इनका रहस्य तो प्रकृति से परे
की वस्तु कहा गया है।' सखी के इस वचन को सुनकर ब्राह्मण ने
पत्रिका फेंक दी ॥२७॥
श्रीकृष्णस्य गुणानेव
श्रीराधासंनिधौ मुदा ।
शुकोक्तानपठत्प्रेम्णा तस्याः
संतोषहेतवे ॥२८॥
और श्रीराधा की संनिधि में जाकर
उनकी प्रसन्नता के लिये बड़े प्रेम और हर्ष से वे श्रीशुकप्रोक्त श्रीकृष्ण के
गुणों का ही पाठ करने लगे ।।२८।।
सखीनां मध्यतस्त्वेका प्रीत्या तं
द्विजमब्रवीत् ।
किमर्थमागतोऽसि त्वं कथमश्रूणि
मुञ्चसि ॥२९॥
प्रियायाः परमोदारे राधायाः
श्रीगृहाजिरे।
उवाच विप्रस्तां नत्वा देवि
वृन्दावने मम ॥३०॥
देवैः सुदुर्लभा जाता कामना
वासहेतवे।
सा कथं सफला मेऽस्तु तेन दोनोस्मि
साम्प्रतम् ॥३१॥
श्रीराधा की सखियों में से एक सखी
बडे प्रेम से उन ब्राह्मण देवता से बोली-'ब्राह्मण
! तू यहाँ किस कार्य से आया है ? हमारी प्यारी श्रीराधा के
शोभासम्पन्न मन्दिर के परमोदार प्राङ्गण में पहुँचकर भी तू रो क्यों रहा है ?'
उस सखी को प्रणाम करके ब्राह्मण बोला--'देवि!
मेरे मन में श्रीवृन्दावन में निवास करने की कामना उदित हुई है, जो देवताओं के लिये भी परम दुर्लभ है। भला, वह कामना
कैसे सफल होगी? यही सोचकर मैं इस समय अत्यन्त दीन हो रहा
हूँ॥२६-३१॥
प्रोवाच सा सखी विप्र सफलां विद्धि
कामनाम् ।
राधागृहाजिरे यत् ते न्यपतन्नश्रुबिन्दवः
॥३२॥
वह सखी बोली-'विप्र! तू समझ ले कि मेरी कामना सफल हो गयी; क्योकि
तेरे अश्रुविन्दु श्रीराधा-भवन के प्राङ्गण मे गिरे हैं ।।३२।।
महादयामयी राधा न सा भक्तानुपेक्षते
।
इति श्रुत्वा
सखीवाक्यमाशीर्वादात्मकं द्विजः ॥३३॥
जग्राह शिरसाऽऽत्मानं मत्वा तदनुकम्पितम्
।
विरेमे पाठतश्चापि भावावेशं गतो
द्विजः॥३४॥
'श्रीराधा महादयामयी हैं। वे अपने
भक्तों की कभी उपेक्षा नहीं करती।' सखी का यह वचन ब्राह्मण के
लिये आशीर्वादरूप था। उन्होंने उस आशीर्वाद को सिर झुकाकर ग्रहण किया और यह मान
लिया कि मुझ पर सखी की कृपा हो गयी। ऐसी मान्यता होते ही उन्हें भावावेश हो गया।
वे भागवत के श्लोकों के पाठ से भी विरत हो गये ॥३३-३४।।
सभाबिसृष्टौ मध्याह्न
श्रीप्रसादमहोत्सवे।
गोष्ठ्यामादरतो विप्रो भोजितः
श्रीसखीगणैः ॥३५॥
मध्याह्न के समय सभा-विसर्जन के
पश्चात् श्रीप्रसाद-महोत्सव की गोष्ठी मे श्रीराधा की सखियों ने ब्राह्मण को बड़े
आदर से भोजन कराया ।।३५।।
ता आमन्त्र्य ततो भक्त्या प्रणम्य च
पुनः पुनः।
वनं गह्वरमायातः
श्रीचन्द्राचरणान्तिके ॥३६॥
भोजनके पश्चात् सखियों की आज्ञा
लेकर और बारंबार भक्ति-भाव से उनको प्रणाम करके ब्राह्मण गह्वरवन में श्रीचन्द्रा
सखी के चरणों के निकट चले आये ॥३६।।
इति श्रीराधा सप्तशती द्वितीयोऽध्यायः॥
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